बड़ी माँ - भाग 11 Kishore Sharma Saraswat द्वारा फिक्शन कहानी में हिंदी पीडीएफ

Featured Books
श्रेणी
शेयर करे

बड़ी माँ - भाग 11

11

 

आगामी छुट्टियों में राम आसरी ने मुन्ना को रोज-गार्डन, रॉक-गार्डन व कुछ अन्य दर्शनीय स्थानों की सैर करवाई। इस प्रकार मुन्ना अब चण्डीगढ़ से काफी परिचित हो चुका था और उसे इस शहर से बहुत अधिक लगाव भी हो गया था। धीरे-धीरे समय गुजरता गया, इक्कतीस मार्च आया और साथ में वार्षिक परीक्षाओं के परिणाम लाया। मुन्ना अब पाँचवी कक्षा उत्तीर्ण करके छठी कक्षा में हो गया था। पढ़ने-लिखने और बोलने में तो वह चुस्त था ही, उसकी चाल-ढाल व पहनावा भी उस पर खूब फबता था। उसे देखकर कोई भी यह नहीं कह सकता था कि वह एक मामूली सब्जी बेचने वाली का बेटा है। राम आसरी को भी उस पर बड़ा नाज़ था। ज्यों-ज्यों मुन्ना की उम्र बढ़ रही थी, राम आसरी को ऐसा महसूस होने लगा था कि शायद वह फिर से जवान होने लगी है। अब उसके लिए अतीत के दुःखों की गठरी दफन हो चुकी थी। उसके सामने तो अब उज्जवल भविष्य का सपना साक्षात हकीकत में बदलता नज़र आ रहा था। कई बार अकेले में सोचने लगती थी कि अपना बेटा नहीं है तो क्या हुआ? क्या यह जरूरी है कि कोख से जन्म लेकर ही संतान का माँ से सम्बन्ध बनता है? नहीं, हरगिज नहीं। जन्म लेना और जन्म देना अलग बात है और इस पवित्र बंधन को निभाना अलग बात है। कितने माँ-बाप हैं, जिन्हें अपनी संतान से भरपूर सुख मिला है? अब तो यह गिनती अँगुलियों पर गिनाई जा सकती है। बुजुर्ग सच ही कहते थे कि परिवार तो पूर्व जन्मों के सम्बन्धों का बन्धन है और इस पृथ्वी पर आकर उनका लेखा-जोखा पूरा किया जाता है। बाकी तो सब नश्वर है। न कोई कभी किसी का रहा है और न रहेगा। बस केवल पूर्वकृत कर्मों का भुगतान किया और चलते बने। फिर मैं यह क्यों मानलूँ कि ये मेरा बेटा नहीं है। यह हमारे पूर्व जन्म के सम्बन्ध ही रहे होंगे जो किसी और माँ की कोख से जन्म लेने के पश्चात् भी मातृत्व का सुख मुझे मिला है। परन्तु इसके बावजूद भी उसके लालन-पालन में राम आसरी का कोई निजी स्वार्थ निहित नहीं था। वह माँ के दिल की तड़फ बाखूबी जानती थी। अपना सब कुछ लुटा कर जिसे वह एक दिन महान देखना चाहती थी, उसे आज भी वह उसकी माँ के सुपुर्द करने में कोई हिचकिचाहट महसूस नहीं करती थी, बशर्ते कि वह उसे मिल जाए। बस इतना जरूर होता कि जिंदगी की जवानी का सफर भी उसने तड़फ-तड़फकर गुजारा और अब बुढ़ापा उसे पुनः दोहराता। परन्तु वह इस अग्नि परीक्षा के लिए तैयार थी, क्योंकि उसके भीतर एक माँ का दिल जो धड़क रहा था।

       छठी कक्षा के जिस सेक्सन में मुन्ना पढ़ रहा था, उसे गणित का विषय आचार्य जी पढ़ाया करते थे। पिता जी अध्यापक थे और बेटा छात्र। परन्तु यह कैसी विडम्बना थी, देानों एक-दूसरे को नहीं पहचान पा रहे थे। मुन्ना बड़ा हो चुका था। उसकी शक्ल और आवाज दोनों बदल चुके थे। आचार्य जी बेटे के वियोग में बहुत दुबले-पतले हो गए थे और ऊपर से पहनावा एकदम अलग। पैंट-शर्ट की जगह अब सफेद कुर्ता-पायजामा ले चुका था और सिर और चेहरे का स्वरूप लम्बे और घने बालों, जो सफेद हो चुके थे, ने छुपा लिया था। आँखों पर चश्मा चढ़ चुका था। आवाज बदल चुकी थी। उसमें पहले वाला दम-खम नहीं रह गया था। एकदम शाँत और दया की मूर्ति लगते थे। उन्हें देखकर कई बार स्टाफ रूम में बैठे हुए उनके सहयोगी भी मजाक में कहते रहते थे कि आचार्य जी आपकी शक्ल आपके विषय से बिल्कुल भी मेल नहीं खाती। स्कूल में अक्सर गणित विषय के अध्यापक को अन्य विषयों के अध्यापकों की अपेक्षा काफी सख्त समझा जाता था।

        मुन्ना थोड़ा बड़ा हो चला था, इसलिए राम आसरी अपना काम अब कुछ निश्चिंत होकर करने लगी थी। आमदन में भी पहले की अपेक्षा इजाफा होने लगा था। ऐसा लगने लगा था मानो कि अब जिंदगी में खुशियों का एक नया दौर शुरू होने वाला था। परन्तु होनी को तो कुछ और ही मंजूर था। वक्त को भी जैसे इस हँसी-खुशी से ईष्र्या होने लगी थी और वह बदला लेने की फिराक में था। अगस्त महीने का अन्तिम सप्ताह था। सुबह के समय आसमान बिल्कुल साफ था। आकाश की ओर देखकर तो ऐसा लगता था कि शायद वर्षा ऋतु अंतिम विदाई लेकर प्रस्थान कर चुकी है। फिर भी मौसम की छाप साफ झलक रही थी। वृक्ष हरि-भरी पत्तियों से लदे पड़े थे, जिनके बोझ से टहनियाँ धरती को चूमने के लिए बेताब हो रही थीं। गीली मिट्टी जरूर कुछ सूखकर सख्त हो चुकी थी तथा अब पैरों में पहने जूतों को चिपक नहीं रही थी। परन्तु उसम की चिपचिपाहट अभी राहगिरों को पैदल चलने से रोकने के लिए अपना प्रभाव अवश्य दिखा रही थी। राम आसरी ने मुन्ना को स्कूल भेजने के लिए तैयार किया और रिक्शा आने पर उसे स्वयं उस पर बैठाकर आई। उसकी चाल और व्यवहार में अब काफी अंतर पड़ चुका था। उसका सपूत जो अपनी कक्षा में पहले नम्बर पर आया था। कमरे में वापस आकर उसने मंडी जाने की तैयारी की और फिर बाहर आकर आकाश की ओर देखा। मौसम एकदम बिल्कुल साफ था, इसलिए उसने आज छाता साथ ले जाना उचित नहीं समझा। वह मंडी पहुँचकर रोज की तरह अपने काम में व्यस्त हो गई।

       दिन के बारह-एक बजे का समय रहा होगा। अचानक धूल-  आँधी का एक झोंका बड़े वेग से आया। चारों तरफ धूल ही धूल और मिट्टी हो गई। राम आसरी ने धोती के पल्लू से अपनी आँखों में पड़े धूल के कण साफ किए और फिर उसी पल्लू से चेहरे पर पड़ी धूल  साफ की। सब्जी की ढेरियों में पड़ा हुआ कचरा और कबाड़ चुन-चुन कर बाहर निकाला और फिर बाकी बचे सामान को समेटने लगी। तभी पुनः तेज हवा के झोंकों के साथ काले-काले मेघों का आगमन हुआ। दिन का सफेद उजाला रात के अंधेरे में बदलने लगा। ऐसा लग रहा था मानो ईन्द्र देव अपने पूरे लश्कर के साथ दुश्मन का सर्वनाश करने के लिए कूच कर रहे हों। मौसम का बिगड़ा मिजाज देखकर राम- आसरी को एकदम मुन्ना की याद आई। वह चाहती तो किसी दूकान के बरामदे में शरण ले सकती थी, परन्तु मुन्ना के कारण उसने अपने मकान पर चलना उचित समझा। ज्योंही वह सामान उठाकर उसे रखने के लिए आगे की ओर बढ़ी, आसमानी बिजली की तेज चमक और गड़गड़ाहट से उसका पूरा शरीर कंपकंपा उठा। बदहवाश होकर वह दूकान की ओर भागी और वहाँ पहुँच कर उसने एक कोने में अपना सामान टिका दिया। फिर वह बाहर निकली और अपने मकान की ओर चल पड़ी। हवा की तेज गति के साथ एक जोर की बौछार पड़ी। राम- आसरी नीचे गिरते-गिरते सम्भली। चंद मिनटों में ही चारों तरफ पानी ही पानी हो गया। राम आसरी ने अपने पैरों में से चप्पलें निकाली और उन्हें अपने दाएं हाथ में पकड़ लिया। फिर अपने बाएं हाथ से धोती को घुटनों तक ऊपर उठाया और बारीश में भीगती हुई चल पड़ी। सेक्टर छब्बीस की दूकानों के बरामदों में से होकर वह सेक्टर छब्बीस व सात के बीच से गुजरने वाली सड़क पर पहुँची। वह अभी आधी सड़क ही पार कर पाई थी कि बारिश की एक तेज बौछार उसके चेहरे पर पड़ी। बूँदें इतनी जोर से पड़ी मानो कंकरों की बरसात हो रही हो। बचाव में अनायास ही राम आसरी की आँखें बंद हो गई। चौराहे के पास सड़क को दो भागों में बाँटने वाला डिवाइडर पानी में डूबा हुआ था। राम आसरी को उसका ख्याल नहीं रहा। वह उस से टकरा कर नीचे गिर पड़ी। हाथ में पकड़े हुए दोनों चप्पल छूट गए। भागकर वह उन्हें पकड़ने की कोशिश करने लगी, परन्तु उसकी टाँगें तो जवाब दे चुकी थी। पत्थर से टकराकर दायाँ घुटना चोट ग्रस्त हो चुका था। उसकी आँखों के सामने उसकी चप्पलें बही चली जा रही थी। बड़ी मुश्किल से, दर्द से बेहाल, वह किसी तरह अपने कमरे पर पहुँची। मुन्ना अभी स्कूल से नहीं आया था। ज्यों-ज्यों वक्त बीतने लगा ठंड के कारण उसकी टाँगें अकड़ने लगी और उसे उठने-बैठने और चलने में तकलीफ होने लगी। वह चारपाई पर लेट गई। एक घंटे भर बाद बारिश रुक गई। मुन्ना स्कूल से वापस आया तो राम आसरी की हालत देखकर घबरा गया। उसने जल्दी से अपना स्कूल बैग ट्रंक पर रखा और राम आसरी से पूछने लगा:

       ‘बड़ी माँ, आपको क्या हुआ?’

       ‘तू आ गया बेटा?’ वह दबी आवाज में बोली।

       उसकी दुःख भरी आवाज सुनकर मुन्ना को ऐसा लगा मानो  उसका सब कुछ लुट गया हो। उसकी आँखें भर आई और आवाज भी रोने जैसी हो गई। उसने अपने दोनों हाथों से राम आसरी का हाथ पकड़ा और रोता हुआ बोला:

       ‘बड़ी माँ, आपको क्या हुआ? आप ठीक से बोलती भी नहीं। देखो मैं हूँ न आपके पास। आप बैठ जाओ। उठ जाओ न बडी़ माँ।’ यह कहते हुए वह उसे हाथ से पकड़कर उठाने की कोशिश करने लगा। राम आसरी ने लेटे हुए ही उसकी ओर आँखें खोलकर देखा और फिर होंठों पर हलकी सी मुस्कान लिए बोली:

       ‘तू ठीक तो है न मेरे बेटे? कहीं बारिश में भीग तो नहीं गया?’ यह कहते हुए वह अपने दाएं हाथ से उसके कमीज को टटोलने लगी।

       ‘नहीं बड़ी माँ, हम तो बारिश रुकने के बाद ही स्कूल से चले थे।’ वह सिसकियाँ भरता हुआ बोला।

       ‘अच्छा बेटा, पर तू रो क्यों रहा है? मुझे क्या हुआ है? थोड़ी चोट ही तो है, ठीक हो जाएगी।’ यह कहते हुए उसने थोड़ी देर के लिए अपनी दोनों आँखें मूँद ली। मुन्ना चुपचाप उसकी ओर देखता रहा। राम आसरी ने दोबारा अपनी आँखें खोली और उसकी ओर देखकर बोली:

       ‘बेटा, तू अपने कपड़े बदल ले और फिर खाना खाले।’

       ‘मैं तो खा लूँगा बड़ी माँ, आप भी तो लो न। हम दोनों इकट्ठे बैठकर खाएंगे।’ उसने जवाब दिया।

       ‘नहीं बेटा, मेरा खाने को बिल्कुल भी मन नहीं है। मैं अभी कुछ नहीं लूँगी।’ वह अपनी अकड़ी हुई टाँगों को सीधा करती हुई बोली। बोलते हुए उसके चेहरे पर दुःख-तकलीफ के भाव साफ नज़र आ रहे थें।

       ‘आपकी टाँगों को क्या हुआ बड़ी माँ?’ वह उसके पास चारपाई पर बैठता हुआ बोला।

       ‘कुछ नहीं बेटा, मुझे कुछ नहीं हुआ है। अब तू ज्यादा बातें मत कर और खाना खा ले।’ वह दबी आवाज में ही बात को लम्बी खींचती हुई बोली।

       ‘क्यों बड़ी माँ? क्यों खाऊँ मैं खाना? आप नहीं खाओगी तो मैं भी नहीं खाऊँगा।’ वह जिद करता हुआ बोला।

       राम आसरी ने एक गहरा साँस छोड़ा और फिर बोली:

       ‘बेटा, क्यों जिद कर रहा है? मैं तुम्हारी तरह कोई बच्चा थोड़े न हूँ। जब मेरा मन करेगा तब मैं खा लूँगी। इस वक्त तो तू मुझे थोड़ा पानी पिला दे। मेरा गला सूखा जा रहा है।’ राम आसरी हाथ से अपने गले को छूती हुई और मुँह में बचे खुचे लार को घूँटती हुई बोली। मुन्ना ने पानी का गिलास भरा और उसके पास आकर बोला:

       ‘लो बड़ी माँ, पानी ले लो।’

       राम आसरी उठकर बैठने की कोशिश करने लगी, परन्तु  उससे उठा नहीं गया। बेबसी में उसने मुन्ना की ओर देखा और बोलीः        ‘बेटा, जरा अपने हाथ का सहारा देना।’

       मुन्ना ने उसे उठाने के लिए उसके दोनों बाजू पकड़े पर यह क्या? उसका शरीर तो आग की तरह तप रहा था। उसने बाजू छोड़ दिए और बोला:

       ‘बड़ी माँ, आप इतनी गर्म क्यों हैं? आप के हाथ तो आग की तरह गर्म लग रहे हैं।’

       ‘बेटा, मुझे लग रहा है शायद मुझे बुखार हो गया है। तू बेटा मुझे सिर के पीछे से पकड़कर उठा।’ वह चारपाई पर दोनों बाहों का सहारा लेकर उठने की कोशिश करती हुई बोली।

       मुन्ना उसके सिरहाने की ओर खड़ा हुआ और अपनी दोनों   हथेलियाँ उसके सिर के पीछे लगाकर उसे उठाने की कोशिश करने लगा। बड़ी मुश्किल से राम आसरी बैठी हुई। मुन्ना ने उसे पानी का गिलास थमा दिया। राम आसरी अपने काँपते हाथों से गिलास पकड़ कर पानी पीने लगी। पानी पीकर उसने खाली गिलास मुन्ना को पकड़ा दिया और अपनी दोनों आँखें मूँदकर बैठ गई। मुन्ना ने उसे इस प्रकार चुप बैठे देखा तो वह और घबरा गया। रूँद्धे गले से बोलाः

‘बड़ी माँ, आप चुप क्यों हो? मेरे साथ बोलती क्यों नहीं?’

