शून्य से शून्य तक - भाग 22 Pranava Bharti द्वारा प्रेम कथाएँ में हिंदी पीडीएफ

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शून्य से शून्य तक - भाग 22

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दीनानाथ को आज इस उम्र तक यह घटना याद है जो उनके दिलोदिमाग की गलियों को पार करके उनके जीवन के वर्तमान पर्दे पर चलचित्र की भाँति नाचने लगती है| अन्यथा वो कुछ छुट-पुट घटनाओं के अतिरिक्त पीछे की कुछ बातें नहीं सोच पाते| 

हाँ, अपने पिता की एक बात और उन्हें अच्छी तरह से याद है कि वे हर शनीवार को सबको बिरला मंदिर ले जाते थे| उस दिन वह दीना का अपना दिन होता, अपने माता-पिता के साथ ! वही उनका परिवार था जिसमें उन्हें खुशी मिलती थी | बस, उनके साथ एक ड्राइवर साथ होता था| वह समय केवल उनके परिवार का समय होता था| कभी-कभी वे इस बात को आशी के साथ शेयर भी करते | 

उस दिन सुमित्रा देवी बहुत खिन्न रहीं थीं | उन्हें आज इस प्रकार पति के साथ जाना अपमानित कर रहा था| हवेली से निकलते समय वे जिस गाड़ी में होतीं थीं उसमें पर्दे लगे रहते थे | अपनी सभ्यता और घरेलू वातावरण के अनुसार वह साड़ी के ऊपर एक और दुपट्टा ओढ़कर पहले साड़ी फिर उस दुपट्टे से अपना सिर ढकतीं | हवेली से दूर जाते ही अमरनाथ उन्हें टोकना शुरू कर देते----

“चलो, अब उतारो इस ताम झाम को, बहुत हो गया ---”हवेली से कुछ दूर जाते ही अमरनाथ पत्नी को टोकना शुरू कर देते| 

और---उनके अँग्रेज़ मित्र इस बात पर हँसने लगते, वे अपमानित महसूस करतीं| कभी-कभी तो इतना कि सोचतीं, क्यों जी रही हैं वे? लेकिन वे जीती रही थीं और ज़िंदगी इसी प्रकार चलती जा रही थी | वे उसमें कुछ न कुछ व्यवधान करती रहतीं लेकिन फिर खुद ही पति की इच्छानुसार चलने लगतीं | वे मन ही मन खुद को बेपेंदी का लोटा’कहने लगी थीं | 

आज जब दीनानाथ अपने और आशी के जीवन की तुलना करने लगते हैं तब उन्हें लगता है कि उनको जीवन जीते हुए जैसे सदियाँ बीत गई हैं, वर्ष नहीं ---! ! 

कितना बदलाव ! सभ्यता में कितनी तब्दीलियाँ! उस समय जो बात करनी बहुत कठिन हुआ करती थी, वही बात अब बिलकुल नॉर्मल हो गई है| लोग इस आधुनिक जीवन को इतनी सहजता से स्वीकार करने लगे हैं कि कभी-कभी अपनी सभ्यता और संस्कृति को ढूँढने के लिए समय पर पड़ी हुई परत को पोंछकर पीछे की ओर झांकना पड़ता है| लगभग पचासेक वर्ष का समय न जाने कितने-कितने बदलाव ले आया है कि विश्वास करने में भी उलझन होने लगती है | लेकिन विश्वास करना इसलिए होता है कि सब चीज़ें, वे सभी बदलाव अपनी आँखों के सामने होते रहते हैं| आदमी एक बार कानों सुनी बातें तो नकार दे, आँखों देखी बातें कैसे नकारे? कैसे झुठला सकता है उन्हें—और अपने आप भोगी हुई बात तो बिलकुल भी नहीं ! 

दीना को जब उसके पिता ने मिशनरी स्कूल में प्रवेश दिलवाया था तब वह बहुत ही संकोची था इसलिए बहुत परेशान रहा | जहाँ सब बच्चे खिले-खिले स्कूल में आते थे वहीं दीनानाथ बड़ा बुझा बुझा सा| धीरे-धीरे समय बीतने के साथ वहाँ के वातावरण में घुलने-मिलने लगा था | वहाँ उसके कुछ दोस्त बने थे जिनमें सैमसन एक अँग्रेज़ लड़का उसे बहुत अच्छा लगता था| वह एक बार अपने दादा-नाना के पास इंग्लैंड गया था, उसके लिए बहुत से गिफ्ट्स और चॉकलेट्स लेकर आया था | बड़ा प्यारा बच्चा था| जहाँ और बच्चे उसे ‘डीनु’कहकर पुकारते वह पूरे नाम से पुकारता---दीनानाथ, उसके मुँह से बहुत अच्छा लगता था | वह अपने देश की बहुत सी बातें उसके साथ साझा करता रहता था | 

