बड़ी माँ - भाग 5 Kishore Sharma Saraswat द्वारा फिक्शन कहानी में हिंदी पीडीएफ

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बड़ी माँ - भाग 5

5

मुरली के चले जाने के दो दिन बाद तक राम आसरी को आस रही कि शायद वह वापस आ जाए। यदि पुलिस वालों ने उसे पकड़ रखा है तो वह इसकी सूचना घर वालों को पहुँचाएंगे ही और यदि वह कहीं शराब पीकर पड़ा है तो भी दो दिन बाद घर जरूर पहुँचेगा। परन्तु तीसरे दिन उसका धैर्य जवाब दे चुका था। सुबह-सुबह जल्दी उठकर मुंशी के झोपड़े पर गई और उससे कहने लगीः

       ‘मुंशी जी, मेरा और मुरली का हिसाब देखना, कितना बनता है? मुझे पैसों की सख्त जरूरत है। मुरली को यहाँ से गए तीन दिन हो गए हैं, उसका कुछ अता-पता नहीं चल रहा है। अब पल्ले में तो एक दमड़ी भी नहीं है, ऐेसे में कैसे जाऊँ और उसे कहाँ ढूँढू। अगर मजदूरी की कुछ रकम मिल जाती तो एक-आध जगह जाकर उसका पता लगाती। मुंशी जी, जरा जल्दी करना, बहुत मेहरबानी होगी।’

वह दोनों हाथ जोड़कर बैठ गई ।

       मुंशी ने अपने दाहिने हाथ से अपना चश्मा एक आँख पर से ऊपर उठाकर राम आसरी की ओर देखा और बोलाः

       ‘पैसे क्या पेड़ पर लगते हैं, जहाँ से तोड़कर तेरे को दे दूँ। तेरा मर्द सारा दिन तो पीकर टल्ली रहता है। काम-धाम तो कुछ करता नहीं। ठेकेदार मेरे से कई बार कह चुका है उसे काम से हटाने के लिए। यह तो एक मैं हूँ जो तुम जैसे निठल्ले लोगों पर फिर भी तरस खाकर घसीटे जा रहा हूँ। चली आई सुबह-सुबह पैसे माँगने, बाहर जाना है। बाहर जाकर क्या करेगी? यहीं-कहीं ढूँढले, पड़ा होगा कहीं दारू पीकर। नाहक में परेशान हो रही है।’

       मुंशी जी, मैं हाथ जोड़ती हूँ। तेरे पाँव पड़ती हूँ। मुझे खाली हाथ मत भेज। मैं तो बिना नागा किए काम पर जाती रही हूँ। जो भी कुछ बनता है, रहम करके दे दे। मेरा मन कहता है मुरली यहाँ पर नहीं है। वो जरूर कहीं किसी विपदा में फंसा पड़ा है। उसका पता लगाना बहुत जरूरी है। मेरे पास अगर थोड़े पैसे भी होते तो मैं सुबह-सुबह तेरे पास न आती। अब तक तो कब की चली गई होती उसे ढूँढने। दया करके सारे नहीं तो कम से कम आधे तो दे दे।’ वह हाथ जोड़कर नीचे झुकती हुई गिड़गिड़ाई।

       ‘ठीक है ...........ठीक है ...........,अब बंद कर ये ड्रामा।’ यह कहते हुए मुंशी ने उसके आगे एक पचास रुपये का नोट फेंक दिया। राम आसरी ने नोट उठाया और अपनी झोपड़ी की ओर चल पड़ी।  झोंपड़ी पर पहुँच कर उसने अपने कुछ कपड़े उठाकर एक पोटली में बांध लिए और बाहर निकलकर टीन की चादर का दरवाजा बंद करके ताला लगा दिया। फिर वह आहिस्ता-आहिस्ता बस्ती से बाहर की ओर चल पड़ी। एक तो सुबह से कुछ खाया पिया नहीं था और ऊपर से कमजोरी अलग से थी, इसलिए ठीक से चल भी नहीं पा रही थी। रास्ते में चाय वाले की दूकान आई तो वहाँ पर चाय पीने के लिए बैठ गई। चाय वाला उसे चाय का कप थमाता हुआ बोलाः

       ‘आज कल मुरली कहाँ पर है? दो दिन से नज़र नहीं आ रहा। परसों तीस रुपये उधार लेकर गया था। कह रहा था साले के लड़के को उसके यहाँ छोड़ने जा रहा हूँ। किराये के पैसे घर पर भूल आया हूँ, आते ही लौटा दूँगा। ऊपर से चाय-पानी के पैसे अलग से बकाया हैं। अब अगर ऐसा करेगा तो आगे के लिए एतबार उठ जाएगा। उससे कहना आकर पैसे दे जाए।’

       यह बात सुनकर राम आसरी का माथा ठनका। जिस अनहोनी का उसे डर था, वही हो गई। हो न हो, मुरली उससे झूठ बोलकर बच्चे को कलुआ के पास लेकर गया होगा। हे भगवान! यह क्या अनर्थ हो गया। दोनों दुष्टों ने मिलकर पता नहीं उस मासूम का क्या किया होगा? चाय की घूँट अंदर जाने की बजाए उसके मुँह से बाहर निकल आई। उसे बैठे-बैठे ऐसा लगा मानो उसके चारों ओर की घरती घूम गई हो। वह थोड़ी देर के लिए आँखें मूँदकर बैठ गई। उसे सूझ नहीं पा रहा था कि वह चाय वाले को क्या जवाब दे। जब मन थोड़ा शाँत हुआ तो पूछने लगी:

‘कितने पैसे हुए?’ 

‘तुम्हारे या उस वाले मिलाकर?’

       ‘इतने पैसे तो मेरे पास इस वक्त हैं नहीं। मैं मुरली को ढूँढने  ही जा रही हूँ। उस दिन से अब तक वह वापस नहीं लौटा है। तुम चिंता मत करो भगवान के पास जाना है। अगर मुरली ने न दिए तो मैं तुम्हारे सारे के सारे पैसे पाई-पाई चुका दूँगी। इस वक्त तो केवल मेरी चाय के पैसे काट लो।’ वह पचास रुपये का नोट उसे पकड़ाती हुई बोली।

        चाय वाले ने एक चाय के पैसे काटे और बाकी राम आसरी को वापस कर दिए। राम आसरी ने कप में बची आधी चाय उसी तरह छोड़ दी और उठकर रेल पकड़ने के लिए कस्बे की ओर चल पड़ी।  चलते-चलते मन में कई प्रकार के विचार आ रहे थे। उसकी चाल एक बीमार आदमी की चाल की तरह लग रही थी। उसे रास्ते में जान-पहचान वाले कई लोग मिले, परन्तु यह न जान पाई कि कौन मिला और क्या कह गया? स्टेशन पर पहुँच कर उसने गाड़ी पकड़ी और शाम तक कलुआ के ठिकाने पर पहुँच गई। कलुआ घर पर ही था। वह राम आसरी को देखते ही बोला:

‘राम सत्त बहिना।’

‘राम सत्त भाई।’ राम आसरी ने भी नमस्कार का जवाब दिया।

       ‘आज अकेली कैसे आई हो? जीजा जी कहाँ रह गए हैं?  कलुआ ने बड़ी चालाकी से प्रश्न किया। यह शब्द सुनकर राम आसरी को तो मानो किसी जहरीली चीज ले काट लिया हो। तड़ककर बोलीः

‘क्यों, परसों तेरे पास नहीं आया था क्या?’

