बड़ी माँ - भाग 4 Kishore Sharma Saraswat द्वारा फिक्शन कहानी में हिंदी पीडीएफ

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बड़ी माँ - भाग 4

4

रातभर मुरली को बेचैनी रही। उसे नींद नहीं आ रही थी। सारी रात उसके मन में यही उधेड़-बुन चलती रही कि इस लड़के का क्या किया जाए? यदि कहीं इसके घर वालों को पता चल गया तो ये हाथ से चला जाएगा। और दूसरी तरफ यह राम आसरी, जो मेरे सामने चूँ नहीं करती थी, आज मुझे आँखें दिखा रही है। सोचते-सोचते आधी रात बीत चुकी थी। मुरली उठकर बैठ गया। उसने अपने कमीज की जेब में से बीड़ी का बंडल और माचिस बाहर निकाले और फिर बीड़ी सुलगाकर उसे पीने लगा। बीड़ी खत्म होने से पहले ही उसने एक और बीड़ी निकाली और उसे पहले वाली से सुलगाकर जोर से कश खींचने लगा। हाथ आया बच्चा उसे एक कैश कार्ड से कम नहीं लग रहा था, जिसे वह हर हालत में भुनाना चाहता था। सहसा उसे कुछ मन ही मन याद आया। उसने राहत की एक साँस ली, फिर बीड़ी को खाट के पाए से रगड़कर बुझा दिया और सुबह होने की इंतजार में फिर खाट पर लेट गया।

      राम आसरी का भाई कलुआ छंटा हुआ नामी बदमाश था। कोई भी घृणित काम करने में उसे बहुत आनंद आता था। कई बार जेल की हवा खा चुका था, परन्तु फिर भी अपनी काली करतूतों से बाज नहीं आता था। उसकी इन्हीं करतूतों की वजह से राम आसरी से उसकी बिल्कुल भी नहीं बनती थी, परन्तु मुरली तो उसकी जी जान था। दोनों के विचार आपस में खूब मिलते थे। राम आसरी की शादी से पहले दोनों मिलकर धंधा किया करते थे और राम आसरी को मुरली के पल्ले बांधने की करतूत भी उसी का ही परिणाम था। बेचारी फंस चुकी थी। करती भी क्या? किसी तरह अपना समय काट रही थी। आज बच्चे के मिलने से उसके निर्जीव शरीर में जान आ गई थी। उसे लगने लगा था कि कोई तो इस धरती पर उसे मिला है, जिसके साथ वह अपना दुःख दर्द बाँट सकेगी। सुबह के चार बजे मुरली फिर उठा। बैठे-बैठे इधर-उधर झांका और फिर बीड़ी सुलगाकर उसे पीने लगा। बीड़ी पीने के पश्चात् चुप-चाप उठा और नदी के किनारे की ओर चल पड़ा। नदी के दूसरी ओर घनी झाड़ियाँ थी। वह वहाँ जाकर उन झाड़ियों में छिप गया, ताकि कोई उसे देख न ले। थोड़ा सवेरा होने लगा तो राम आसरी उठकर बाहर आँगन में निकली। देखते ही सोच में पड़ गई। खाट बीछी पड़ी थी, परन्तु मुरली नदारद था। सोचने लगी वह तो सूरज निकलने तक सोया रहता था। आज कहाँ चला गया? उसकी कुछ समझ में नहीं आ रहा था। आस-पड़ोस में भी मन की बात नहीं कह सकती थी। कहीं लोग घर आ गए तो बच्चे के बारे में सब को मालूम पड़ जाएगा। खड़े-खड़े आँखें मूँदकर थोड़ा सोचा और फिर अंदर आकर चूल्हे-चौंके के काम में लग गई। मुश्किल से आधे घंटे का समय बीता होगा, बच्चा उठकर बैठ गया और वाशरूम जाने की जिद करने लगा। राम आसरी एक बड़े संकट में पड़ गई। बच्चे को झोंपड़ी के बाहर ले जाए तो कैसे? लोग पूछेंगे तो क्या जवाब देगी? कोई समाधान न पाकर उसने बच्चे को गोद में उठाया और अपनी धोती के पल्लू से उसका सिर और चेहरा ढांप दिया। फिर वह लोगों की नज़रों से बचती हुई सुनसान जगह की ओर चल पड़ी। अभी थोड़ी दूर निकली ही थी कि सामने से दो महिलाएं चली आ रही थीं। उन्हें अचानक सामने पाकर वह थोड़ा घबराई, परन्तु फिर हौसला रखकर बोलीः

      ‘मेरा भतीजा है। भाई के साथ आया था। कुछ दिन मेरे पास ही रहेगा। थोड़ी जल्दी है, मैं चलती हूँ।’

      राम आसरी बात करते हुए उनकी बगल से आगे निकल गई। वे दोनों महिलाएं पीछे से उसकी ओर घूरती हुई नज़रों से देखती रही। राम आसरी ने कुछ दूर जाकर बच्चे को गोद से नीचे उतारा और थोड़े फांसले पर जाकर बैठ गई। उसे झाड़ियों के पीछे से किसी के चलने की आहट सुनाई दी। उस तरफ नज़र दौड़ाई तो सामने से मुरली चला आ रहा था। इससे पहले कि राम आसरी कुछ बोलती उसने अपने मुँह पर अँगुली रखकर उसे ऐसा करने से मना कर दिया। वह राम आसरी के पास आकर बोलाः

‘राम आसरी, गजब हो गया। सारा खेल ही बिगड़ गया।’

‘क्यों, कया हुआ?’ वह बोली।

मुरली ने बच्चे की ओर तीरछी आँख से देखा और फिर धीरे से बोलाः

      ‘तू तो सो रही थी। तुझे क्या पता मेरे साथ क्या बीती है? रात को पुलिस आई थी मुझे लेने के लिए। अभी सीधा कोतवाली से ही आ रहा हूँ। हड्डियाँ तोड़ दी जालिमों ने मार-मार कर। ये देख, अपनी आँखों से देख ले।’

      यह कहते हुए उसने अपनी पीठ के ऊपर से कमीज का पल्ला ऊपर उठाया। पीठ पर बने लाल निशान देखकर राम आसरी घबरा गई। बेचारी को पता ही नहीं चला कि यह निशान उस धूर्त ने स्वयं नदी के किनारे से लाल मिट्टी उठा कर बनाए हैं। पीठ की एक झलक दिखाकर उसने अपनी कमीज का पल्ला नीचे कर लिया। फिर चुपके से रोनी सूरत बनाकर राम आसरी के कान में बोलाः

      ‘पता नहीं पुलिस वालों को कैसे भनक लगी? आज सुबह ही इस लड़के के माँ-बाप को बुलाने के लिए एक सिपाही भेज दिया है और मुझे लड़के को लाने के लिए भगाया है। आते वक्त दरोगा ने बड़ी सख्त आवाज में धमकी दी है कि अगर बच्चे को लेकर दुपहर तक न आया तो तेरी घर वाली समेत तुझे हवालात में ठूँस दूँगा और साथ में डंडा परेड भी करूँगा। राम आसरी, अब बचने का एक ही उपाय है। तू इस लड़के को अभी इसी समय मेरे साथ भेज दे।’

      राम आसरी बेचारी भोली थी। उस कपटी की बातों को सच मान बैठी थी। उसे इतना भी मालूम नहीं था कि अगर रात को पुलिस वाले आए थे तो बच्चे को क्यों साथ नहीं ले गए। मन में पीड़ा तो थी ही, दबी आवाज में बोलीः

      ‘चलो अच्छी बात हुई, इसके माँ-बाप मिल गए हैं। पता नहीं कल से माँ पर क्या गुजर रही होगी। मेरा मन कर रहा है मैं भी तुम्हारे साथ चलूँ। बेचारी की हालत देखकर आऊँगी और उसे बताऊँगी कि मैंने भी बच्चे को एक माँ की तरह ही रखा है।’

      ‘तेरा भेजा तो खराब नहीं हो गया? पुलिस वाले पहले ही ताक में बैठे हैं। जान बुझकर क्यों साँप के बिल में हाथ दे रही हो।’ वह जरा ऊँची आवाज में बोल गया।

सांप का नाम सुनकर बच्चा भागकर राम आसरी के पास आ गया और पूछने लगाः

‘कहाँ है साँप?’

