शून्य से शून्य तक - भाग 34 Pranava Bharti द्वारा प्रेम कथाएँ में हिंदी पीडीएफ

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शून्य से शून्य तक - भाग 34

34===

आशी पन्नों पर पन्ने रंगती जा रही थी, अपने प्यार की स्मृति में वह कभी भी रो लेती, यह खुद उसके लिए भी आश्चर्यजनक था ! उसने खुद ही तो अपने पैरों पर कुल्हाड़ी मारी थी या यह कह लें कि ज़िंदगी जो भी खेल खिलाती है, इंसान को खेलना ही पड़ता है | जब चीज़ें हाथ से फिसल जाती हैं तब उन्हें पकड़ना या थाम लेना कहाँ आसान होता है? 

मौन के बाद कभी समय मिलने पर सुहास ने कई बार आशी से कहा था कि भगवन् हमेशा कहते थे कि कुछ न करो, मौन रहकर जीवन के मार्ग में आने वाले मोड़ों को देखो और उन पर चलते चलो | वैसे बात तो ठीक ही थी क्या बदलाव कर लेता है इंसान अपने जीवन में? जो जैसे होना होता है वही होता है | वे संत थे, उनका कहना और सोचना भी अर्थहीन नहीं था लेकिन एक आम इंसान के लिए इतना सहज भी नहीं था कि वह अपने से जुड़ी हुई सब चीज़ों को छोड़ सके | वह जूझता रहता है जैसे शून्य पर आकर खड़े होने के बाद भी वह उस सबसे जुड़ी है, उसे लगता है जब तक वह अपना बीता हुआ कल निकालकर नहीं रख देगी, वह असहज बनी रहेगी | इसीलिए वह बार-बार पलटकर पीछे झाँक रही थी और पन्ने रंगते जा रहे थे-----

दीना पिता थे, उन्हें लगता कि आशी क्यों एक छोटे बच्चे की तरह उनसे पापा कहती हुई नहीं चिपट जाती। उनके हृदय से नहीं लग जाती? क्यों अपने पिता की बाहों में नहीं आ जाती? उनका मन एक लालची पिता की भाँति अपनी बेटी के प्यार को और उसे वात्सल्य से भर देने के लिए तरस रहा था | वे जानते थे कि सहगल ठीक कह रहे थे। उसे समय के आँचल तले छोड़ देना जरूरी था, अभी तक भी तो यही किया था | 

“सहगल!तुम ज़रा मनु और भाभी से बात तो करके देखना—”

“किस बारे में --? ”

“मैंने ज़िक्र नहीं किया था----मनु अगर मेरे साथ आ जाए ---मतलब ये कंपनी जॉयन कर ले तो---”

“अरे भाई, मैंने हल्की सी चर्चा करने की कोशिश तो की थी लेकिन अभी बात नहीं बनी—खुलकर बात कर ही नहीं सका अभी तक---”

“भाभी का मूड कैसा लगा? ”

“तुम उनका स्वभाव तो जानते ही हो दीना---मनु यदि तुम्हारे साथ काम करे तो उनको कोई परेशानी थोड़े ही है बल्कि वह तो खुश होंगी | शायद आशी और मनु और करीब भी आ जाएं | हम सब जानते हैं कि वे एक-दूसरे को पसंद तो करते ही हैं लेकिन मनु थोड़ा सा घबराता है | तुम्हारी भाभी को दुख तो अपने भाई के काम के ठप्प होने का है जिसे वह भाई की निशानी मान अपने दिल से लगाए बैठी है | इसीलिए वह एक तरह से मनु को बहला रही हैं कि यदि वह थोड़ी और कोशिश कर सके तो उनके भाई की कंपनी किसी तरह बच जाएगी---लेकिन अब वह भी कुछ थक सी गईं हैं---!!”

“देख लो सहगल तुम, वैसे तो मैं खुद ही भाभी से बात कर लेता पर मुझे लगा कि कहीं जाने-अनजाने मुझसे उन्हें कोई ठेस न लग जाए---इसीलिए ---”

“डोंट वरी, मैं मौका देखकर साफ़ साफ़ बात कर ही लेता हूँ ---”सहगल ने दोस्त की पीठ थपथपाई और बाहर निकल आए, काफ़ी देर हो चुकी थी उन्हें !

