शून्य से शून्य तक - भाग 23 Pranava Bharti द्वारा प्रेम कथाएँ में हिंदी पीडीएफ

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शून्य से शून्य तक - भाग 23

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एक दिन दीना जी लॉबी में अपनी कुर्सी पर बैठे-बैठे न जाने क्या सोच रहे थे | माधो इधर-उधर किसी काम से गया हुआ था, वहीं कहीं | कुर्सी पर बैठे-बैठे उनकी झपकी लग गई और उनका अर्धचेतन मस्तिष्क न जाने कहाँ पहुँच गया| 

“मैंने नहीं कहा था कि----”उन्हें माँ सुमित्रा देवी की आवाज़ सुनाई दी | 

“क्या—क्या कहा था तुमने ? ” पिता अमरनाथ का स्वर था | 

“यही कि वो मरा क्वींस ---उसकी नज़र ठीक नहीं है -----पर मैं तो गँवार हूँ न, मेरी बात कौन सुनता है? गोरे-चिट्टे लोग ऊपर से ही तो गोरे होते हैं, भीतर से तो मरे निरे काले, कोढ़—छी---छी--| ”

“अब अपनी बकबक बंद भी करोगी? ”

अमरनाथ ने अपनी ज़बान की लड़खड़ाहट पर काबू करने का प्रयास करते हुए कहा | 

“क्यों चुप करना चाहते हैं मुझे? चुप करना है तो लोगों की ज़बान पर ताले लगाइए | रोकना है तो गलत बातों को रोकिए | मैंने कितनी बार कहा कि इन फिरंगियों को मुँह मत लगाओ---उस दिन मैंने कहा कि इस क्वींस की नज़र मुझे अच्छी नहीं लगती ---अब क्या हुआ उसकी गोरी-चिटटी मेम को ? क्यों उस अपनी काली नौकरानी को –क्या कहते हैं उसे---अब जो भी हो, किया---? ”

“ठीक है यार, तुमने तो बात का बतंगड़ बना दिया ---! ”

“बात का बतंगड़ या बतंगड़ की बात ही है अभी---जब पूरी दिल्ली में फैलेगी, तब पता चलेगा ---| ”

“क्या---क्या पता चलेगा ? ”अमरनाथ चिंघाड़ उठे थे | 

“क्या कर लेगी तू उसका और क्या कर लेगी दिल्ली मेरा---बोल--| ”

पत्नी का इतना सम्मान करने वाले अमरनाथ में पीने-पिलाने की आदतें बढ़ने के साथ ही असभ्यता का व्यवहार बढ़ने लगा था| उनका युवा होते दीना के मस्तिष्क पर बहुत खराब असर पड़ा था जिसके चिन्ह आज भी कभी उभरकर आ जाते हैं| 

सुमित्रा देवी सुन्न हो जाती थीं—क्या बोलें और क्या करें? सिवाय आँसू बहाने के? ये पीना-पिलाना, ये मदहोशी कहाँ से सीखे थे अमरनाथ? उन फिरंगी दोस्तों से ही न ? जो पति अपनी पत्नी को अपना खाना बनाने के लिए इसलिए सर्दी में न उठाए कि उसको ठंड लग जाएगी और वह बीमार पड़ जाएगी उसमें इस प्रकार का अप्रत्याशित बदलाव आ सकता है क्या? पर—आया था | उनके सामने आया था, उनके जीवन में आया था और वे केवल लंबी साँसें भरने के अलावा और कुछ नहीं कर सकती थीं| 

उस दिन सुमित्रा देवी ज़ार ज़ार रो रही थीं और ----आज दीना के गालों पर लगातार आँसु फिसल रहे थे| कहाँ भूल पाता है आदमी अपने भूत को ? वह उसके मस्तिष्क के नीचे गुबार में दबकर कभी भी निकलकर उसके सामने आ खड़े होता है| बचपन की पीड़ा से भरी हुई स्मृतियाँ कभी भी अपनी धूल झाड़-पोंछकर उनके सामने आ खड़ी होतीं और वे पीड़ित हो उठते| 

“मालिक---मालिक ---क्या हुआ मालिक ? ”माधो ने दूर से देखा और भागता हुआ वहाँ आ पहुँचा जहाँ दीना जी कुर्सी पर बैठे-बैठे ही आँखें बंद करके सो गए थे| 

अचानक वे जाग गए और चौंककर चारों ओर देखने लगे थे| वे सोए भी कहाँ थे, फिर उन्हें कहाँ से यह सब दिखाई दिया था, कितने पीछे पहुँच गए थे वो---! 

“आप ठीक तो हैं सरकार---? ”माधो के स्वर से चिंता झलक रही थी | 

“हाँ—आ –बिलकुल ठीक हूँ—ऐसे ही ज़रा---| ”

“ज़रूर पिछले दिनों में खो गए होंगे---“उसने धीरे से कहा | 

“चिंता मत कर माधो, जा, ज़रा चाय ले आ---”उन्होंने उसे कुछ देर टालने के लिए नीचे भेजना चाहा| 

“पर—आप ठीक तो हैं न ---? ”माधो भी माधो ही था| उसका बस चलता तो वह क्षण भर के लिए भी उनके पास से न हटता| 

“हाँ—कहा न, ठीक हूँ ---जा, तू चाय लेकर आ ---”

“अच्छा मालिक ---”वह मन मसोसकर वहाँ से उठ खड़ा हुआ|