शून्य से शून्य तक - भाग 25 Pranava Bharti द्वारा प्रेम कथाएँ में हिंदी पीडीएफ

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शून्य से शून्य तक - भाग 25

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आशी कहाँ पुरानी स्मृतियों के जाल से निकल पा रही थी? उसे माँ-पापा के संवाद सुनाई देने लगे--

“शायद यह सब ठीक नहीं है---”उसने अपने पिता की आवाज़ सुनी थी| 

“क्या---क्या ठीक नहीं है ? ”सोनी पूछ रही थी | 

“सोनी ! तुम ही सोचो, पहले तो आशी के जन्म पर ही तुम कितनी मुश्किल से बची हो----जानती हो न कितना सीरियस केस हो गया था! यह तो भला हो डॉ.सहगल का कैसे फटाफट अपनी गाड़ी में डालकर तुम्हें अपनी दोस्त डॉ.झवेरी के यहाँ ले गए जहाँ ऑपरेशन से तुमने आशी को जन्म दिया| 

“ये बीती कहानी बार-बार क्यों दुहराते रहते हैं ? आशी ठीक है, मैं ठीक हूँ---फिर ? ”सोनी पति की बात से झुँझला जाया करती थी | 

“अपनी रिपोर्ट और डॉक्टर की सलाह के बारे में मालूम है न ? ”

“सब जानती हूँ, डॉक्टर झवेरी ने कहा था आठ, दस वर्ष तक बच्चे के बारे में न सोचें ---तो नहीं सोचा न इतने वर्ष ? अब क्या है ? ”सोनी की झुंझलाहट बाहर तक सुनाई दे रही थी| 

“पर, मेरी समझ में यह नहीं आ रहा कि अब क्यों तुम्हें बच्चा चाहिए? तुम्हारी आशी बड़ी हो रही है अब ---”

“मैं जानती हूँ आप क्यों बरगला रहे हो मुझे? अब आशी बड़ी होगी, फिर उसकी शादी कर देंगे, फिर उसके बेटा होगा आप भी न---बीरबल की खिचड़ी पकाने की बात करते हैं| आशी अभी इतनी बड़ी भी नहीं हुई है कि हम उसके लिए कल्पना की उड़ानें भरने लगें| हाँ, एक वारिस तो चाहिए ही न घर में ! ”वह ज़िद पर अडी रही थीं| 

डॉक्टर सहगल और उनकी पत्नी ने सोनी को कोई कम समझाया था? डॉ.झवेरी ने भी सोनी को समझाया कि बच्ची है न, अब दूसरे बच्चे की ज़रूरत ही कहाँ थी? लेकिन कहते हैं न, ’विनाश काले विपरीत बुद्धि’—बस, वही हो गया | डॉ.झवेरी ने कहा कि 80/20 चांसेज़ है| 

बस, सोनी तो और भी अड़ गईं, यानि 80 प्रतिशत---कोई कम बात है| सब ठीक होगा, अड़ ही तो गईं| घर में और दोनों डॉक्टर्स के बीच कितने दिन खुसर-फुसर चलती रही फिर मानो यकायक एक चुप्पी सी छा गई| आशी जिस उम्र में थी, उसका बालपन पूरी बात तो नहीं समझ पाया था लेकिन जैसे हँसते-खेलते परिवार पर कोई साया सा मंडराने लगा था| 

“सोनी! तुम भी बहुत ज़िद्दी हो ! तुमने कंसीव किया, यह बात भाई साहब को पता है? ”

“शी—चुप, अभी कुछ दिन और बीत जाने दो---”उसने माँ की आवाज़ सुनी थी| 

“देखो, तुमने टेबलेट खानी छोड़ दी, इसीका अंजाम है यह---तुम भी समझती नहीं हो, क्यों यार -- ! ”

“क्या आप भी ---आप तो मेरी फीलिंग्स समझो न ! ”

“सोनी, तुम समझती नहीं हो, अगर कुछ ऊँच-नीच हो गई तो ? ”