‘बेटा तू घबरा मत, यहाँ साँप नहीं है।’ वह बच्चे की पीठ पर हाथ रखती हुई बोली।

‘फिर ये अंकल ऐसा क्यों कह रहा था?’ उसने मुरली की ओर इशारा किया।

      ‘कुछ नहीं बेटा, तुझे भ्रम हुआ है। मैंने साँप के बारे में कोई बात ही नहीं की। मैं तो अभी-अभी तुम्हारी माँ और पिता जी को मिल कर आया हूँ और यही बात मैं इस को बता रहा था। बेटा, उन्होंने मुझे तेरे को लेने के लिए भेजा है। चलेगा न तू मेरे साथ?’ वह बच्चे को पुचकारता हुआ बोला।

      ‘नहीं, मैं तुम्हारे साथ नहीं जाऊँगा। तुम तो बुरे लोगों की तरह दिखते हो। मुझे डर लगता है तुम्हारे साथ। मैं तो इनके साथ जाऊँगा।’ वह राम आसरी का हाथ पकड़कर बोला।

      ‘बेटा, ये राम आसरी कैसे जाएगी इतनी दूर? आगे पैदल जंगल का रास्ता है। आज तेरे को छोड़ आता हूँ। राम आसरी को फिर किसी दिन लेकर आऊँगा। आ बेटा, मेरे पास आ जा। मैं तेरे को कंधे पर बैठाकर ले जाऊँगा।’ वह बच्चे के नजदीक आते हुए बोला।

      बच्चे ने राम आसरी की ओर प्रश्नात्मक दृष्टि से देखा।  उसने भी गर्दन हिलाकर बच्चे को जाने का इशारा कर दिया। अब मुरली बच्चे का एक हाथ पकड़कर उसे ऊपर उठाने की ताक में था। बच्चे ने पीछे मुड़कर देखा और राम आसरी से बोलाः

‘क्या आप भी हमारे घर आओगी।’

‘हां बेटा, मैं तुम्हारे घर जरूर आऊँगी।’ राम आसरी अपनी आँखें पोंछती हुई बोली।

‘कब आओगी?’ उसने फिर प्रश्न किया।

‘बस एक-दो दिन में।’ राम आसरी ने रूद्दी आवाज में कहा।

      ‘मुरली ने बच्चे को उठाकर अपने कंधे पर रख लिया और चलने के लिए जैसे ही पीछे मुड़ा, बच्चा उसके कंधे पर बैठा-बैठा ही राम आसरी से फिर पूछने लगाः

‘आप कौन हो? क्या लगती हो मेरी? मैं घर जाकर माँ को बताऊँगा?’

      ‘हाँ बेटा जरूर बताना। मैं तेरी बड़ी माँ हूँ।’ यह कहकर राम आसरी ने अपनी कमर को धोती के पल्लू से कस कर बांध लिया, ताकि उसे झोपड़ी तक पहुँचने की शक्ति मिल सके। फिर वह आहिस्ता-आहिस्ता चलकर किसी तरह अपनी झोंपड़ी पर पहुंची और जड़ से कटे हुए वृक्ष की भाँति अपनी खाट पर लुढ़क गई। आँखों में अंधेरा छा चुका था और दिमाग की सोचने की शक्ति क्षीण हो चुकी थी। कुछ तय नहीं कर पा रही थी कि यह क्या हो गया है और आगे क्या होने वाला है?

      मुरली, बच्चे को उठाकर बस्ती से बाहर की ओर आगे निकल गया। अगले गाँव में जाकर उसने चाय की दूकान पर बैठकर अपने और बच्चे के लिए दो कप चाय बनवाई और फिर ब्रेड लेकर स्वयं और बच्चे को भी खिलाने लगा। बच्चा देखने में सुंदर और निरोग लग रहा था। एक बस्ती में रहने वाले के साथ उस बच्चे को देखकर चाय वाला पूछने लगाः

‘किसका है? कहाँ जा रहे हो सुबह-सुबह?’

      ‘ई़़...............तो मेरी घर वाली का भतीजा है। शहर से दो दिन पहले आया था, अपनी बुआ के पास। अब शहर में रहने वाले बच्चे का मन यहाँ कहाँ लगता है। अपनी माँ के पास जाने की जिद कर रहा था। सो अब उन्हीं के पास छोड़ने जा रहा हूँ। क्यों बेटा, जाएगा न अपनी माँ के पास?’ मुरली की काक बुद्धि ने बात को घुमा दिया।

      ‘हाँ, मैं माँ के पास जाऊँगा।’ बच्चे ने भोलेपन में कहा।

बच्चे की भोली बात सुनकर चाय वाला हँसने लगा। मुरली ने भी उसको देखकर दाँत निकाल लिए। परन्तु उसकी हँसी बिल्कुल एकदम बनावटी थी। उसने अपनी नज़रें दूकान में इधर-उधर घुमाई  और फिर चाय वाले से बोलाः

‘एक लिफ़ाफ़े में थोड़े बिस्कुट भी डाल देना। रास्ते में काम आएंगे।’

      यह सुनकर चाय वाले ने बिना कुछ बोले काग़ज़ के एक लिफ़ाफ़े में आठ-दस बिस्कुट डाल दिए और उसे मुरली को पकड़ा दिया। मुरली ने अपने सिर से लपेटा हुआ परना खोला और उसके एक पल्लू में लिफ़ाफ़ा बाँध लिया। फिर चाय वाले की और देखकर पूछने लगाः

‘कितने पैसे हुए?’

‘छः रुपये पचास पैसे।’ वह बोला।

      मुरली ने चुपके से अपनी कमीज की जेब में झांका, उसमें दस-दस के दो नोट थे। उन्हें बाहर निकाले बगैर ही बोलाः 

      ‘ई तो गजब हो गया। जल्दी में पैसे तो घर पर ही भूल आया हूँ। अब क्या होगा? कैसे जा पाऊँगा शहर।’

चाय वाला बिना कोई प्रतिक्रिया किए उसकी ओर देखने लगा। मुरली ने थोड़ा सोचा और फिर बोलाः

      ‘तुम ऐसा करो मेरी चाँदी की अंगूठी अपने पास रख लो और  मुझे किराये के लिए तीस रुपये दे दो। मैं घर वापस आकर तुम्हारे पैसे लौटा दूँगा। अब घर गया तो देर हो जाएगी।’ 

यह कहते हुए मुरली अपने हाथ की अंगूठी बाहर निकालने का अभिनय करने लगा। इस अंगूठी के बहाने वह पहले भी कुछ लोगों से उधार ले चुका था। उसे अंगूठी उतारते देखकर चाय वाला बोलाः

      ‘रहने दो भैया, मुझे तुम पर भरोसा है। पैसे तुम वापस आकर दे देना। कुछ और चाहिए तो वह भी बता दो। तुम कहीं भागकर थोड़े न जा रहे हो जो अंगूठी गिरबी रखनी पड़े।’

      यह कहते हुए चाय वाले ने गल्ले में से तीस रूपये निकाले और मुरली को दे दिए। मुरली ने रुपये पकड़कर जेब में डाले और फिर उठते हुए बोलाः

      ‘भैया, बहुत मेहरबानी तुम्हारी। मेरा वक्त बरबाद होने से बच गया। नहीं तो नाहक में घर वापस जाना पड़ता।’

      ‘अरे भैया! कोई बात नहीं। काहे की मेहरबानी और काहे का एहसान? आदमी, आदमी के ही तो काम आता है। तुम अपना काम चलाओ, जब आओगे तो लौटा देना।’ वह केतली में से दूसरे ग्राहकों को चाय उडे़लता हुआ बोला।

मुरली ने बच्चे को कंघे पर उठाया और दूकान में से बाहर निकलते हुए बोलाः

‘अच्छा भैया, अब चलता हूँ।’

‘ठीक है भैया।’ चाय वाले ने जवाब दिया।

      मुरली बाहर निकलकर सीधे रास्ते से न चलकर एक सुनसान पगडंडी से होता हुआ एक छोटे से कस्बे की ओर चल पड़ा, जहाँ पर एक छोटा सा रेलवे स्टेशन था। वहाँ पर इक्का-दुक्का पैसेंजर गाड़ियाँ ही केवल पाँच मिनट के लिए रुका करती थीं। मुरली दूसरे शहर जाने के लिए पहले भी इसी स्टेशन का इस्तेमाल करता था और उसे पता था कि शाम के सात बजे भी एक पैसेंजर गाड़ी यहाँ पर रुकती है। समय व्यतीत करने के लिए वह स्टेशन से दूर एक निर्जन स्थान पर बैठ गया, ताकि दिन के समय कोई बच्चे को पहचान न ले। बच्चा थोड़ी देर बाद ही परेशान हो गया और कहने लगाः