राम आसरी ने आँखें खोलकर उसकी ओर देखा और दबी आवाज में बोली:

       ‘बेटा, मेरे से बैठा नहीं जा रहा है। मेरी गर्दन को सहारा देकर मुझे लिटा दे।’

       मुन्ना ने उसे अपने हाथों से सहारा देकर चारपाई पर लिटा दिया। राम आसरी आँखें बंद किए चुपचाप लेट गईं। मुन्ना भी थोड़ी देर चुप रहा और फिर बोला:

       ‘बड़ी माँ, मैं दवाई लेकर आऊँ?’

       ‘कहाँ से लेकर आएगा बेटा?’ राम आसरी आँखें बंद किए ही बोली।

       ‘इस मकान वालों से पूछता हूँ।’ वह कोठी की ओर इशारा करता हुआ बोला।

       ‘नहीं बेटा, ये बड़े लोग हैं। इन्हें परेशान नहीं करते। बुरा मान जाएंगे।’ राम आसरी ने उसे समझाया।

       राम आसरी कोने वाली कोठी की अनेक्सी में रहती थी। बाहर आने जाने के लिए पीछे से एक छोटा गेट था। इसलिए मकान मालिकों से कभी वास्ता नहीं पड़ता था। किराया भी नौकर ही लेकर जाते थे। बाहर बड़ा कारोबार था, इसलिए कभी-कभार ही यहाँ आते थे। अक्सर कोठी में नौकर-चाकर ही रहते थे। अनेक्सी खाली पड़ी थी सो सुरक्षा कारणों से उसे किराये पर दे दिया था। आजकल वह लोग इधर ही आए हुए थे। राम आसरी तो आँखें बंद किए हुए लेटी थी, इसलिए मुन्ना चुपचाप उठा और पीछे वाली लॉन को पार करके ज्योंही गैरेज की बगल से आगे निकला, बाहर खड़ी मकान मालकिन की नज़र उस पर पड़ी। उसे देखते ही वह चिल्लाई:

       ‘इधर क्या कर रहा है? कोई चीज उठानी है क्या? तेरी इधर आने की हिम्मत कैसे हुई? गंदी नाली का किड़ा। भाग जा यहाँ से। ’

       ‘मेरी बड़ी माँ बीमार हैं।’ वह रूद्धे गले से बोला।

       ‘आई से गेट-आउट।’ वह और ऊँची आवाज में चिल्लाई।

       मुन्ना अपनी आँखों से आँसू पोंछता हुआ पीछे मुड़ गया। कमरे में जाकर उसने अपने दाएं हाथ से राम आसरी का कंधा पकड़ कर उसे हिलाया और बोला:

       ‘बड़ी माँ, मुझे पैसे दे दो।’

       ‘क्यों बेटा? क्या करेगा पैसों का? वह बड़ी कमजोर आवाज में बोली।

       ‘मैं दूकान से आपके लिए दवाई लेकर आऊँगा।’

       ‘बेटा, तुझे दवाई के बारे में क्या पता है? क्या दवाई लेकर आएगा तू? रहने दे कल तक मैं ठीक हो जाऊँगी। और अगर नहीं भी ठीक हुई तो मैं अपने आप अस्पताल हो आऊँगी। तू मेरी चिंता मत कर। आराम से बैठ जा। ऐसी बीमारीयाँ-ठीमारियाँ तो मुझे बहुत बार आ चुकी हैं। ये हड्डियाँ धूप में काम करके बहुत मजबूत हो गई हैं। इन पर बीमारियों का कोई असर पड़ने वाला नहीं है।’ वह उसे धीरज देती हुई बोली।

       ‘नहीं, जैसे आप दर्द से परेशान हैं ऐसे तो रात बितानी मुश्किल हो जाएगी। मैं बुखार की दवाई कहकर लाऊँगा। आप मुझे पैसे दे दो।’ वह आग्रह करने लगा।

       ‘अच्छा, जैसी तेरी मर्जी।’ कहकर राम आसरी ने अपनी कमर के पास से गीली धोती में से पोलीथीन का एक लिफ़ाफ़ा निकाला और उसे खोलकर उसमें से एक दस रुपये का नोट निकाला और मुन्ना को दे दिया। मुन्ना ने नोट अपनी जेब में डाला और बाहर निकलता हुआ बोला:     

‘बड़ी माँ! मैं दवाई लेकर आता हूँ, तब तक आप इन भीगे कपड़ों कोे बदल लो।’

       राम आसरी आँखें खोलकर देखती रही, परन्तु मुँह से कुछ नहीं बोली। मुन्ना जब बाजार में पहुँचा तो उसके सामने पहली दूकान परचून की थी। किस दूकान में क्या मिलता है उसे बिल्कुल मालूम नहीं था। क्योंकि राम आसरी ने पढ़ाई-लिखाई के अतिरिक्त उस से कभी कोई काम नहीं करवाया था। दूकान में कुछ ग्राहक खड़े थे। मुन्ना दूकान के भीतर गया और दूकानदार से बोला:

       ‘मेरी माँ बीमार है, उसे दवाई दे दो।’

        दूकान में खड़े ग्राहक बड़े जोर से हँसे-हीं.....हीं.......हीं........ओ हा....हा.....हा....। एक आदमी दूकानदार को सम्बोधित करते हुए बोला:

‘ओ लाला जी! ये डॉक्टरी का कोर्स कब से कर लिया है?’

यह कहकर वह फिर से हँसने लगे। उसकी बात सुनकर लाला जी भी मुस्कुराने लगे। मुन्ना को एक तो बड़ी माँ की बीमारी का दुःख था, ऊपर से ये लोग मजाक उड़ा रहे थें। वह इस भीड़ में अपने आपको असहाय महसूस करने लगा। सामने काऊँटर पर तराजू  की बगल में कुछ बाट पड़े थे। उसका मन हुआ कि इन्हें उठाकर वह इन हँसने वालों को दे मारे। नन्हें के मन में उठी ज्वाला से उसका स्वयं का चेहरा तपकर लाल हो गया। बच्चा था, बड़ों का क्या बिगाड़ सकता था? कोई पेश न चलती देखकर वह रोने लगा। हँसने वाले लोग चुप हो गए। लाला जी को भी उस पर तरस आ गया। वह कहने लगा:

       ‘बेटा, ऐसे हिम्मत नहीं हारा करते। शाबाश! तू तो शेर है, हौसला रख। तेरे जैसे बच्चे इन बातों से थोड़े न घबराते हैं। बेटा, तुम्हारी माँ बिल्कुल ठीक हो जाएगी। ऐसा कर, ये दाएं बाजू की ओर दो दूकानें छोड़कर कैमिस्ट की दूकान है, वहाँ जाकर उससे दवाई लेले।  शाबाश बेटा।’ 

       उसकी यह बात सुनकर मुन्ना को कुछ ढाँढ़स बंधा। वह दूकान से बाहर निकलकर कैमिस्ट की दूकान की ओर चला गया। दूकान पर पहुँचा तो वहाँ पर बहुत भीड़ थी। काऊँटर पर खड़े लड़के को सम्बोधन करते हुए बोला:

       ‘मेरी बड़ी माँ बीमार है। दवाई दे दो।’

       परन्तु उसकी आवाज उस भीड़ में खो कर रह गई। किसी ने भी उसकी ओर ध्यान नहीं दिया। थोड़ी देर इंतजार करने के पश्चात् उसने अपनी जेब से दस रुपये का नोट निकाला और उसे दवाई देने वाले लड़के की ओर करते हुए वह पुनः बोला:

       ‘मेरी बड़ी माँ बीमार है, उसके लिए दवाई दे दो।’

       परन्तु उसकी ओर किसी ने भी ध्यान नहीं दिया। बड़ी उम्र के लोग आते रहे और दवाईयाँ लेकर बाहर निकलते रहे। आखिर इंतजार की भी कोई हद होती है। उसका सब्र टूट गया। वह अपनी पूरी ताकत से चिल्लाया:

       ‘मेरी बड़ी माँ बीमार है। उसके लिए दवाई दे दो।’ उसकी चींख सुनकर वहाँ पर खड़े सभी लोग उसकी ओर देखने लगे। परन्तु काऊँटर पर खड़ा आदमी गुस्से में होकर बोला:

       ‘अबे ओ छछुंदर की औलाद, क्यों चिल्लाह रहा है? चल भाग यहाँ से।’ वह अपने दाएं हाथ के अँगूठे और अँगुलियों से चुटकी बजा कर बाहर की ओर इशारा करता हुआ बोला। मुन्ना बाहर निकलने की बजाय वहीं पर खड़ा रहा। काऊँटर के पीछे कोने में कुर्सी पर बैठा हुआ एक बुजुर्ग, जो शायद दूकान का मालिक होगा, यह सब देख रहा था। वह उठकर खड़ा हुआ और मुन्ना की ओर हाथ का इशारा करता हुआ बोला:

       ‘बेटा, इधर मेरे पास आओ।’

       मुन्ना अपनी आँखें नीचे किए हुए उसकी ओर चला गया। जब वह वहाँ पर पहुँचा तो वह बुजुर्ग बोला:

       ‘लाओ, पर्ची दो मुझे।’

       मुन्ना हाथ में पकड़ा हुआ दस रुपये का नोट उसे देने लगा।

       ‘अरे! पैसे बाद में देना, पहले दवाई की पर्ची दो।’ वह बुजुर्ग बोला।

       ‘दवाई की पर्ची कैसी होती है? मेरे पास तो कुछ भी नहीं है।’ मुन्ना अपनी भोली आवाज में बोला।

       ‘तो पर्ची के बगैर दवाई कैसे दें?’ बुजुर्ग ने प्रश्न किया।

       ‘आप, अपने आप बना दो न पर्ची।’ मुन्ना बुजुर्ग की समस्या का हल निकालता हुआ बोला।

       ‘नहीं बेटा, मैं कैसे बना दूँ? पर्ची तो डॉक्टर बनाता हैं। पहले डॉक्टर से पर्ची बनवाकर लाओ, फिर दवाई ले जाना।’ बुजुर्ग बोला।

       ‘डॉक्टर कहाँ पर मिलेगा?’ मुन्ना उससे पूछने लगा। 

       बुजुर्ग ने अपने दोनों होंठ अपने दाँतों के बीच में दबाए और पलकें नीची करके थोड़़ी देर चुप रहा और फिर बोला:

       ‘बेटा, अब डॉक्टर नहीं मिलेगा। डिस्पेंसरी का समय खत्म हो चुका है। कल सुबह अपनी बड़ी माँ जी को वहाँ पर डॉक्टर साहब को दिखा देना। ठीक है न?’

       ‘हूँ........।’ कहकर फिर अपनी भूल सुधारकर मुन्ना बोला:

       ‘जी।’

       ‘अच्छा ये बताओ कि तुम्हारी बड़ी माँ जी को क्या बीमारी है?’ बुजुर्ग, बच्चे से हमदर्दी दिखाता हुआ पूछने लगा।

       ‘वह बारिश में भीग गई है। बहुत जोर का बुखार चढ़ा है। सारा शरीर आग की तरह तप रहा है और टाँगों में भी चोट लगी है। उनमें भी बहुत दर्द है।’ वह एक ही साँस में बोल गया।

       ‘तुम्हारे घर में कोई बड़ा आदमी नहीं है क्या?’ बुजुर्ग ने पूछा।

       ‘नहीं।’ मुन्ना ने सिर हिलाकर जवाब दिया।

       ‘तुम्हारे पिता जी? वो क्या काम करते हैं?’ बुजुर्ग का यह प्रश्न सुनकर मुन्ना आँखें नीची किए हुए चुपचाप खड़ा रहा। उसके चुप रहने पर बुजुर्ग को कुछ शक हुआ तो वह बोले:

       ‘क्या पिता जी नहीं हैं?’

       मुन्ना ने गर्दन हिलाकर ना में जवाब दिया।

       ‘ओह!’ बुजुर्ग अफसोस जताते हुए बोला। फिर उन्होंने एक सेल्ज मैन को बुलाकर उससे चुपके से कुछ कहा और उससे दवाई का पत्ता लेकर बोले:

       ‘बेटा, मैं तुम्हें क्रोसीन की ये दो गोलियाँ दे देता हूँ। अभी जाकर एक गोली ताजे पानी के साथ अपनी बड़ी माँ जी को दे देना। दूसरी गोली छः-सात घंटे के अंतराल के बाद ही देना। एक बात कहूँ बेटा, खाली पेट दवाई बिल्कुल नहीं देनी है। कल सुबह जो भी हालत हो अस्पताल में डॉक्टर से चैक करवाकर ही दवाई लेना। मेरी बात समझ रहे हो न?’