       ‘नहीं तो, कौन कहता है?’ कलुआ ने अपनी सफाई पेश की।

       ‘कौन कहता है, मैं कहती हूँ। परसों एक छोटे बच्चे को लेकर वो तेरे पास नहीं आया था क्या? बोल, क्या किया तुम दोनों ने उस बच्चे का? किस गर्त में गिराया है उस मासूम को?’ राम आसरी गुस्से में बोली।

       ‘कमाल है, मैं कोई तेरे से झूठ बोल रहा हूँ। न तो मुरली आया है और न ही कोई बच्चा। और तुम तो जानती ही हो मैंने अब सब धंधे बंद कर दिए हैं। मेहनत-मजदूरी करके जो मिलता है, उसी से रूखा-सूखा खाकर गुजारा करता हूँ। अगर अब वो मेरे पास आ भी जाता, तेरी कसम खाकर कहता हूँ बहिना, उसी वक्त उलटे पाँव भेज देता। छीः-छीः, तू भी क्या बात करती है।’ वो भेड़िया, भेड़ का लबादा पहन कर बोला।

       ‘तू कब से राजा हरिशचन्द्र बन गया रे? बोल, मैं तेरे से पूछती हूँ। तू सच-सच बता दे मुरली कहाँ पर है? वह कुछ दिन से अभी तक बस्ती में लौटकर नहीं आया है।’ राम आसरी कुछ खुश्क आवाज में बोली।

       ‘ये लो मान न मान मैं तेरा मेहमान। जब मुरली यहाँ पर आया ही नहीं और न ही मैंने उसे कहीं देखा है तो क्या मैं अब उसे हवा में से पैदा करूँ। कैसा वक्त आ गया है?’ कलुआ अपने माथे पर हाथ मारता हुआ बोला।

हालांकि कलुआ को मुरली की मौत का भी पता चल चुका था, परन्तु पकड़े जाने का भय उसे सच्चाई उगलने से विवश कर रहा था। बहन के सुहाग उजड़ने का उसे तनिक भी दुःख नहीं था। दुर्जनता के कार्य करते-करते वह वास्तव में एक पिशाच बन चुका था। वह बहुरूपिया आखिर राम आसरी का विश्वास जीतने में कामयाब हो गया। मन मार कर राम आसरी चारपाई पर बैठ गई। कलुआ ने चाय बनाई और फिर दुपहर की बची हुई दो रोटियों के साथ उसे राम आसरी को पकड़ा दिया। राम आसरी सुबह से भूखी थी, परन्तु रोटी का एक-एक ग्रास गले से नीचे उतारना उसके लिए कठिन हो रहा था। मुरली के न मिलने से अधिक चिंता उसे बच्चे की हो रही थी। वह सोच रही थी कि एक मौत के मुँह से तो भगवान ने उसे बचा लिया था, परन्तु अब पता नहीं किस मौत के मुँह में उसे धकेल दिया गया है। तिल-तिल मरने से तो अच्छा था कि भगवान उसे पहले ही ले जाता। बड़ी मुश्किल से रोटियाँ चबाने के बाद वह चारपाई पर थोड़ा आराम से बैठते हुए बोली:

       ‘भाई, तू चलेगा सवेरे मेरे साथ?’

       ‘कहाँ? कलुआ ने प्रश्न किया।

       ‘मुरली को ढूँढ़ने।’ वह बोली।

       ‘बहिन तू सोचती है मुरली कोई सूई है, जिसे ढूँढना पड़ेगा। जमाने को पैरों तले रोंद चुका है वह। यहीं-कहीं पड़ा होगा, थोड़ी होश आने पर अपने आप आ जाएगा। ऐसे में तू बिना बात की परेशानी मत लिया कर। अब तू सारे दिन की थकी पड़ी है, आराम से सो जा। जब सुबह होगी तो देखा जाएगा।’ कहते हुए कलुआ ने उबासी लेने का नाटक किया।

       राम आसरी समझ गई कि इस समय बात करने का कोई फायदा नहीं है। रात को तो बाहर कहीं जा नहीं सकते। जो भी करना है वह तो सुबह ही होगा। अतः मन मार कर चुप हो गई। किसी तरह रात तो बीत गई, परन्तु सुबह राम आसरी ज्यादा समय खराब करना नहीं चाहती थी, इसलिए सुबह उठते ही उसने नाश्ता तैयार किया और कलुआ से बोलीः

‘भाई, नाश्ता तैयार है। जल्दी से निपटा लो और फिर मेरे साथ चलो। आज मुरली को आए चैथा दिन हो गया है। पता नहीं क्या बात हो गई है, इतने दिन तो वह कभी बाहर ठहरता नहीं था। पीने का बड़ा लालची है। मुझे तो लगता है कोई अनहोनी न हो गई हो।’

       ‘तू तो खामख्याह में परेशान हो रही है। मैंने कहा न, उसे कुछ नहीं होता। बिना पते के अंधेरे में कहाँ टक्कर मारेंगे। एक-आध दिन और देख लेते हैं। एक बात और है जो मैं कहनी भूल गया। वो लोग मेरी छुट्टी कर देंगे। इससे बेहतर तो यह है कि आज तू इधर-उधर गलियों में घूमकर देख ले। इधर आया होगा तो पता चल जाएगा, नहीं तो मैं कल की छुट्टी ले लूँगा और फिर पास के दूसरे शहर में तलाश करने चलेंगे। ठीक है न?’ कलुआ ने राम आसरी के साथ न जाने का बहाना बनाया।

राम आसरी भी उसकी रग-रग से वाक़िफ़ थी। वह खूब समझ रही थी कि आज बहाना बनाकर निकलने के बाद ये शाम को घर आएगा ही नहीं और तेरा उल्लू बनाने की कोशिश कर रहा है। अब ऐसे में इसे साथ ले जाकर भी क्या लाभ। उसने एक लम्बी साँस छोड़ी और बोली:

‘ठीक है भाई, जैसी तेरी मर्जी। मैं तो चलती हूँ। तू भी रास्ते में ख्याल रखना। कहीं मिल जाए या पता चल जाए तो उसे साथ लेते आना।

       ‘भला यह भी कोई कहने की बात है। अच्छा, अब मैं चलता हूँ।’ वह दाँत निकालता हुआ बोला।

राम आसरी ने अपने कमजोर शरीर को सहारा देने के लिए अपनी धोती का एक पल्लू अपनी कमर पर कस कर बाँध लिया। फिर पाँव में अपनी घीसी हुई चप्पल डाली और हिम्मत रख कर अकेली मुरली को शहर में ढूंढने के लिए निकल पड़ी। उसकी पहली मंजिल और पड़ाव देशी शराब की दूकान थी। वह यह सोचकर वहाँ पहुँची कि शायद पीने के चक्कर में वह वहीं कहीं आस पास न पड़ा हो। परन्तु अभी वहाँ पर कोई नहीं था। चलते-चलते फिर दूसरे बाजार में पहुँची। अभी शराब के ठेके से थोड़ी दूर ही थी कि उसे एक आदमी सड़क किनारे मिट्टी में मुँह के बल लेटा हुआ नज़र आया। उसका माथा ठनका कि हो न हो यह मुरली पड़ा है। उसे अचानक देखकर राम- आसरी का दिल जोर से धक-धक करने लगा। इतनी जल्दी मुरली का यूँ मिल जाना उसे परमात्मा की ओर से एक संयोग ही लग रहा था। उसके मन में खुशी के साथ-साथ घृणा ने भी जन्म ले लिया था। मन में क्षोभ व पीड़ा दोनों थे। कैसा आदमी है? इसे दारू के सिवाय पूरे जहान की किसी भी चीज की कोई चिंता नहीं है। मन में यह सोचकर कि आज तो इसे पूरी खरी-खोटी सुनाकर ही दम लूँगी, वह उसकी ओर तेजी से बढ़ी। मगर यह क्या? यह तो कोई और ही उसका शराबी भाई-बंध पड़ा है। उसे देखकर उसने अपने दोनों हाथ अपने माथे पर मारे। कहने लगी ‘हे भगवान! अगर इन्होंने पशुओं की तरह ही रहना था तो इन्हें मनुष्य रूप क्यों दिया? लोग सुबह-सुबह तेरा नाम जपने के लिए मन्दिर, और गुरुद्वारे जाते हैं, परन्तु इनका उपवास तो सुबह बोतल में बंद इस जहर से खुलता है। इन्हें जब अपनी सुध नहीं तो फिर तेरी फिकर क्यों करेंगे?’

