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एक लंबी–सी साँस ली उन्होंने | माधो को यह बहुत आश्चर्यजनक लग रहा था कि आशी इतनी जल्दी लॉन्ग ड्राइव से लौट आई थी| उसका तुरंत कमरे में पहुंचना भी सुखद आश्चर्य की बात थी| पिता के बुलाने पर तुरंत आकर भी पिता के कमरे में पूछना कि उसे बुलाया क्यों गया था, सबके लिए आश्चर्य ही था| दीना को लगा मानो गलती से चाँद उनके कमरे की गली में मुड़ आया हो| आशी बिलकुल अपनी माँ का प्रतिरूप थी| बिलकुल वैसा ही गुलाबी रंगत लिए हुए खूबसूरत, नाज़ुक नैन-नक्श, लंबा-छरहरा शरीर और सौम्य चेहरा जिसे आशी ने अपने व्यवहार से कठोर आवरण पहना दिया था| यदि वह नॉर्मल व्यवहार करती तो संभवत: दीना की स्थिति कुछ और ही होती, वे इस हालत तक नहीं पहुंचते जिसे वे आज वर्षों से भोग रहे हैं |
सोनी की मृत्यु पर आशी को जो आघात लगा था पिता के इतना अपनापन दिखाने, उसके लिए सब कुछ कुर्बान कर देने पर भी वह नासूर बनकर उसके भीतर बैठ गया था | पढ़ाई में कभी भी आशी को कुछ कहने-समझाने की आवश्यकता उन्होंने महसूस नहीं की थी | बाहर पढ़ाई की बात उसके मुँह से निकलते ही दीनानाथ ने उसका दाखिला विदेश की उस यूनिवर्सिटी में करा दिया था जिसमें पढ़ने की उसकी इच्छा थी| आखिर वे एक स्नेही पिता थे, जानते थे कि बचपन में माँ के स्नेहिल दुलार को खो देना आशी जैसी सुख सम्पन्न, वैभव में पली हुई लड़की के लिए सह पाना कठिन ही नहीं असह्य था | उन्हें तो लगा था कि सोनी की मृत्यु के पश्चात् सोनी शिक्षा पूरी कर भी पाएगी या नहीं? लेकिन उसकी तीव्र बुद्धि और शिक्षण में रुचि देखकर और सबसे तथा स्वयं उनसे अजीब सा व्यवहार देखकर कभी-कभी वह भौंचक्के रह जाते थे| जैसे एक शरीर में दो व्यक्तित्व थे|
डॉ.सहगल की सहायता से उन्होंने अपनी बिटिया के लिए एक प्रतिष्ठित मनोवैज्ञानिक से भी जाने-अनजाने बात कर ली थी| अनजाने इसलिए कि यदि वे उसे बताकर बिटिया की बात मनोवैज्ञानिक से करते तो जो भी हश्र होता, वह उनके लिए क्या होता, कुछ पता नहीं था|
डॉ सहगल अपने मित्र के लिए बड़े चिंतित थे और जब डॉक्टर कुरूप ‘मनोविज्ञान के प्रसिद्ध चिकित्सक’ दक्षिण से मुंबई किसी सेमीनार में आए थे सहगल ने आशी के केस के बारे में उनसे चर्चा की थी| वैसे तो आशी को उनसे मिलना ज़रूरी था, वे उससे बातें करते, इसीसे वे उसकी मानसिक स्थिति का पूरा अनुमान लगाते लेकिन उसे कहा नहीं जा सकता था, यही तो मुश्किल काम था इसलिए वे स्वयं ही जाकर डॉ.कुरूप से मिलकर और आशी का केस डिस्कस करके उन्हें दीनानाथ से मिलने ले आए थे| वे इतने कम समय के लिए आए थे कि उनसे मिलना संभव ही नहीं था फिर भी डॉ.सहगल की बात सुनकर उन्होंने समय निकाला और दीना जी की कोठी पर आ गए | अभी सहगल, डॉ कुरूप और दीना बात कर ही रहे थे कि आशी की गाड़ी की आवाज़ सुनाई दी और सब चुप होकर बैठ गए | आशी के ज़ोर से चलने की मजबूत कदमों की आवाज़ को डॉ.कुरूप बड़ा कान लगाकर सुन रहे थे|
“हैलो सहगल अंकल ---”क्षण भर को आशी ने सहगल की ओर देखा और आगे बढ़ गई |
“मेरे कमरे में नाश्ता भेजो महाराज ---जल्दी ---"
एक तूफ़ान सा हॉल में उमड़ आया हो मानो| आशी खट खट करती हुई सीढ़ियाँ चढ़ गई थी | डॉ. कुरूप उसको तेज़ी से ऊपर जाते हुए देख रहे थे|