       ‘जी हाँ, मैं समझ गया हूँ।’ मुन्ना गोलियाँ पकड़ता हुआ बोला। वह पैसे देने लगा तो बुजुर्ग ने पैसे लेने से इंकार कर दिया और कहने लगे:

       ‘बेटा, तुम इन्हें अपने पास ही रखो। अगर घर पर खाना नहीं बना है तो इन पैसों से साथ वाली दूकान से ब्रैड ले जाना और दवाई देने से पहले अपनी बड़ी माँ जी को खिला देना।’

       मुन्ना ने बगल की दूकान से ब्रेड का एक पैकेट लिया और वापस मकान की ओर चल पड़ा। जब वह मकान पर पहुंचा तो उस समय राम आसरी तेज बुखार की वजह से लम्बे-लम्बे साँस लेते हुए ‘हाय....हाय......’ की आवाज निकाल रही थी। मुन्ना ने धीरे से उसकी बाजू पकड़ी और बोला:

       ‘देखो न बड़ी माँ! मैं दवाई ले आया हूँ। अब आप दवाई ले लो, फिर आप बिल्कुल ठीक हो जाओगी। दवाई वाले बाबा जी कह  रहे थे कि खाली पेट दवाई नहीं लेनी है। इसलिए मैं ब्रैड लेकर आया हूँ। उन्होंने मेरे से दवाई के पैसे भी नहीं लिए। बड़ी माँ, आप उठकर बैठ जाओ और ब्रैड लेलो। बाद में दवाई ले लेना।’

       ‘मुझ से उठा नहीं जाता बेटा। तू मुझे पहले बैठा दे। मेरा मुँह   और गला भी सूखा जा रहा है। पहले मुझे थोड़ा पानी पिला दे।’ वह तकलीफ में कहराती हुई बोलीें।

       मुन्ना ने उसे बड़ी मुश्किल से बैठाया। संभलते हुए उसने दीवार का सहारा लिया और बोली:

       ‘हाँ.....बेटा, अब जरा पानी दे दे। थोड़ा मुँह और गला सींच लूँ।’

        मुन्ना ने गिलास में पानी डाला और अपने दोनों हाथों से गिलास पकड़कर राम आसरी को पिलाने लगा। खाली पेट पानी उसके गले से नीचे नहीं उतर रहा था। राम आसरी ने अपनी अँगुली के इशारे से उसे और पानी पिलाने से मना कर दिया। मुन्ना ने उसके मुँह से गिलास हटाया और उसे एक तरफ रखते हुए बोला:

       ‘बड़ी माँ, अब थोड़ी ब्रेड ले लो। उन्होंने खाली पेट दवाई लेने से मना किया है।’

       ‘बेटा, किसी भी चीज को खाने का मन नहीं करता। मुँह जहर की तरह कड़वा पड़ा है। तू कहता है तो ला थोड़ी सी देदे।’ राम आसरी अपने दाएं हाथ से आँखों में आया पानी पोंछती हुई बोली।

       ‘बड़ी माँ, इसे सूखा कैसे खाओगी? दूध में डालकर दूँ?’ वह बोला।

       ‘तेरी मर्जी बेटा।’ कहते हुए राम आसरी ने अपने दोनों हाथों से अपना सिर दबा लिया। शायद उसके सिर में दर्द हो रही हो, जिसे वह मुन्ना से छुपाना चाहती हो। मुन्ना ने एक बड़ी प्याली में सुबह का बचा हुआ दूध डाला, चीनी मिलाई और फिर उसमें ब्रेड के छोटे-छोटे टुकड़े करके भीगो दिये। थोड़ा नर्म होने पर वह चम्मच के साथ राम आसरी के मुँह में एक-एक टुकड़ा डालने लगा। बड़ी मुश्किल से राम आसरी ने तीन-चार ग्रास निगले और फिर आँखें बंद करके दीवार के सहारे पसर गई। मुन्ना ने प्याली और चम्मच एक ओर रख दिए और फिर उठकर राम आसरी का सिर दबाने लगा। जब दस-बारह मिनट बीत गए तो उसने गिलास में पानी डाला और एक गोली दवाई की निकाली। अपने हाथों में गिलास और गोली पकड़कर वह राम- आसरी से कहने लगा:

       ‘बड़ी माँ सुनो, अब दवाई ले लो।’ उसकी आवाज सुनकर वह उखड़े साँस के साथ बोली:

       ‘बे........टा, बे.......टा, मेरे हाथ काम नहीं कर रहे .............मुझ से ये उठाये नहीं जाते। तू........ मेरे मुंह में गोली डाल दे.........गोली डाल दे बेटा।’

       मुन्ना ने अपने दाएं हाथ से उसके मुँह में गोली रखी और फिर उसी हाथ में गिलास पकड़कर उसे पानी पिलाने लगा। परन्तु गोली राम आसरी के मुँह में ही अटकी रही। मुन्ना पानी का गिलास दोबारा उसके मुँह में लगाता हुआ बोला:

       ‘बड़ी माँ, गोली को पानी की घूँट के साथ निगल लो, नहीं तो बुखार कैसे टूटेगा?’

       ‘अ...च्......छा .बेटा।’ राम आसरी गहरा साँस छोड़ती हुई बोली। बड़ी कोशिश करने के पश्चात् आखिर गोली गले से नीचे चली ही गई। गोली लेने के पश्चात् राम आसरी ने मुन्ना की ओर देखा और बोली:

       ‘बेटा, अब मुझ से बैठा नहीं जाता। मुझे पहले की तरह लिटा दे।’

        मुन्ना ने अपनी बाहों का सहारा देकर उसे चारपाई पर लिटा दिया। थोड़ी देर के पश्चात् जब दवाई का असर शुरू हुआ तो राम- आसरी ने दर्द में कराहना बंद कर दिया। उसने अपनी आँखें खोलकर वात्सल्य भरी दृष्टि से मुन्ना की ओर देखा। उसकी आँखें भर आईं और आँसू निकलकर नीचे गिलने लगे। शायद माँ के हृदय में उठे प्रेम के तूफान का बाहर निकलने का यही एक सहज रास्ता हो। राम- आसरी अब पहले से बेहतर महसूस करने लगी थी। उसकी हालत में सुधार देखकर अब मुन्ना भी खुश था। राम आसरी उठकर बैठ गई। मुन्ना के सिर पर प्यार से हाथ फेरती हुई बोली:

       ‘क्या खायेगा बेटा तू? खिचड़ी बनाऊँ तेरे लिए?’

       ‘नहीं बड़ी माँ, मुझे भूख नहीं है।’ वह अपनी गर्दन हिलाता हुआ बोला।

       ‘बेटा, कुछ न कुछ तो खाना ही पड़ेगा। ऐसे खाली पेट कैसे नींद आएगी? ऐसा करते हैं मूँग की खिचड़ी बना लेते हैं। थोड़ी सी मैं भी ले लूंगी।’ राम आसरी चारपाई से उठती हुई बोली। मुन्ना भी अब निश्चिंत होकर अपना होम-वर्क करने लगा और राम आसरी धोती से अपनी कमर बांधकर धीरे-धीरे खिचड़ी बनाने लगी। शाम को दोनों ने अपनी इच्छानुसार खिचड़ी खाई और फिर सो गए। राम आसरी की कुछ रात तो आराम से गुजरी, परन्तु ज्योंही सुबह का पहर आरम्भ हुआ बुखार ने पुनः दस्तक दे दी। राम आसरी को कुछ बेचैनी सी होने लगी। उसकी आवाज सुनकर मुन्ना भी उठकर बैठ गया। वह अपने दोनों हाथों से आँखें मलता हुआ बोला:

       ‘बड़ी माँ, क्या बुखार दोबारा आ गया है?’

       ‘मुझे तो कुछ ऐसा ही लग रहा है बेटा।’ राम आसरी जरा तकलीफ में बोली।

       ‘बड़ी माँ, एक गोली अभी बाकी बची है। आप इसे ले लो न, आराम आ जाएगा।’ वह उठकर रेपर में से गोली निकालता हुआ बोला।

       ‘अच्छा बेटा।’ वह बिस्तर पर से उठती हुई बोली। उसने पानी के साथ गोली ली और फिर अपनी दोनों आँखें बंद करके दीवार का सहारा लेकर बैठ गई। दवाई से जब थोड़ी राहत मिली तो वह बिस्तर पर लेट गई। परन्तु सुबह होने तक उसकी तकलीफ पुनः बढ़ गई। राम आसरी की हालत देखकर मुन्ना स्कूल जाने के लिए तैयार नहीं हुआ। रिक्शा वाला आया तो उसे मना कर दिया। सुबह का नाश्ता भी नहीं बना था। दूध वाले से मुन्ना ने रोज की भान्ति दो पैकेट दूध के लिए। उसमें से एक पैकेट खोलकर दूध गर्म किया और कल की बची हुई ब्रेड के छोटे भागों में टुकड़े करके उस में डाल दिए। राम आसरी ने मुश्किल से दो ग्रास लिए और बाकी मुन्ना ने न चाहते हुए भी खा लिए। सुबह कोई आठ बजे का समय रहा होगा। राम आसरी का बुखार और तेज होता जा रहा था। उसमें खड़े होने की सामर्थ्य भी नहीं रह गई थी। मुन्ना उसकी पुनः बिगड़ती हालत देखकर घबरा गया। वह दबी आवाज में कहने लगा:

       ‘बड़ी माँ, कल दवाई वाले बाबा जी कह रहे थे कि कल तुम अपनी बड़ी माँ जी को अस्पताल में ले जाना और पर्ची बनवाकर ही दवाई लेना। बड़ी माँ, चलो हम डॉक्टर जी के पास चलते हैं। उनकी दवाई खाकर आप बिल्कुल ठीक हो जाओगी।’

       ‘बेटा, डॉक्टर जी के पास कैसे चलें। मेरी तो आँखों के आगे भी अंधेरा सा छा रहा है। तू अगर मुझे ले जाना ही चाहता है तो किसी रिक्शा वाले को बुला कर ला, उस पर बैठकर चलेंगे।’ राम आसरी का दम फूलने लगा था।

       ‘अच्छा बड़ी माँ, मैं रिक्शा वाले को बुलाकर लाता हूँ।’ यह कहते हुए मुन्ना बाहर निकलकर सड़क पर आया और रिक्शा वाले को देखने लगा। लगभग दस मिनट के बाद एक रिक्शावाला उधर से निकलता हुआ नज़र आया। मुन्ना ने उसे आवाज दी:

       ‘रिक्शावाले अंकल....अंकल...रुकना।’ सुनकर रिक्शा वाले ने अपना रिक्शा पीछे घुमाया और मुन्ना के नजदीक आकर बोला:

       ‘क्या बात है? कहाँ पर चलना है?’

       ‘अंकल! मेरी बड़ी माँ बहुत बीमार है, उसे अस्पताल ले चलोगे?’

       ‘कौन से अस्पताल में जाना है?’ रिक्शा वाले ने प्रश्न किया।

       ‘जहाँ पर बुखार की दवाई मिलती है।’ मुन्ना अपने भोले अंदाज में बोला। रिक्शावाला समझ गया कि इसे अस्पताल के बारे में कुछ भी मालूम नहीं है। कहने लगा:

       ‘हाँ, ले चलूँगा। किधर है तेरी बड़ी माँ जी?’

       ‘वो कमरे पर है, यहीं पास में। आप मेरे साथ आ जाओ।’ मुन्ना अपने कमरे की ओर हाथ का इशारा करते हुए बोला। रिक्शा वाला उसके साथ चलने लगा। कमरे पर आकर मुन्ना राम आसरी से बोला:

       ‘बड़ी माँ! रिक्शा वाला आ गया है।’

       ‘किधर है बेटा?’ राम आसरी बड़ी मुश्किल से उठती हुई बोली।

       ‘बाहर खड़ा है।’ मुन्ना बाहर की ओर अँगुली का इशारा करता हुआ बोला।

       ‘अच्छा बेटा, जरा मुझे अपना सहारा दे।’ राम आसरी चारपाई से नीचे पाँव रखती हुई बोली। मुन्ना आकर उसके पास खड़ा हो गया। राम आसरी ने अपने दाएं हाथ से उसका कंधा थामा और अपनी टाँगों पर थोड़ा वजन डालते हुए धीरे-धीरे किसी तरह रिक्शा तक पहुँची। रिक्शावाले ने अपने दोनों हाथों का सहारा देते हुए उसे रिक्शा पर बैठा दिया। राम आसरी के कहे अनुसार मुन्ना ने दरवाजे को बंद करके ताला लगाया और फिर आकर राम आसरी की बगल में रिक्शा पर बैठ गया। जैसे ही रिक्शा सड़क पर उतरा तो वह बोला:

       ‘कौन से अस्पताल में चलना है?’

       अब राम आसरी तो अभी तक किसी अस्पताल या डिस्पेंसरी में गई नहीं थी और न ही उसे उनके बारे में कुछ पता था, इसलिए वह बोली:

       ‘भैया, जहाँ पर ठीक दवाई मिले, वहीं पर ले चलो।’

       उनकी भोली-भाली बातें सुनकर उसे आभास हो गया कि इन्हें किसी भी जगह का कोई पता नहीं है। उसके दिल में पाप उपजा कि क्यों न इधर-उधर घुमाकर इनसे कोई मोटी रकम ऐंठी जाए। यह सोचकर वह विपरीत दिशा में रिक्शा लेकर चल पड़ा। परन्तु जब चौराहे के गोलचक्र पर पहुँचा तो उसके मन में बसा राक्षस, भगवान के भय से कांप उठा। सोचने लगा कि इस निसहाय से ठगी करके कौन सा बेड़ा पार हो जाएगा? इन्हें अगर कुछ मालूम नहीं है तो वह परमात्मा तो सब कुछ देख रहा है। उसकी नज़र से कौन बचाएगा? उसका हृदय परिवर्तित हो उठा। उसने रिक्शा वापस घुमाया और डिस्पेंसरी की ओर चल पड़ा। वहाँ पहुँचकर उसने राम आसरी को रिक्शा से उतारा। उतरकर वह पूछने लगी:

       ‘भैया, कितने पैसे दूँ?’

       ‘जो आप ठीक समझो, दे दो।’ वह बोला। फिर थोड़ा रुक कर पूछने लगा।‘ आप वापस भी तो जाओगे?’

       ‘हाँ।’ राम आसरी बोली।

       ‘तो फिर में रुक जाता हूँ। वापस जाकर इकट्ठे ही दे देना।’

       ‘अच्छा भैया।’ राम आसरी बड़ी तकलीफ से नीचे बैठती हुई बोली। थोड़ा साँस ठीक हुआ तो वह मुन्ना का सहारा लेकर डॉक्टर के कमरे के बाहर सीमेंट से बनी स्लैब पर जाकर बैठ गई। मरीजों की काफी भीड़ थी। मुन्ना पास बैठे हुए एक सज्जन से बोला:

       ‘अंकल जी, डॉक्टर सर कहाँ पर बैठते हैं?’

