बड़ी माँ - भाग 12 (अंतिम भाग) Kishore Sharma Saraswat द्वारा फिक्शन कहानी में हिंदी पीडीएफ

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बड़ी माँ - भाग 12 (अंतिम भाग)

12

अब तक दोपहर के दो बज चुके थे। सूरज बढ़ के पुराने पेड़ की  विशाल टहनियों के पीछे लुका-छुपी करने लगा था और छाया वृक्ष से भी लम्बी होने लगी थी। इसलिए सर्दियों की धूप में बैठकर जो आनन्द का अनुभव हो रहा था, वह कुछ फीका पड़ने लगा था। रामू काका एक बजे से ही डाक बंगले से निकलकर बार-बार नदी की ओर झाँक रहा था। अभी तक साहिब लोग वापिस क्यों नहीं आए? खाना खाने का समय हो रहा है। अगर खाना बना दिया और वे नहीं आए तो पड़ा-पड़ा ठंडा हो जाएगा। उसे स्वयं भी भूख सताने लगी थी, परन्तु साहिब लोगों से पहले कैसे खा सकता था। इसलिए उसकी बेचैनी उसे आराम से बैठने भी नहीं दे रही थी। उसके मन में आया कि वह नीचे जाकर पूछ आए, परन्तु मैडम के तेवरों से अनभिग था। इसलिए साहस नहीं बटोर पा रहा था। थोड़ी देर इधर-उधर घूमने के पश्चात् आखिर उसने हिम्मत की और गेट की ओर चल पड़ा। ज्योंही वह गेट खोलने लगा तो सामने की पहाड़ी की ढ़लान पर बाँस के झुरमुटों में से एक भौकने वाले हिरन की आवाज सुनाई दी। आवाज सुनकर रामू काका गेट को ज्यों का त्यों छोड़कर, कुछ गुनगुनाता हुआ पीछे की ओर मुड़ गया।

        दूसरी ओर नीचे नदी के किनारे झाड़ियों के पीछे से अचानक चीतलों का एक झुँड निकला। अपने सामने इंसानों को पाकर वे एकदम हड़बडाए और गैंद की तरह उछलते हुए नदी में कूदे और दूसरी ओर के जंगल में खो गए। एक छोटा बच्चा मुश्किल से एक-दो दिन का होगा। नदी किनारे बनी ढलान से कूद नहीं पाया और झाड़ियों में इधर-उधर घूमकर अपनी माँ को ढूँढने लगा। उसकी मिमयाने की आवाज सुनकर उसकी माँ नदी के दूसरी ओर से झाड़ियों के पीछे से निकलकर अपने बच्चे को बुलाने के लिए आवाज देने लगी। बच्चा, माँ को तो देख नहीं पाया, परन्तु उसकी रंभाने की आवाज सुनकर अपनी छोटी और प्यारी सी पूंछ को इधर-उधर हिलाता हुआ झाड़ियों के चारों ओर भागने लगा। उसे देखकर पति-पत्नी अपनी कहानी बीच में ही छोड़कर खड़े हो गए। उन्हें देखकर बच्चे को अकेलेपन से कुछ सहारा मिला। बच्चा था, इसलिए मित्र और शत्रु की उसे कोई पहचान नहीं थी। वह मिमयाता और पूंछ हिलाता हुआ उनके पास आ गया। साहब ने उसे उठाकर चूमा और फिर बाएं हाथ से उठाकर दाएं हाथ से उसे सहलाने लगे। नदी के उस पार उसकी माँ जोर-जोर से आवाजें निकालने लगी। उसने कईं बार नदी में आगे आने की कोशिश की परन्तु डर के मारे फिर पीछे  झाड़ियों  में भाग जाती। यह देखकर मैडम से रहा नहीं गया, बोली:

       ‘देख रहे हो आप?’

