शून्य से शून्य तक - भाग 31 Pranava Bharti द्वारा प्रेम कथाएँ में हिंदी पीडीएफ

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शून्य से शून्य तक - भाग 31

31

कहाँ अमरावली पर्वत का नैसर्गिक सौन्दर्य और कहाँ महानगर की चकाचौंध वाला शहर ! यहाँ से महसूस होता मानो धरती और आसमान एक-दूसरे के गले मिलने के लिए आतुर हों | प्रेम की प्रकृति ही ऐसी है जो अपने पास खींच ले जाती है, मन के भीतर सहजता से उतरती जाती है, एक ऐसी संवेदना से भर देती है जो मन की गहराइयों में उतरे बिना नहीं रहती | आज आशी इस नैसर्गिक सौन्दर्य में भीगने की कोशिश ज़रूर कर रही है किन्तु उसने कभी उस सुंदरता को अपने मन का हिस्सा क्यों नहीं बनाया जो उसके चारों ओर था, लहलहाता हुआ | आज बार-बार स्मृतियों के कपाट खुलते हैं, पलकें भीग जाती हैं और मन लड़खड़ाने लगता है, उस दिन---

आशी बालकनी में लटकते हुए रंग-बिरंगे गमलों से बाहर की ओर झाँकती हुई छोटी-बड़ी पत्तियों और फूलों का आनंद ले रही थी | मम्मी ने कितने प्यार से ये सारे गमले लगवाए थे | बालकनी में लटकते हुए रंग-बिरंगे गमलों में गमलों से मेल खाते हुए फूल ही लगवाती थीं वे | उनको कुछ ऐसे लगाया गया था जैसे गमले के भीतर से उसी रंग के फूल अपने आप ही फूट निकले हों | कोई विपरीत या ज़बरदस्ती का रंग नहीं थोपा गया था | यह उनका प्रकृति प्रेम ही तो था जो उनके मन में न जाने कहाँ-कहाँ से नए विचारों को बो देता था | 

बालकनी के ऊपर एक पतली नाली के रूप में पानी की ऐसी व्यवस्था की गई थी जो बाहर से तो खूबसूरत नक्काशीदार मुंडेर लगती थी लेकिन उसमें कुछ इस प्रकार पानी भरा जाता था कि फुव्वारों के रूप में गमलों में आ जाता था जिससे गमलों की मिट्टी ताज़ा रहने के साथ ही साथ पौधे भी सदा ताज़े बने रहते थे | 

अचानक एक फुहार सी आकर आशी को भिगो गई | बहुत अच्छा लगा उसे | शायद माली ने ऊपर का पानी खोल दिया था, उसे तो मालूम नहीं था कि आशी वहाँ बालकनी में खड़ी पौधों को देखकर आनंदित हो रही है | वह रोज़ सुबह गमलों में पानी दिया करता था | 

‘माँ मुझे क्यों इस मीठी फुहार से वंचित कर गई हैं ? ’आशी के मन में फिर से एक मासूम से सवाल ने करवट ली | 

‘व्हाई---व्हाई –क्यों न्याय नहीं दे सकीं मुझे ? ’

ऊपर से पानी झरता जा रहा था और आशी का मन भीतर से भीगता जा रहा था | पत्थर बने हुए मन के भीतर कहीं सुराग हो गया था जहाँ से पानी रिसने की शुरुआत हो चुकी थी | खीज, क्षोभ, क्रोध से भरा हुआ आशी का मन हर बार क्यों पर आकर अटक जाता था जो अपने पेड़-पौधों की सार-संभाल इतनी मुस्तैदी से करती रही हैं वे अपने शरीर के अंग और जान को किस प्रकार एक बेदर्दी की तरह छोड़कर जा सकती हैं? 