       ‘इस कमरे के अंदर बैठे हैं। क्या बात है?’ वह बोला।

       ‘मेरी बड़ी माँ बीमार है। उनके लिए दवाई लेनी है।’ मुन्ना घबराया हुआ सा बोला।      

       ‘बेटा, लाइन तो बहुत लम्बी है, घंटा-दो घंटा तो लगेगा ही।

       मुन्ना को लगा कि इतनी देर में तो बड़ी माँ का और भी बुरा हाल हो जाएगा। वह उठा और दरवाजे के आगे खड़े लोगों की टाँगों में से निकलता हुआ डॉक्टर के कमरे के अंदर घुस गया। उसने अंदर  जाकर इधर-उधर देखा और फिर मेज के पीछे कुर्सी पर बैठे आदमी के पास जाकर बोला:

       ‘सर, मेरी बड़ी माँ बहुत बीमार है। उन्हें दवाई दे दो।’ बच्चे की मासूमियत पर डॉक्टर को तरस आ गया, वह बोला:

       ‘कहाँ पर है तुम्हारी बड़ी माँ जी?’

       ‘सर, वो बाहर बैठी हैं। मैं अभी लेकर आता हूँ।’

       ‘हाँ ले आओ।’ डॉक्टर बोला।

       मुन्ना कमरे से बाहर निकला और राम आसरी को अपने कंधों का सहारा देते हुए अंदर ले आया।

       ‘पर्ची दो। डॉक्टर बोलाI

       राम आसरी तो चुप रही, परन्तु मुन्ना बोला:

       ‘सर, हमारे पास पर्ची नहीं है। दवाइयों वाले बाबा जी कह रहे थे कि डॉक्टर सर ही पर्ची बनाते हैं।’

       ‘अच्छा ठीक है। क्या बीमारी है?’ वह राम आसरी से पूछने लगे।

       राम आसरी की आप बीती सुनकर डॉक्टर ने स्टेथोस्कोप लगाकर उसके दिल, फेफड़ों और पीठ की जाँच की और फिर नब्ज देखकर हृदय गति चैक की। फिर एक पर्ची निकालकर उस पर कुछ दवाइयाँ लिख दी। पर्ची को राम आसरी के हाथों में थमाते हुए वह बोलाः

       ‘मैंने एक हफ्ते की दवाई लिख दी है। इसे बाजार से ले लेना। पहले और दूसरे नंबर पर गोलियाँ लिखी हैं, इन्हें सुबह और शाम ताजे पानी के साथ लेना है। एक केपसोल भी लिखा है, यह रोज एक लेना है। एक हफ्ते के पश्चात् फिर चैक-अप करवाना है। समझ गई हो न, मैंने क्या कहा है?’

       राम आसरी ने अपनी गर्दन हिलाकर हाँ कह दी। रिक्शा वाला उन्हें घर छोड़ने आया तो राम आसरी ने उसे बीस रुपये का एक नोट दिया, जिसे लेकर वह चुपचाप चला गया। मुन्ना ने बड़ी माँ से पैसे लिए और कल वाले बाबा जी के पास दवाई लेने के लिए चला गया। उसे देखते ही वह हँस कर बोले:

       ‘क्यों, छोटे जवान, अब कैसी है तेरी बड़ी माँ जी?’

       ‘अभी ठीक नहीं है। मैं डॉक्टर की पर्ची लाया हूँ।’

       ‘अच्छा, ला मुझे दे।’ वह पर्ची पकड़ने के लिए हाथ आगे करते हुए बोले। मुन्ना ने उन्हें पर्ची पकड़ा दी। दवाइयाँ निकलवाकर उन्होंने एक लिफाफे में डाली और उसे मुन्ना को पकड़ाते हुए बोले:

       ‘पैसे हैं तुम्हारे पास?’

       ‘जी हाँ।’ मुन्ना ने एक सौ का नोट जेब से निकालकर उन्हें पकड़ा दिया। बाबा जी काऊँटर पर बैठे लड़के से बोले:

       ‘बेटा अस्सी रुपये पचास पैसे काटकर बाकी के पैसे इसे दे दे।’ फिर वह मुन्ना से बोले:

       ‘तुम्हे पता है यह दवाई कैसे लेनी है?’

       ‘जी हाँ।’ मुन्ना ने सिर हिलाते हुए जवाब दिया।

       ‘तो ठीक है बेटा अब जा।’ बुजुर्ग को वह कुछ अपने पोते के समान लगने लगा था, इसलिए उससे बात करने में उन्हें आनंद आने लगा था। 

       मुन्ना दवाई लेकर घर पहुँचा तो अब समस्या थी कि खाना  कैसे बनाया जाए। राम आसरी में हिम्मत नहीं थी और मुन्ना से उसने कभी खाना बनवाया नहीं था। अब यह भी जरूरी था कि दवाई लेने से पहले कुछ खाया जाए। तकलीफ की वजह से राम आसरी का तो इस बात का कुछ ख्याल था नहीं। मुन्ना को देखकर बोली:

       ‘बेटा, ले आया दवाई?’

       ‘हाँ बड़ी माँ, अस्सी रुपये पचास पैसे की आई है।’ वह बोला।

       ‘वो तो जितने की भी आई है, ठीक है। पर तू मुझे एक खुराक दे दे। कुछ ठीक हुई तो तेरे लिए खाना बनाऊँगी । आज तेरा स्कूल जाना भी रह गया है।’ वह अपने बाएं हाथ की हथेली पर सिर टिकाकर बोलीं।

       ‘पर आप तो अभी खाली पेट हैं बड़ी माँ, ऐसे में दवाई कैसे लेओगी?’ मुन्ना ने प्रश्न किया।

       ‘खाली पेट कहाँ हूँ, सुबह थोड़ा-बहुत ले तो लिया था।’ राम आसरी ने तर्क दिया।

       ‘इतने थोड़े से क्या होता है? आज मैं खाना बनाऊँगा। आप मुझे खाना बनाना सिखाओ, बड़ी माँ।’ वह आग्रह करने लगा।

       ‘तू खाना बनाएगा? हा...हा....हा....।’ राम आसरी अपना दुःख भूलाकर हँसने लगी।

       ‘तो क्या मैं खाना नहीं बना सकता। बड़ी माँ, मैं आज आपको खाना बनाकर ही दिखाऊँगा।’

       ‘बेटा, जिद नहीं किया करते। यह तेरे बस की बात नहीं है। तू कुछ खिलाना ही चाहता है तो मुझे एक-दो बिस्कुट खिलाकर दवाई दे दे। अगर उस से कुछ फरक पड़ा तो मैं खाना बना दूंगी।’ राम आसरी समझाती हुई बोली।

       ‘आपकी मर्जी।’ कहकर मुन्ना प्लास्टिक के जार में से बिस्कुट निकालने लगा। राम आसरी ने हाथ में पकड़े हुए तीन बिस्कुट में से एक मुन्ना को दे दिया और दो स्वयं खा गई। फिर उसने दवाई ली और कम्बल ओढ़कर चारपाई पर लेट गई। थोड़ी देर बाद उसे पसीना आया और शरीर भी कुछ हलका सा महसूस होने लगा। उसे लगा कि शायद बुखार उतर गया है। वह चारपाई से उठी और मुन्ना से बोली:

       ‘बेटा, आज तू मेरे साथ काम करना, मैं तुझे खाना बनाना सिखाती हूँ। आदमी को सब काम आने चाहिए तो वह भूखा नहीं मरता। मेरा कुछ पता नहीं बेटा कब क्या हो जाए। इसलिए जिंदा रहने के लिए कम से कम खाना बनाना तो आना ही चाहिए।’

       ‘बड़ी माँ, आप ऐसा क्यों बोलती हो? अभी तो आप ने दवाई की एक ही खुराक ली है और उठकर खाना बनाने लगी हो। जब पूरी दवाई का असर होगा तो बीमारी यहाँ से तो क्या चण्डीगढ़ से भी बहुत दूर भाग जाएगी।’ वह मुस्कुराता हुआ बोला। उसकी बात सुनकर राम आसरी भी हँसने लगी। हँसी रुकने के बाद कहने लगी:

       ‘बेटा, भगवान करे तेरी बात सच हो जाए, नहीं तो मेरा मुन्ना राजा बड़ा आदमी कैसे बनेगा?’

        उसकी बात सुनकर मुन्ना भी खिलखिलाकर हँसने लगा। राम आसरी खाना बनाते वक्त उसको हर गुर समझा रही थी। मुन्ना भी हँसते हुए हर काम को बड़ी बारीकी से समझने की कोशिश कर रहा था। दोनों ने मिलकर खाना बनाया और फिर खाया। राम आसरी  का बुखार टूटने पर यूँ तो मुन्ना खुश था, परन्तु स्कूल न जाने का गम उसके दिल में कहीं न कहीं जरूर दस्तक दे रहा था। उसे जब भी स्कूल की याद आती तो वह मायूस हो जाता। समय बिताने के लिए दोनों बातें करने लगे। राम आसरी उसे स्कूल के बारे में पूछने लगी। उसे स्कूल में कैसा लगता है? वह कितना पढ़ेगा? पढ़-लिख कर क्या बनेगा? बड़ा अफसर बनकर उसके लिए क्या-क्या चीजें लाएगा? उसके लिए वह बहुत सुंदर दुल्हन लाएगा। कहीं दुल्हन की बातों में आकर वह अपनी बड़ी माँ को भूल तो नहीं जाएगा? इत्यादि-इत्यादि। और दुल्हन की बात सुनकर मुन्ना खिलखिला कर हँसा। वह बोला:

       ‘बड़ी माँ, मैं शादी करवाऊँगा ही नहीं तो दुल्हन कहाँ से आएगी? और जब दुल्हन आएगी ही नहीं तो मैं उसकी बातों में कैसे आऊँगा?’

       ‘बेटा, बड़े होकर शादी तो करनी ही पड़ती है।’ वह बोली।

       ‘नहीं बड़ी माँ, मैं शादी नहीं करवाऊँगा।’ वह मुँह फुलाकर बोला।

       ‘क्यों बेटा?’ राम आसरी ने प्रश्न किया।

       ‘आप ही तो कह रही थीं कि दुल्हन की बातों में आकर आपको भूल तो नहीं जाऊँगा? बड़ी माँ, मैं ऐसा क्यों करूँगा जिससे आपको भूलना पड़े। बड़ी माँ, मैं आपके बिना नहीं रह सकता। कोई दुल्हन के लिए अपनी बड़ी माँ को थोड़े न भूल सकता है? बड़ी माँ स्कूल में आचार्य जी कह रहे थे कि प्रत्येक बालक को बुढ़ापे में अपने माता-पिता की सेवा करनी चाहिए। इस से बड़ी सेवा और धर्म संसार में और कोई दूसरी चीज नहीं है। बड़ी माँ, जब मैं बड़ा हो जाऊँगा तो मैं खूब मेहनत करूँगा और पैसा कमाऊँगा। तब मैं आपको कोई काम नहीं करने दूँगा। मैं आपको कार में घुमाऊँगा, हमारा अपना एक बहुत बड़ा मकान होगा। ये जो हमारे मकान वाले हैं न बड़ी माँ, इनके मकान से बड़ा होगा हमारा घर। पर बड़ी माँ, अफसर बनने के लिए तो मुझे बहुत पढ़ना होगा। उसके लिए हमारे पास पैसे तो हैं नहीं।’ मुन्ना निराशा भरे शब्दों में बोला।

       ‘बेटा, तू चिंता क्यों करता है? जब तक तेरी बड़ी माँ सलामत है, तुझे फिकर करने की कोई जरूरत नहीं है। बस तू पढ़ाई की चिंता कर। तेरा काम है पढ़ना और बड़ी माँ का काम है पढ़ाना। एक तेरी चिंता और एक मेरी चिंता। हम अपने-अपने काम की चिंता करें, दूसरों की नहीं, ठीक है न?’ राम आसरी अपनी गर्दन हिलाती हुई बोली। सुनकर मुन्ना चुप कर गया।

       पूरा दिन आराम से गुजरा और शाम हो गई। परन्तु रात को राम आसरी को फिर बुखार आ गया। दवाई लेने पर आराम तो आ जाता, परन्तु कुछ समय पश्चात् फिर बुखार हो जाता। ऐसा लग रहा था मानो बीमारी राम आसरी के साथ लुका-छिपी का खेल, खेल रही हो। बीमारी के कारण सारा कारोबार चौपट हो गया था। उस दिन के बाद राम आसरी एक दिन भी मंडी में नहीं गई थी। घर में जो पैसे थे वो दवाईंयों और घर के खर्च में पूरे हो गए थे। मुन्ना का स्कूल भी छूट गया था। वह दिन-रात राम आसरी की सेवा में लगा रहता था। वक्त की मार ने उससे उसका बचपन छीन लिया था। बड़ों का उत्तरदायित्व उसे बचपन में ही निभाना पड़ रहा था। खाना बनाना, बर्तन साफ करना, कपड़े धोना, कमरे की सफाई करना और इसके साथ-साथ दिन रात राम आसरी की देखभाल करना उसकी रोज की दिनचर्या बन चुकी थी। पैसों की कमी से अब एक और नई समस्या ने जन्म ले लिया था। बचपन था, कभी कोई काम किया नहीं था, ऐसे में करे भी तो क्या करे। और फिर बड़ी माँ को भी तो इस हालत में अकेला नहीं छोड़ा जा सकता था। आज तकलीफ की वजह से राम- आसरी पूरी रात नहीं सोई थी। सुबह की दवाई का थोड़ा असर हुआ तो उसकी आँख लग गई। मुन्ना चुपचाप घुटनों पर सिर रखकर सोच रहा था। बचपन में माँ-बाप से बिछुड़ गया और अब दूसरा सहारा भी .....। बातें याद कर-करके उसकी आँखों में आँसू आ गए। उसका दिल कर रहा था कि जोर से कूक मारकर रोना शुरू कर दे, ताकि मन में भरा बोझ कुछ पल के लिए तो बाहर निकल जाए। दुनिया के सबसे खूबसूरत शहर में बैठा था। चारों तरफ आलिशान कोठियाँ थी, पेड़-पौधे और फूल थे। चमचमाती कारों में अमीर लोग इधर से उधर  घूम रहे थे। उसे ऐसा लग रहा था कि शायद भगवान का स्वर्ग यहीं पर हो। परन्तु स्वर्ग में नरक तो होता नहीं। फिर वह किस पाप का नरक भोग रहा है? उसकी जिंदगी में तो चारों ओर अंधेरा ही अंधेरा है। आँखों से निकले आँसू पोंछ-पोंछकर उसकी आस्तीन गीली हो चुकी थी। वह एक बेसहारा, बेजुबान, बेबस पत्थर की मूर्ति की तरह से बैठा था। तभी बाहर छोटे गेट के खुलने की आहट हुईं। उसने अपने घुटनों के ऊपर से सिर उठाया और देखा तो उसे अपने दो सहपाठी लड़के नज़र आए। उसने जल्दी से अपनी कमीज से आँसू पोंछे और खड़ा होकर चुपचाप उनकी ओर देखने लगा। उसे देखकर एक लड़का बोला:

       ‘देव, तुम स्कूल क्यों नही आते? हमें आचार्य जी ने तुझे बुलाने के लिए भेजा है। तुम हमारे साथ चलो।’

       ‘मेरी बड़ी माँ बीमार है।’ वो आँखों में आए आँसूओं को पोंछता हुआ बोला। दोनों लड़को के चेहरों पर भी उदासी छा गई। थोड़ी सांत्वना देता हुआ वह लड़का फिर बोला:

       ‘तेरे को आचार्य जी ने बुलाया है। कह रहे थे इतने अच्छे और होनहार लड़के का स्कूल से गायब रहना उनकी समझ से परे है। उन्होंने कहा है उसे हर हालत में लेकर आना। तुम हमारे साथ चलो।’

       ‘कैसे चलूँ? क्या मैं बड़ी माँ को अकेला छोड़ दूँ? वह अपनी आँखों की पलके ऊपर नीचे करता हुआ बोला।

       ‘उनसे पूछ लेते हैं, कहाँ पर है तुम्हारी बड़ी माँ?’ एक लड़का बोला। 

       ‘अभी तो सो रही हैं।’ मुन्ना बोला।

       ‘तो यार, ये तो ठीक है। भागकर स्कूल चलते हैं और इससे पहले कि ये सोकर उठें तुम आचार्य जी से कहकर वापस आ जाना।’ लड़के ने सुझाव दिया।

       ‘क्या जाना जरूरी है?’ वह बोला।

       ‘हाँ, क्यों नहीं, आचार्य जी का आदेश है, मानना पडेगा।’

       मुन्ना ने कुछ पल के लिए सोचा और फिर बोला:

       ‘तुम चुपचाप यहीं पर खड़े रहो। मैं मुँह धोकर और बूट डाल कर आता हूँ।’

       वह दो मिनट में ही बाहर निकल आया। उसने धीरे से थोड़ा  दरवाजा बंद किया और फिर तीनों ही स्कूल की ओर तेजी से भागने लगे। क्लास रूम में पहुँचते ही उनसे आचार्य जी बोले:

       ‘आ गए?’ और फिर मुन्ना की ओर देखते हुए बोले:

       ‘क्या बात है बेटा? तुम स्कूल क्यों नहीं आते?’

       ‘मेरी बड़ी माँ बहुत बीमार है।’ वह भरे गले से बोला।

       ‘घर में और कोई नहीं है?’ आचार्य जी ने प्रश्न किया।

       मुन्ना चाहते हुए भी कुछ बोल नहीं पाया। उसने अपनी गर्दन  हिलाकर ‘न’ में उत्तर दिया।

       ‘बेटा, यह तो बहुत बुरा हुआ। स्कूल न आने में तुम्हारा तो हर्ज हो ही रहा है, परन्तु तुम्हारे जैसे होनहार छात्र के न आने से स्कूल का भी नुक्सान हो रहा है। बेटा, उन्हें किसी अच्छे डॉक्टर को दिखाओ, ताकि जल्दी आराम आ जाए।’

        मुन्ना ने अपना नीचे का होंठ दाँतों के बीच में दबाकर अपने भीतर से निकलने वाली टीस को दबा लिया और फिर संभलता हुआ बोला:

       ‘सर, डॉक्टर को तो दिखाया था। अब पैसे नहीं हैं, जितने घर में पैसे थे सारे खर्च हो चुके हैं।’

       ‘ओह!’ आचार्य जी के मुँह से यह शब्द अनायास ही निकल गया। उन्होंने अपनी जेब को टटोला और उसमें से एक सौ का नोट निकालकर मुन्ना को देते हुए बोले:

       ‘ले बेटा, इससे अभी थोड़ा काम चलाओ। मैं तुम्हारे लिए कोई ऐसा काम सोचता हूँ जिससे तुम खाली समय में घर बैठकर चार पैसे कमा सको। और हाँ, तुम्हारा नाम अभी स्कूल से कटने से मैंने रोक रखा है। तुम इस कागज़ पर हस्ताक्षर कर दो, मैं तुम्हारी छुट्टी की अर्जी लिखवा दूँगा। एक बात और कहूँ, तुम पढ़ाई मत छोड़ना। बड़ी माँ की सेवा के साथ-साथ जब भी समय मिले जरूर पढ़ते रहना। बेटा, गुजरा वक्त दोबारा हाथ नहीं आता।’

       ‘जी सर, मैं अब जाऊँ?’ मुन्ना के चेहरे पर थोड़ी मुस्कान सी आई।

       ‘हाँ बेटा शाबाश, अब जाओ।’ आचार्य जी बोले। परन्तु मुन्ना ज्योंही दो कदम चला, वह पीछे से फिर बोले:

       ‘बेटा! तुम्हारे घर का क्या नम्बर है? किस सेक्टर में रहते हो?’

       मुन्ना ने उन्हें अपने घर का पता नोट करवा दिया। फिर बाहर निकलकर वह भागता हुआ कमरे की ओर चल पड़ा। मन में भय था कि यदि बड़ी माँ पीछे से जाग गई तो मुझे वहाँ पर न पाकर उस पर क्या गुजरेगी। बीमारी में क्या वह इतना सदमा सहन कर पाएगी? इस चिंता की वजह से उसका दिल धक-धक करने लगा। वह अभी घर के गेट के पास पहुँचा ही था कि राम आसरी की आँख खुल गई। दरवाजा बंद होने से कमरे में कुछ अंधेरा था। उसने लेटे हुए ही अपनी आँखें चारों ओर घुमाई। उसे मुन्ना कहीं नज़र नहीं आया। कहाँ गया होगा? उसे कौन ले गया होगा? दरवाजा भी बंद है। घबराहट में उसकी आँखों के आगे अंधेरा छा गया। जो शरीर बीमारी से पस्त हो चुका था, न जाने कहाँ से उसमें इतना जोश आया। वह बिजली की तरह तेज गति से चारपाई से उठी और दरवाजा खोला। सामने उसका मुन्ना खड़ा था। वह पागलों की तरह भागी और मुन्ना को अपनी छाती से लगा कर बोली:

       ‘हाय! मेरे बेटे तू कहाँ चला गया था?’

       उसकी बीमारी को देखते हुए मुन्ना न तो सच ही बोलना  चाहता था और न ही झूठ। कुछ सोचकर बोला:

       ‘मैं बाहर गया था, बड़ी माँ।’

       ‘क्यों? कहाँ पर?’ वह उखड़े साँस के साथ बोली।

       ‘मास्टर जी ने बुलाया था। उन्होंने आपके इलाज के लिए सौ रुपये दिए हैं। बड़ी माँ, वो हमारे घर भी आएंगे। कह रहे थे कोई काम तलाश कर देंगे।’

       ‘अच्छा बेटा, हां.....।’ वह उखड़े साँस के साथ बोली और अंदर की ओर चल पड़ी। चारपाई पर बैठकर उसे सहसा याद आया तो कुछ सख्त लहजे में बोली:

       ‘तू यह पैसे कहीं से चुराकर तो नहीं लाया है?’

       ‘क्यों बड़ी माँ, मैं पैसे क्यों चुराऊँगा। मास्टर जी ने दिए हैं। वह बहुत अच्छे हैं। स्कूल के सभी बच्चे उन्हें बहुत चाहते हैं। वह भी बच्चों से बहुत प्यार करते हैं। वो हमारे यहाँ आएंगे, तब पूछ लेना।’ वह रोआंसा सा मुँह बनाकर बोला।

       राम आसरी को अपनी गलती का एहसास हुआ तो वह बहुत पछताई और मुन्ना के सिर पर हाथ फेरती हुई बोली:

       ‘बेटा, मैं तो वैसे ही कह रही थी, तू बुरा मान गया।’

       मुन्ना कुछ नहीं बोला। वह अपनी आँखों में आए आँसू अपने बाजू से साफ करने लगा। पहले की तरह आज का दिन भी बीत गया। दूसरे दिन शाम को आचार्य जी उनके कमरे पर पहुँचे। हाथ में एक बड़़ा सा थैला था। कमरे में आकर उन्होंने राम आसरी का हालचाल पूछा और फिर कमरे में पड़ी एक मात्र कुर्सी पर बैठ गए। मुन्ना ने पानी का गिलास दिया जो उन्होंने पी लिया। आचार्य जी ने थैले में से कुछ खाकी रंग के कागज़ निकाले और नीचे रख दिए। फिर उन्होंने घुले हुए गोंद की एक बड़ी शीशी और एक कैंची निकाली। मुन्ना को अपने पास बिठाया और उसे लिफाफा बनाना सिखाने लगे। जब वह सीख गया तो बोले:

       ‘बेटा, तुम घर बैठकर ये लिफाफे बनाओ और माता जी का ख्याल भी रखो। तुम्हें बाहर जाने की आवयश्कता नहीं है। मैंने एक-दो जगह बात कर ली है, वे लोग ठीक दाम पर तुम्हारे लिफाफे खरीद लेंगे। कागज मैं तुम्हें दिलवाता रहूँगा। जैसे ही तुम्हारी माता जी ठीक होंगी, तुम स्कूल आना शुरू कर देना। ठीक है न बेटा? अब मैं चलता हूँ?’

       ‘जी सर।’ मुन्ना खड़ा होकर हाथ जोड़ता हुआ बोला। मुन्ना, आचार्य जी के पीछे-पीछे उन्हें सड़क तक छोड़ने आया। उसे वापस भेजते हुए आचार्य जी बोले:

       ‘बेटा, अब तुम जाओ। घबराना नहीं। हम सब, पूरा स्कूल  तुम्हारे साथ है।

       मुन्ना ने उन्हें प्रणाम किया और कमरे की ओर चल पड़ा।  आज उसके चेहरे पर पहले जैसी उदासी नहीं थी। आचार्य जी का सहारा जो मिल गया था। उसे अब यह लगने लगा था कि इस दुनिया में अब वह अकेला नहीं है। कुछ ऐसे अच्छे और भले लोग भी हैं जो अपना मानकर उसकी सहायता के लिए तैयार हैं। कमरे में जाकर मुन्ना लिफाफे बनाने में जुट गया। उस दिन शाम तक उसने सभी कागजों के लिफाफे बना दिए।

       उस दिन छुट्टी के बाद आचार्य जी जब समय पर घर नहीं पहुँचे तो कौशल्या को चिंता सताने लगी। पहले तो हमेशा समय पर घर आ जाते थे और कभी भी बिना बताए बाहर नहीं रहे। परन्तु आज तो वह कुछ भी कहकर नहीं गए थे। रह-रहकर उसके मन में उल्टे-सीधे विचार आने लगे। एक तो बच्चे के चले जाने का दुःख उसके मन में पहले ही घर कर गया था, दूसरे आचार्य जी का बिना कुछ पूर्व में कहे बगैर अब तक न आना उसके लिए किसी अनहोनी का संकेत दे रहा था। वह चुपचाप बैठी बार-बार बाहर की ओर देखे जा रही थी। आचार्य जी घर पहुँचे तो उसका गुस्सा सातवें आसमान पर पहुँच गया। कुछ देर तो वह चुपचाप बैठी रही और मुँह से एक शब्द तक नहीं कहा। उसका मिज़ाज देखकर आचार्य जी भी चुपचाप कमरे में जाकर अपने कपड़े बदलने लगे। पहले अगर कौशल्या को कभी गुस्सा आता था तो आचार्य जी हमेशा अपनी चित-परिचित मुस्कान से बिना कुछ कहे उसे बोलने पर मजबूर कर देते थे। परन्तु आज वह मुस्कान उनके चेहरे से गायब थी। कौशल्या भी भाँप गई थी कि आज माजरा कुछ और ही है और देर से घर आने में आचार्य जी का कोई दोष नहीं है। आखिर उसे अपनी लक्ष्मण रेखा खुद ही लांघनी पड़ी। आचार्य जी की ओर नज़र घुमाकर बोली:

       ‘आज आपने आने में बहुत देर कर दी। क्या बात हो गई थी? आपने जाते दफा कुछ बताया भी नहीं। यहाँ पर तो सोच-सोचकर चिंता के मारे मेरा बुरा हाल हो गया है और एक आप हैं, जिन्हें तनिक भी परवाह नहीं। ऐसा नहीं होना चाहिए।’

       ‘क्या बताऊँ कौशल्या इसमें मेरा कोई दोष नहीं है। तुम अपनी जगह सच्ची हो और मैं अपनी जगह। भगवान की लीला न्यारी है। उसने यह अजीब दुनिया बनाई है। एक हम माँ-बाप हैं जो अपने बच्चे के लिए दुःखी हैं और एक वे बच्चे भी हैं जो अपने माँ-बाप को लेकर दुःखी हैं। यह क्या संसार है? मेरी तो कुछ समझ में नहीं आ रहा।’ वह कौशल्या के नजदीक आकर बैठते हुए बोले।

       ‘क्यों? आज आप ऐसा क्या देख आए हो?’ कौशल्या जिज्ञासा भरे शब्दों में बोली।

       ‘क्या बताऊँ कौशल्या, मेरी क्लास में एक लड़का पढ़ता है। बड़ा ही मेहनती और होनहार। है तो बेचारा किसी गरीब का बेटा, पर शक्ल-सूरत से एकदम किसी अच्छे परिवार का सा लगता है। बाप का साया सिर पर से पहले ही उठ गया है और ले देकर परिवार में एक माँ है, वह भी सख्त बीमार पड़ी है। रोजी-रोटी का कोई जरिया नहीं है और ऊपर से दवाई का खर्च, सो अलग। सच बताऊँ कौशल्या जब से हमारा बेटा गया है, मुझे हर बच्चे में उसकी सूरत नज़र आती है। मैं बच्चों का दुःख नहीं देख सकता। मुझे तो उस बेसहारा में भी अपने बच्चे की शक्ल नज़र आती है। मुझ से उसका दुःख देखा नहीं गया। आज मैं उसी के घर गया था। उसके लिए एक छोटे से काम का हिल्ला करके आया हूँ। कम से कम घर में दो रोटी का प्रबन्ध तो हो।’ आचार्य जी ने अपने न आने का कारण विस्तार से बतलाया।

       ‘यह तो वास्तव में ही बहुत दुःख भरी बात है।’ यह कहकर कौशल्या पानी का गिलास लाने के लिए चली गई। पानी देकर पूछने लगी:

       ‘चाय बनाऊँ या कुछ और लोगे?’