       ‘क्या?’ उन्होंने प्रश्न किया।

       ‘मुझे् तो यह मुन्ना की कहानी का रूपांतर लग रहा है।’ सुन कर साहब हँस पड़े। फिर बोले:

       ‘तुम ठीक कहती हो मेघना, इसमें केाई शक नहीं है। परन्तु  एक कमी जरूर है।’

       ‘वो क्या?’ उसने प्रश्न किया।

       ‘इसमें बड़ी माँ का किरदार मिसिंग है।’

       पति की बात सुनकर वह बड़े जोर से खिलखिलाकर हँसी।  उसकी हँसी रुकने का नाम ही नहीं ले रही थी। बेचारे साहब की समझ में कुछ नहीं आ रहा था। यह कैसा नाटक है? अभिनेता को अपने किरदार का पता नहीं और दर्शक उसे देखकर लोटपोट हो रहे हैं। फिर भी वह खुश थे। चलो किसी बहाने इसे हँसी तो आई, वरना मुन्ना की बात सुनकर यह कितनी बार रोयी है। जब वह हँसकर थक गई तो साहब बोले:

       ‘मैडम, हमें भी तो पता चले कि इस हँसी का राज क्या है?’

       ‘आप बताओ। आप तो देवव्रत हो, देवता तो सब के मन की बात जानते हैं।’ वह शरारत भरे लहजे में बोली ।

       ‘मुझे इतना बड़ा मत बनाओ। मैं तो केवल एक इंसान हूँ। सच अगर मुझे मालूम होता तो हँसी में बराबर का शरीक होता।’ उन्होंने अनभिगता प्रकट की। परन्तु कुछ कहने की बजाय वह पति की ओर शरारत भरी निगाहों से देखने लगी। साहब ने अपनी पेश न चलती देखकर चीतल के बच्चे को चूमा और पत्नी की ओर देखते हुए बोले:

       ‘देखो मेघना, पति-पत्नी में हर चीज कॉमन होती है। तुम  परदा रखोगी तो ये नन्हा सारी बात अपनी मम्मी को बता देगा। क्यों मिस्टर ऐसा ही करोगे न?’

       ‘अच्छा! तो ये बात है। यही तो मैं कहने जा रही थी। इसकी बड़ी माँ का किरदार आप जो निभा रहे हो। इसे कोई अच्छी बात सिखाओ। आप तो बचपन में ही इसकी आदतें बिगाड़ने लगे हो।’

       पत्नी की बात सुनकर वह हँस पड़े। साथ में वह भी मुस्कुराने लगी। तभी सामने वाले छोर से मादा चीतल की आवाज फिर सुनाई दी। साहब ने उसकी ओर देखा और बोले:

       ‘‘हाँ भई हाँ, मैंने सुन लिया है। मैं ला रहा हूँ तुम्हारे साहिबजादे को। क्यों फिकर कर रही हो।’ और यह कहकर वह ढलान से नीचे उतरकर नदी के दूसरी ओर माँ से बिछुड़े उसके बच्चे को उसे सौंपने चल पड़े। उन्हें अपनी ओर आता देखकर मादा चीतल जंगल की ओर भाग गई। बच्चे को दूसरे किनारे पर छोड़कर ज्योंही वह कुछ कदम पीछे मुड़े, मादा चीतल अपने बच्चे को साथ लेकर जंगल के भीतर की ओर भाग गई। वापस आकर वह ढलान चढ़ने ही वाले थे कि मैडम बोली:

       ‘मुझे तो लगता है यह वही जगह होगी जहाँ पर मुन्ना अपनी माँ से बिछुड़ा होगा। और आज की घटना देखकर तो मुझे पक्का यकीन हो गया है कि यह जगह ठीक नहीं है। सच पूछो तो मुझे घबराहट होने लगी है। यहाँ से जल्दी निकलते हैं। पर यह तो बताओ आप को इस पूरी बात का पता कहाँ से चला है?’

       ‘कुछ रामू काका से और बाकी का जिंदगी में मिले दूसरे लोगों से जानकर।’ वह बोले।

       सुनकर मैडम चुप हो गई। फिर वे डाक बंगले की ओर जाने वाले रास्ते पर चल पड़े। रामू काका की नज़र उन पर पड़ी तो वह गेट खोलने के लिए उस ओर भागा। अब तक दोपहर बाद के ढाई बज चुके थे।

       जब वे गेट के पास पहुँचे तो रामू काका ने हाथ जोड़कर प्रणाम किया और रास्ता छोड़कर एक ओर खड़ा हो गया। साहब ने उसकी ओर देखते हुए पूछा:

       ‘क्यों काका! खाना तैयार है क्या?’