डॉ.सहगल उनके पास से चले गए, उनका फ़ोन आ गया था, उन्हें क्लीनिक जल्दी पहुंचना था | 

दीना जी अपनी पुरानी फ़ाइल्स निकलवाकर देखने लगे | मि.केलकर उनके पास आ बैठे थे और उन्हें हर पुराने प्रॉजेक्ट के बारे में बताने लगे थे, वैसे कोई भी प्रॉजेक्ट उनकी जानकारी के बिना नहीं किया गया था परंतु उन्होंने काफ़ी दिनों बाद ऑफ़िस आना शुरू किया था इसलिए केलकर उनसे डिटेल्स में बातें कर रहे थे | वैसे उनकी बीमारी के दौरान भी हरेक प्रॉजेक्ट का इंचार्ज घर पर आकर उनसे चर्चा तो करता ही था | जब प्रॉजेक्ट इंचार्ज उन्हें डिटेल में समझाने की कोशिश करते वे हमेशा यही कहते कि उन्हें अपने लोगों पर पूरा विश्वास है | वहाँ मि.केलकर हैं, मि.पटेल हैं, नितीश हैं—सब मिलकर डिसिजन ले लिया कीजिए, जैसे करते आए हैं | मैं मानसिक रूप में अभी इस स्थिति में नहीं हूँ कि कोई डिसीजन ले सकूँ | 

आज मि.केलकर समय लेकर सेठ जी के पास आकर बैठ ही गए थे | 

“आप सर, बेबी से बात कर लीजिए, उनसे भी डिस्कस हो सके तो ठीक रहेगा | ”केलकर जी ने सेठ जी से कहा | 

“हाँ, ठीक कहते हैं आप---”उन्होंने कहा | 

आज घर जाकर बिटिया से बात करनी चाहिए, वे मन में आशी से बात करने की योजना बनाने लगे | वैसे तो मि.केलकर के कहते ही उनके मन में यह बात आ गई थी कि उन्हें आशी से बात करने की कोशिश जल्दी ही करनी चाहिए | ऑफ़िस से निकलकर वे गाड़ी में बैठे, उनके मन में यही बात घूम रही थी, न जाने आशी आखिर कर क्या रही होगी? पता नहीं, वे उससे बात करेंगे तो वह उनकी बात को कैसे लेगी? उनका दिल बिटिया से बात शुरू करने की सोचकर ही ज़ोर-ज़ोर से धड़कता रहा और वे किसी न किसी प्रकार अपने ऊपर काबू रखने का प्रयास करते रहे | 

घर पहुँचकर हाथ, मुँह धोकर वे फ़्रेश हुए और फिर अपनी उसी बॉलकनी में जाकर खड़े हो गए जहाँ से उन्हें चढ़ता और डूबता सूरज दिखाई देता था | अब सूरज डूब रहा था, उनका दिल भी भावनाओं के आकाश में डूबने-उतरने लगा | डूबते हुए सूरज को देखते हुए वे सोचने लगे कि आज डिनर पर आशी से बात करेंगे | फिर लगा कि उन्हें बेटी से बात अकेले में करनी चाहिए न कि घर के स्टाफ़ के सामने!उनके घर का स्टाफ़ उनके व पूरे परिवार के लिए कोई नया नहीं था और न ही अजनबी, सब ही तो सब कुछ जानते–समझते थे किन्तु फिर भी----आशी की मन:स्थिति भी तो देखने की ज़रूरत है | 

इसी सब ऊहापोह में न जाने कब सूरज के ढलते गुलाबी आसमान का रंग पहले हल्का और फिर गाढ़ी कालिमा में उतर आया | उन्हें पता ही नहीं चला | हल्की सी आवाज़ हुई, उन्होंने पीछे मुड़कर देखा, आशी के कमरे का दरवाज़ा बंद हुआ था, न जाने वह कब खुला था, शायद तभी और आशी ने बाहर निकलकर तुरंत बंद कर दिया था | 

