उजाले की ओर ----संस्मरण
नमस्कार
स्नेही मित्रों
जीवन जहाँ आसान है, वहीं कठिन भी है जैसे जहाँ कठिनाई आती है वहाँ कोई न कोई सरल मार्ग भी सामने आ जाता है | बस, थोड़ा हमें चैतन्य रहने की ज़रूरत है |
होता यह है कि कभी-कभी हम शर्माशर्मी में अपना खुद का नुकसान कर लेते हैं | कभी हम अपनी सीमा से अधिक स्वयं को या तो अच्छा दिखाने में अथवा अपने भोलेपन में ऐसे काम कर बैठते हैं जो हमारे लिए ही गलत हो जाते हैं | फिर हम पछताते भी हैं |
कई बार कोई बात हमारे बस में नहीं होती फिर भी हम किसी के सामने उसके काम को मना करने में अपने को कमजोर मानने लगते हैं | हम लोग ‘ना’ कह नहीं पाते| यह बहुत बड़ी समस्या है| इसे कमजोरी कहना ज्यादा उचित होगा| हम लोगों के काम करते जाते हैं, उनकी बातें मानते जाते हैं, अपनी खुशियों का गला घोंटते जाते हैं, सिर्फ इसलिए क्योंकि हमें ‘ना’ कहना नहीं आता | यह शब्द हम इसलिए भी नहीं बोल पाते, क्योंकि हमें लगता है कि लोग हमारे बारे में क्या सोचेंगे? या हम उनकी दृष्टि में कहीं गिर न जाएं ! हम बदले में लोगों का प्यार चाहते हैं, उनकी तारीफ चाहते हैं|
हम चाहते हैं कि लोग हमें प्यार से अपनाएं| इन चीजों के लालच में हम खुद के साथ अन्याय करते रहते हैं और सहनशक्ति की सीमा तक वो सारे काम करते हैं, जो हमें तकलीफ व परेशानी में पहुंचाते हैं, हमें नाखुश करते हैं|
हम यह काम सालों-साल करते ही रहते हैं| जब लोग हर चीज में हमारी ‘हाँ ’ सुनते हैं, तो उन्हें हर समय आदत पड़ जाती है कि हम न तो कह ही नहीं पाते इसलिए हमारे ऊपर काम को थोप दिया जाए | जब हम उनकें काम कर देते हैण तो वे हमारी प्रशंसा करते हैं | वे हमें विनम्र, अच्छा, मददगार इंसान आदि कहते हैं | हमारी प्रशंसा अनेक प्रकार से की जाती है| हमें अनेक सुंदर संबोधनों का ताज पहनाया जाता है| लेकिन यदि हमारी सहनशक्ति कुछ सालों बाद टूट जाती है और हम किसी विकट परिस्थिति में भी में किसी काम को लेकर ‘ना’ कह देते हैं, तो वही लोग हमें अभिमानी, अहंकारी, बदतमीज कह सकते हैं| वे हमारी इतने सालों की मेहनत, त्याग, सेवा को तुरंत भूल जाते हैं. तब हमें लगता है कि काश! उसी वक्त ‘ना’ बोल दिया होता| हम अपने जरूरी कामों को एक तरफ़ रखकर दूसरों के काम करके अपना समय व ऊर्जा बर्बाद करते हैं और किसी परिस्थिति में जब हम उनका काम करने में अक्षम हो जाते हैं तो उनके मन से उतर जाते हैं |
यह हम मनुष्यों का कर्तव्य है कि एक-दूसरे का साथ दें,समय पड़ने पर एक-दूसरे की सहायता करें | 'न' कहने का यह अर्थ नहीं है कि हम हर चीज में ‘ना’ बोलना शुरू कर दें। किसी की सहायता न करें या किसी के लिए कोई काम न करें | कहना सिर्फ इतना है कि हम खुद से सवाल करें कि क्या दूसरे के कामों के लिए हमारे वह काम करने की ऊर्जा व समय है या नहीं ? क्या हम अपने कामों में कटौती करके खुद अपने काम में असफ़ल होना ठीक समझते हैं ? फिर अपने काम में असफ़ल होने पर हम दुखी भी होते हैं | क्या हमारे लिए लोगों का प्यार,तारीफ ज्यादा मायने रखती है या हमारी खुद की खुशी, दिमाग की शांति? यदि हम किसी का काम मजबूरी में करते हैं तो खुशी से कैसे कर सकते हैं ?हम किसी काम को करने से नाखुश हैं, तनाव में हैं, तो बेहतर है कि हम उस काम को करने के लिए मना कर दें|
हमें यह नहीं सोचना चाहिए कि सामने वाला हमसे नाराज हो जायेगा, हमें प्यार नहीं करेगा, फिर वह हमसे ठीक से बात नहीं करेगा | हमें यह याद रखना होगा कि हम सबको खुश नहीं रख सकते | लोगों को हम हमेशा खुश नहीं रख सकते और न ही हमेशा उनके मुताबिक चल सकते हैं | यदि हम ऐसा करने की कोशिश करेंगे, तो कहीं न कहीं खुद के साथ अन्याय करेंगे|
हमें उन लोगों के नाराज होने से क्यों डरना चाहिए जिनकी राय पल भर में हमारे प्रति बदल जाती है| जो कल हमें विनम्र, प्यारा, अच्छा इनसान कह रहे थे, वह हमें अचानक अभिमानी, गुस्सैल, अहंकारी कहने लगते हैं | हम केवल उन्हें ही अपना मानें जो हमारी स्थिति समझकर हमारे ‘ना’ कहने के बावजूद भी हमसे वैसा ही व्यवहार करें जो पहले करते थे | हमसे प्यार से रहें, हमारी ‘ना’ कहने की वजह को समझ सकें।
कई बार ऐसा भी होता है कि हम दूसरों को खुश करने में खुद को और अपने स्वयं के परिवार को कष्ट देते हैं, उन्हें दुखी कर देते हैं जिससे हमारा भी मन खुशी नहीं पाता लेकिन हम 'न' कहने में हिचकिचाते हैं | हमें यही देखना व समझना है कि हम कैसे अपने आपको और अपने परिवार को सुखी बनाए रखें न कि दूसरों के कारण उन्हें पीड़ा दें |
हम इस बात को सोचें और सबके साथ समन्वय करने की कोशिश करें |
आपका दिन सपरिवार आनंदमय हो।
आपकी मित्र
डॉ. प्रणव भारती