       ‘हाँ साहिब, दाल और सब्जी तो तैयार है, बस चपाती लगानी बाकी हैं। मैंने सोचा ठण्डी हो जाएंगी, इसलिए आपके आने पर ही बनाऊँगा।’ रामू काका उनकी बगल में, सुनने की गरज से, थोड़ा पीछे चलता हुआ बोला।

       ‘ठीक है।’ वह बोले।

       रामू काका ने अपने हाथ में पकड़ा हुआ परना अपने कंधे पर रखा और अपनी चित-परिचित चाल में चलते हुए आहिस्ता से बोलाः

       ‘साहिब जी, बड़ी देर हो गई है आने में।’

       ‘हाँ काका, मैं तुम्हारे वाली बात इनको सुनाने लग गया था।’ वह बोले।

       अपनी बात की जिक्र सुनकर रामू काका कुछ तनकर चलने लगा। तभी गेट के पास से चीं...ई...की आवाज सुनाई दी। रामू काका ने घबराकर पीछे देखा। माली खुला रह गये गेट को बंद कर रहा था।

        कमरे में पहुँचते ही रामू काका पानी से भरे तीन गिलास ट्रे में रखकर लाया तो साहब बोले:

       ‘काका, इसे टेबल पर रख दो और जल्दी से खाना लगा दो। बहुत देर हो गई है, हमें अब निकलना है।’

       ‘जी साहिब।’ रामू काका अपने बाएं कंधे पर रखा परना  उठाकर दाएं कंधे पर रखता हुआ बोला। कमरे से बाहर निकलकर वह तेजी से रसोई में गया और जल्दी-जल्दी सलाद काटने लगा। सलाद को एक प्लेट में सजाने के बाद उसने दो बड़े प्यालों में दाल और सब्जी डाली और फिर उन्हें ढक्कन से ढांप दिया। दो चपात्तियाँ उतारने के पश्चात् सारा सामान एक बड़ी ट्रे में रखकर उसने कमरें में जाकर खाना टेबल पर लगा दिया और फिर जल्दी-जल्दी गर्म चपातियाँ बनाकर परोसने लगा। साहब लोगों ने जब खाना खा लिया तो रामू काका हाथ जोड़कर बोला:

       ‘साहिब, चाय-कॉफ़ी, क्या बनाऊँ?’

       ‘नहीं काका, तुम जल्दी से सामान जीप में रख दो। हम दस मिनट में तैयार होकर आते हैं। साहब बोले।

       रामू काका ज्योंही ब्रीफकेस उठाकर चलने लगा तो वह कहने लगे:

       ‘काका! पहले रजिस्टर लेकर आओ।’

       रामू काका रजिस्टर लेकर आया तो उन्होंने उसमें ठहरने का इन्द्राज किया। खाने और ठहरने के पैसे दिए और साथ में पचास रुपये अल्प उपहार के रूप में उसे दे दिए। रामू काका पैसे लेकर खुशी से दोनों ब्रीफकेस और रजिस्टर उठाकर बाहर निकल गया। लगभग दस मिनट पश्चात् साहब और उनकी पत्नी भी बाहर निकल आए। रामू काका ने भागकर उनके हाथ से बैग पकड़ा और जीप में रख दिया और नमस्कार करते हुए बोला:

       ‘साहिब, फिर आना।’ वह उनसे काफी खुल चुका था, परन्तु  मैडम से बात करते हुए उसे अभी भी हिचक हो रही थी।

       ‘हाँ काका, तुम बुलाओगे तो जरूर आएंगे।’ वह जीप में बैठते हुए बोले। ज्योंही वह जीप स्टार्ट करने लगे, रामू काका साहब की बगल में जाकर खड़ा हो गया और हाथ जोड़कर कुछ कहने को हुआ। उसे देखकर साहब बोले:

       ‘हाँ काका, बोलो अब क्या बात है?’