“हैलो पापा---”दीना को बेटी के मुँह से निकले शब्द कुछ सहज से लगे | 

“बेटा!क्या हो रहा है? ”वे अचानक उसे देखते ही जैसे कुछ असमंजस में आ गए थे | फिर न जाने क्या सोचकर कुछ संभलकर बोले;

“तुम ज़रा मेरे कमरे में आओगी? तुमसे कुछ बात करनी है | ” उन्होंने साहस करके कहा | 

“क्या---कैसी बात? ”आशी ने उदासीनता से पूछा तो उनका उत्साहित होता हुआ मन फिर से जैसे ठंडा पड़ गया | उनका मन बुझने सा लगा | कुछ संभलकर उन्होंने कहा;

“तुम पास आकर बैठोगी तभी बताऊँगा न !”कहकर उन्होंने अपने कमरे की ओर कदम बढ़ा दिए | 

“ओके---”आशी ने अपने कंधे उचकाकर कहा और उनके कमरे की ओर चल दी | 

वे अपने कमरे में पहुँचकर इधर से उधर की ओर चहलकदमी कर रहे थे | आशी उनके कमरे में पहुँच चुकी थी और उनकी बेचैनी को स्पष्ट रूप से भाँप रही थी | कई मिनट तक वह ऐसे ही पापा के कमरे के दरवाज़े पर खड़ी रही, जब देखा कि उनका ध्यान उसकी ओर था ही नहीं तब उसने दो कदम आगे बढ़कर कहा;

“पापा—”

“हाँ---आ गई आशी बेटा ---? ? ”

“कहिए---“उसने कुछ उदासीन और गंभीर स्वर में कहा | 

दीना अपने कमरे की बॉलकनी की ओर मुँह करके खड़े हुए थे | उन्हें वहाँ से अपनी प्रिय पत्नी सोनी का लगाया हुआ बगीचे का वह भाग दिखाई दे रहा था जो सोनी को बहुत प्रिय था | यह हिस्सा भिन्न प्रकार के रंग-बिरंगे गुलाब के फूलों से भरा हुआ था | सोनी को गए इतने साल हो गए थे लेकिन उसके द्वारा लगवाए हुए उस गुलाब के बगीचे को ज़रा सा भी छेड़ा नहीं गया था | वह ‘सोनी गुलाब बगीचा’उसी तरह महकता हुआ मुस्करा रहा था जैसे उसके सामने खिलखिलाता रहता था | उस समय उन फूलों के साथ खिलखिलाने के लिए उन गुलाबों के साथ सोनी होती थीं अब दीना का एकाकीपन उस बगीचे के साथ जुड़ी हुई यादों के सहारे कभी-कभी मुस्का उठता है | फूलों को देखकर उनके चेहरे पर भी मुस्कान खिल जाती और आँखों में पानी जिसमें उनकी पत्नी का चेहरा झिलमिलाता | 

दीना को लगता उन फूलों के बीच में उनकी खिली हुई सोनी मुस्काती हुई खड़ी है | उससे कह रही है कि आशी बिटिया आपके कमरे में आई है तो उसे बैठाकर उससे बात तो करिए | यह जो अजनबी का आवरण ओढ़े आप घूम रहे हैं न वह आपके और उसके दोनों के लिए ही जानलेवा है | आगे बढ़िए और अपनी बेटी के सिर पर माता-पिता दोनों की ओर से हाथ रखिए | ”

वे कुछ बौखला से गए और इधर-उधर देखने लगे जैसे किसीको तलाश कर रहे हों | 

“मैं यहाँ खड़ी हूँ पापा---”

वे चौंक उठे | बालकनी से ध्यान हटाकर दरवाज़े की ओर बढ़े जहाँ अभी तक आशी खड़ी थी | उन्होंने आगे बढ़कर आशी के सिर पर हाथ रखा | उन्हें महसूस हुआ वह हाथ उनका नहीं सोनी का है जो बेटी को दुलारना चाहता है | उनकी आँखों से आँसु लुढ़क रहे थे जो बंद होने का नाम ही नहीं ले रहे थे | 