वहाँ से मुड़कर सोचती हुई आगे की ओर चलने लगी। पैर आगे की ओर बढ़ रहे थे, परन्तु दिमाग कहीं और ही था। चलते-चलते एक पाँव सीढ़ी से टकराया तो नाक की बजाए मुँह से जोर का एक साँस निकला। आँखें और दिमाग का समन्वय करके देखा तो सामने रेलवे स्टेशन का मुख्य प्रवेश द्वार था। वह वहीं सीढ़ी पर बैठ गई और सोचने लगी। सामने लोग टिकट खिड़की पर कतार लगाए खड़े थे। सहसा उसके मन में ख्याल आया कि अगर मुरली रेल से कहीं गया होगा तो उसने टिकट इसी खिड़की से खरीदा होगा। क्यों न वहाँ पर बैठे आदमी से उसके बारे में पूछ लिया जाए। वह धीरे से उठी और खिड़की के पास जाकर खड़ी हो गई। लोगों की भीड़ थी और टिकट खरीदने के लिए धक्के पर धक्का लग रहा था। एक दो बार मुँह से कुछ बोला भी, परन्तु उसे वहाँ पर सुनने वाला कौन था। थक हारकर थोड़ी दूर फर्श पर जाकर बेठ गई। दस पंद्रह मिनट तक वहाँ पर वैसा ही हंगामा रहा। फिर स्टेशन से बाहर की ओर से गाड़ी की कूक सुनाई दी और पलक झपकते ही गाड़ी छुक-छुक की आवाज के साथ प्लेटफार्म पर आकर खड़ी हो गई। लोग अपना सामान उठाकर गाड़ी की ओर भागने लगे। गाड़ी में से उतरने वाले यात्री गेट पर खड़े टिकट कलेक्टर को अपने टिकट थमा कर बाहर की ओर निकलने लगे। बाहर टैक्सी, आटो, रिक्शा वाले और होटलों के एजेंट यात्रियों को उनके जाने और ठहरने के बारे में भाग-भागकर पूछने लगे। राम आसरी थकी आँखों से सब की ओर देखती रही। जब भीड़ छंट गई तो राम आसरी थोड़ा हौसला करके फिर टिकट खिड़की के पास पहुँची। खिड़की पर बैठा कर्मचारी पैसे समेट कर उठने ही वाला था, कि राम- आसरी को सामने अपनी ओर आँखें गड़ाए हुए देखती को पूछने लगा:

‘किस स्टेशन का टिकट चाहिए?’

‘कहीं का नहीं। टिकट नहीं लेना है।’ वह बोली।

‘फिर यहाँ पर क्यों खड़ी हो?’ उसने प्रश्न किया।

‘कुछ पूछना है आपसे।’ वह बोली।

‘हाँ पूछिये, क्या पूछना है?’ वह खिड़की की ओर मुँह करके बोला।

‘आपने क्या मुरली को देखा है?’ उसने बड़े भोलेपन से प्रश्न किया।

राम आसरी की बात सुनकर वह बड़े जोर से हँसा और फिर थोड़ा रुक कर बोला:

‘किस मुरली की बात कर रही हो? यहाँ तो सुबह से लेकर शाम तक हजारों मुरली आते हंै।’

‘मैं तो अपने वाले मुरली की बात कर रही हँू।’ वह फिर भोलेपन में बोली। 

उसकी भोली बातों को सुनकर खिड़की पर बैठे कर्मचारी को दया आ गई। वह कुर्सी पर बैठ गया और पूछने लगा:

‘मुरली तुम्हारा क्या लगता है?’

‘मेरे घर वाला है।’ वह बोली।

‘अच्छा, तो उसे क्या हो गया है?’ उसने फिर प्रश्न किया।

‘वह चार रोज पहले बस्ती से शहर आया था। अब तक उसका कहीं पता नहीं चल रहा है। मैं कल से उसे ढूँढ रही हूँ। कहीं वह आपके पास टिकट लेने तो नहीं आया था? और अगर आया था तो कहाँ का टिकट लिया उसने?’

       राम आसरी ऐसे पूछ रही थी मानो मुरली को सारा संसार  जानता हो। बाबू को सहसा रेल से कटे आदमी की याद आई। वह थोड़ा सोचने के बाद बोला:

‘हाँ याद आया। तुम राजा की बात कर रही हो न? माफ़ करना बहन राजा का तो परसों ऊपर का टिकट कट गया है।’ वह अफसोस भरे लहजे में बोला।

‘नहीं बाबू जी, मैं राजा की बात नहीं कर रही हूँ। मैं तो अपने मुरली के बारे में पूछ रही हूँ।’ राम आसरी बात को समझ नहीं पाई थी।

‘हाँ भई मैं तुम्हारे मुरली राजा की ही बात कर रहा हूँ। उनका ऊपर का टिकट कट गया हैं।’

       राम आसरी अब भी बात को समझ नहीं पाई थी। उसने  सोचा शायद गाड़ी में नीचे बैठने की बजाय मुरली ने ऊपर बैठने का टिकट लिया हो। हो न हो उसने बच्चे को किन्ही गलत हाथों में दे दिया है। वरना ऊपर की टिकट लेने के लिए उसके पास पैसे कहाँ से आए हैं? वह घबराकर बोली:

‘उसके साथ क्या कोई बच्चा भी था?’

‘नहीं वह अकेला ही था।’ बाबू ने उत्तर दिया।

       राम आसरी को अब पक्का यकीन हो चुका था कि मुरली ने बच्चे को कहीं बेच दिया है और अब मौज-मस्ती करने किसी दूसरे शहर में चला गया है, ताकि मैं उसे ढूँढ न सकूँ। पर वो बेरहम मेरे से बचकर जाएगा कहाँ? मैं तो उसे पाताल से भी ढूंड निकालूँगी। बेशक मेरा मर्द है, परन्तु जब तक बच्चे के बारे में नहीं बताएगा, मैं उसे माफ़ करने वाली नहीं हूँ। मन में आए इन विचारों के साथ वह बोली:

‘भगवान के लिए दया करके आप मुझे बताएंगे वह किस शहर में गया है?’

अब बाबू को यह आभास हो गया था कि यह महिला बहुत भोली है और इसे मुरली के बारे में अभी तक कुछ भी पता नहीं है। वह थोड़ा सम्भला और उसको सांत्वना देते हुए बोला:

‘बहिन, माफ़ करना, तुम्हारे मुरली का परसों गाड़ी के नीचे आकर एक्सीडेंट हो गया है और अब वह इस दुनिया में नहीं रहा है।’

       बाबू की यह बात सुनकर राम आसरी मुँह से कुछ नहीं बोली, परन्तु वह अपने आपको संभाल नहीं पाई और बेहोश होकर नीचे गिर गई। उसे गिरता देखकर कईं लोग भागकर उसके इर्द-गिर्द इकट्ठे हो गए। कुछ दयावान लोगों ने उसके जकड़े हुए जबड़े को खोलकर उसमें पानी डाला और उसे दीवार के सहारे बैठा दिया। पूरी बात का पता लगने पर कुछ लोग उसे ढाँढस बंधाने लगे। कुछ समय बाद जब उसका मन थोड़ा शाँत हुआ तो स्टेशन पर काम करने वाले कुछ कर्मचारियों ने उसे बताया कि मुरली की जेब से एक हजार नौ सौ बीस रुपये निकले थे जो थाने में जमा हैं और कल शाम को शहर की एक समाज सेवी स्ंस्था ने मुरली का दाह-संस्कार भी कर दिया है। दो कर्मचारी उसे पकड़कर उस समाज सेवी संस्था के प्रधान के पास लेकर गए, ताकि मुरली के पैसे थाने से निकलवाकर राम आसरी को दिए जा सकें। प्रधान एक भला आदमी था। वह बिना देर किए उसी समय रामआसरी को लेकर थाने पहुँचा और कुछ जरूरी औपचारिकताएं पूरी कराने के बाद उसने पूरे के पूरे रुपये राम आसरी को दिलवा दिए। थाने के बाहर निकलकर वह राम आसरी से बोलाः