       रामू काका कुछ घबराया हुआ सा बोला:

       ‘साहिब, आप कल कुछ कह रहे थे।’

‘मैं समझा नहीं। जरा दोबारा बताइये।’ वह बोले।

       ‘साहिब, आप कह रहे थे कि कल जाते समय आप उस बच्चे के भूत को अपने साथ जीप में बैठाकर शहर ले जाएंगे। साहिब, मैं बस उसी बात की याद दिला रहा हूँ। साहिब, मेरे पर इतना सा उपकार कर दीजिए।’ रामू काका हाथ जोड़कर खड़ा हो गया।

       उसकी बात सुनकर साहब ठहाका लगा कर हँसे। मैडम को दोनों के बीच होने वाले संवाद कुछ अजीब से लगे। इसलिए उसने उन पर विशेष ध्यान नहीं दिया। बिना बात के रुकना भी उसे कुछ अटपटा सा लग रहा था। इसलिए अपनी नाराजगी जुबान से व्यक्त न करके उसने बाएं और मुँह मोड़कर अपनी आँखें बंद करके अपना सिर सीट के ऊपर टिका दिया। साहब की हँसी देखकर रामू काका को यूँ लगा कि इतने बुढ़ापे में भी वह हँसी का पात्र बन रहा है। उसे अपने साथ यह एक भद्दा मजाक लगा। वह अपना सा मुँह लेकर गेट खोलने के लिए उस ओर चलने लगा तो साहब बोले:

       ‘काका! जा कहाँ रहे हो? इधर आओ, मेरी बात सुनो।’

       रामू काका वहीं पर रुक गया। परन्तु अपने मन में उपजे भ्रम के कारण वह उनकी ओर बिना देखे चुपचाप खड़ा रहा। साहब उसके मन की शंका को समझ गए थे, इसलिए उसे और ज्यादा देर तक इंतजार कराना उन्हें ठीक नहीं लगा। वह विनोदी भाव में बोले:

       ‘घबरा क्यों रहे हो काका? इधर देखो, मैं तुम्हारे दुश्मन को जीप में बैठाकर अपने साथ लिए जा रहा हूँ।’

       पति की बात सुनकर मैडम ने एकदम अपनी आँखें खोली और साहब की ओर देखते हुए बोली:

       ‘अच्छा! तो मैं आपके काका की दुश्मन हूँ?’

       पत्नी की बात सुनकर वह हँस पड़े। परन्तु काका ने अपने आप को एक दूसरे ही जाल में फंसते पाया। वह घबराकर हाथ जोड़ते हुए बोला:

‘नहीं बीबी जी, आप हमारे दुश्मन नहीं हैं। साहिब तो दूसरे दुश्मन की बात कर रहे हैं।’

       अटपटी बातें सुनकर मैडम को बोरीयत महसूस होने लगी थी। वह झूंझला कर बोली:

       ‘आप भी कमाल करते हो। क्या आज की रात भी यहीं रुकने का इरादा है?’

       ‘नो माई डीयर, बस अभी चलते हैं। जरा काका की शंका को दूर कर दूँ।’ फिर वह रामू काका की ओर देखते हुए बोले:

       ‘काका, तुम्हारा वो बच्चे का भूत मैं ही हूँ। मैं ही वो बच्चा था जो नदी में बहा था। अब तो नहीं डरोगे न?’ यह सुनकर रामू काका ने आकाश की ओर देखा और बोला:

        ‘हे भगवान! तेरा लाख-लाख शुक्रिया।’

परन्तु मेघना की आँखों से तो आँसू सावन के मेघ बनकर टपकने लगे थे। उसने अपने दोनों हाथ और सिर पति के कंघे पर टिका दिए। रामू काका आगे कुछ नहीं बोल पाया। खुशी से उसकी आँखें भर आई और गला रूद्ध गया। वह एक बेसुध इंसान की तरह लड़खड़ाता हुआ गेट के पास पहुँचा और गेट खोलकर एक ओर खड़ा हो गया। साहब ने जीप गेट से बाहर निकाली और बोले:

       ‘काका! हम फिर आएंगे।’

       रामू काका ने धीरे से अपने दोनों हाथ अभिवादन स्वरूप ऊपर उठाए और फिर पीठ मोड़कर रोने लगा। जब उसने मुड़कर देखा तो जीप कच्ची सड़क पर मिट्टी उड़ाती हुई, पुरानी यादें पीछे छोड़कर, दौड़ी चली जा रही थी।

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