“बताइए तो पापा, क्या कहना था---? ”आशी अब बेचैनी और खीज महसूस सी करने लगी थी | 

“बेटा!बैठो तो सही---वह उसे पकड़कर अपने पलंग तक ले आए और उसे अपने पलंग पर बैठा दिया | अपने आप वह सामने पड़े हुए सोफ़े पर बैठ गए | 

दीना अपनी पेशानी पर हाथ फेर रहे थे | उनकी मुखमुद्रा स्पष्ट रूप से बता रही थी कि वे भीतर से बहुत बेचैन हैं और अपनी बात कहने की कोशिश कर रहे हैं | 

:ठीक है, अब बताइए---”उसने अपने आपको पिता के सामने सहज दिखाते हुए कहा | 

“आशी बेटा ---वे फिर बोलते बोलते रुक गए और सोफ़े के किनारे पर बैठे बैठे ही अपने हाथ सोफ़े के हैंडल पर टिकाते हुए बोले ;

“आशी बेटा ---“वे फिर चुप होकर अपनी हथेली मलने लगे | जैसे किसी ने उनके कान में फुसफुसाकर कहा ;

“बेटी बैठी है, बोलो न कुछ---”जैसे सोनीपास ही खड़ी थी | 
”हमको लगता है, अब तुम्हें अपने बारे में कुछ सोचना चाहिए”वे कुछ ऐसे जल्दी–जल्दी बोल गए जैसे कोई गाड़ी छूट रही हो | 

“अपने बारे में ? ”फिर कुछ क्षण रुककर उसने उनके चेहरे पर अपनी आँखें चिपका दीं—

“मैं सोच रही थी ऑफ़िस आने की---पर न जाने क्यों मन ही नहीं बन पा रहा है | ”आशी ने कुछ रुकते हुए कहा | 

“वो तो बेटा तुम कभी भी आ जाना, सुना है तुम्हारी टीम ने कोई बहुत अच्छा प्रोजेक्ट शुरू किया है---? ”

“कहाँ शुरू किया है, अभी तो उसकी रूप-रेखा ही तैयार कर रही थी---”अचानक आशी के मुख से निकला फिर बोली;

”ओह ! तो मि.केलकर ने आपको बता भी दिया? ”ऐसा लग रहा था मानो इस बात से वह कुछ नाराज़ थी | 

“नहीं बेटा, ऐसा कुछ नहीं है---पता चला तुम उस प्रॉजेक्ट पर बहुत मेहनत से काम कर रही थीं मगर अचानक ही तुमने उसे बीच में ही छोड़ दिया | केलकर इसी बात को लेकर कुछ परेशान से थे | वह तुम्हारे उस प्रॉजेक्ट की काफ़ी प्रशंसा कर रहे थे और मुझसे उसके बारे में चर्चा करना चाहते थे लेकिन मैंने उन्हें मना किया कि तुम्हारा प्रॉजेक्ट है तुम ही उसे बेहतर समझा सकोगी | ”दीनानाथ चुप हो गए और उत्सुकता से बेटी का चेहरा ताकने लगे | 

“ठीक है, देखूँगी, कब जा पाती हूँ !” आशी ने अनमने से स्वरों में कहा तो दीनानाथ जल्दी से बोल उठे;
“अरे हाँ, यू शुड टेक योर ओन टाइम---”

“बस—तो जाऊँ मैं ? ”आशी ने वहाँ से उठते हुए कहा तो दीनानाथ ने उसे फिर से बैठाते हुए कहा;

“बैठो न, मेरी बात तो पूरी नहीं हुई अभी तक---”दीनानाथ ने उसे फिर से बैठाते हुए कहा | 

“तो कहिए न पापा, आपको पता है मुझे स्ट्रेट बात पसंद है | आप मुझसे घुमा-फिराकर---क्या कहना चाहते हैं? साफ़-साफ़ कहिए न!” कुछ उकताहट से उसने कहा |