       ‘बहिन, तुम्हारे पास पैसे हैं, इन्हें सम्भाल कर रख लो। यहाँ शहर में चोर, ठग बहुत होते हैं। पता नहीं लगाते कब हाथ साफ कर जाते हैं। यह पैसे अब संकट की घड़ी में तुम्हारे काम आएंगे। और अगर तुम असुरक्षित महसूस कर रही हो तो आज हमारे घर पर ठहर जाओ। घर पर मेरी पत्नी और बच्चे हैं, किसी किस्म की कोई तकलीफ नहीं होगी रहने में। आगे तुम्हारी इच्छा है।’

‘भाई साहब, आप मेरे लिए भगवान समान हो। आपने जितनी मेरी मदद की है उसके लिए मैं आपका एहसान नहीं भूल सकती। यहाँ पर मेरा एक भाई है, मैं उसके पास ठहर जाऊँगी और अगर हो सका तो सुबह उसे साथ लेती जाऊँगी। इन पैसों से मुरली का क्रिया-कर्म करवा दूँगी।’ कहते हुए वह सुबक-सुबक कर रोने लगी।

       प्रधान ने उसे धीरज रखने के लिए कहा और जरूरत पड़ने पर हर यथा-सम्भव सहायता का भी भरोसा दिलाया और फिर वह वहाँ से अपने घर की ओर चल पड़ा। राम आसरी भी आहिस्ता-आहिस्ता कलुआ के घर की ओर अपने कदम बढ़ाने लगी। एक निर्जीव बुत की तरह किसी तरह वह कलुआ के मकान पर पहुँची, परन्तु वहाँ पर तो एक बड़ा सा ताला पड़ा हुआ था। उसकी चलने की हिम्मत बिल्कुल जवाब दे चुकी थी। वह बाहर बैठकर कलुआ का इंतजार करने लगी। शाम के चार बजे के लगभग कलुआ यह जायजा लेने आया कि कहीं राम आसरी वापस तो नहीं आ गई। कुछ दूरी से एक मकान की दीवार की ओट से उसने देखा तो उसे राम आसरी अपने मकान के बाहर बैठी हुई नज़र आई। उसे देखकर वह चुपचाप पीछे मुड़ गया।

       अब तक राम आसरी सदमे से थोड़ा उभर चुकी थी। वह अपने भविष्य की उलझनों के बारे में सोचने लगी। उसे सहसा ख्याल आया कि वह अपने आप ही भेड़िये की माँद में फंसने आ पहुँची है। वह तो बहन को भी नोचकर खा जाएगा। इस से बेहतर तो यही है कि उसके घर पर आने से पहले ही यहाँ से निकल जाना चाहिए। बेसक उसे रात रेलवे स्टेशन पर बैठकर क्यों न बीतानी पड़े। वह उठी और धीरे-धीरे रेलवे स्टेशन की और चल पड़ी। किसी तरह धक्के खाती हुई वह रेलवे स्टेशन पर पहुँची। उसका साँस फूल चुका था। स्टेशन पर बनी दो सीढ़ियाँ चढ़ना भी अब उसके वस की बात नहीं थी। थक-हारकर वह बाहर पीपल की पेड़ के चारों ओर बने चबूतरे के ऊपर एक ओर बैठ गई। उसकी आँखों के आगे अंधेरा सा छाया हुआ था तथा उसे कुछ भी साफ दिखाई नहीं दे रहा था। उसके पीछे की ओर चबूतरे के आगे से स्टेशन की ओर आने जाने का रास्ता था। वहाँ पर कुछ भिखारी और भिखारिनें पंक्ति लगाए बैठे थे। राम आसरी से थोड़ी दूर एक चाय बनाने वाले की रेहड़ी थी। उसे उधर बैठी देखकर वह बोला:

‘चाय पीओगी बहन जी, बनाऊँ?’

उसकी बात सुनकर राम आसरी ने बिना कुछ सोचे समझे अपनी गर्दन स्वीकृति स्वरूप हिला दी। रेहड़ी वाला स्टोव पर चाय बनाने लगा। परन्तु राम आसरी को अब मुरली की अपेक्षा वह बच्चा ज्यादा याद आने लगा। मुरली तो चला गया, हमेशा के लिए। वह तो अब बापस नहीं आएगा। सारी जिंदगी जब से उसके घर आई हूँ, कोई न कोई दुःख मुझे देता ही रहा और अब जब वह सदा के लिए अलविदा कह गया है तो मेरी बाकी की पूरी जिंदगी के लिए मेरे दिल पर एक नासूर छोड़ गया है। अब मैं कहाँ जाऊँ और उस बच्चे को कहाँ ढूँढू? वह इसी सोच में डूबी थी कि चाय वाला उसकी बगल में चाय का कप रख गया। परन्तु उसे इसका एहसास तक नहीं हुआ। चाय पड़ी-पड़ी ठण्डी होने लगी। भिखारिन के पास बैठा एक छोटा सा लड़का, जिसके शरीर पर मैले-कुचैले चिथड़े थे तथा मुंह पर कालिख पुती हुई थी, राम- आसरी की ओर एकटक नज़र गड़ाए देख रहा था। राम आसरी काफी देर उसी मुद्र्रा में बैठी सोचती रही। थोड़ी देर बाद रेहड़ी वाला कप उठाने आया तो उसने देखा कि चाय तो ज्यों कि त्यों ही पड़ी है। वह राम आसरी की ओर मुँह करके बोलाः

       ‘बहन, चाय तो ठण्डी भी हो गई है, तुमने पी नहीं। दोबारा गर्म करके लाऊँ क्या?’

‘नहीं, कितने पैसे हुए?’ राम आसरी ने पूछा।

‘दो रुपये।’ वह बोला।

       राम आसरी ने अपने काँपते हाथों से एक पाँच रुपये का नोट निकालकर उसे थमा दिया। रेहड़ी वाले ने अपनी जेब से तीन रुपये के सिक्के निकालकर राम आसरी के हाथ पर रख दिए। अभी वह उन पैसों को सम्भाल भी नहीं पाई थी कि भिखारिन के पास बैठा वह छोटा बच्चा जोर से चिल्लाया:

       ‘बड़ी माँ!’ और भाग कर राम आसरी के पास आकर बोला:

       ‘बड़ी माँ, मुझे इनके पास से ले चलो। ये बहुत गंदे लोग हैं। मैं इनके पास नहीं रहना चाहता।’

       राम आसरी को बच्चे की आवाज जानी पहचानी सी लगी।  परन्तु शक्ल से तो यह भिखारियों का सा बच्चा लगता है। वह उसे पहचानने की कोशिश करने लगी। तभी वह भिखारिन भी राम आसरी के पास आ पहुँची और उसने बच्चे को एक बाँह से पकड़कर खींचना शुरू कर दिया। बच्चा जोर से चिल्लाने लगा:

‘बड़ी माँ! बड़ी माँ!’