"हैलो सहगल अंकल" कहा तो गया था लेकिन आशी की मुखमुद्रा बिलकुल सपाट थी | स्वर ऐसे मानो किसी ने बटन दबा दिया हो और यंत्र में से आवाज़ निकल आई हो | उसके बाद कोई दूसरा बटन दबा दिया गया हो जिसके तीव्र यंत्र से कुछ दूसरे शब्द बाहर निकल आए हों | फिर स्वत:ही किसी तीसरे यंत्र का बटन दब गया और आशी मानो दौड़ती भागती सीढ़ियाँ चढ़ गई|
डॉ.कुरूप आशी के द्वारा एक के बाद एक किए गए व्यवहार पर विचार करने लगे| वे आशी का बचपन पूरी तरह पढ़ना चाहते थे | परंतु इस समय उसके बारे में और बातें करना संभव नहीं था | यह काम डॉ. सहगल ही पूरा कर सकते थे| वे ही उनको आशी की समस्या बताकर लाए भी थे| अब तक उन्होंने बहुत कुछ ही किया भी था, डॉ कुरूप के साथ बैठकर बहुत सी बातों पर चर्चा की थी | उसके बाद डॉ.कुरूप का यह निष्कर्ष था कि आशी ने अपनी माँ की मृत्यु का पूरा दायित्व अपने पिता पर डाल दिया है | उनको यह भी डर था कि सम्भवत: भविष्य में वह अपने पिता को और भी मानसिक कष्ट दे सकती है| उसके भीतर की ग्रन्थि इतनी अधिक पक चुकी थी कि उसके भीतर घृणा का पौधा नहीं, पेड़ बना गया था| उसके पिता व डॉ.सहगल सोचते कि हो सकता है वह विवाह के बाद कुछ बदल सके परंतु आसानी से विवाह के लिए 'हाँ'करना उसके लिए बहुत कठिन था|
यह बात उस समय की है जब दीनानाथ चलते-फिरते थे| मन को मारकर वह आशी की सब प्रकार से देखभाल करते थे | वे कोशिश करते थे कि किसी तरह उनकी बिटिया आशी उनके समीप आ सके परंतु एक ओर के प्रयास से कभी कुछ नहीं होता| प्रयास दोनों ओर से किए जाएं तभी सफ़ल हो पाते हैं| ताली तो दोनों हाथों के आगे बढ़ने से ही बज पाती है न ! दीनानाथ भी अपने हाथ बढ़ाकर बिटिया के हाथों के बढ़ने की प्रतीक्षा करते रहे थे, उनके हाथ अब थक गए थे|
आशी ने दसवीं पास करके विदेश में जाकर पढ़ने की इच्छा ज़ाहिर की तो पिता ने तुरंत उसकी व्यवस्था कर दी| आशी पढ़ती रही, ज्ञान प्राप्त करती रही किन्तु पिता के बारे में कभी उसके विचार नहीं बदल सके| वह कभी दीनानाथ के बारे में सही नहीं सोच पाई| वह पाँच वर्ष विदेश में रही किंतु पिता के कितना समझाने पर, बाध्य करने पर भी देश में नहीं आ सकी| कॉलेज पूरा करने पर वह कॉम्प्युटर का अध्ययन करने लगी| पिता दीना दो/तीन बार उससे मिलकर आ गए थे लेकिन जब उन्हें फ़ालिज पड़ा, उनके पैर अशक्त हो गए और वे एक कुर्सी पर चिपककर रह गए | तब केवल एक ही बात उनके दिमाग में कौंधती रही और वह था आशी का भविष्य ! यह बात उनके मनोमस्तिष्क में हर पल कौंधती रहती जिसने नासूर बनकर उनके जिगर को चीर दिया था जिसमें से पीड़ा का लहू रिसता रहा |
पिता के तीन वर्ष कुर्सी पर चिपके रहने के बाद चौथे वर्ष आशी यहाँ वापिस लौटकर आई थी| पिता को कुर्सी पर देखकर जैसे वह सपाट सी ही बनी रही थी, उसके व्यवहार में कोई सहानुभूति नहीं थी| वे और भी दुखी हो उठते थे| आखिर अब उनका रह भी कौन गया था जिसके लिए वे जिंदा रहकर कोई आशा पालते? आशी उनका कुछ भी कहना तो मानने वाली नहीं थी| उन्हें यह पूरा भरोसा हो चला था| जो लड़की समझती-बूझती हो, पढ़ाई में इतनी होशियार हो, उसका ऐसा व्यवहार उनकी भी क्या किसी की भी समझ में नहीं आता था –सबकी समझ से बाहर था उसका व्यवहार !