       ‘रहने दो आज मन नहीं है।’ आचार्य जी बोले।

       ‘आप भी अजीब किस्म के आदमी हैं। दूसरे का गम खुद अपने को लगा लेते हो। दुःख-सुख तो इस संसार में शुरू से ही चला आ रहा है। यह भगवान की लीला है। क्या आप बदल दोगे इसे?’ कौशल्या आचार्य जी के मन का बोझ हलका करने के उद्देश्य से बोली।

       ‘बदल तो नहीं सकते, परन्तु अपनी सामर्थ्य अनुसार किसी का दुःख कम तो कर सकते हैं।’ आचार्य जी बोले।

       ‘संसार बहुत बड़ा है आचार्य जी, किस-किस का दुःख बाँटोगे?’ कौशल्या माहौल को खुशनुमा करने के लिए हलके मूड़ में बोली।

       ‘सो तो तुम्हारी बात ठीक है, पर आँखों के सामने किसी का दुःख देखकर रहा भी तो नहीं जा सकता। और इस लड़के की तो बात भी औरों से भिन्न हैं। एक तिनके का भी सहारा नहीं है। जहाँ पर रहता है, बड़े लोगों का घर है। सिवाय किराया लेने देने के आपस में कोई बातचीत नहीं है। कह रहा था कि एक बार बड़ी माँ की बीमारी के सिलसिले में उनके पास जाने की हिम्मत की थी, परन्तु उन्होंने बिना बात सुने ही भगा दिया था। अब ऐसे में उनका इस दुनिया में कौन है? तुम ही सोचो।’ आचार्य जी ने तर्क दिया।

       ‘मैं तो एक बात जानती हूँ। यदि किसी की सहायता करनी है तो पूरी तरह से करो। आधी-अधूरी बात में मैं विश्वास नहीं रखती। हम सोच लेंगे कि वह हमारा खोया हुआ बेटा ही है। भगवान की दया से हमारे पास अपने गुजारे से अधिक ही है। क्यों न हम उसकी पढ़ाई का सारा खर्च उठाएं। आपकी क्या दलील है?’ कौशल्या ने आचार्य जी के विचार जानने चाहे।

       ‘यह तो बहुत अच्छा विचार है।’ आचार्य जी ने हामी भरी।

       ‘तो फिर आप ऐसा करना जब उसकी माता जी जरा ठीक हो जाए, उसे घर पर बुलवा लेना। उसके नाप के एक-दो जोड़ी कपड़े ही बनवा दूँगी।’ कौशल्या बोली।

       ‘ठीक है।’ आचार्य जी ने हामी भरी।

       दूसरे दिन आचार्य जी मुन्ना को लिफाफे बेचने वाली दूकान पर लेकर गए और दूकान मालिक से उसकी बात करवा दी। मुन्ना वहाँ से कागज ले आता और लिफाफे बना कर उसे दे जाता। इस तरह घर का थोड़ा-बहुत खर्चा चलने लगा। परन्तु लाख जतन करने पर भी राम आसरी की हालत में सुधार नहीं हुआ। वह दिन-व-दिन बीमारी की चपेट में फंसती ही चली गई। एक दिन उसने मुन्ना को अपनी बगल में बिठाया और अपनी आँखों में आए आँसूओं को पोंछती हुई बोली:

       ‘बेटा, अब नहीं लगता मेरी हालत में कोई सुधार होगा। शायद मेरी तकदीर में इतना ही साथ लिखा था। बेटा, मेरी तो कोई बात नहीं, आप गए तो जग प्रलय। परन्तु पीछे से तेरा क्या होगा? बीमारी से ज्यादा मुझे इस बात की चिंता है। शयद मेरी साँस अटकने का यह भी एक कारण है। मैं तो भगवान से दिन-रात यही दुआ करती हूँ कि कहीं से तेरे माता-पिता जी मिल जाते तो मैं तुझे उनके हवाले करके आराम से रुखसत कर जाती।’

       राम आसरी की यह मर्मस्पर्शी बात सुनकर मुन्ना रोने लगा। उसे चुप करवाते हुए वह कहने लगी:

       ‘ना रो मेरे बेटे, ना रो। इन बीमार हड्डियों में अभी काफी दम है। ये जल्दी हार मानने वाली नहीं हैं। मैं तुझे दर-बदर की ठोकरें खाने के लिए छोड़कर नहीं जा सकती। मैं जाने से पहले तेरा कुछ न कुछ करके ही जाऊँगी। तेरे मास्टर जी बहुत भले और नेक इंसान है। मैं उनसे प्रार्थना करूँगी कि वह तुझे दर-दर भटकने के लिए न छोड़ें। भगवान जिसे धरती पर भेजता है, वह उसके जीने का कोई न कोई सहारा भी भेजता है मेरे बेटे।’

       ‘बड़ी माँ, आप ये क्या बहकी-बहकी बातें करने लगी हो? आपको कुछ नहीं होगा। आप ही तो कह रही थी कि मैं तुझे बड़ा आदमी बनाऊँगी। बताओ आपके बिना मैं कैसे बड़ा आदमी बनूँगा? बड़ी माँ, आप इस बीमारी को खत्म कर दो। आप को मेरे लिए जीना पड़ेगा। आप मुझे छोड़कर कहीं नहीं जा सकती। मैं आपको दुनिया के सारे सुख दूँगा।’ वह रोता हुआ बोला।

       ‘बेटा, मेरी जिंदगी में जब सुख तो है ही नहीं, फिर सुख कैसे  मिलेगा? मैं जन्म से ही अभागिन थी और मैंने तुझे भी अभागा बना दिया है। तू बेटा किसी तरह से अपने मास्टर जी को यहाँ बुला ले, ताकि प्राण-पखेरू उड़ने से पहले मैं तुझे उनके हवाले कर जाऊँ।’ राम आसरी अब जीने की उम्मीद छोड़ चुकी थी।

       ‘नहीं बड़ी माँ, नहीं.....। यह नहीं होगा। बीमारी आपका कुछ भी नहीं बिगाड़ सकती। आचार्य जी कह रहे थे कि आपको किसी अच्छे डॉक्टर को दिखाया जाए। मैं आचार्य जी से विनती करूँगा कि वह हमें उस डॉक्टर के पास ले चलें। उनका जितना भी खर्चा होगा, मैं मेहनत मजदूरी करके कर्ज उतार दूँगा।’ मुन्ना सिसकियाँ भरता हुआ बोला।

       ‘अच्छा बेटा, अब तू देर मत कर। भागकर मास्टर जी को बुला ला। तुझे पता है वो कहाँ पर रहते हैं? राम आसरी बोली।

       ‘नहीं बड़ी माँ, मैं आपको अकेला छोड़कर कहीं नहीं जाऊँगा। मैं आपको अकेला नहीं छोड़ सकता, मेरी बड़ी माँ.....मैं आपको अकेला नहीं छोड़ सकता।’ वह राम आसरी का हाथ अपने दोनों हाथों में पकड़कर अपने माथे पर लगाकर रोता हुआ बोला।

       राम आसरी ने बड़ी मुश्किल से मुन्ना की ओर करवट बदली और फिर अपनी डबडबाई आँखों से, जो पहले सूखकर पत्थर बन चुकी थीं, उसकी ओर देखा। अंदर से बहुत गहरी साँस निकली। शायद वो कुछ कहना चाहती हो, परन्तु कह नहीं पाई। फिर उसने अपनी दोनों आँखें बंद कर ली। अपने सिर को दो-तीन बार इधर-उधर हिलाया और बड़े ही मार्मिक शब्दों में बोली:

       ‘मेरे बेटे.........मेरे...........लाल..........मेरी बात मान ले...............जिद् मत कर..............समय बहुत थोड़ा है........तू भागकर मास्टर जी को बुला ला............तू अकेला है........क्या करेगा?.......तुझे सहारा चाहिए....जा.........जा...........जा........मुझे कुछ नहीं होगा........कुछ नहीं होगा.......तेरी बड़ी माँ पत्थरों से खेलकर पत्थर बन चुकी है.........वो मिट्टी नहीं हैं.....मेरे लाल.....जो टूट जाएगी..........मुझे दो बूँद पानी की पिलादे और फिर जा.......इसी में तेरी बेहतरी है बेटा.............इसी मे भलाई है तेरी...........।’

       यह कहते हुए उसकी आँखों से आँसू टपक पडे़। मुन्ना एक निर्जीव बुत की भाँति खड़ा था, मानो उसमें प्राण ही नहीं रहे हों। उसने राम आसरी का हाथ धीरे से छोड़ दिया और प्याली में रखे पानी में से दो चम्मच पानी भरकर राम आसरी के मुँह में डाल दिए। राम आसरी ने फिर ना कहने के लिए आँखें बंद किए ही अपनी गर्दन हिला दी। यह देखकर मुन्ना ने प्याली और चम्मच एक ओर रख दिए। वह खड़ा हुआ और फिर उसने राम आसरी के चेहरे की ओर देखा। अंदर से रोने की चींख निकलने लगी तो उसने अपने निचले होंठ को दाँतों कें बीच में दबाकर, उसे बाहर निकलने से रोक दिया। अपने हाथ में कमीज का पल्लू पकड़कर आँखें साफ की और फिर बाहर निकलता हुआ बोला:

       ‘बड़ी माँ! मैं जा रहा हूँ।’

       राम आसरी ने कोई जवाब नहीं दिया। शायद वह किसी पल की प्रतीक्षा में मौत से दो-दो हाथ कर रही हो। बाहर निकलते ही मुन्ना मास्टर जी के घर की ओर भागने लगा। बहुत देर से कुछ नहीं खाया था, थोड़ी दूर भागते-भागते उसके पेट में पीड़ा का अनुभव  होने लगा। छाती मानो अकड़़ गई हो। साँस बड़े जोर से निकल रहे थें। साँस के साथ-साथ गले में से कभी हाँफने की आवाज भी निकल रही थी। उसने अपने दोनों हाथों से कमर के पास से अपना पेट और जोर से दबा लिया और हाँफते हुए कभी धीरे चल कर और कभी दौड़कर आगे की ओर चलने लगा। रह-रहकर बड़ी माँ का चेहरा उसकी आँखों के सामने आ रहा था। भय से ग्रसित आज उसे एक-एक कदम आगे बढ़ना भी दस-दस कदमों के समान भारी लग रहा था। पीछे से बड़ी माँ को अगर कुछ हो गया, तो क्या होगा? वह क्या करेगा? कहाँ जाएगा? इस दुनिया में और तो उसका कोई नहीं हैं, फिर अपने आप ही गर्दन हिलाकर सोचता-नहीं-नहीं, भगवान ऐसा नहीं करेगा। वह किसी के साथ बे-इंसाफी नहीं करता। मैंने और बड़ी माँ ने किसी का क्या बिगाड़ा है? बड़ी माँ को कुछ नहीं होगा। वो ठीक हो जाएंगी। मैं आचार्य जी से कहूँगा कि वो मेरी बड़ी माँ को किसी अच्छे डॉक्टर के पास ले चलें। पैसों की फिकर न करें मैं उनकी पाई-पाई चुका दूँगा। इन्हीं ख्यालों में डूबा हुआ वह मकान नम्बर ढूँढता हुआ, जो कि आचार्य जी ने उसे नोट करवाया था, उनके घर पहुँचा। सामने वाले कमरे का जाली का दरवाजा अंदर से बंद था। बाहर लगा गेट खोलकर वह अंदर आया और फिर उसने घंटी का बटन दबाया। घंटी की आवाज सुनकर अंदर से कौशल्या बोली:

       ‘कौन?’

       ‘जी मैं हूँ।’ वह बाहर से बोला।

       ‘कौन? क्या काम है?’ बाहर की ओर बिना ध्यान दिए वह काम में व्यस्त हुई बोली।

       ‘मुझे आचार्य जी से मिलना है।’ वह बोला।

       ‘वो तो घर पर नहीं हैं।’ वह बोली।

       ‘कब आएंगे?’ उसने दबी आवाज में पूछा।

       ‘पता नहीं, मार्किट गए हैं, थोडी देर से आना।’

       वह अब भी बिना ध्यान दिए ही बोली। ऐसी बात नहीं थी कि कौशल्या में कोई घमण्ड था या वह कोई रूखे विचारों वाली महिला थी। यह तो रोजमर्रा के प्रश्नों की वहज से उसकी एक आदत बन चुकी थी। आचार्य जी का उनके सम्पर्क में आने वाले हर छोटे-बड़े आदमी से बहुत लगाव था। सभी को आदर भाव व समान दृष्टि से देखते थे। यही कारण था कि उनसे मिलने वालों का एक तांता सा लगा रहता था। 

       कौशल्या उनकी गैर मौजूदगी में आने वालों के प्रश्नों का उत्तर देते-देते उब चुकी थी। और यही कारण था कि अब यह सभी कुछ उसके लिए एक आम बात सी हो गई थी। वह काम में व्यस्त होते हुए, बिना ध्यान दिए, बोल जाती थी। और आज भी पहले की भान्ति उसी की पुनरावृत्ति थी।

        आचार्य जी को घर पर न पाकर मुन्ना का दिल किया कि वह वहीं पर बैठकर जोर से दहाड़े मारना शुरू कर दे। परन्तु वक्त की नजाकत को समझते हुए उसने अपने कलेजे पर पत्थर रखकर ऐसा न करते हुए आचार्य जी को ढूँढने का मन बनाया। बुरे वक्त की परेशानियों के थपेड़ों ने उसे छोटी उम्र में ही बडे़-बड़े कष्टों को सहन करने के काबिल बना दिया था। बड़ी माँ की हालत को देखते हुए उसने वहाँ पर अब और रुकना अच्छा नहीं समझा। वह आचार्य जी की तलाश में मार्किट की ओर चल पड़ा। थोड़ी देर बाद काम से फुर्सत मिलने पर कौशल्या को याद आया कि यह तो किसी छोटे लड़के की आवाज थी। पता नहीं किस काम से आया होगा? उसे बैठा लिया होता तो अच्छा होता। आचार्य जी आने वाले ही होंगे। बैठकर थोड़ी देर इंतजार कर लेता। यह सोचकर उसने दरवाजा खोलकर बाहर देखा। परन्तु तब तक वह जा चुका था।

        मुन्ना इधर-उधर आचार्य जी को देखता हुआ अभी मार्किट  पहुँचा भी नहीं था कि उसे एक गली के कोने से आते हुए वह नज़र  आ गए। मुन्ना भागकर उनके पास पहुँचा और उनकी टाँगों से लिपट कर रोने लगा। आचार्य जी ने अपने दाएं हाथ में पकड़ा सामान का थैला अपने बाएं हाथ में लिया और दाएं हाथ से मुन्ना को पकड़ते हुए बोले।

       ‘बेटा, क्या बात है? तुम्हारी माँ तो ठीक है न?’