भिखारिन उसे आगे की ओर घसीट रही थी, परन्तु वह पीछे की ओर लटक-लटक कर राम आसरी को देखे जा रहा था। इसे कोई दिव्य शक्ति ही समझिए की राम आसरी के मृतप्राय शरीर में पता नहीं कहाँ से इतनी स्फूर्ति आई कि वह बिजली की तरह तेज गति से उठकर उस भिखारिन पर टूट पड़ी और बच्चे को छुड़ाकर रेलवे स्टेशन की ओर भागी। यह सब कुछ इतना सहज और अचानक हुआ कि भिखारिन हकीबकी सी खड़ी देखती ही रह गई। उस वक्त गाड़ी आने-जाने का कोई वक्त भी नहीं था, इसलिए बाहर लोगों की भीड़ भी नहीं थी। अतःइस घटना की ओर किसी का ध्यान भी नहीं गया। भिखारिन मुड़कर बाजार की ओर भागी जहाँ चाय की एक छोटी सी दूकान पर जग्गू के बदमाश चाय पी रहे थे। वह अक्सर इसी बाजार में रहकर स्टेशन पर बैठाए गए भिखारियों पर नज़र रखते थे। उसने वहाँ आकर बच्चे को छुड़ाए जाने की बात बताई। उसकी बात सुनते ही दोनों बदमाश उसके साथ स्टेशन की ओर तेज गति से कदम रखते हुए चलने लगे। 

       राम आसरी जब स्टेशन के अंदर पहुँची तो वहाँ पर नाम मात्र के ही लोग थे। गाड़ी आने में अभी दो घंटे बाकी थे। राम आसरी के सामने समस्या स्वयं और बच्चे को छुपाने की थी। दूसरी जगह जाने के लिए बाहर निकलती तो उन लोगों का डर था। स्टेशन पर बने किसी कमरे में छुपती तो पकड़े जाना स्वाभाविक था। उसने एक खम्बे की ओट में खड़े होकर इधर-उधर देखा। सामने वाले प्लेटफार्म पर माल गाड़ी के खाली डिब्बे खड़े थे। वह लोगों की नज़रों से बचती बचाती उस गाड़ी के पास पहुँची और दो डिब्बों के बीच में बने खाली स्थान में से झुककर दूसरी ओर निकल गई। वहाँ खड़े होकर उसने अपना उखड़ा साँस कायम करने के लिए अपना थोड़ा सा मन शाँत किया और फिर चारों ओर निगाह दौड़ाई कि कहीं कोई देख तो नहीं रहा है। जब निश्चिंत हो गई कि उधर कोई नहीं है उसने बच्चे को उठाकर एक डिब्बे में, जिसका दरवाजा खुला था, चढ़ा दिया और फिर स्वयं भी उसमें चढ़ गई। अंदर जाकर उसने दरवाजा भीतर की ओर खींच लिया और फिर दोनों एक कोने में दुबक कर बैठ गए। बैठते ही बच्चा पूछने लगा:

‘बड़ी माँ! हम यहाँ पर क्यों छुप कर बैठे है?’

       राम आसरी ने बच्चे के मुँह पर अँगुली लगा कर चुप रहने का इशारा किया और चुपके से उसके कान में बोली:

       ‘बेटा चुपचाप बैठे रहो नहीं तो उन जालिमों को हमारा पता चल जाएगा और वे हमें पकड़कर ले जाएंगे।’

       उसकी बात सुनकर बच्चे ने जिद नहीं की और वह चुप बैठ गया। दोनों चुपचाप कोने में दुबक कर बैठे रहे। अंधेरे में बैठकर बच्चे को नींद लगी तो राम आसरी ने उसे अपनी गोद में लिटा लिया और स्वयं भी डिब्बे की दीवार का सहारा लगाकर आँखें बंद करके बैठ गई।

       रेलवे स्टेशन पर आकर बदमाशों ने राम आसरी और बच्चे को इधर-उधर ढूँढना शुरू किया। उन्होंने कमरें, कोने, शौचालय, बैठे हुए लोगों के बीच में, स्नानगृह, सामान भंडारन के ओसारा इत्यादि सभी जगह घूम-घूम कर छान मारे। परन्तु कुछ भी हाथ पल्ले नहीं पड़ा। थक-हारकर दोनों बदमाश बैंच पर बैठ गए और जेब से सिगरेट की डिब्बी निकालकर दोनों ने सिगरटें सुलगाई और लम्बे-लम्बे कश खींचकर धुआँ ऊपर की ओर उड़ाने लगे। अचानक एक की नज़र सामने खड़ी माल गाड़ी पर पड़ी। वह मुँह से धुंआँ निकालता हुआ बोला:

‘पार्टनर!

‘हूँ,।’ दूसरे ने हुँकारा भरा।

‘वो सामने खड़ी माल गाड़ी देख रहे हो न?’

‘हाँ।’ उसने जवाब दिया।

‘साली कहीं उसकी बगल में छिप कर न खड़ी हो।’

‘यह भी हो सकता है।’ दूसरे ने हामी भरी।

‘तो चलो वहाँ भी देख लेते हैं।’ यह कहते हुए उसने आधी  बची हुई सिगरेट फर्श पर नीचे गिराई और उसे अपने बूट के तल्ले से मसल दिया। दूसरे ने भी पहले वाले का अनुसरण किया और फिर अपने कमीज के कालर के नीचे दबाया हुआ रूमाल ठीक किया और बोला:

‘चलो पार्टनर, जल्दी करो। कहीं साली इधर-उधर न खिसक जाए।’

‘ठीक है चलो।’ वह उठते हुए बोला।

       दोनों उठकर गिद्ध की तरह नज़रें घुमाते हुए माल गाड़ी की ओर, पटरियाँ लांघते हुए चल पड़े। दो डिब्बों के बीच से दूसरी ओर निकलकर उन्होंने गाड़ी के आगे और पीछे की ओर साथ-साथ चल कर पूरा निरीक्षण किया। परन्तु कुछ नज़र नहीं आया। फिर स्टेशन के दूसरी ओर बने क्वाटर्ज की ओर चल पड़े। काफी अंधेरा होने तक वह गलियों में घूम-घूमकर उनकी तलाश करते रहे। परन्तु जब कुछ भी हाथ-पल्ले नहीं पड़ा तो वह वापस जग्गू के अड्डे पर पहुँचे। जग्गू को अभी तक इस घटना का कोई पता नहीं था। वे वहाँ आकर बैठे ही थे कि उनके परेशान चेहरों को देखकर जग्गू बोला:

       ‘मेरे शेरों क्या बात है? आज तुम्हारे चेहरे क्यों लटक रहे हैं? खैरियत तो है न? कोई पंगा-बंगा तो नहीं हो गया?’  

       नहीं बॉस, पंगे वाली तो कोई बात नहीं है। सूरती ने अभी तक कुछ नहीं बताया क्या?’ एक बदमाश बोला।

       ‘नहीं तो, क्या बात है? मैंने तो सूरती को अभी तक देखा भी नहीं है। कहाँ पर है वो?’ जग्गू कुछ हैरान सा हुआ पूछने लगा।

‘गज़ब हो गया बॉस। स्टेशन पर एक महिला सूरती से बच्चे को छुड़ाकर भाग गई। हमने सभी जगह चप्पा-चप्पा छान मारा, परन्तु कहीं भी उनका सुराग तक नहीं लगा।’ यह कहकर वह चुप कर गया।

       उनकी बात सुनकर जग्गू की आँखें लाल हो गई। चेहरे पर दुष्टता के भाव साफ नज़र आने लगे। वह उनकी ओर देखता हुआ गुर्राया:

       ‘तुम दोनों कहाँ मर गए थे? तुम्हें इन लोगों के ऊपर नज़र  रखने के लिए भेजा गया था या मौज-मस्ती करने के लिए। उस कम्बख्त महिला के टुकड़े क्यों नहीं कर दिए तुमने। वह भाग कैसे गई? वहीं कहीं होगी। क्या धरती निगल गई है उसे जो मिली नहीं? मेरी तो कुछ समझ में नहीं आ रहा। और वह सूरती की बच्ची कहाँ पर है? उसका कीमा क्यों नहीं बना दिया तुमने अभी तक। तुम मेरी नज़रों के सामने से हट जाओ। चले जाओ यहाँ से।’

       यह कहते हुए जग्गू ने शराब की बोतल उठाई और उसमें से एक पूरा गिलास भरकर एक ही साँस में गले से नीचे उतार लिया। दोनों बदमाश अभी तक वहीं खड़े थे। जग्गू ने गर्दन घुमाकर उनकी ओर देखा और थोड़ी देर उन पर नज़र टिकाने के बाद बोला:

‘जाओ पहले तो उस सूरती की बच्ची को ढूँढकर उसका इलाज करो और फिर स्टेशन पर जाकर उस डायन का पता लगाओ। वह वहीं कहीं छिपी होगी। शायद उसका इरादा किसी आने वाली  गाड़ी में यहाँ से भागने का हो। गाड़ी आने पर वह जरूर अपनी मांद में से बाहर निकलेगी। और हाँ, जरूरत समझो तो एक-दो आदमी और साथ में ले जाना। एक बात और कान खोलकर सुन लो, खाली हाथ आकर मुझे अपनी मनहूश शक्ल मत दिखाना। समझे?’