‘चलो न माँ के पास।’

      ‘अरे चलते हैं, बेटा, चलते हैं। पैदल चलकर थक गया हूँ। उधर से एक मोटर आएगी, हम दोनों उसमें बैठकर चलेंगे।’ वह बच्चे को पुचकारता हुआ बोला।

      ‘मोटर हमें डाक बंगले पर लेकर जाएगी?’ बच्चा भोलेपन में पूछने लगा। उस अबोध को क्या पता कि इस उबड़-खाबड़ जगह पर मोटर कैसे आएगी।

‘हाँ, क्या जगह बताई तुमने?’ वह बोला।

      ‘डाक बंगला, वहीं तो रहते हैं हम सब। टींकू, रश्मि, गोपी, राजू और नेहा। मुझे रश्मि अच्छी लगती है। वो मेरे साथ खेलती है। कभी नहीं लड़ती। राजू गंदा है। वो मारता है मुझे। तुम रश्मि से मिलोगे? तुम हमारे घर बैठना, मैं तब तक रश्मि को बुला कर ले आऊँगा। तुम राजू से बात मत करना और अगर वह तुमसे बात करना भी चाहे तो तुम कह देना तुम गंदे हो। तुम बच्चों से लड़ते हो। मैं तुमसे बात नहीं करूँगा। तुम याद रखोगे, जो मैंने बोला? अगर भूल गए तो?’ बच्चा अब उससे घुल-मिलकर बातें करने लगा था।

‘नहीं भूलता। याद रखूँगा।’ वह खुश होकर बोला, क्योंकि अब बच्चा उसे परेशान नहीं कर रहा था।

      ‘अगर भूल गए तो फिर पूछ लेना। मैं तुम्हें दोबारा बता दूँगा।’ पता नहीं क्यों वह मुरली की शक्ल देखकर उसे आपकी बजाए तुम कहकर सम्बोधन करने लगा था।

बच्चे की इस बात को सुनकर मुरली ने अपनी गर्दन हिला दी। उसकी बोलने की हिम्मत जवाब दे चुकी थी। उसके अंदर छिपा पाप बच्चे की भोली बातों से आहत हो चुका था। एक बार उसके मन में आया कि वह बस्ती में वापस लौट जाए और राम आसरी की अमानत उसे सौंप दे। परन्तु दूसरे ही क्षण बुराई ने अच्छाई को परास्त कर दिया। मन ही मन सोचने लगा अरे मुरली! बच्चे की बातों से कायर मत बन। यह स्वयं ही तेरी माँद में फंसा है, तू तो इसे कहीं से उठाकर नहीं लाया। इसके घर वालों के लिए अब यह मर चुका है।  भगवान् ने अगर इसे अब तेरे पास भेजा है तो इसलिए कि यह अब तेरा है। घर में रखकर क्या करूँगा इसका? वहाँ पर तो पहले ही खाने के लाले पड़े हुए हैं और ऊपर से पकड़े जाने का डर भी है। उसे इस तरह चुपचाप देखकर बच्चा बोलाः

‘तुम अपनी माँ से डरते हो?’

‘क्यों?’ वह एकदम से चौंकाI

‘तुम चुप जो हो। वह तुम्हें ज्यादा बोलने पर डाँटती है क्या?’

मुरली के पास इस बात का जवाब नहीं था। उसने अपने निचले होंठ अपने दाँतों के बीच में दबा लिए और फिर बात टालता हुआ बोलाः

‘बिस्कुट खाओगे?’

      ‘हाँ खाऊँगा। मैं धर पर भी बिस्कुट खाता हूँ। माँ मुझे दूध के साथ बिस्कुट देती है। तुम्हारे पास तो दूध नहीं है। दूध के बिना हम कैसे खाएंगे।’ बच्चे ने जवाब दिया।

‘हम तो बिस्कुट पानी के साथ खाते हैं।’ वह बोला।

‘पानी कहाँ है?’ बच्चे ने प्रश्न किया।

‘अरे हम पानी में डाल कर नहीं खाते। पहले ऐसे ही सूखे खा जाते हैं और फिर ऊपर से पानी पी लेते हैं।’ उसने एक बिस्कुट खाकर बच्चे को दिखाया।

      अब बच्चा भी बिस्कुट उठाकर खाने लगा। सूखे बिस्कुट खाने से बच्चे को प्यास लगने लगी। वह बार-बार पानी माँगने लगा। मुरली ने उठकर इधर-उधर देखा उसे कहीं पर भी पानी नज़र नहीं आया। दिन के उजाले में उसे अपने पकड़े जाने का भय था। वह किसी तरह दिन ढ़लने की फिराक मे था। बच्चे को प्यार से कहने लगाः

‘कोई बात नहीं बेटा, मोटर थोड़ी देर में आने वाली है। बस मोटर आते ही हम उसमें बैठकर चलेंगे।’

‘मैं तो पानी पीऊँगा।’ बच्चे ने जिद की।

मुरली बेबस सा हुआ इधर-उधर देखने लगा। उसे कुछ सूझ नहीं पा रहा था कि क्या करे।’

‘पानी!’ बच्चे ने बड़ी जोर से चींख मारी।

मुरली को पसीना आने लगा। वह एकदम उठा और बच्चे की बाजू पकड़ कर बोलाः

‘चल तुझे पानी पिलाता हूँ।’

      वह उसे बाँह से पकड़कर चलने लगा। बच्चे के पाँव नंगे थे। दूसरे उसे पैदल चलने का भी बिल्कुल अभ्यास नहीं था। वह घसीटता चला जा रहा था। उसकी साँस फूल चुकी थी। हर साँस एक सीटी की सी आवाज के साथ बाहर निकल रही थी। पेट और छाती की बगल में दर्द होने लगा था। उस निर्दयी को उस पर कोई दया नहीं आ रही थी। बच्चे का पाँव एक सूखी लकड़ी के ठूंठ से टकराया और वह नीचे गिर पड़ा। पाँव के अंगूठे से खून बहने लगा। उसने जोर से चींख मारी। मुरली ने बच्चे को बाएं हाथ से पकड़कर खड़ा किया और उसके मुँह पर दाएं हाथ से एक जोर का तमाचा मारा। बच्चा जोर-जोर से रोने लगा। मुरली ने लाल-लाल आँखें निकाली और धमकी देने लगाः

‘साले चुप हो जा। अगर एक बार भी जुबान निकाली तो यहीं जमीन में गाड़ कर चला जाऊँगा।’

      बच्चा उसकी शक्ल देखकर डर गया और चुप कर गया।  परन्तु वह बहुत देर तक सिसकता रहा। मुरली ने जमीन से मिट्टी उठाई और उसे उसके अंगूठे से खून निकलने वाली जगह पर गिरा दिया। खून साफ करके उसने बच्चे को कंधे पर उठा लिया और रेलवे स्टेशन की ओर चल पड़ा। बच्चे को नींद आ गई। मुरली ने अपना परना उसके सिर और चेहरे पर गिरा दिया और लोगों की नज़रों से बचता हुआ रेलवे स्टेशन पर पहुँच गया। स्टेशन पर जाकर उसने बच्चे को बैंच पर लिटा दिया और ऊपर से उसे अपने परने से ढांप दिया। दिन भर की परेशानी, थकावट और चोट की वजह से बच्चे को बुखार हो गया। वह नींद में ही बुड़बुड़ाने लगाः

‘माँ...माँ! आप कहाँ हो? आप बोलती क्यों नहीं? ये लोग मुझे मार रहे हैं। मुझे यहाँ से ले जाओ माँ।’

      बच्चे की आवाज सुनकर मुरली के होश उड़ गए। उसने समझा कि शायद यह जाग गया है। उसने उसके मुंह पर से कपड़ा उठाया, परन्तु वह सोया पड़ा था। कपड़ा उठाते समय मुरली का हाथ असके माथे को छूँ गया। माथा बहुत गर्म था। मुरली समझ गया कि इसे तेज बुखार हो गया है। मुरली के पीछे रेलवे पुलिस का एक सिपाही खड़ा था। बच्चे की आवाज सुनकर वह बैंच के पास आया और उसने अपने हाथ में पकड़ा हुआ डंडा मुरली की पीठ के पीछे बैंच के पिछले हिस्से पर खटखटाया। मुरली ने घूमकर पीछे देखा तो उसकी घिग्घी बंध गई। इससे पहले की वह कुछ बोलता सिपाही पूछने लगाः 

‘ये लड़का कौन है?’