“व्हाई यू डीड दिस टु मी --? व्हाई? ”कहती हुई आशी अपने कमरे की ओर भागी और जब तक उसके पिता जो कमरे से ही उसे देख रहे थे, खुश थे कि उनकी बेटी उन फूलों पर गिरती फुहारों से भीग रही है, ज़रूर उसका मन भी इन फुहारों संग मुस्कराएगा लेकिन जैसे ही वे कमरे से निकले, एक कुहरे में घिर गए | फिर से उनके सामने क्षण भर में अंधकार था | कमरे से निकलकर वे बिटिया से बात करने की स्थिति में आते कि आशी दौड़कर अपने कमरे में पहुँचकर दरवाज़ा ज़ोर से बंद कर चुकी थी | वे उसको बॉलकनी में भागकर कमरे में प्रवेश करता देखते रह गए, उसे पुकारने का साहस भी न कर सके | 

अपने बिस्तर पर लेटकर आशी फूट-फूटकर रोने लगी थी | उसके लिए ऐसे फूटकर रोना उसके मन के गुबार के निकलने के लिए आवश्यक था | परिस्थितियों का सामना तो करना ही होगा उसे!कब तक मुँह छिपाए इधर से उधर घूमती रहेगी ? कभी तो उसे नग्न सत्य को स्वीकार करना ही होगा | 

संभवत: उसके पिता से यह गलती हुई है कि वे उसी समय बेटी को सत्य का सामना कराने का साहस नहीं करा पाए | स्वयं उन्होंने भी कहाँ डटकर सामना किया है? यदि करते तो इतने दिन ऐसे न गुजरते जैसे गुजरे हैं | वे इन्हीं सब उलझनों में कैद होकर बालकनी में घूमते रहे, टहलते रहे लेकिन उन्होंने अपने भीतर की हलचल को दबाए रखा और आशी के कमरे का दरवाज़ा खटखटाए बिना ही प्रतिदिन के कार्यों से निवृत्त होने के लिए अपने कमरे में समा गए | 

वे बार-बार सोनी को याद करते, साथ ही ईश्वर को धन्यवाद भी देते कि इतने लंबे अरसे के बाद अब फिर से वे अपने पैरों पर खड़े होकर काम में मशगूल हो पा रहे हैं | कई बार तो उन्होंने फिर से इतना स्वस्थ होने की आशा भी छोड़ दी थी | सोनी शरीर से उनके साथ नहीं है किंतु उसकी शुभ्र, शुभ शुभकामनाएं तो हर पल उनके साथ हैं, यह उनका पक्का विश्वास था | 

माधो उनके जूते पॉलिश कर रहा था | उनके कमरे के दूसरी ओर लगी छोटी सी बॉलकनी में बैठे-बैठे ही उसने पूछा;

“कुछ चाहिए मालिक? ”

“सब कुछ तो रख दिया है तूने? ”उन्होंने अपने ज़रूरत के सामान की ओर इंगित करके कहा | माधो ने उनके सब कपड़े, सूट तक निकालकर ड्रेसिंग-टेबल के सामने टाँग दिया था | 

“आप तैयार हो जाइए, मैं भी तैयार होकर आता हूँ---कुछ चाहिए तो बोल दीजिए –”

“नहीं, तू जा—”

वे जानते थे वह नहा-धोकर सीधे पूजाघर में जाएगा | 

माधो का अपना रूटीन था, वह नहाकर सीधा मंदिर में जाता, दीपक जलाता और प्रसाद लेकर सबके पास जाता, सबको देता | ऊपर जाता, आशी के कमरे को नॉक करता | आशी मूड में होती तो कमरा खोलती और मूड में न होती तो अंदर से ही कह देती;

“मंदिर में रख दो, मैं ले लूँगी—”वह जानती तो थी ही कि आरती करके इतनी घंटियाँ और शंख बजाने के बाद वह सबमें प्रसाद वितरित करके ऊपर आता है | प्रत्येक घर का एक रूटीन बन जाता है, सब यंत्र चालित से उस रूटीन के साथ चलने लगते हैं | आशी के बंद दरवाज़े में से निकले उत्तर को सुनकर माधो चुपचाप प्रसाद मंदिर में रख देता | उसे तसल्ली मिलती कि आशी जब नीचे जाती थी, अपने आप ले लेती थी, इतना ही काफ़ी था---

अपने मालिक को वह अपने सामने ही प्रसाद खिलाता था | अब तो वे नीचे आकर पूजाघर में जाते, प्रसाद ग्रहण करते फिर डाइनिंग टेबल पर जाते | वे अब अकेले कहीं भी आ-जा पाते थे किन्तु माधो उन्हें कभी भी छोड़ने के लिए तैयार ही नहीं होता था |