       ‘वे बहुत बीमार हैं। आपको बुला रही हैं।’ मुन्ना सिसकियाँ भरता हुआ बोला।

       ‘बेटा, मैं ये सामान तो घर छोड़ आऊँ फिर चलेंगे।’ वह बोले।

       ‘नहीं सर, बहुत देर हो जाएगी, उनकी हालत बहुत खराब है। आप अभी चलो।’ वह आग्रह करता हुआ बोला। आचार्य जी ने कुछ सोचा और फिर बोले:

       ‘अच्छा चलो।’

       दोनों जल्दी से चलने लगे। सारे रास्ते मुन्ना कुछ नहीं बोला। परन्तु वह पहले से कुछ आश्वस्त लग रहा था। आचार्य जी जो साथ थे। उसे यह भी आशा थी कि अब उसकी बड़ी माँ को आराम आ जाएगा, क्योंकि आचार्य जी उसे अब अच्छे डॉक्टर को दिखलाएंगे। अपने होंठों पर खुशी की लकीर लिए ज्योंही वह कमरे में दाखिल हुआ, उसकी खुशी रफूचक्कर हो गई। राम आसरी बेसुध पड़ी थी। उसने अब तकलीफ में करहाना भी बंद कर दिया था। मुन्ना ने अभी तक किसी को मौत के मुँह में जाते नहीं देखा था। उसे यह पता नहीं  था कि मौत क्या होती है? जो कुछ भी सुना था वह राम आसरी से सुना था। वह बड़ी माँ के मुँह को हाथ लगा कर बोला:

       ‘बड़ी माँ.....बड़ी माँ....., देखो आचार्य जी आ गए हैं।’ परन्तु उसकी ओर से कोई प्रतिक्रिया नहीं हुई। आचार्य जी ने राम आसरी का माथा छू कर देखा, वह गर्म था। फिर उन्होंने उसकी कलाई पकड़ कर नब्ज देखी। नब्ज बड़ी धीमी गति से चल रही थी। उसके पश्चात् उन्होंने मुन्ना की ओर देखा और बोले:

       ‘बेटा, तू यहीं ठहर, मैं किसी ऑटो वाले को बुलाकर लाता हूँ। इन्हें अस्पताल ले चलते हैं।’ 

       यह कहकर वह बाहर सड़क पर आए और किसी ऑटो वाले के आने का इंतजार करने लगे। थोड़ी देर में एक ऑटो उधर से निकलने लगा तो उन्होंने उसे रुकवा कर अस्पताल चलने की बात की। ऑटो वाले के साथ मिलकर आचार्य जी ने राम आसरी को उठा कर ऑटो में रखा। मुन्ना से कमरे को ताला लगवाया और फिर दोंनों ऑटो में बैठ गए। अस्पताल जाकर उन्होंने राम आसरी को स्ट्रेचर पर रखवाया और उसे इम्रजैंसी में ले गए। तत्काल इंजैक्शन देने के पश्चात् उसे आगामी उपचार के लिए डॉक्टर अलग कमरे में ले गए। उसी समय कुछ आवश्यक दवाईयाँ कैमीस्ट से खरीदकर लाने के लिए डॉक्टर ने एक पर्ची आचार्य जी को दी। जेब में इतने पैसे नहीं थे। इसलिए वह मुन्ना से बोले: 

       ‘बेटा, तू यहीं माँ के पास रहना। मैं पैसों का इंतजाम करके दवाइयाँ लेकर आता हूँ। यहीं पर रहना। मुझे अगर आने में थोड़ी देर भी हो गई तो भी नहीं घबराना। अच्छा अब मैं जाता हूँ।’

        मुन्ना ने स्वीकृति स्वरूप अपनी गर्दन हिला दी। आचार्य जी  ने अपना सामान का थैला उठाया और अस्पताल से बाहर निकल गए। मुख्य सड़क पर आकर उन्होंने ओटो लिया और सीधा घर पहुँचे। ऑटो से उतरकर उन्होंने उसे रुकने के लिए कहा। कौशल्या ने जब आचार्य जी को ऑटो से उतरते हुए देखा तो उसका माथा ठनका। ये तो कभी छोटे-मोटे सफर के लिए कहने पर भी रिक्शा तक नहीं करते थे, आज नजदीक की मार्किट से भी ऑटो पर आ रहे हैं। ऐसी क्या बात हो सकती है? चल भी ठीक रहे हैं। आखिर उससे रहा नही गया। पूछने लगी:

       ‘गनीमत तो है? आज ऑटो से कैसे आ रहे हो?’

       ‘कौशल्या बात करने और सोचने का समय नहीं है। तुरंत हजार-पाँच सौ रुपये, जो भी इस वक्त हैं, निकालकर मुझे दे दो। उस लड़के की माता जी कोमा में है। अस्पताल छोड़कर सीधा ही आ रहा हूँ। दवाई खरीदकर देनी है तभी आगे इलाज चलेगा। जल्दी करो।’ आचार्य जी कुर्सी पर बैठते हुए बोले। वह अपने आप को असहाय सा महसूस करने लगे थे। उन्हें चिंता उस मासूम की थी जिसका पल भर में सब कुछ लुटने वाला था। कौशल्या ने जो भी पैसे घर पर थे, निकालकर आचार्य जी को दे दिए। आचार्य जी उठकर चलने लगे तो कौशल्या बोली:

       ‘आप कहें तो मैं भी साथ चलूँ?’

       ‘चलो, इससे अच्छी बात और क्या है? पर जल्दी करो।’ आचार्य जी ओटो वाले को हाथ से थोड़ा रुकने का इशारा करते हुए बोले। कौशल्या ने दो मिनट में ही कपड़े बदले और आकर बोली:

       ‘चलो।’

        घर को ताला लगाकर दोनों आकर ऑटो में बैठ गए। ऑटो स्टार्ट हुआ तो आचार्य जी बोले:

       ‘भैया, वहीं वापस अस्पताल चलो।’

       ‘आपको कैसे मालूम हुआ?’ कौशल्या चुपी तोड़ती हुई आचार्य जी से पूछने लगी।

       ‘वो लड़का मुझे मार्किट में अचानक ही मिल गया था। बेचारा बहुत घबराया हुआ था। मुझे देखते ही टाँगों से लिपटकर रोने लगा। बोला माँ बहुत बीमार है, आपको बुलाया है। वहाँ पहुँचा तो देखा वो बेचारी कोमा में पड़ी हुई है। अब उसे उसी हालत में अस्पताल छोड़कर आया हूँ। पता नहीं बेचारी का क्या हाल होगा?’ वह एक गहरा साँस छोड़ते हुए बोले। 

       ‘वो लड़का हमारे यहाँ घर पर भी आया था। आपको पूछ रहा था। मैंने सोचा, होगा कोई यूँ ही, फिर आ जाएगा। वो फिर शायद आपको मिल गया होगा। बेचारा अभागा है। पिता का साया पहले ही उठ गया और अब माँ भी। हे भगवान! रक्षा करना, बेचारे का कोई नहीं है। मैं तो कहूँ बेचारे को अपना बच्चा समझकर घर ले आऊँ।’ कौशल्या बड़े ही दया भाव से बोली।

       ‘अच्छा, घर आया हुआ तो तुमने भगा दिया, अब दया जता रही हो।’ आचार्य जी बोले।

       ‘मैंने कौन से उसे देखा था, बाहर से ही पूछ कर चला गया था। अगर मुझे पता चल जाता तो उसे ऐेसे थोड़े न चले जाने देती।’ कौशल्या उनका संसय दूर करती हुई बोली।

       इतनी देर में वे अस्पताल पहुँच गए। ऑटो से उतर कर उन्होंने उसे आने-जाने के पैसे दिए और फिर अस्पताल में मैडिकल वार्ड की ओर तेजी से चलने लगे। वार्ड के बाहर अभी कॉरिडोर में चल ही रहे थे कि सामने से डॉक्टर उनकी ओर आता नज़र आ गया। उसे देखकर आचार्य जी बोले:  

       ‘डॉक्टर साहब, अब कैसी हालत है उसकी?’

       ‘दवाई लाए हो?’ डॉक्टर ने प्रश्न किया।

       ‘जी नहीं, घर से पैसे लेकर आया हूँ।’ वह बोले।

       ‘देर क्यों करते हो, हालत खराब है। अभी बिना देर किए तुरंत दवाई लेकर आओ। मैं पाँच मिनट में एक पेशेन्ट को देखकर वहीं पहुँचता हूँ।’ डॉक्टर कोरिडोर में चलते हुए बड़ी तेजी से बोला।

       डॉक्टर की बात सुनकर आचार्य जी वहीं पर रुक गए। जेब  में से दवाई की पर्ची निकाली और फिर अपनी पत्नी से बोले:

       ‘कौशल्या तुम सामने वाले वार्ड में दाएं ओर पहला कमरा छोड़कर दूसरे कमरे में चलो, मैं अभी पाँच मिनट में कैमिस्ट शॉप से दवाई लेकर आता हूँ।’ यह कहकर वह बड़ी तेजी से बाहर निकल गए।

       कौशल्या मैडिकल वार्ड की ओर चल पड़ी। उसने न तो कभी राम आसरी को देखा था और न ही मुन्ना को आज अपने घर पर देखा था। सोचने लगी कमरे में तो बहुत मरीज होंगे, मैं अकेली जाकर उन लोगों को कैसे पहचानूँगी? बेहतर है यहीं पर रुक कर आचार्य जी का इंतजार किया जाए। वह कमरे के बाहर ही खड़े होकर उनका इंतजार करने लगी।

       उधर दवाई के असर से राम आसरी के शरीर में थोड़ा बदलाव आया। वह धीरे-धीरे बुड़बुड़ाने लगी:

       ‘मेरे बेटे! मैं तुझे छोड़कर कहीं नहीं जाऊँगी। मैं तुझे तेरी माँ के पास लेकर चलूँगी। मैं उनसे कहूँगी कि मैंने आपकी अमानत को आपके लिए संभाल कर रखा है। इस पर मेरा कोई हक नहीं है। माँ तो वही होती है जो जन्म देती है। बड़ी माँ भी कभी माँ होती है? मैं भी कैसी पगली हूँ, माँ बनकर बैठ गई। मैं स्वार्थी हूँ। मेरा तुम पर कोई हक नहीं है। मास्टर जी से कहो वो मुझे तुम्हारी माँ के पास लेकर चलें। मेरे बेटे, मेरे साँस तुझ में अटके हुए हैं। जब तक मैं तुझे तेरी माँ को नहीं सौंप देती मेरी आत्मा तड़पती रहेगी।’

       राम आसरी की बुड़बुड़ाने की आवाज सुनकर मुन्ना अपना धीरज खो बैठा। उसने अपना सिर उसकी छाती पर रख दिया और सिसकियाँ भरता हुआ कहने लगा:

       ‘बड़ी माँ, ऐसा मत बोलो। आप मेरी माँ हो। नहीं, माँ नहीं, बड़ी माँ। माँ तो बड़ी माँ से छोटी होती है। आप तो उससे बड़़ी हो। आप को कुछ नहीं होगा। आचार्य जी कह रहे थे कि अच्छा डॉक्टर आपको ठीक कर देगा। वो अच्छे डॉक्टर को बुलाने गए हैं। अभी आते ही होंगे।’

       उसे इस हालत में देखकर दूसरे मरीजों के साथ आई हुई कुछ महिलाओं को उस पर दया आ गई। वे उठकर उसके पास आईं और समझाने लगीं:

       ‘बेटा, रोया नहीं करते। इससे तो तुम्हारी माँ को और दुःख पहुँचेगा। तू फिकर मत कर, अब अस्पताल में आ गई है, बिल्कुल भली-चंगी हो जाएगी। शाबाश! बेटा तू तो बड़े हौसले वाला बच्चा है। यह तो छोटी-मोटी बीमारी है, ऐसी बीमारियाँ तो होती ही रहती हैं।  इन्हें देखकर घबराया थोड़े न करते हैं। चल बेटा मुँह धोले।’

       एक महिला उसे बाजू से पकड़कर वाश-वेसिन के पास ले जाकर उसका मुँह धोने लगी। मुँह धोने के बाद उस महिला ने उसके कमीज के पल्लू से उसका चेहरा साफ कर दिया। मुन्ना ने पूरे कमरे में नज़र दौड़ाई। सभी ओर अजनबी थे जो उसकी ओर एकटक नज़र से देख रहे थें। अपने आप को उनके बीच में अकेला पाकर उसका मन घबरा गया। आचार्य जी का सहारा था, वो भी अभी तक नहीं आए थे। वह उन्हें देखने के लिए कमरे से बाहर निकल गया और वार्ड के मेन दरवाजे की ओर देखने लगा। कौशल्या भी आचार्य जी के इंतजार में उसी ओर देख रही थी। मुन्ना की ओर पीठ होने की वजह से वह एक दूसरे का चेहरा नहीं देख पाए। लगभग चार-पाँच मिनट इसी अवस्था में बीत गए। तभी आचार्य जी लम्बे-लम्बे कदम रखते हुए मेन दरवाजे पर पहुँचे और दूर से ही बोले:

       ‘तुम अभी तक यहीं पर खड़ी हो?’

       ‘और क्या करती? मैं किसी को जानती तो नहीं हूँ किस के पास जाती?’ वह थोड़ी दबी आवाज में बोली।

       ‘वो लड़का बेचारा तुम्हारे पीछे ही तो खड़ा हैं।’ आचार्य जी उसकी ओर हाथ का इशारा करते हुए बोले।

       ‘कहाँ पर?’ कौशल्या ने एकदम पीछे मुड़कर देखा। उसके जिगर का टुकड़ा उसके सामने खड़ा था। अब तक वह पहले से काफी बड़ा हो चुका था। माँ पहली नज़र में उसे पहचान नहीं पायी। कुछ आभास होने लगा था, सो एकटक नज़र से निहारने लगी। परन्तु मुन्ना ने ज्योंही उसे अपनी ओर निहारते देखा, उसकी नज़र माँ के चेहरे पर पड़ी। उसे लगा कि कहीं उसकी आँखों का भ्रम तो नहीं है। अपने दोनों हाथों से अपनी आँखें मसलकर साफ की। माँ की सूरत तो ज्यों कि त्यों थी। मन में ऐसा तूफान उठा मानो छाती फाड़कर बाहर निकल जाएगा। वह बिजली सी की तेज गति से उसकी ओर भागता हुआ चिल्लाया:

‘माँ.........।’

        इससे पहले की कौशल्या कुछ समझ पाती वह उससे लिपट कर रोने लगा। माँ की आँखों से भी आँसूओं की धाराएं बह निकली। वह खुशी के मारे पागल सी हो गई। उसे अपने आलिंगन में लेकर कभी उसका चेहरा, कभी गाल और कभी उसका चेहरा चूमने लगी। उसे सूझ ही नहीं रहा था कि वह क्या कहे और क्या पूछे? बस बार-बार बोले जा रही थी:

       ‘मेरे लाल......मेरे बेटे........मेरे लाल.........मेरे बेटे........।’

       आचार्य जी तो पत्थर की मूर्ति बने स्तब्ध खड़े थे। न कुछ बोल पा रहे थे, न खुशी जाहीर कर पा रहे थे और न ही उस दुःख  को व्यक्त कर पा रहे थे, जो उनकी अपनी आँखों के सामने उनका अपना बच्चा इस छोटी सी उम्र में उठा रहा था। वह निर्णय नहीं कर पा रहे थे कि इस समय वह हँसें या रोये? वास्तविकता की अपेक्षा उन्हें यह एक सपना लग रहा था। वह सपना जिसे वह भ्रम समझ कर बार-बार कौशल्या को समझाया करते थे, धीरज दिया करते थे और जीने की राह दिखाया करते थे। परन्तु आज का सपना तो वास्तविकता थी, फिर क्यों वह उसे भ्रमजाल समझकर स्वयं उसमें उलझ बैठे थे? लाख कोशिश करने के पश्चात् भी उनकी जुबान से एक शब्द तक नहीं निकला। वह तो बस विस्मित आँखों से माँ-बेटे को निहारे जा रहे थे। तभी सफेद शर्ट पहने और गले में स्टेथोस्कोप लटकाए डॉक्टर उनके समीप आकर बोलाः

       ‘दवाई ले आए हो?’