‘मेरा बेटा है सरकार।’ मुरली दबी आवाज में बोला।

‘कहाँ जा रहे हो?’

‘शहर जा रहा हूँ सरकार। इसे डॉक्टर को दिखाने के लिए।’

‘अच्छा।’ सिपाही अपने को सरकार कहने पर तन कर बोला।

अपने दाएं हाथ से डंडा घुमाते हुए और बाएं हाथ से अपनी मूछों को ताव देते हुए वह फिर बोलाः

‘क्या बीमारी है इसे?’

      ‘सरकार इसे कई रोज से बुखार आ रहा है। कईं छोटे डॉक्टरों को दिखाया है, पर आराम नहीं आया। अब अस्पताल में बडे़ डॉक्टर के पास लेकर जा रहा हूँ।’ वह रोनी सूरत बनाकर बोला।

      सिपाही बैंच के पीछे से आगे आया और बच्चे का हाथ पकड़ कर देखने लगा। मुरली को ऐसा लगा मानो जिस बैंच पर वह बैठा  है, वह उलटा घूम रहा है और उसका सिर नीचे की ओर और टाँगें आकाश की ओर हो गई हैं। उसकी आँखों के आगे अंधेरा सा छा गया। उसे पल-पल किसी अनहोनी का इंतजार लग रहा था। सिपाही ने बच्चे का हाथ छोड़ा और बोलाः

‘हूँ...,बहुत तेज बुखार है। इसे जल्दी से जल्दी किसी अच्छे डॉक्टर को दिखाओ।’

      सिपाही के यह शब्द सुनकर मुरली के मृत शरीर में दुबारा रक्त प्रवाह होने लगा। सिपाही की ओर हाथ जोड़कर बोलाः

‘प्रणाम सरकार।’

      सिपाही ने सुनकर कोई उत्तर नहीं दिया और अपनी मूछों को ताव देता हुआ तनकर चलता हुए दूसरी ओर निकल गया। थोड़ी देर बाद बच्चे की आँख खुली तो वह पानी माँगने लगा। मुरली ने उसे नल के पास ले जाकर पानी पिलाया और फिर कहने लगाः

      ‘अभी गाड़ी आने वाली है। हम उसमें बैठकर तुम्हारे घर चलेंगे। बच्चा सहमा हुआ था। उसने एक बार नज़र उठाकर मुरली की ओर देखा और फिर मुँह दूसरी ओर फेर लिया। मुरली ने टिकट खिड़की से टिकट ली और फिर रेहड़ी वाले से चार समोसे लेकर उसे चाय बनाने के लिए कहा। चाय और समोसे लेकर वह वापस उसी बैंच पर आकर बैठ गया। बच्चे को चाय और समोसा देने लगा तो उसने लेने से इंकार कर दिया। मुरली ने दो समोसे और चाय ली और बाकी दोनों समोसे कागज में लपेटकर अपने परने के पल्लू में बांध लिए। इतने में गाड़ी के आने की आवाज सुनाई दी। मुरली ने बच्चे को उठाया और प्लेटफार्म पर खड़ा होकर उसके रुकने का इंतजार करने लगा। सहसा उसे ख्याल आया तो बच्चे से कहने लगाः

‘देख बेटा, अब हम तुम्हारे घर जा रहे हैं। रास्ते में रोना नहीं और आराम से चुपचाप बैठे रहना।’

      बच्चे ने गर्दन हिलाकर अपनी सहमति दी। पूरे छः बजकर पचपन मिनट पर गाड़ी आकर स्टेशन पर रुक गई। उतरने और चढ़ने वाली सवारियाँ बहुत कम थी। मुरली ने एक बार दाएं-बाएं देखा और फिर गाड़ी में चढ़कर एक कोने वाली सीट पर दुबक कर बैठ गया।   बच्चा भूख और बीमारी के कारण काफी निढाल हो चुका था। मुरली ने उसे अपनी गोद में लिटा लिया और परने से ढांप दिया। बगल में बैठे एक दम्पति बच्चे की माँ को साथ न पाकर पूछने लगेः

‘भाई साहब, बच्चे की माँ नहीं है क्या?’

मुरली ने जवाब देने की बजाय बच्चे के चेहरे के ऊपर से थोड़ा कपड़ा उठाकर देखा, उसकी आँखें खुली हुई थी। कपड़े को उसी तरह रख कर बोलाः

      ‘इसकी माँ के पास ही लेकर जा रहा हूँ। यहाँ किसी रिश्तेदार के घर आए थे। इसे तेज बुखार हो गया है। दवाई दी थी, पर आराम नहीं आया। इसलिए रात की गाड़ी से ही वापस जाना पड़ गया है।’

उस महिला ने बच्चे के माथे को छूआ। बुखार काफी तेज था। उसने कपड़ों से भरे अपने बैग की जेब में से क्रोसीन की एक गोली निकाली और उसके दो हिस्से करके, एक टुकड़ा मुरली को देते हुए बोलीः

‘लो भाई साहब, ये दवाई इसे पानी के साथ दे दो।’

      मुरली ने उस महिला से दवाई और पानी का गिलास लिया और बच्चे को खिलाने लगा। परन्तु बच्चे ने दवाई लेने के लिए मुंह  नहीं खोला और अपनी गर्दन इधर-उधर घुमाने लगा। उसे इस प्रकार हरकत करते देखकर वह महिला हँसती हुई बोलीः

      ‘भाई साहब, बच्चे पालना आदमी के बस की बात नहीं है। लाओ इसे मेरे पास दे दो, देखना फिर किस तरह अपने आप दवाई लेता है।’

      मुरली के भीतर छुपा भय उसे अंदर ही अंदर खाए जा रहा था। डर के मारे उसके हाथ काँपने लगे थे। उसकी यह मनोदशा देख कर वह महिला ढांढस बंधाती हुई बोलीः

      ‘भाई साहब, घबराने की जरूरत नहीं है। आप हौसला रखें।  बच्चे को कुछ नहीं होने वाला है। मैं इसे दवाई दे देती हूँ। घंटे-दो घंटे में बुखार उतर जाएगा। लाओ पकड़ाओ मेरे पास।’ वह बच्चे को लेने के लिए हाथ फैलाती हुई बोली।

      मुरली ने काँपते हाथों से बच्चे को उस महिला को पकड़ा दिया। दवाई की आधी गोली को अपने दाएं हाथ के अंगुठे और अँगुली में दबाकर वह बच्चे से कहने लगीः

      ‘लो बेटा, मेरा अच्छा बेटा बनकर दवाई ले ले। बस फिर देखना थोड़ी देर में बुखार छू-मंत्र होकर भाग जाएगा। तुम्हें नज़र भी नहीं आएगा, जब वह उस खिड़की से दुम भगाकर भागेगा।’

      ‘मैं नी लूँगा दवाई। मैं तो अपनी माँ के पास जाऊँगा। मेरी माँ कहाँ है?’ वह बड़ी दबी और कमजोर आवाज में बोला।

‘बेटा, माँ के पास ही तो जा रहे हैं तुझे लेकर। शाबाश बेटा, मेरा प्यारा सा मुन्ना बनकर दवाई लेले।’ वह उसे बहलाने लगी।

‘आप चलोगी मेरे साथ माँ के पास?’ उसने प्रश्न किया।

‘क्यों नहीं चलूँगी, जरूर चलूँगी तेरे साथ। पर तुझे मेरी एक बात माननी होगी। बोल मानेगा मेरी बात?’