       ‘दोनों ने स्वीकृति स्वरूप चुपचाप अपनी गर्दनें हिला दी और कमरे से बाहर निकलकर सूरती को ढूँढने लगे। बेचारी सूरती अंधेरे में मेज के नीचे दुबक कर बैठी थी। एक बदमाश ने उसे देखते ही एक टाँग से पकड़कर बाहर खींचा और अपने पैर में पहने बूट की चार-पाँच हुड्ड उसकी पीठ पर जड़ दी। पीड़ा के मारे बेचारी की चींखें निकल गई। परन्तु और मार के भय से आवाज को अपने गले में ही दबाकर रह गई। सूरती को मार पड़ती देखकर दूसरे लड़के-लड़कियाँ डर के मारे एक कोने में दुबक कर बैठ गए। उनके लिए यह घटना कोई नई बात नहीं थी। ऐसी घटनाएं तो यहाँ थोड़े अन्तराल के पश्चात् घटती रहती थीं। सूरती की मरम्मत करने के बाद दोनों बदमाश बाहर निकले और आगे गली में बैठे दो और बदमाशों को उन्होंने साथ लिया और स्टेशन की ओर चल पड़े।

       उनके वहाँ से चले जाने के बाद जग्गू ने कालीचरण को बुलवाया। ज्योंही कालीचरण उसके पास पहुँचा, जग्गू उसकी ओर देखता हुअ बोला:

       ‘काली! तेरी एक छोटी सी गलती से वह पिल्ला आज हमारे हाथ से निकल गया। अगर साले के हाथ-पैर तोड़ दिए होते तो आज यह नौबत न आती। मैंने लड़कों को भेजा है। अगर वह मिल जाता है तो सबसे पहले उसकी टाँग के दो टुकड़े कर देना बाकी की बाद में सोचेंगे।’

       यह कहने के बाद जग्गू एक पैग और चढ़ा गया। कालीचरण की समझ में अभी तक कुछ भी नहीं आया था। वह पास पड़ी लकड़ी की पेटी पर बैठता हुआ पूछने लगा:

‘क्या बात हुई बॉस? कहाँ चला गया वो लड़का?’

‘जहन्नुम में, और कहाँ।’ जग्गू झूँझला कर बोला।

‘फिर भी?’ कालीचरण ने प्रश्न किया।

‘स्टेशन पर कोई महिला उसे उठाकर भाग गई।’

‘यह कैसे हो गया? वे दोनों क्या कर रहे थे?’ कालीचरण  हैरान सा हुआ बोला।

       ‘अब क्या पता, वो नमक हराम कहीं और मोज-मस्ती कर रहे होंगे। आजकल ज्यादा ही लापरवाह हो गए हैं। इनकी बीमारी के इलाज के बारे में भी कुछ सोचना पड़ेगा।’ बोलते हुए जग्गू ने एक गिलास भरकर कालीचरण की ओर बढ़ा दिया।

       कालीचरण ने गिलास पकड़कर गले के नीचे उतारा और फिर गिलास को जग्गू के आगे रखता हुआ बोला।

‘बॉस, कहो तो मैं भी स्टेशन पर देखकर आऊँ? मुझे उस लड़के की पूरी पहचान है। और वैसे भी भागकर कहाँ जाएंगें? यहीं कहीं दुबके होंगे। इस शहर में उन्हें ढूँढना मेरे बाएं हाथ का काम है।’

‘नहीं, तुम स्टेशन पर मत जाओ। मुझे तो ऐसा लगता है कि इसमें कहीं कलुआ की कोई शरारत न हो। बड़़ा चालबाज सियार है। इतनी चालाकी से हाथ साफ करता है कि बड़े-बड़े धरे के धरे रह जाते हैं। इसलिए यह बेहतर होगा कि तुम कलुआ पर निगाह रखो। मेरे से इस बार अगर उसने कोई बदमाशी की तो तेरी कसम साले को मुरली के पास जहन्नुम में पहुँचा दूँगा।’ जग्गू अपनी मूछों को दाएं हाथ से ताव देता हुआ बोला।

       ‘मैं निकलता हूँ।’ कहते हुए कालीचरण कमरे से बाहर की ओर निकल गया।    

        रेलवे स्टेशन पर पहुँचकर चारों बदमाश दो-दो के झुण्ड में बंट गए। दो प्लेटफार्म पर आने-जाने वाली गाड़ियों पर नज़र रखने के लिए वहाँ पर रुक गए और बाकी दो दोबारा माल गाड़ी के खड़े खाली डिब्बों की ओर चल पड़े। गाड़ी के पास पहुँचकर वे अलग-अलग हो गए। एक गाड़ी के इंजन की ओर से और दूसरा सबसे पीछे के डिब्बे की ओर से डिब्बों का निरीक्षण करने लगे। इसे संयोग ही समझिये कि ज्योंही पीछे वाला बदमाश राम आसरी के साथ वाले डिब्बे में अंदर की ओर झाँक रहा था, उसी समय राम आसरी ने नीचे उतरने के लिए थोड़ा दरवाजा हटाया तो उसे वह बदमाश नज़र आ गया। उसका दिल जोर-जोर से धक-धक करने लगा। उसे ऐसा महसूस होने लगा मानो पूरी की पूरी रेल गाड़ी उसके ऊपर से गुजर रही हो। वह उखड़े साँस के साथ बच्चे को उठाकर फिर कोने में जाकर दुबक गई। वह बदमाश जैसे ही पीछे वाले डिब्बे को देखकर राम आसरी वाले डिब्बे के पास पहुँचा, गाड़ी ने एक झटका लिया और आगे की ओर सरक़ने लगी। राम आसरी ने भगवान का लाख-लाख शुक्रिया किया। आखिर इस तरह वे उन बदमाशों के चंगुल में आने से तो बच गए और आगे जो होगा उसकी उसे तनिक भी परवाह नहीं थी। वह आँखें मूंद कर आगे बीतने वाली घटना की कल्पना अपने मन ही मन में करने लगी। दोनों भूख और प्यास से व्याकुल थे, परन्तु वहाँ से बच निकलने की हिम्मत उन्हें सहारा दिए जा रही थी। आँखें बंद थी, मन में अंधेरा था और सब से बड़ा अंधेरा वह गन्तव्य था, जिसकी ओर वह खाली डिब्बे उन्हें पटरी पर दौड़ा लिए जा रहे थे। न कोई मंजिल थी और न कोई ठिकाना। अपना जो भी कुछ था वह लुट गया था और जो बाकी बचा था वह पीछे छूट गया था। बस्ती में राम आसरी का झोंपड़ा अब एक याद बनकर रह गया था। मुरली के वापस आने का इंतजार अगर किसी को था तो वो थे उसके वे साथी जो उसके साथ बैठकर खाते-पीते और ताश के पत्ते खेलते थे। परन्तु राम आसरी को याद करने वाला अब कोई नहीं था। पास-पड़ोस की महिलाएं सोच रही होंगी कि मुरली उसे लेकर किसी ओर जगह भाग गया होगा, क्योंकि उसके उधार लेकर वापस न करने की आदत को सभी जानते थे।

       गाड़ी रात के अंधेरे को चीरती हुई छुक-छुक की आवाज के साथ भागी जा रही थी और राम आसरी को हिलते हुए डिब्बे में ऐसा आभास हो रहा था मानो वह किसी भंवर में फंसी हुई इधर-उधर हिलौरे ले रही हो। पता नहीं वह किसी किनारे लगेगी भी या उसका जीवन यूँ ही अंधकार के भंवर में फंस कर उस किनारे की तलाश में भटकता रहेगा। वह यूँही सोचे चली जा रही थी। परन्तु कभी-कभी बच्चे की आवाज उसकी तन्हाई में जरूर खलल डाल रही थी।

       रात के दस बजे के लगभग चारों बदमाश जग्गू के अड्डे पर बेरंग लौट आए। अभी तक वापस नहीं आया था तो वह था कालीचरण। चारों आकर चुपचाप खड़े हो गए। उनके लटके चेहरों को देखकर जग्गू को आभास हो गया कि इनके हाथ-पल्ले कुछ नहीं लगा। परन्तु उसे अभी कालीचरण के आने का इंतजार था। वह मुँह से तो कुछ नहीं बोला, परन्तु उसने हाथ से उन्हें बैठने का इशारा किया। चारों बदमाश बिना प्रतिक्रिया किए चुपचाप बैठ गए। पंद्रह मिनट के अंतराल के बाद कालीचरण भी आ गया। उसके अंदर आते ही जग्गू पूछने लगा:

‘काली, ये तो फेल हो गए। तुम बताओ क्या रहा? कोई सुराग मिला कि नहीं?’

