शून्य से शून्य तक - भाग 16 Pranava Bharti द्वारा प्रेम कथाएँ में हिंदी पीडीएफ

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शून्य से शून्य तक - भाग 16

16====

आशी के घर से बाहर निकलते ही महाराज और उसके पास खड़े हुए दूसरे सेवक ने लंबी साँस ली और मानो निर्जीव पुतले हिल-डुलकर अपनी जीवंतता का प्रमाण देने लगे| 

“बाप रे बाप ! ” सेवक ने महाराज की ओर देखकर कहा | 

“क्या हुआ था ? ” माधो ने पूछा| 

“अरे! कुछ होता है क्या? पता नहीं, हम लोग भी कैसे और क्यों पड़े हुए हैं इस घर में ! रोज़-रोज़ की जलालत—” महाराज बहुत सालों से इस परिवार के लोगों की भूख शांत करते आए थे, अब वो भी ऊबने लगे थे| 

“कैसी बातें करते हो महाराज ! आपको भी पता है, आप यहाँ पर केवल नौकरी ही नहीं करते हो---”माधो ने कहा| 

“हाँ, यही बात तो भीतर तक कहीं गहरे गडी हुई है| अरे! मैं तो कितनी बार यहाँ से भाग जाने का सोच भी लेता हूँ पर कदम चिपककर रह जाते हैं | उधर घरवाली रोज़-रोज़ चिल्लाती रहती है, नौकरी छोड़ दो, नौकरी छोड़ दो—अब उसे कैसे समझाऊँ कि इस घर और मालिक के साथ मेरा क्या रिश्ता है ---पर, अब उकता गया हूँ –समझ में कुछ नहीं आता | देखना तो रघुआ के मुँह पर कैसा तमाचा मारा है---इधर आइयो रघु---| ”

रघु के मुँह पर ऊँगलियों के निशान थे, मुँह लाल हो आया था | वह रुआँसा खड़ा था| “जब पिछले दिनों वासुदेव चला गया था तब मालिक से बात करके मैं ही इसे गाँव से यहाँ ले आया था| बिचारा --==”

“आप क्यों दुखी होते हो चाचा, क्या हुआ, मेमसाब तो हमारी बड़ी बहन जैसी हैं | टुकड़े खाते हैं इनके--”सोलह साल का रघु बड़ी समझदारी दिखा रहा था | गाँव में रोटी के भी लाले होने के कारण कहीं न कहीं तो उसे काम करना ही था | एक बार महाराज ने ही बताया था कि इससे पहले वह गाँव के छोटे से ढाबे में काम करता था | वहाँ चार सौ रुपए में दिन-रात की चाकरी, झूठे बर्तनों का ढेर और लात-घूँसे खा-खाकर बेचारा सूखकर हड्डियों का ढाँचा बन गया था| एक बेचारी बूढ़ी माँ के अतिरिक्त उसका कोई नहीं था | छोटा सा ही तो था, पिता की मृत्यु हो गई थी| चाचा-चाची ने पूरे मकान और जमीन पर कब्ज़ा करके उसे उसकी माँ के साथ घर से बाहर निकाल दिया था| वही पुरानी घिसी पिटी कहानी थी पर भुक्त-भोगी के लिए बड़ी तकलीफ़ देह ! यहाँ पर दीनानाथ उसे एक हज़ार रुपए तो देते थे| सरवेंट्स क्वार्टर में भी एक साफ़-सुथरा कमरा, बरामदा, बाथरूम---बढ़िया माहौल ! माँ भी साथ ही रहती, और क्या चाहिए ! ! सो, बीबी जी की मार खाना उसके लिए कोई बड़ी बात नहीं| जब वह गाँव के ढाबे में लात, घूंसे खाता था और खाने के लिए भी उसे और उसकी माँ को बचा-खुचा ही मिलता था जिसमें दोनों का ठीक से पेट भी नहीं भरता था | यहाँ पर आकर अच्छे पेट भर खाने-पीने से उसकी और माँ की सेहत भी अच्छी हो गई थी और बेकार के झगड़ों से भी वह छूट गया था| वह भी महाराज की ही कृपा थी कि उसे इतने बड़े और अच्छे घर में सिर छिपाने की जगह मिल गई थी वरना शहर में बिना जान-पहचान के कौन अपने घर में पनाह देता है? 

“पर---कुछ हुआ तो होगा न --? ”माधो ने फिर से कुरेदना शुरू किया| 

“अरे, कुछ नहीं माधो, नाश्ते में जो पुडिंग उन्होंने कही थी, वो नहीँ बना पाया | मुझे ध्यान था कि सामान रखा है किचन में, देखना भूल गया ---तो तुम जानते ही हो –हाँ, एक कसूर हो गया मुझसे, मैंने इस छोटे को नाश्ता लेकर उनके सामने भेज दिया ----बस, फिर क्या था –खा गया बेचारा जोरदार तमाचा --! ”

“अरे चाचा, अब छोड़ो भी---पेट में बड़े-बड़े चूहे कूद रहे हैं| आप तो मुझे कुछ खाने को दे दो, मैं अभी आया हाथ धोकर करके ---”

रघु डस्टबिन में काँच के टुकड़े फेंकने चला गया था| 

“महाराज ! मालिक का नाश्ता तैयार हो गया| ”

“हाँ, तुम चलो, इस सबके चक्कर में इतनी देर हो गई वरना कबका पहुँच जाता---| ”

“मैं चलता हूँ महाराज—मालिक ऊपर-नीचे हो रहे होंगे---”कहते हुए माधो लगभग दौड़ता हुआ सीढ़ियाँ चढ़ गया| 

“अरे ! नाश्ता तो ले जाओ ---”महाराज माधो के लिए प्लेट लगा रहे थे लेकिन वह तो छलाँग भरकर सीढ़ियाँ चढ़ने लगा था| महाराज उसे देखते रह गए, बाद में उसकी प्लेट साइड में रख दी और मालिक का नाश्ता लगाने लगा| महाराज ने अपने सिर को झटका दिया, माधो कब खाता है मालिक के खाने से पहले?