‘हाँ।’, बच्चे ने गर्दन हिलाई ।

      ‘तो फिर बेटा ये गोली खा ले।’ वह बच्चे के मुँह की ओर दवाई की गोली करती हुई बोली। बच्चे ने स्वीकृति स्वरूप अपना मुँह खोल दिया और उस महिला ने वह गोली उसके मुँह में डाल कर ऊपर से पानी पिला दिया। गोली निगलने के पश्चात् बच्चे ने अपना मुंह  बंद कर लिया।

‘बेटा, मुँह खोलना। देखती हूँ तूने गोली खाई भी है कि नहीं?’ वह बोली।

‘आ-आ।’ बच्चे ने अपना मुँह खोलकर उस महिला को दिखा दिया।

‘शाबाश! मेरे मुन्ना राजा।’ वह महिला उसके गाल पर हलकी  सी  अंगुलियाँ लगाती हुई बोली। 

      बच्चा, महिला की गोद में माँ का आभास पाकर खुश हो गया था। उसका आधा बुखार तो उसके प्यार भरे स्पर्श से ही गायब हो चुका था। थोड़ी देर के लिए वह अपने सारे दुःख भूल चुका था। मुरली के मन में उपजा भय भी अब खत्म हो चला था। वह अब आश्वस्त को चुका था कि इन लोगों को बच्चे के बारे में कोई पता नहीं चला है। वह अपने ही विचारों में खोया हुआ था। शहर पहुँच कर कलुआ के पास कैसे जाना है? पता नहीं वह अकेला होगा या कोई और भी होगा उसके साथ? उससे क्या बात करनी है और कैसे? बड़ा चालाक आदमी है, पूरा हिस्सा देगा भी की नहीं? ना जाने रह-रह कर क्या-क्या ख्याल उसके धूर्त दिमाग मे धमाचौकड़ी मचा रहे थे। अचानक गाड़ी ने कू की आवाज निकाली तो उसकी तंद्रा टूटी और वह खिड़की से बाहर की ओर झांकने लगा। बाहर स्टेशन की बतियाँ जग रही थीं। गाड़ी ने एक जरक ली और रुक गई। उतरने वाले लोग खड़े हो रहे थें। बाहर गाड़ी में चढ़ने वालों की भी अच्छी खासी भीड़ थी। खाने पीने का सामान बेचने वाले लड़के भी जोर-जोर से आवाज निकालते हुए इधर से उधर आ जा रहे थें। पति-पत्नी, बच्चे के साथ बातें करने में इतने मशगूल थे कि आने वाले स्टेशन पर उतरने के लिए अपने आप को तैयार नहीं कर पा रहे थे। गाड़ी के एकदम रुकने पर उन्हें इसका आभास हुआ तो हड़बड़ाहट में उठे और बच्चे को मुरली की गोद में रखते हुए अपना सामान समेटकर उतरने के लिए आगे की ओर बढ़े। यह सब इतना जल्दी हुआ कि उन्हें कुछ कहने और सुनने का कोई मौका ही नहीं मिला। बच्चे ने गोद में पड़ते ही जोर से चींख मारी और बिलखते हुए कहने लगाः

      ‘आंटी, मुझे अपने साथ ले चलो, मुझे यहाँ मत छोड़ो। ये मुझे मारता है। मैं इसके पास नहीं रहूँगा।’

      परन्तु बच्चे की आवाज शोर में दब कर रह गई। वह चींखता रहा पर उसकी पुकार सुनने वाला कोई नहीं था। उतरने वाले यात्री चले गए थे और कुछ नव आगन्तुक उनका स्थान ग्रहण कर चुके थें। गाड़ी की कूक के सार्थ इंजन से छुक-छुक की आवाज आई और फिर गाड़ी अपने गन्तव्य की ओर चल पड़ी। दवाई से बच्चे को कुछ राहत मिली और वह सो गया।

      रात के ग्यारह बजे के लगभग गाड़ी शहर पहुँची। मुरली ने बच्चे को कंधे पर उठाया और प्लेटफार्म से बाहर निकलकर लोगों और पुलिस की नज़रों से बचता हुआ गलियों के रास्ते से कलुआ के घर पहुँचा। कमरे का दरवाजा अंदर से बंद था और अंदर अंधेरा था। परन्तु वह अभी पूरी तरह सोया हुआ नहीं था। हलका-हलका नशे का खुमार था। मुरली ने अपने दाएं हाथ से दरवाजे पर हलकी सी दस्तक दीं। अंदर से कोई आवाज नहीं आई। उसने फिर दरवाजा खटखटाया, परन्तु फिर भी कोई प्रतिक्रिया नहीं हुई। कलुआ को डर सता रहा था कि कहीं बाहर पुलिस न हो। ऐसा उसके साथ पहले कई बार हो चुका थां। शहर में जब भी कोई अप्रिय घटना घटती तो पुलिस अकसर आकर उसे पूछताछ हेतु थाने ले जाती। जब तीसरी बार दरवाजा थपथपाया गया तो कलुआ ने दरवाजे में बने झरोखे में से बाहर झाँक कर देखा। अंधेरे मे यद्यपि साफ नज़र नहीं आया फिर भी वह समझ गया कि बाहर पुलिस नहीं है। उसने धीरे से दरवाजा खोला और बोलाः

      ‘कौन हो?’

‘अरे! मैं मुरली हूँ, अंदर चलो।’ वह धीरे से बोला।

‘इतनी रात गये आए हो, खैर तो है? और ये तुम्हारे कंधे पर क्या है?’ कलुआ ने पूछा।

‘थोड़ा सब्र करो, बताता हूँ, और हाँ पहले दरवाजा बंद करो।’ मुरली ने फिर धीरे से कहा।

      कलुआ ने दरवाजा बंद करके अंदर से चिटकनी लगा दी और फिर रोशनी करके मुरली की ओर देखने लगा। मुरली ने सोते हुए बच्चे को खाट पर लिटा दिया। कलुआ ने फिर हाथ हिलाकर पूछा:

‘कौन है?’

‘अरे कौन होगा? लाटरी लगी है। देख नहीं रहे हो।’ मुरली ने सामने पड़ी देशी शराब की बोतल, जिसे कलुआ आधी चढ़ा चुका था, को ललचाई नज़रों से देखते हुए जवाब दिया। 

‘कहाँ से हाथ लगा है?’ कलुआ ने पुनः प्रश्न किया।

‘अरे! ऊपर वाले ने दिया है।’ मुरली छत की ओर अँगुली करके बोला।

कलुआ को थोड़ा नशा हो चला था। सुनकर बोलाः

‘उसे छत पर क्यों भेज दिया। उसे भी नीये बुला लो।’

कलुआ को चढ़े नशे को देखकर मुरली के मुँह में पानी आने लगा था। बोलाः

      ‘साले! जीजा कोई फोकट मे थोडे़ न बोलता है। जुबान की गाड़ी को धक्का देने के लिए उसमें पैट्रोल डालना पड़ता है। समझा?  पहले जीजा की सेवा कर तभी मेवा मिलेगा। हूँ।’  

कलुआ ने उठकर बोतल में से गिलास में शराब उड़ेली और उसमें थोड़ा सा पानी डालकर मुरली को गिलास थमा दिया। मुरली  आँखें बंद करके पूरा गिलास एक ही साँस में गले से नीचे उतार गया। वह दोबारा डालने लगा तो मुरली ने उसे रोक दिया और बोलाः 

‘अभी रुक जा। पहले उसे ठिकाने पर पहुँचा दें, फिर जमकर पीएंगे।’

‘बिल्कुल ठीक सोचा तुमने।’ कलुआ बोतल और गिलास नीचे रखता हुआ बोला।

      ‘कितने का माल होगा?’ मुरली ने प्रश्न किया।

‘अरे! अभी किस काम का? किसी की गोद में थमाना पड़ेगा साल-दो साल।’ कलुआ ने जवाब दिया।  

      ‘देख तू साला हर बार मुझे लूटने की कोशिश करता है। तू किसी तीसरे को लूटले, मुझे कोई एतराज नहीं। पर आपस में धंधा साफ होना चाहिए।’ मुरली उसे नसीहत देने लगा। 

      ‘अरे! इसमें सुनाने की क्या बात है? अगर कभी औना-पौना हो भी गया तो क्या गजब हो गया। छोटे साले का तो हक बनता है।  जीजा से लेने का।’ कलुआ हँसता हुआ बोला।

सुनकर मुरली ने भी दाँत निकाल लिए। थोड़ी देर सोचने के बाद मुरली पूछने लगाः

‘अब क्या करें?’