       कालीचरण जो देख और सुनकर आया था उससे उसे कुछ आस बंधी थी। जग्गू का प्रश्न सुनते ही बोला:

       ‘बॉस, मुझे तो दाल में कुछ काला लगता है।’

       ‘तुम्हारे कहने का मतलब?’ जग्गू कुछ उत्सुकतावश बोला।

       ‘हो न हो मुझे तो यह सारी चाल कलुआ की ही लगती है। इधर पैसे लेकर हमें उल्लू बना गया और उधर बड़ी सफाई से उस पिल्ले को उड़ाने में भी कामयाब हो गया।’

       ‘मतलब?’ जग्गू ने फिर प्रश्न किया।

       ‘बॉस, बात एकदम साफ है। कलुआ आज सुबह से ही घर पर नहीं है। मैंने पड़ोस में पूछा तो उन्होंने बताया कि वह तो सुबह ही घर से निकल गया था। और हाँ, रात को उसके पास उसकी बहिन भी आई हुई थी। हो न हो पिल्ले को उड़ाकर वही महिला न ले गई हो। भाई-बहन दोनों ही गायब हैं। मुझे तो लगता है हरामखोर डबल कमाई के चक्कर में है।’ कालीचरण ने अपनी बात विस्तार से बताई।

       ‘हूँ,.....तो ये बात है। शेर की माँद में रहकर शेर से ही वैर। काली, तुम्हारी रिपोर्ट एकदम दुरुष्त है। इसमें शक की कोई गुंजाइश नहीं है। उस रोज कलुआ के साथ उसका बहनोई भी आया था। मुझे अब पक्का यकीन हो गया है कि ये सारी चाल उन दोनों ने ही चली है। उन्हें यह पता नहीं कि जग्गू किस बला का नाम है। जग्गू से बैर लेकर कभी कोई चैन से नहीं सोया है। वे तो जग्गू का हाथ पड़ने से पहले ही शहर छोड़ कर भाग गए हैं या जग्गू के हाथों यमलोक पहुँच गए हैं। लगता है कलुआ के वारंट भी यमराज से कट चुके हैं। बस उन्हें तामील कराने की जरूरत है। तुम ऐसा करो इन में से किसी की डयूटी कलुआ की निगरानी करने पर लगा दो और जैसे ही वह अपने  कमरे पर वापस आए मुझे फौरन इतला करो। ठीक है?’ वह बैठे हुए बदमाशों की ओर अंगुली करता हुआ बोला।

‘ठीक है बॉस, आप निश्चिंत रहिए। मैं देख लूँगा।’ यह कहते हुए कालीचरण बदमाशों को बाहर जाने का इशारा करते हुए कमरे से बाहर निकल गया।

       कालीचरण के वापस मुड़ने के बाद कलुआ चुपके से अपने कमरे पर आया और यह निश्चिंत होकर कि अब राम आसरी वापस नहीं आएगी, वह चुपचाप सो गया। जग्गू का बदमाश जब कलुआ के कमरे पर पहुँचा तो बाहर से ताला खुला देखकर वह काफी प्रसन्न हुआ। दिन की घटना से उसकी जो बेइज्जती हुई थी, उसका गम दूर करने के लिए यह एक शुभ शकुन था। वह दबे पाँव वापस हो लिया। जग्गू के अड्डे पर वापस जाकर बोला:

‘बॉस, कलुआ अपने कमरे पर आ चुका है। बाहर से कुण्डी खुली पड़ी है, पर अंदर अंधेरा है। शायद सो रहा है। हमारे लिए अब क्या हुक्म है।’

       जग्गू ने आँख उठाकर बदमाश की ओर देखा और फिर लम्बा साँस छोड़ते हुए बोला:

       ‘हूँ............ठीक है। उसे सुबह मेरे पास बुलाकर लाओ। काम बड़ी मुस्तैदी से होना चाहिए। देखना कहीं सुबह-सुबह न निकल जाए। एक बात और घ्यान रखना, उससे कोई फालतू बात नहीं करना। बस इतना कहना कि उसे बॉस याद कर रहा है? कुछ जरूरी काम है। समझे? अब जाओ।’ बात सुनकर बदमाश बाहर निकलने लगा तो जग्गू ने फिर आवाज लगाई:

       ‘सुनो! वहाँ अकेले मत जाना। अगर भाग गया तो उसे पकड़ना मुश्किल हो जाएगा। एक-दो मुश्टण्डे मौके की नजाकत को सम्भालने के लिए साथ ले जाना और उन्हें कहीं ठीक जगह पर खड़ा कर देना। ठीक है?’

       बदमाश ने गर्दन हिलाकर उसकी बात का जवाब दिया और बाहर निकल गया।

अगली सुबह वह बहुत जल्दी उठा और अपने दो साथियों  को साथ लेकर कलुआ के घर की ओर चल पड़ा। कलुआ के घर से कुछ दूरी पर उसने दोनों साथियों को गली में छोड़ दिया और अकेला उसके घर पर जाकर दरवाजे पर दस्तक देने लगा। दरवाजे पर थपथपाने की आवाज सुनकर कलुआ नींद में बुड़बुड़ाया:  

       ‘कौन है?’

‘दरवाजा खोलना।’ वह दबी आवाज में बोला, ताकि आस- पड़ोस के लोग सुन न लें।

       कलुआ को भय सताने लगा कि कहीं राम आसरी वापस न आ गई हो। इसलिए गहरी नींद का बहाना बनाते हुए वह चुप हो गया। उसने फिर दरवाजे पर जोर से हाथ मारा। कलुआ धीरे से उठा और दरवाजे के बीच में बने सुराग से देखकर पहचानने की कोशिश करने लगा। अंधेरे में कुछ साफ दिखाई नहीं दिया। परन्तु इतना जान गया कि बाहर कोई महिला नहीं बल्कि कोई मोटा-ताजा आदमी खड़ा है। उसे देखकर उसका दिल जोर से धक-धक करने लगा। अपने मन ही मन सोचने लगा कि शायद बच्चे की बात का राज उजागर न हो गया हो और पुलिस उसे पकड़ने के लिए आई हो। वह काफी देर तक दरवाजे के पीछे खड़ा होकर सोचने लगा कि अब यहाँ से बच कर कैसे भागा जाए।

       उधर बाहर खड़े हुए बदमाश को पक्का यकीन हो गया कि कलुआ जो दरवाजा नहीं खोल रहा है, इसके पीछे जरूर इसकी कोई न कोई साजिश है। उसने एक बार फिर दरवाजे पर जोर से हाथ मारा। अब कलुआ को अपने बच निकलने की कोई उम्मीद नहीं लग रही थी। उसने कमरे के अंदर इधर-उधर निगाह दौड़ाई, मगर बाहर जाने का रास्ता तो केवल यही एक दरवाजा था। उसने थोड़ा सोचा और इस तरह खड़ा हो गया कि दरवाजा खुलने पर वह उसके पीछे आ जाए। पूरी योजना बनाकर उसने एक झटके से अंदर लगी चिटकनी नीचे खींच दी। अचानक खुले दरवाजे से बदमाश एकदम सीधा अंदर गया। इससे पहले कि वह संभलता और कुछ कह पाता, कलुआ उसकी ओर देखे बिना ही बाहर गली की ओर भाग गया। यह देखकर बदमाश का संदेह अब हकीकत में बदल गया। मुड़कर वह भी उसके पीछे भागने लगा। उन्हें भागता देखकर गली में खड़े बदमाशों को समझने में देर नहीं लगी। उन्होंने आगे बढ़ कर कलुआ को दबोच लिया। अपने साथ घटी इस अप्रत्याशित घटना से घबराकर कलुआ बोला:

‘क्या बात है? कौन हो तुम? मैंने क्या किया है?’