“तुम मुझको सैम बोलो, मैं तुमको दीना पोकारेगा ---चलेगा? ”सैमसन ने एक दिन बातें करते हुए दीना को बड़े प्यार से कहा था| 

दीनानाथ ने ‘हाँ’में सिर हिला दिया | सच ही तो, उसने सोचा, कितने बड़े नाम हैं हम दोनों के ! बच्चे दीनानाथ ने सोचा था| घर में भी तो उसका नाम दीना ही था अगर स्कूल में भी यही नाम हो तो क्या बुराई हाई भला? 

“तुमको पता है दीना, जब हम अपने इंग्लैंड में जाते हैं वहाँ हम एक बॉक्स में पिक्चर देखते हैं---मालूम, हम उसको ‘इडियट बॉक्स’ कहते हैं | ”सैम ने बताया तो बालक दीना उसके चेहरे पर प्रश्नवाचक दृष्टि से देखने लगा था| 

“तो क्या, हम भी तो देखते हैं एक बॉक्स में ‘नौ सौ मन की धोबन---’”दीना क्यों उसके सामने अपने आपको छोटा दिखाता| 

अब जब दीना को अपने बालपन की याद आती है तो हँसी आती है| आज तो हर कमरे में‘इडियट बॉक्स’ रहता है| मालूम नहीं अब सैमसन कहाँ होगा ? कभी-कभी दीना सोचते| कितना मन करता था उनका पुराने मित्रों से मिलने का, उनसे अपना जीवन साझा करने का| पर बीता हुआ कल कभी लौटकर आता है? आँखें दूर कहीं शून्य में जैसे कुछ तलाश करती रहती हैं | कहीं कहीं चिंदी-चिंदी सी उड़कर उनकी दृष्टि को पकड़ने का असफल प्रयास करती हैं और वे आँखों को खोले, खोखले से होकर निश्चेष्ट बैठ जाते हैं | 

यह खोखली स्थिति उस समय अधिक होती है जब मनुष्य खाली होता है | कहते हैं न ‘खाली दिमाग शैतान का घर ! ’वे एकाकी महसूस करते हैं और स्थिति घूम-फिरकर उनके दिलोदिमाग को खोखला करती है| व्यस्त रहने पर उन्हें याद भी नहीं आता था कि उनसे जो जुड़े हुए लोग थे वे कहाँ और कैसे हैं ? ”

पिछले वर्षों के खाली जीवन ने उनको केवल पिछले जीवन के साथ जोड़ा ही नहीं था वरन् एक तरह से उसका हिस्सा ही बना दिया था क्योंकि उनके पास केवल दो ही काम रह गए थे | एक तो आशी के बारे में चिंता करना और दूसरे बैठे-बैठे कहीं भी खो जाना| मनुष्य या तो अपने भविष्य की कल्पना में खोता है या फिर भूत की उन बातों में जो जीवन में उसका अंग रही हों| शेष तो जब कभी मैनेजर कागज़ों पर दस्तखत कराने आते तब उनसे बात करके बहुत थका हुआ महसूस करते| उन्हें लगता, बस बहुत हो गया, किसके लिए इतना कुछ बखेड़ा करें? 

यदि आशी उनके व्यापार में रुचि दिखलाती तो वे भी जमे रह सकते थे, एक बार फिर से खड़े रह सकते थे| लेकिन जब आशी ही उनके साथ नहीं थी, उनके काम की अहमियत समझने के लिए तैयार नहीं थी तो क्या करें वे जीवन में और पचड़े बढ़ाकर| जीवन में काम के बोझ को मनुष्य बड़ी सरलता से संभाल सकता है बशर्ते उसके अपने लोग उसके साथ खड़े हों| कोई न हो तो आखिर किसलिए? अब सब कुछ बर्बाद हो जाए तो हो जाए वैसे भी उनकी इतनी प्रॉपर्टी तो थी ही कि आशी जीवन भर बैठकर खाती तब भी न जाने उसके पीछे कितना कुछ छूट जाने वाला था | तब फिर किसलिए? किसके लिए?