      ‘जो कुछ भी करना है, अभी करना पड़ेगा। सुबह तो इसे लेकर जाना मुश्किल हो जाएगा।’ कलुआ कुछ गंभीर होकर बोला। 

‘फिर क्या सोचा है?’ मुरली ने फिर प्रश्न किया।

      ‘ऐसा करते हैं, तुम यहीं इसके पास ठहरो। मैं जग्गू के अड्डे पर होकर आता हूँ। फिर जैसा वह कहेगा वैसा कर लेंगे।’ कलुआ उठता हुआ बोला। 

      कलुआ बाहर निकला तो मुरली ने अंदर के चिटकनी बंद करली और फिर खाट पर बैठकर बीड़ी पीने लगा। शाम से कुछ खाया-पीया नहीं था, इसलिए उसे भूख भी सताने लगी थी। उसने बीड़ी के बाकी बचे टुकड़े को फर्श पर रगड़कर बुझाया और उठकर खाने-पीने के लिए कुछ ढूंढने लगा। एक पैकट में ब्रैड के कुछ बासी टुकड़े पड़े थे और पास ही में एक प्याली में थोड़ा आचार पड़ा था। मुरली ने ब्रेड के टुकड़े आचार के साथ चबाए और ऊपर से पानी का गिलास पीकर उन्हें गले के नीचे उतार लिया। फिर उसने बीड़ी सुलगाई और खाट पर बैठकर उसे पीने लगा।

      कलुआ जब जग्गू के अड्डे पर पहुँचा तो रात के बारह बजे  से ऊपर का समय हो चुका था। जग्गू के साथ दो आदमी और बैठे थे तथा शराब का दौर चल रहा था। जग्गू का ध्ंधा वैसे भी रात के दस बजे के बाद ही शुरू होता था। कौन कितना कमा कर लाया, कल किस-किस को कहाँ-कहाँ पर जाना है, यह सब बारह बजे के तक निपटा लिया जाता था और उसके पश्चात् खाने और पीने का काम इत्मीनान से होता था। दिन का समय ज्यादातर नींद में ही बीतता था। कलुआ अभी कमरे में घुसा ही था कि जग्गू पहले ही बोल पड़ाः

‘कल्लु भाई, कैसे हो? आज कैसे आना हुआ इधर? सब खैरियत तो है न।’

‘सब आपकी दुआ है भाई। बिल्कुल मज़े में हूँ। तुम सुनाओ कैसे हो? कैसा चल रहा है धंघा?’

‘भाई तुम जैसे दोस्त के होते हुए धंधा मंदा हो सकता है क्या?’ जग्गू अपने हाथ में पकड़े हुए गिलास को एक ही घूँट में खाली करता हुआ बोला।

      ‘भाई, खाली खबर नहीं, माल लाया हूँ।’ कलुआ ने जवाब दिया।

‘कोई लौंडिया है क्या?’ जग्गू उत्सुकतावश बोला। 

‘न तो।’

‘तो क्या काली कमाई लाए हो?’ जग्गू बीच में ही बोल पड़ा।

      ‘अरे भाई नहीं, तीन-चार साल का एक लड़का है। बडे़ काम की चीज है। अभी से शुरू करोगे तो जवानी तक पहुँचते-पहुँचते धंधे  का मास्टर हो जाएगा। घाटे का सौदा बिल्कुल नहीं है। बोलो कितना दोगे?’ कलुआ मोल भाव करने लगा। 

‘चीज तुम्हारी है, तुम बोलो।’ जग्गू बोला।

‘दस तो जायज हैं। इतने तो दे ही दो।’ कलुआ ने जवाब दिया।

      ‘भाई, दस तो वारा नहीं खाते। दो साल तो पिल्ले को खुद खिलाना पड़ेगा तब कहीं जाकर धंधे के काबिल होगा। कुछ नीचे आओ।’ जग्गू ने तर्क दिया।

‘तो तुम ही बता दो कितना दोगे?’ कलुआ बोला।

‘इससे ऊपर नहीं।’ जग्गू अपने दाएं हाथ के पंजे को दिखाता हुआ बोला।

‘एक बार फिर सोच लो।’

‘मैंने सोच कर ही बताया है।’ जग्गू दृढ़ता से बोला।

      ‘तुम्हारी मर्जी। लाओ हजार पेशगी दो। मेरे साथ मुरली भी है। वही लेकर आया है उसे। उसके सामने चार ही की बात करना, कभी भंडा फोड़ दो।’ कलुआ उसे समझाता हुआ बोला।

      ‘तू यार फिकर मत कर। अपना तेरे साथ पुराना धंधा है। क्या कभी ऐसा हुआ पहले जो अब करेंगे। तेरे मुँह से ऐसी हलकी बातें शोभा नहीं देती।’ जग्गू उसे एक हजार रुपये थमाता हुआ बोला।

      कलुआ ने रुपये अपनी जेब में डाले और फिर उठकर गलियों  के रास्ते से होता हुआ अपने घर की ओर चल पड़ा। घर पहुँचा तो मुरली अभी भी बीड़ी के कश खींच रहा था। कलुआ के घर के अंदर  पहुँचते ही बड़ी बेसब्री से पूछने लगाः

      ‘कितने में तय हुआ सौदा?’

‘बड़ी मुश्किल से चार में मनाया है। वह तो दो से ऊपर जा ही नहीं रहा था।’

‘क्यों?’

‘बोल रहा था पिल्ले को पालूँगा या धंधा करवाऊँगा। बहुत छोटा है।’ कलुआ ने बात बनाई।

      ‘बड़ा घटिया किस्म का आदमी है। हमेशा लूटने की फिराक में रहता है।’ मुरली अपने को तसल्ली देता हुआ बोला।

      ‘तुम ठीक कहते हो।’ कलुआ ने हाँ में हाँ मिलाई।

      बच्चे ने करवट बदली तो दोनों के कान खड़े हो गए। उसकी ओर देखता हुआ कलुआ बोलाः

      ‘साला रास्ते में कहीं तंग न करे। इसका पहले ही कुछ इंतजाम करना पड़ेगा।’

      यह कहकर कलुआ एक डिब्बे में से एक गोली निकाल कर लाया। फिर उसने उसे एक प्याली में थोड़ा पानी डाल कर मिलाया और सोते हुए बच्चे का मुँह खोल कर घोल उसके अंदर उडे़ल दिया। बच्चा उठने लगा तो कलुआ ने उसका मुँह अपने दाएं हाथ से बंद करके उसे पानी घूँटने पर विवश कर दिया। थोड़ी देर बाद ही बच्चा नशे में बेहोश सा हो गया।

      मुरली ने बच्चे को उठाकर कंधे पर लिटा लिया और ऊपर  से एक चादर ओढ़ ली। फिर दोनों बाहर निकले। कलुआ ने दरवाजा बंद किया और मुरली से थोड़ी दूरी बनाकर आगे-आगे चलने लगा। अंधेरी और तंग गलियों से होते हुए दोनों जग्गू के अड्डे पर पहुँचे।  लड़के को देखकर जग्गू बनता हुआ बोलाः

      ‘ओ कल्लु! मैंने क्या यहाँ पर बच्चों का अनाथालय खोल  रखा है, जो इस खिलौने को मेरे पास ले आए हो। मैं क्या करूँगा इसका? इसे तुम अपने पास ही रखो। मैंने तो सोचा था कि कोई होगा छः-सात साल का लड़का, धंधे में आराम से चल जाएगा। इस पिल्ले को तो उलटा दूध पिलाना पड़ेगा।’

      यह कहकर जग्गू अपने पास बैठे दूसरे बदमाशों की ओर देखकर खिसयानी बिल्ली की तरह दाँत निकालकर हीं-हीं करने लगा। कलुआ भी मुरली का बेवकूफ बनाते हुए कहने लगाः

      ‘भाई, इसे लेकर कहाँ जाएंगे, रख लो। जैसा भी है सौदा घाटे का नहीं है। किसी लौंडिया की गोद में थमा देना। दूसरों को तरस खाने के लिए अच्छा नमूना बन जाएगा।’

      ‘कल्लू, तू कहता है तो रख लेता हूँ। तू हमारा पुराना साथी है। अब छोटी सी बात के लिए तुझे नाराज करना मुझे अच्छा नहीं लगता। काली, जा इस पिल्ले को अंदर छोड़ आओ और इन्हें दो दे दो।’ जग्गू अपने पास बैठे आदमी को इशारा करता हुआ बोला।

      ‘नहीं भाई, ऐसी बेइंसाफी मत करो। सौदा चार में तय हुआ था। सो अपनी जुबान पर कायम रहते हुए चार ही दो।’ कलुआ जरा दबी आवाज में बोलाः

जग्गू ने अपनी दोनों आँखें भींचकर थोड़ा नाटक किया और फिर बोलाः

‘ठीक है, तू भी क्या याद रखेगा कि जग्गू भाई से पाला पड़ा था। कालीचरण इन्हें चार ही दे दो, क्यों नाराज करें।’ वह कलुआ की ओर आँख दबाता हुआ बोला।