‘हम कौन हैं और तूने क्या किया है इसका पता अब थोड़ी देर में ही चल जाएगा। अब ज्यादा चूँ-चूँ मत करना वरना हमारा पता चलने से पहले ही हमें तेरी जुबान बंद करनी पड़ जाएगी। अपनी जुबान पर ताला लगा और चुपचाप हमारे साथ चल, इसी में तेरी भलाई है।’ एक बदमाश उसकी कमर पर चाकू लगा कर बोला।

       यूँ तो कलुआ भी छंटा हुआ बदमाश था और कैसे किस से निपटा जाता है वह भली प्रकार से जानता था। परन्तु आज तो वह तीन हट्टे-कट्टे बदमाशों से घिरा था और वह भी निहत्था, इसलिए उसने चुपचान उनके साथ चलने में ही अपनी भलाई समझी। वह उसे लेकर जब जग्गू के अड्डे पर पहुँचे तो कलुआ की जान में जान आई। वह उनकी ओर देखकर बड़े हौसले से बोला:

       ‘ओ यार! तुम तो अपने ही आदमी हो। ऐसा सलूक करने की क्या जरूरत थी। मुझे बता देते, मैं तो अपने आप ही चला आता। मैंने तो सोचा था पता नहीं कौन हो।’ यह कहकर कलुआ जोर से हँसने लगा।

       ‘लगता है साला धंधे में डलने से पहले नाटकों में काम करता रहा होगा।’ एक बदमाश ने चुपके से फुसफुसाहट की।

       जग्गू एक तो रात को देर से सोया था और दूसरे अधिक शराब पी जाने की वजह से बह कुछ सोचने और समझने की हालत में नहीं था। उसे ऐसी हालत में उठाने की हिम्मत उनमें नहीं थी। इसलिए एक बदमाश थोड़ा हौसला करके जग्गू के पास गया और बोला:

       ‘बॉस!’

       ‘हूँ............।’ जग्गू ने अचेत अवस्था में हुँकारा दिया।

       ‘ले आए हैं हम उस बदमाश को।’

       ‘बहुत अच्छा किया।’ उसने जवाब दिया।

       ‘अब क्या करें?’ उसने पूछा।

       ‘जग्गू को नशे में कुछ याद नहीं रहा था। बोलाः

       ‘कसूर क्या है?’

       ‘ये कल लड़के को उठाकर ले गया था और आज जब हम बुलाने गए तो साला भाग गया था। बड़ी मुश्किल से काबू करके लाए हैं।’ उसने जवाब दिया।

       जग्गू को यह भी मालूम नहीं था कि जिसके बारे में बात कर रहे हैं वह कलुआ है। बुड़बुड़ाता हुआ बोला:

       ‘साले गुंडे के पुर्जे टाइट कर दो और जो भी करना है सो करो, पर मुझे परेशान मत करो, जाओ।’ यह कहकर जग्गू चुप कर गया।

तीनों बदमाश कलुआ को नीचे तहखाने में ले गए। उसके बार-बार अपनी बात कहने पर भी उन्होंने उसकी एक नहीं सुनी और मार-मार कर उसका बेहाल कर दिया। बहुत अधिक चोट पड़ने से कलुआ बेहोश हो गया। यह सोचकर कि वह दर्द से करहाता रहेगा उन्होंने शराब की बोतल उसके मुँह में ठूँस कर शराब की काफी मात्रा उसके गले से नीचे उतार दी। उसे वहीं छोड़कर और बाहर से दरवाजा बंद करके वे बाहर निकल गए। सूरज निकलने के बाद बदमाश अपने-अपने ठिकानों की ओर चले गए। अधिक मार से दिन में कलुआ की मौत हो गई। अंधेरा पड़ने पर शाम को जब वे बदमाश जग्गू के अड्डे पर पहुँचे तो उन्हें कलुआ का ख्याल आया। नीचे जाकर देखा तो उसके प्राण पंखेरू पहले ही उड़ चुके थे। अब समस्या थी उसकी लाश को ठिकाने लगाने की। आपस में विचार विमर्श करने के पश्चात् अपने एक साथी को उन्होंने जग्गू के पास भेजा। जब वह जग्गू के पास आया तो उस समय जग्गू और कालीचरण व्हिस्किी की बोतल खोल कर डटे हुए थे। उसे देखकर जग्गू बोला:

       ‘भूरे, क्या बात है? आज की उगराही कितनी हुई।’

       ‘बॉस, उगराही की बात तो बाद में करूँगा। एक गड़बड़ हो गई है, पहले उसका निपटारा करना जरूरी है।’

       ‘क्या हो गया है?’ उसने प्रश्न किया।

       ‘सवेरे जिस बदमाश को हम लेकर आए थे वह मर गया है।’ वह बोला।

       ‘कौन, कलुआ? क्या हुआ है कलुआ को? कैसे मर गया वो?’ जग्गू हैरान हुआ सा पूछने लगा।

       ‘मार जरा ज्यादा ही पड़ गई थी। शायद सहन नहीं कर पाया।’ उसने जवाब दिया।

       ‘क्या बात हो गई थी? किसने मारा है उसे?’ जग्गू को सुबह की बात बिल्कुल याद नहीं थी।

       ‘बॉस, तुमने ही तो कहा था।’

‘मैंने?’ जग्गू कुछ सोचता हुआ सा बोला।

       ‘सुबह जब हम उसे तुम्हारे पास लेकर आए थे। बड़ी मुश्किल से लाए थे उस वक्त वह तो भाग गया था। हमें तो पक्का यकीन है, लड़के को छुड़ाने में इसी का हाथ था।’ वह जग्गू को यकीन दिलाता हुआ बोला।

       ‘गज़ब कर दिया तुम लोगों ने। कितना भला आदमी था। हर बात में मेरी सलाह लिया करता था। और मैंने उसे यहाँ लाने के लिए कहा था, तुम लोगों को ये तो नहीं कहा था कि तुम उसकी जुबान ही बंद कर दो। यह तो सच में बहुत बुरा हुआ। अब क्या सोचें?’ वह कालीचरण की ओर मुँह करके प्रश्नात्मक लहजे में बोला।

       कालीचरण ने अपने बाएं हाथ से अपनी गर्दन पर खुजली सी की ओर सोचकर बोला:

       ‘अब जो हो गया है उससे तो निपटना ही पड़ेगा। अंधेरा होते ही उसकी लाश ठिकाने लगानी पड़ेगी। थोड़ा होशियारी से काम लेते हुए उसे रेलवे लाइन पर पटक आओ। समझे?’

       ‘भूरे ने अपनी गर्दन हिलाकर उसकी बात को मानने की स्वीकृति का संकेत दिया और कमरे से बाहर निकल गया। आधी रात के लगभग उन्होंने कलुआ की लाश को कम्बल में लपेटा और फिर उसे गाड़ी की डिक्की में डालकर खेतों में सुनसान जगह पर ले गए। वहाँ जाकर उन्होंने उसे कम्बल में से निकाला और रेल की पटरी पर रखकर वापस आ गए। सुबह होते ही पूरे शहर में आग की तरह खबर फैल गई कि एक आदमी गाड़ी के नीचे आकर कट गया है। कहते हैं कि बुराई का अंत बुराई से ही होता है। एक मासूम की जिंदगी का सौदा करने वाले जीजा और साला दोनों चार दिन के अंतराल में ही अपने दुष्कर्मों का परिणाम भुगत चुके थे।