       ‘जी हाँ........जी हाँ।’ आचार्य जी हड़बड़ाहट में बोले मानो नींद से जागे हो।

       दवाई का लिफाफा डॉक्टर को पकड़ाकर वह तीनों उसके पीछे-पीछे कमरे के अंदर चले गए। राम आसरी अभी भी कुछ धीरे-धीरे बोले जा रही थी, परन्तु उसकी आवाज समझ में नहीं आ रही थी। डॉक्टर ने सिरिंज निकालकर उसमें, शीशी में से दवाई भरी और फिर राम आसरी को इन्जेक्शन दे दिया। एक पाऊडर नुमा दवाई पानी के गिलास में डालकर एक-एक चम्मच उसे थोडी-थोड़ी देर बाद पिलाने को कहा। कौशल्या बैड के पास रखे स्टूल पर बैठ गई और गिलास में से दवाई वाले पानी का एक-एक चम्मच थोड़ी-थोड़ी देर के अन्तराल के पश्चात् राम आसरी के मुँह में डालने लगी। आचार्य जी, मुन्ना के दोनों कंधों पर हाथ रखकर चुपचाप राम आसरी की ओर देखने लगे। मुन्ना भी चुपचाप खड़ा उसे देख रहा था, परन्तु उसकी आँखों से आँसूओं की धाराएं निकलकर, चेहरे को पार करते हुए, कमीज पर टपक रही थीं। कमरे में उपस्थित अन्य लोगों को अभी तक यह मालूम नहीं हुआ था कि आने वाले दोनों आगंतुक इस अभागे लड़के के माता-पिता हैं। वे तो यही सोच रहे थे कि कोई दूर-पार के जानकार होंगे। एक महिला कुछ सहानुभूति जताने की गरज से उठकर उनके नजदीक आकर बोली:

       ‘बहिन जी, बेचारा बहुत ही अभागा बच्चा है। पिता जी तो शायद पहले ही नहीं हैं और अब माँ भी साथ छोड़े जा रही है। हे परमात्मा! किसी के साथ ऐसा अन्याय मत करना।’

        उसकी बात सुनकर कौशल्या का खून खौल उठा। उसका मन कर रहा था कि आज तक उसने जितना भी दुःख बच्चे के खोने पर पाया है, उसके बराबर का गुस्सा इस महिला पर इकट्ठा उतार दे। परन्तु एक तरफ बच्चे के मिलन की अपार खुशी थी तो दूसरी ओर उस माँ का दुःख था, जिसने उसे पाल-पोष कर बड़ा किया था। अपने आप को दो धाराओं के मझधार में पाकर वह कुछ कहती-कहती चुप कर गई। उसने तिरछी आँखों से उस महिला की ओर देखा और धीरे से बोली:

       ‘ये अनाथ नहीं है। इसके सब हैं।’

       वह महिला उसकी बात सुनकर अपनी जगह पर जाकर बैठ गई और बुड़बुड़ाने लगी:

       ‘बड़े आए सब कुछ बनने वाले।’

       परन्तु उसकी ओर किसी ने भी ध्यान नहीं दिया। राम आसरी की पीड़ा आज उनके अपने बच्चे के मिलन पर भी भारी पड़ रही थी।  आज उनका बेटा अगर उनके सामने खड़ा था तो उस महिला के कारण जो अपनी जिंदगी की घड़ियाँ गिन रही थी। वह किसी भी हालत में उसे खोना नहीं चाहते थे। उनके लिए तो वह एक मसीहा थी, जो उनके मौत के आगोश में गए बच्चे को पुनः जीवित करके लाई थी। वह उसके जुबानी अपने बच्चे के साथ बिताए एक-एक क्षण, एक-एक पल के बारे में जानना चाहते थे। कौशल्या ने पानी का गिलास और चम्मच दीवार के पास रखी स्टील की एक छोटी सी डोल्ली के ऊपर रख दिए और फिर राम आसरी के हाथों और पैरों की मालिस करने लगी। थोड़ी देर पश्चात् राम आसरी ने आँखें खोली और मुन्ना की ओर देखते हुए बोली:

       ‘मुन्ना! मेरे बेटे, तू मत घबरा। तेरी बड़ी माँ तुझे अकेला छोड़ कर कहीं नहीं जाएगी। मैं तेरे पास ही हूँ न बेटा। ये मास्टर जी तेरे पिता जी के समान हैं। तेरे ऊपर कोई आँच नहीं आने देंगे। मेरे लाल, तू आँसू मत बहा, इससे तेरी बड़ी माँ को दुःख पहुँचता है बेटा, बहुत दुःख पहुँचता है।’

       मुन्ना, उसकी अंतरआत्मा से निकले ये करूणामय शब्द सहन नहीं कर सका। वह अपने पिताजी की बाहों में से निकलकर राम- आसरी के नजदीक पहुँचा और इशारा करता हुआ बोला:

       ‘बड़ी माँ! देख......देख, माँ और पिताजी आए हैं।’

       वह उससे आगे कुछ नहीं बोल पाया। राम आसरी की छाती पर अपना सिर रखकर रोने लगा।

       ‘कौन बेटा? कौन आए हैं?’ राम आसरी के मृतप्रायः शरीर में जान सी आ गई। गर्मी में झुलसे घास के पेड़, जैसे बरसात की पहली फुहार से हरे-भरे होने लगते हैं, वहीं कुछ अवस्था राम आसरी की हो चली थी। उसने मुन्ना के सिर पर अपना दाहिना हाथ रखा और बोलीः

       ‘बेटा, मुझे थोड़ा बैठा कर दे।’

       यह सुनकर आचार्य जी ने अपने दोनों हाथों का सहारा देकर उसे बैठने की हालत में किया और कौशल्या की मदद से कम्बल को इकट्ठा करके उसकी पीठ के पीछे लगा दिया। राम आसरी बैठकर तीनों की ओर देखने लगी। कौशल्या उसके लिए अजनबी थी। उसने अपनी तर्जनी अँगुली उसकी ओर करके उसके बारे में जानना चाहा। यह देखते ही मुन्ना उठा और कौशल्या की बाहों में जाकर रोने लगा। कौशल्या ने बैठे-बैठे ही मुन्ना को दोनों बाहों में लेकर अपनी छाती से लगा लिया और उसके सिर पर अपनी ठुड्डी रखकर वह भी अपनी आँखों से मोटे-मोटे आँसू गिराने लगी। राम आसरी के इशारे का दोनों ने कोई जवाब नहीं दिया। राम आसरी को समझते हुए देर नहीं लगी। उसका हृदय द्रवित हो उठा। आँसूओं की धाराएं उस अस्थि-पंजर बने शरीर में से आँखों के रास्ते जल प्रपात बनकर निकलने लगी। उसकी जिज्ञासा का निराकरण करते हुए आचार्य जी अपनी और कौशल्या की ओर इशारा करते हुए बोले:

       ‘हमारा बेटा है।’ फिर थोड़ा सम्भलते हुए बोलेः

       ‘हमारे से पहले ये आपका बेटा है। इसकी असली माँ तो आप ही हो।’

       राम आसरी ने बिना कुछ कहे अपने दोनों हाथ जोड़ दिए और आँखें बंद करके उस परम पिता परमात्मा की ओर इशारा करते हुए अपना चेहरा ऊपर की ओर कर लिया। फिर उसी अवस्था में कुछ देर चुपचाप अपने होंठ हिलाती रही। थोड़ी देर बाद अपने हाथ से कौशल्या और मुन्ना को अपने पास आने का इशारा किया। वे दोनों उसके समीप बैठ गए। राम आसरी ने धीरे से अपना हाथ उठाया और मुन्ना का हाथ पकड़कर कौशल्या के हाथ में पकड़ा दिया। उसकी आँखों में अब आँसूओं की बजाय चमक थी। चेहरे के भाव से ऐसा मालूम पड़ रहा था मानो उसके सिर से एक बहुत भारी बोझ उतर गया हो। बहुत दबी आवाज में उसके मुँह से शब्द निकले:

       ‘बहिन, ये आपकी अमानत है। अब मुझ पर कोई बोझ नहीं रहा है। मेरे मुन्ना को इसके माँ-बाप मिल गए हैं। मैं अब आजाद हूँI  मुझे अब....कोई.....नहीं.....रोक......सकता......मैं.....जा.....रही....हूँI' और   उस बडी माँ के प्राण-पखेरू उस अदृष्य अनंत की ओर उड़ गए। मुन्ना अपना सिर और अपने दोनों हाथ उस दिव्य आत्मा की छाती पर पटक-पटक कर रो रहा था और उसकी करुणामय चीत्कार के साथ-साथ यह हृदय विदारक शब्द उस शोकाकुल और गमगीन परिदृष्य में गूँज रहे थे:

       ‘बड़ी माँ, आप मुझे छोड़कर क्यों चली गई? आपके वायदे तो झूठे निकले। आप तो कहती थी कि तुझे एक दिन बड़ा और महान आदमी बनाऊँगी। परन्तु आज आप स्वयं ही मेरी जगह बड़ी और महान माँ बनकर चली गई हो। बडी माँ! आप महान हो...........आप महान हो।’

       कौशल्या ने बेटे को उठाकर अपनी छाती से लगा लिया।  उसका मन हुआ कि वह अपने अंदर भरा दुःख चींख-चींखकर बाहर निकाल दे। परन्तु वह जगह रोने-धोने की नहीं थी, सारा का सारा गम पी कर रह गई। आचार्य जी भी कुछ क्षण तो हतप्रभ से हुए देखते रहे। सोच रहे थे कि यह क्या हो गया है? और फिर वह डॉक्टर को बुलाने के लिए उसके कमरे की ओर भागे। परन्तु मुन्ना तो बेजार रोये जा रहा था। कौशल्या पत्थर की मूर्ति सी बनी खड़ी थी। उसे कुछ भी नहीं सूझ रहा था कि वह क्या करे। उसके जिगर का टुकड़ा मिला भी तो कैसे समय? क्या वह उसके मिलने की खुशी मनाए या उस माँ का मातम जिसकी वजह से वो आज उसकी विरान जिंदगी में दोबारा बसंत बनकर लौटा है। अपने बेटे का चेहरा अपनी छाती से लगाकर उसे जोर से भींचते हुए बोली:

       ‘‘ना रो मेरे बेटे, ना रो। मैं हूँ ना तेरे पास। तेरे पिता जी डॉक्टर को बुलाने गए हैं। वो आते ही होंगे। इन्हें कुछ नहीं हुआ है। शायद बेहोश हो गई हैं। डॉक्टर के आते ही ठीक हो जाएंगी। चुप कर जा बेटा। यहाँ रोया नहीं करते। अस्पताल है बेटा, वो लोग बुरा मान जाएंगे।’

       माँ की छाती से लिपटा मुन्ना चुप तो हो गया, परन्तु फिर भी धीरे-धीरे सुबकियाँ भरने लगा। दो माताओं के बीच में खड़ा वह अब भी अपने आप को अनाथ महसूस कर रहा था। जिंदगी का एक अध्याय तो समाप्त हो चुका था और दूसरा अब नये सिरे से आरम्भ होने वाला था। भूतकाल और भविष्य के द्वंद्व में फंसा उसका वर्तमान लुप्त हो चुका था। जन्म देने वाली माँ से मिलन हुआ तो जिंदगी की राह दिखाने वाली माँ दामन छोड़कर जा चुकी थी। यह सहनाइयों और चीत्कार का संगम था, जिसे सुनने वाला न तो खुषी का जश्न मना सकता था और न गम का मातम। मैं गाऊँ या रोऊँ की स्थिति ने मुन्ना को असहाय सा बना दिया था। वह अपने इर्द-गिर्द बैठे लोगों की ओर देखने लगा जो पहले ही उसकी ओर विस्मित नज़रों से देख रहे थें। उनकी नज़रों में वह एक तमाशा बनकर रह गया था। उन्हें यह आभास नहीं हो पा रहा था कि इस लड़के का इन दो महिलाओं के साथ क्या सम्बन्ध है? अपने संसय को दूर करने व सांत्वना देने हेतु एक स्त्री अभी प्रश्न करने को उद्यत हुई ही थी कि उसी समय आचार्य जी ने डॉक्टर के साथ कमरे में प्रवेश किया। वहाँ पर उपस्थित सभी लोग उसे देखकर एक ओर हट गए। डॉक्टर ने आकर राम आसरी का बाजू पकड़कर देखा। फिर स्टेथोस्कोप से दिल की धड़कन चैक की और आँखों की पुतलियों को हाथों से पलट कर देखा। निराशा भरी निगाहों से आचार्य जी की ओर देखते हुए वह सीधा खड़ा हुआ और बोला:

       ‘सी इज नो मोर। आप नीचे जाकर डेथ सर्टीफिकेट बनवा लीजिए।’ यह कहकर वह कमरे से बाहर निकल गया। आचार्य जी ने टेलीफोन करके अपने एक निजी मित्र को बुलवाया और अस्पताल की औपचारिकताएं पूरी करने के पश्चात् वह राम आसरी के मृतक शरीर को अपने घर ले गए। दूसरे दिन अपने मित्रगणों की सहायता से उन्होंने पूरे रीति-रिवाज अनुसार उसका अंतिम दाह-संस्कार करवा दिया। परन्तु उसके जाने की रिक्ती मुन्ना के जीवन में हमेशा के लिए एक न भूलने वाली याद बनकर रह गई थी।

*******