कालीचरण ने चार हजार रुपये निकालकर कलुआ को दे दिए। कलुआ ने दो हजार रुपये अपने पास रख लिए और दो हजार मुरली को दे दिए। रुपयों को अपनी जेब में डालने के बाद कलुआ बोलाः

‘भाई, जाने से पहले कुछ पार्टी के नाम पर भी हो जाए।’

      जग्गू ने कालीचरण को आँख का इशारा किया और उसने अंगे्रजी शराब की दो बोतलें निकालकर दोनों को एक-एक थमा दी। बोतलें लेकर दोनों ने उन्हें अपनी कमर पर दबा लिया और फिर घर की ओर चल पड़े। आँखों में सियार की तरह शैतानी और चाल में चीते जैसी लपक के साथ वे गलियों से होते हुए घर पहुँचे। आचार की प्याली बीच में रखकर दोनों ने पीना शुरू कर दिया। सुबह होते-होते दोनों बोतले खाली हो चुकी थी। कलुआ उठकर खाट पर लेट गया। परन्तु मुरली किसी भी तरह बस्ती में वापस पहुँचना चाहता था। वह किसी भी सूरत में राम आसरी को सच्चाई का पता नहीं लगने देना चाहता था। वह तो उसे ख्यालों के उसी अंधेरे में रखना चाहता था जिसमें वह उसे छोड़कर आया था। वह धक्के खाता हुआ उठा और कमरे से बाहर निकल गया। दो कदम आगे की ओर चला और फिर मुड़कर दरवाजा मोड़ दिया। इधर-उधर धक्के खाता हुआ बड़ी मुश्किल से रेलवे स्टेशन पर पहुँचा। आँखों के आगे पूरा अंधेरा छाया हुआ था और किसी भी चीज के बारे में आभास नहीं कर पा रहा था कि वह दूर है या नजदीक। काँपते हाथों से किसी तरह जेब से एक सौ रुपये का नोट निकाला ओर टिकट खिड़की पर जाकर एक टिकट लिया। खिड़की पर बैठे बाबू ने बाकी पैसे वापस किए तो कहने लगाः

      ‘यह पैसे तुम अपने पास रखो। मुरली दी हुई चीज कभी किसी से वापस नहीं लेता। तू अभी बच्चा है, मुरली को नहीं जानता। मुरली राजा है राजा। बड़ा आया मुरली को खरैत देने वाला।’

उसने एक लचक खाई और गिरते हुए बचा। टिकट खिड़की पर बैठे बाबू ने आवाज लगाईः

‘मुरली!’

मुरली ने गर्दन घुमाकर उसकी ओर देखा। बाबू ने फिर पूछाः

‘तुम्हारा नाम मुरली है न?’

‘हाँं तो, क्या बात है? मुरली क्या राजा नहीं हो सकता?’

‘हो सकता है, क्यों नहीं हो सकता?’ वह बोला।

‘फिर शक क्यों करता है?’ मुरली धक्का खाता हुआ बोला।

      ‘बाबू समझ चुका था कि इसने पी रखी है। वह सुबह-सुबह उससे उलझना नहीं चाहता था। इसलिए बड़े प्यार से बोलाः

‘राजा साहब, आपके सत्तर रुपये बाकी हैं। इन्हें उठा लो, आगे काम आएंगे तुम्हारे।’

      ‘एक बार कह दिया न तुम रख लो। घर जाते वक्त अपने बच्चों के लिए मिठाई ले जाना।’ कहते हुए मुरली प्लेटफार्म की तरफ चल पड़ा।

गाड़ी आने में अभी बीस मिनट बाकी थे। प्लेटफार्म पर एक दूसरी ट्रेन छूटने वाली थी। मुरली अभी गाड़ी से दस-पंद्रह कदम दूर था। इंजन से कू की आवाज आई और गाड़ी धीरे-धीरे आगे की ओर सरकने लगी। मुरली धक्के खाता हुआ दरवाजे की ओर लपका। नशे में न तो पायदान का और न ही दरवाजे के साथ लगे हैण्डल का सही अंदाजा लगा पाया। सीधा नीचे जाकर पड़ा। घुटनों के ऊपर से दोनों टाँगें कट चुकी थी। गाड़ी निकलने तक खून भी बहुत निकल चुका था। चारों तरफ लोग इकट्ठे हो गए। इससे पहले कि कोई उपचार किया जाता, वह भगवान को प्यारा हो गया। टिकट खिड़की पर कोई यात्री नहीं था तो शोर सुनकर टिकटों वाला बाबू भी देखने के लिए वहाँ आ पहुँचा। ओह! यह क्या? दो मिनट में ही मुरली राजा का राज पाठ छूट चुका था। इतनी देर में पुलिस भी आ गई। तलाशी ली गई, परन्तु जेब में से एक हजार नौ सौ बीस रुपयों के अतिरिक्त कुछ नहीं मिला। पंचनामा बनाकर उन्हें सुरक्षित रख लिया गया। अब समस्या यह जानने की थी कि यह आदमी कौन है? कहाँ से आया है, और कहाँ का रहने वाला है? इसका पता कैसे लगाया जाए? क्योंकि खिड़की पर बैठा बाबू उसका नाम जान चुका था, इसलिए नाम के बारे में उसने पुलिस को पूरी बात बता दी। यह बात शहर में भी फैल चुकी थी कि मुरली नाम का कोई आदमी आज सुबह गाड़ी से कट कर मर गया है। कलुआ को जब इस खबर की भनक लगी तो उसने कोई प्रतिक्रिया नहीं की। उसने न ही तो किसी को इस बारे में बताया और न ही वह उसे देखने के लिए गया। वह पुलिस और लोगों के सामने उससे अपने किसी भी प्रकार के सम्बन्ध उजागर नहीं करना चाहता था। पहले दोनों दूसरे शहर में मिलकर धंधा करते थे। काफी समय पहले एक घटना को अंजाम देने के बाद से दोनों फरार चल रहे थे। कलुआ इस शहर में चोरी-छिपे छोटे-मोटे धंधे करने लगा था और मुरली देहात में जाकर रेत-बजरी के ठेकेदार के पास मजदूरी करने लगा था, ताकि कुछ समय तक शहर से दूर रहकर बात के रफा-दफा होने तक बचा जा सके। फिर भी बीच-बीच में दोनों का मिलन होता रहता था। और आज यही कारण था कि कलुआ उसकी मृत्यु पर अपना एक आँसू तक बहाना नहीं चाहता था।

      पुलिस ने मुरली का पोस्टमार्टम करवाने के पश्चात् उसका शव शवगृह में रखवा दिया और दूसरे दिन समाचार पत्रों में उसकी फोटो सहित एक खबर भी निकलवा दी, ताकि उसके परिजन अगर कोई हों तो वे आकर मुरली के मृत शरीर को दाह-संस्कार हेतु ले जाएं। राम आसरी तो बेचारी शहर से दूर मजदूर बस्ती में बैठी मुरली  के वापस आने का इंतजार कर रही थी। उसे अखबार में निकली खबर का क्या ज्ञान था और न ही उसे कोई इस बारे में बताने वाला था। आखिर दो दिन बीत जाने के बाद पुलिस ने शहर की एक समाज सेवी संस्था के माध्यम से मुरली का अंतिम दाह-संस्कार करवा दिया। दो दिन बीत जाने के बाद भी मुरली के वापस न आने के कारण राम- आसरी के मन में रह-रह कर पता नहीं क्या-क्या विचार आ रहे थे? एक बात ने तो उसके मन में पक्का घर कर लिया था कि हो न हो मुरली को पुलिस ने पकड़कर हवालात में बंद कर दिया होगा। पास-पड़ोस की महिलाएं भी ढांढस बंधाती कि घबराने की कोई बात नहीं है, एक-दो दिन में धक्के खाकर खुद ही वापस आ जाएगा। पहले भी शराब पीकर उसके बाहर रहने के बारे में सब को पता था, इसलिए किसी ने भी इस बात को गंभीरता से नहीं लिया। हाँ, राम आसरी बहुत परेशान और घबराई हुई थी। वह जैसा भी था पर अब तो उसका पति था। उसकी छाया में रूखा-सूखा खाकर भी उसे संतोष था। अकेली जाए भी तो कहाँ? मुरली संदिग्ध चरित्र का आदमी था, इसलिए बस्ती वाले उससे ज्यादातर कंनी ही काटते थे। रहे उसके पत्ते और शराब की चौकड़ी वाले, वह कभी अपने घरवालों के नहीं हुए तो मुरली के क्या होते? वे राम आसरी की बातें सुन-सुन कर हँसने और मजाक करने लगे। मुरली के न आने की वजह से राम आसरी अपने आप को पूरी बस्ती में अकेली महसूस करने लगी थी।