“भाभी, देखिए, पहली बात तो यह है कि कुछ नहीं होगा और अगर हो भी गया तो आप तो हैं न संभालने के लिए---वैसे मैं डॉ.झवेरी को मिल चुकी हूँ| उन्हीं के ट्रीटमेंट में हूँ ---”सोनी बहुत कॉन्फिडेंट थी| 

“अच्छा, तो तुम अब अकेले में भी मिलने लगी हो डॉक्टर से ? ”उन्होंने सोनी को अपनी ममतामयी गोदी में समेट लिया था| 

“अब अगर ईश्वर की यही इच्छा है तो फिर---पर, तुम्हें भाई साहब को बता देना चाहिए था| ”मिसेज़ सहगल जैसे सोनी की सगी बड़ी बहन बन चुकी थीं| इन दोनों का संबंध इतना समीपी और प्यारा था कि किसी एक की परेशानी दूसरे की हो जाती और दूसरे की प्रसन्नता में सभी प्रसन्न हो जाते| मिसेज़ सहगल को सोनी का पूरा केस मालूम था| आशी के गर्भ धारण करने और जन्म तक उन पति-पत्नी ने ही सोनी का ध्यान रखा था| 

“सोनी! तुम जानती हो, भाई साहब की आत्मा हो तुम| सब चाहते हैं कि परिवार में एक बेटी और एक बेटा हों, एक आदर्श परिवार की कल्पना सबकी होती है लेकिन----”मिसेज़ सहगल ने सोनी के सिर में प्यार से हाथ फिराते हुए कहा था| 

“बता दूँगी मेरी अच्छी भाभी, बता दूँगी—आप बिलकुल भी चिंता न करें | पर आप एक बात सच-सच बताएँ कि एक बेटा नहीं होना चाहिए क्या परिवार में? और आपको क्या लगता है कि ये नहीं चाहते होंगे कि इनके कोई वारिस हो--? ” उसने एक सीधा सा लेकिन एक कठिन प्रश्न मिसेज़ सहगल पर दाग दिया| 

“हाँ, तुम ठीक कह रही हो सोनी, एक बेटा और एक बेटी आदर्श परिवार की कल्पना है पर अपनी पत्नी का ‘रिस्क’ लेकर कोई ये सब नहीं चाहेगा न ! और वारिस क्या बेटा ही होता है ? बेटियाँ नहीं ? तुम ही सोचो, मैं कुछ गलत कह रही हूँ ? ”

फिर मिसेज़ सहगल कुछ नहीं बोलीं थीं | आशी का सिर अपनी गोद में रखे हुए प्यार से सहलाती रहीं थीं| अब आशी सो रही थी या अर्ध जागृतावस्था थी या----पर आशी? वह न तो इतनी छोटी थी और न ही इतनी बड़ी कि ---वह तो बस इतनी बड़ी थी कि सब कुछ गड्डमड्ड ही समझ पाती | माँ के जाने पर वह थोड़ा-बहुत समझी थी लेकिन जैसे-जैसे बड़ी होती गई, उन्ही बातों से अर्थ के अनर्थ निकालती रही| 

ठीक है, उसकी माँ की भी एक बेटे को जन्म देने की इच्छा थी लेकिन पिता ने इस ललक को नहीं समझा| क्यों वे यह नहीं समझ पाए कि उनकी पत्नी उनसे छिपकर भी कुछ कर सकती थी | क्यों? आखिर क्यों? आखिर उसीने सबसे ज़्यादा सफ़र किया न ! कौन था उसके पास उन नाज़ुक क्षणों में कौन? देखा जाए तो माँ ही उसकी गुनहगार थीं| क्यों चाहिए था उन्हें बेटा? इसलिए कि उनकी बेटी इस प्रकार दर दर की ठोकरें खाती फिरे? सहगल आँटी ने ठीक ही तो कहा था कि बेटी बेटे की जगह क्यों नहीं हो सकती ?