शून्य से शून्य तक - भाग 28 Pranava Bharti द्वारा प्रेम कथाएँ में हिंदी पीडीएफ

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शून्य से शून्य तक - भाग 28

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आज न जाने कितने वर्षों के बाद उन्हें लग रहा था कि वे जीवित हैं | अपने आपको संभालकर सधे हुए कदमों से चलते हुए दीनानाथ नाश्ते की मेज़ पर आकर बैठ गए| आज ऑफ़िस जाने से पहले वे नीचे डाइनिग टेबल पर नाश्ता करना चाहते थे| वे चाहते थे कि स्वयं नॉर्मल फ़ील करें और इतने वर्षों बाद नीचे के अपने घर में टहलना चाहते थे| घर के सभी नौकर कतार में आकर खड़े हो गए थे | सारा घर सुव्यवस्थित रूप में सजा था | 

अजीब सा हो उठा उनका मन, हल्का-फुल्का सा नाश्ता करके वे उठ खड़े हुए और नीचे के कमरों में जाकर चक्कर लगाने लगे| माधो उनके साथ-साथ था| सोनी के कमरे के सामने आकर वे रुके तो माधो ने आगे बढ़कर कमरे का दरवाज़ा खोल दिया| कमरा बिलकुल साफ़-सुथरा था, सोनी के बाद वह कमरा पूजाघर में परिवर्तित कर दिया गया था, वे स्वयं ऊपर के कमरे में शिफ़्ट हो गए थे| अजीब सा हो उठा उनका मन ! यहाँ हर रोज़ सुबह-शाम धूप-दीप होते थे| आज भी थोड़ी देर पहले ही माधो यह सब करके ही गया था| कमरा ताज़े फूलों की सुगंध धूप-दीप की सुगंध से महक रहा था| दीनानाथ के दिलोदिमाग में बरसों पुरानी सुगंधि छाने लगी| 

दीनानाथ को सोनी का पूजा करना बहुत अच्छा लगता था| विवाह के पहले दिन से ही पता नहीं कैसे सोनी की आँखें सुबह के पाँच बजे खुल जाती थीं| जब उनका उठने का समय होता, सोनी चाय बनाकर ले आती| पति को चाय देकर वह पूजा के कमरे में आ जाती| वहाँ पूजा की तैयारियाँ करती | जब वे नहा-धोकर, तैयार होकर आते, पूजा अंतिम चरण में होती | वे कमरे के बाहर जूते उतारकर पूजा में सम्मिलित हो जाते थे फिर दोनों  समवेत स्वर में श्लोकों का पाठ करते| घर में सभी काम करने वाले लोग भी सुविधानुसार उस पूजा का हिस्सा बनते थे| कितना अलौकिक वातावरण लगता था घर का, तब तक पिता तो रहे नहीं थे लेकिन माँ सुमित्रा देवी कुछ समय साथ में थीं और सोनी को देखकर खुशी से फूली नहीं समाती थीं| 

माँ सुमित्रा देवी अपने स्वर्गवास के बाद घर में एक देवी की तरह ही प्रतिष्ठित थीं | पूजा घर से सटा उनका कमरा सदा स्वर्ग सा लगता था | जब वे जीवित थीं दीना प्रतिदिन सुबह माँ के चरण स्पर्श करके घर से निकलते, कोई भी बाधा उनका सामना न कर पाती| शाम को घर लौटकर जब कभी उनका मन उचाट होता, वह सीधा माँ के कमरे में जाते| दरवाज़ा खोलते, कहाँ हैं माँ ? माँ के कमरे के बीच से ही पूजाघर का दरवाज़ा था जो माँ बहुधा खोलकर ही रखतीं | वे देखते माँ पूजाघर में बैठी पूजा में तल्लीन रहतीं| वे देखते माँ की बंद आँखों से आँसू झर रहे होते| 

“आजा दीना---”माँ की आवाज़ उन्हें चौंकाती | वे कदम बढ़ाते हुए दरवाज़े में समा जाते| 

“माँ, आप रो रही हैं ? ”वे माँ के आँसु अपनी ऊँगलियों के पोरों से पूछ लेते | 

“माँ, आप रो रहीं है ? ”वे परेशान हो उठते| 

“पगले ! क्यों रोऊँगी मैं? मैं तो ईश्वर को धन्यवाद दे रही हूँ जिसने मुझे इसी जीवन में स्वर्ग दे दिया| कैसा बेटा है मेरा और कैसी देवी सी बहू ! ओह ! मेरे अहोभाग्य हैं---सब कुछ इतना अच्छा पा जाना मात्र संजोग तो हो नहीं सकता न ! बस---बेटा एक ही कमी रह गई है, तेरे पिता जी की ! ”उनकी आँखों में फिर आँसु कुनमुनाने लगते| कुछ देर में फिर से कहतीं, 

“पर---दुनिया में कुछ कमी तो रहती ही है| ईश्वर की इच्छा को मन से स्वीकार करना चाहिए| काश! ईश्वर मुझे सुहागन ही बुला लेता, लेकिन उसकी इच्छा---| ”वे ऊपर की ओर हाथ जोड़कर फिर से भगवान को प्रणाम करतीं| हर भारतीय स्त्री की भाँति उनकी भी यही इच्छा होती| पति से इतनी नाराज़गी के बाद भी उनकी इच्छा तो यही थी कि उनके जीवित रहते ही वे स्वयं स्वर्ग सिधार जाएं| 

अंत में तो कोई समय ही नहीं रह गया था माँ की पूजा का---जब कभी देखो वे पूजा में बैठी हुई दिखाई देतीं| कभी-कभी सोनी पति से कहा करती थी---

“अम्मा जी का डर लगता है| पता नहीं वे सोती भी हैं या नहीं? ” सोनी चिंता करती| 

“हाँ, मैं अक्सर माँ को पूजाघर में ही देखता हूँ | ”वह कहते| 

सुमित्रा देवी कितनी न-नुकर करती रहीं, लेकिन कोई नहीं माना | डॉ.सहगल ने भी उनका चैकअप किया फिर उनकी ही सलाह से बंबई के दूसरे बड़े डॉक्टरों की भी सलाह ली गई | लेकिन सबका मत एक ही था---

“शी इज़ एबसोल्यूटली नॉर्मल ---”

“पता नहीं इसे काहे की चिंता लगी रहती है और अब अगर ईश्वर मुझे बुला भी ले तो क्या है ? तीसरी पीढ़ी तक तो देख ली मैंने ---”वह अपनी गोदी में बैठी हुई आशी को चूमते हुए कहतीं| 

फिर एक दिन पूजाघर में भगवान के मंदिर में नतमस्तक सुमित्रा जी को देखकर सोनी सुबह-सवेरे के अन्य कामों को निबटाने में व्यस्त हो गई क्योंकि पिछली रात जन्माष्टमी होने के कारण रात को सबको ही काफ़ी देर हो गई थी सोने में| पूजा आदि कर, प्रसाद बाँटकर सुमित्रा देवी सोने गईं थीं| 

सुबह जब सोनी माँ जी के कमरे में गई माँ जी वहाँ पर नहीं थीं| वे पूजाघर में भगवान की मूर्ति के सामने नतमस्तक बैठी थीं | वह दूसरे काम निबटाकर फिर से 25/30 मिनट बाद माँ जी को देखने गई तब भी वे भगवान के चरणों में ही बैठी थीं| उसे कुछ उलझन सी हुई | आगे बढ़कर देखा तो माँ उसी स्थिति में अकड़ गईं थीं | न जाने, कब उनके प्राण-पखेरू उड़ चुके थे|