      उधर नशे की वजह से बच्चा सुबह देर से सोकर उठा। बैठ कर इधर-उधर देखने लगा। उसे हर चीज अजीब सी लग रही थी। टूटा-फूटा सा कमरा, गंदे कपडे़ और बीगड़ी सूरत के कुछ लड़के और लड़कियाँ जो एक अजनबी की नज़रों से उसे घूर रहे थे। बच्चे ने एक बार नज़र घुमाकर सबकी ओर बारी-बारी से देखा। सभी की निगाहें उस पर टिकी हुई थी। वह थोड़ा घबराया और फिर बारी-बारी से उनकी ओर देखने लगा। किसी ने एक आवाज तक नहीं निकाली। उसने अपने नीचे के होंठों को दो-तीन बार ऊपर नीचे किया और फिर जोर से एक चींख मारी। उसके रोने की आवाज सुनकर दूसरे लड़के और लड़कियाँ कोने की ओर दुबक कर बैठ गए। चींख की आवाज जग्गू के कानों में भी पड़ चुकी थी। बिस्तर पर लेटा-लेटा ही कालीचरण से कहने लगाः

‘लगता है पिल्ले को होश आ गया है। उसे दूसरे कमरे में ले जाकर धंधे के लिए तैयार कर दो।’

कालीचरण उठकर चलने लगा तो जग्गू पीछे से फिर बोलाः

‘और हाँ, टाँग तोड़ने से पहले साले को नशे का इंजेक्शन दे देना, नहीं तो शोर मचाएगा।’

      स्वीकृति स्वरूप कालीचरण ने अपनी गर्दन हिला दी और कमरे की ओर चल पड़ा। जग्गू मुँह मोड़कर खर्राटे मारने लगा। कालीचरण ने ज्योंही कमरे में प्रवेश किया उसे देखकर सभी डर के मारे काँपने लगे। बच्चे की ओर आँखें निकालते हुए वह जोर से चिल्लायाः 

‘चुप.............’

      बच्चा घबराकर धीरे-घीरे सिसकियाँ भरने लगा। कालीचरण उसके नजदीक खड़ा होकर उसे गौर से देखने लगा। बच्चे ने उसकी घूरती हुई आँखों की ओर देखा और डर के मारे सहम गया। उसकी हालत उस कबूतर की तरह हो गई थी जिसके आगे उसे झपटने के लिए बिल्ली घात लगाए बैठी हो और आवाज उस बकरे की तरह शाँत हो गई थी, जिसकी गर्दन पर छुरा चलाने के लिए कसाई तैयार खड़ा हो। कालीचरण ने कंधे के नजदीक से बच्चे की एक बाँह को पकड़ा और उसे उठाकर दूसरे कमरे में ले गया। ज्योंही वह कमरे से बाहर निकला अंदर बैठे सभी लड़के और लड़कियाँ एक अनहोनी घटना के दुष्परिणाम की आशंका से भयभीत हो उठे। बच्चे को लकड़ी के एक बडे़ मेज पर रखकर कालीचरण सीरेंज में नशे का इंजेक्शन भरने लगा। बच्चे को आने वाले संकट का कोई आभास नहीं था। वह अबोध शब्दों में बोलाः

‘अंकल! तुम डॉक्टर हो?’

‘क्यों?’ कालीचरण ने प्रश्न किया।

‘ये सूई तो डॉक्टर लगाता है।’ उसने जवाब दिया। 

‘तुझे कैसे पता है?’ कालीचरण बोला ।

      ‘मैं सब कुछ जानता हूँ। रश्मि जब बीमार हुई थी तब डॉक्टर ने उसको ऐसी ही सूई लगाई थी। सूई चुभने से उसे बहुत दर्द हुआ था। वह जोर-जोर से रोने लगी थी। अंकल, तुम ये सूई किसे लगाओगे? उसे भी क्या बुखार है? अंकल, सूई लगाने के बाद क्या वो भी रोयेगा?’

      बच्चे की भोली-भाली बातें सुनकर कालीचरण का दिल पसीज गया। वह भेड़िया से मेमना बन चुका था। इससे पहले न जाने कितने बच्चों को वह अपने क्रूर हाथों से अपंग बना चुका था। परन्तु आज वही हाथ उसका साथ देने से इंकार कर चुके थे। उसने काँपते हाथों से सीरेज को एक ओर रख दिया और बोलाः

‘तुम्हे भी डर लगता है क्या सूई से?’

‘मुझे तो कभी नहीं लगी है सूई।’ बच्चा अब थोड़ा खुलकर बोला।

‘अब लगवाओगे?’

‘ऊँ हूँ, मैं कोई बीमार थोड़े न हूँ? ये तो बीमार बच्चों को लगाई जाती है।’ वह इंकार की मुद्रा में बोला।

      कालीचरण टाँगें लटकाकर मेज के एक कोने पर बैठ गया। अतीत की यादें एक-एक करके उसकी आँखों के सामने से गुजरने लगी। उसे उस लम्हें की याद ताजा हो आई, जब इसी तरह उसे भी एक दिन इस मेज पर बैठाया गया था। सूई का खौफ उसे भी उतना ही भयावह लग रहा था, जितना आज इस बच्चे को लग रहा है। एक बड़ी-बड़ी मूछों वाला काले रंग का आदमी उस दिन इंजेक्शन लगा कर उसकी भी टाँग तोड़ना चाहता था। परन्तु उस दिन उसने भी तरस खाकर मुझे उस अनहोनी से बचा लिया था। पता नहीं आज तक इस धंधे में कितने जग्गू, कितने कालीचरण और कितने बंटी आए और चले गए। सृष्टि कायम है, लोग कायम है, टाँगें टूट रही हैं, बच्चों को अपने स्वार्थ के लिए अपंग और कुरूप बनाया जा रहा है। कोई पिस रहा है तो कोई पीस रहा है। नहीं.........नहीं..........आज मैं इस अबोध की टाँग नहीं तोड़ूँगा। ये जीयेगा मेरी तरह, चाहे बड़ा होकर ये मेरी तरह बने या न बने। उसने बच्चे को गोद में उठाया और वापस पहले वाले कमरे में छोड़ दिया। उसे सही सलामत देखकर दूसरे लड़के और लड़कियाँ हैरान थे। जग्गू की जब आँख खुली तो कालीचरण को बुलाकर पूछने लगाः

‘हूँ! कर दिया साले का आप्रेशन? ज्यादा परेशान तो नहीं किया?’

‘नहीं बॉस।’ कालीचरण बोला।

‘ठीक किया।’ उसने हुँकारा भरा।

‘नहीं, वो बात नहीं है। मैंने बड़ा सोच समझकर उसे छोड़ दिया है।’ कालीचरण सफाई देते हुए बोला।

‘किस लिए?’ जग्गू ने प्रश्न किया।

      ‘अभी बच्चा है। उसे दुनियादारी का कोई पता नहीं है। उसे अभी से तैयार करेंगे तो बड़ा होकर हमारे धंधे में बड़ा काम का आदमी बनेगा। एकदम फिट बैठेगा बॉस। बस अभी से ट्रेनिंग शुरू करनी पड़ेगी। फिर देखना क्या गुल खिलाएगा पिल्ले से बिल्ला बनने तक।’ कालीचरण ने तर्क दिया। 

      बात तो तेरी यार एकदम दुरूस्त है। साले का नाम ही आज से बिल्ला रख दो। एक काम और करो, इसे सूरती के सुपुर्द कर दो। उस से कहना इसकी जरा अच्छी तरह मेकअप करके अपने साथ रेलवे स्टेशन पर ले जाया करे। अभी से हालात का जायजा लेना शुरू करेगा तभी तो सपोला से साँप बनेगा।’ यह कहते हुए जग्गू बड़े जोर से हँसा।

कालीचरण ने भी एक आज्ञाकारी शिष्य की तरह दाँत निकाल लिए। कालीचरण ने बच्चे को सूरती के हवाले कर दिया और उसे कुछ जरूरी हिदायतें भी दे दी कि इसे किस प्रकार अपने साथ रखना हैं। अगले दिन से सूरती कालिख से उसकी पूरी पहचान छुपाकर अपने साथ, भीख माँगने के लिए, रेलवे स्टेशन पर लेकर जाने लगी।