लागा चुनरी में दाग़--भाग(३९) Saroj Verma द्वारा महिला विशेष में हिंदी पीडीएफ

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लागा चुनरी में दाग़--भाग(३९)

प्रत्यन्चा धनुष को खिचड़ी खिला रही थी और धनुष सकुचाते हुए खिचड़ी खा रहा था और मन ये सोच रहा था कि कैंसी लड़की है ये,गलत बात पर बस खून पीने वाली चण्डी बन जाती और जब सेवा करने पर आती है तो ये नहीं सोचती कि सामने वाला इसके साथ कैंसा बर्ताव कर चुका है,क्या कुछ नहीं किया मैंने इसे जलील करने के लिए, घर से निकालने के लिए,लेकिन ये वो सब बातें भूलकर मेरी मदद करने बैठ गई,मेरे लिए खुद खिचड़ी बनाकर लाई और अब खिला भी रही है.....
ये सोचते सोचते धनुष प्रत्यन्चा के चेहरे की ओर देखने लगा तो प्रत्यन्चा ने उससे पूछा...
"क्या हुआ,खिचड़ी में स्वाद नहीं है क्या?",
"अच्छी है....बहुत अच्छी है,बस मैं यूँ ही कुछ सोच रहा था",धनुष बोला...
"अच्छी है! तो फिर पेट भरकर खा लीजिए,जब आपको और भूख लगे तो बता दीजिएगा,मैं आपके लिए कुछ और बना लाऊँगी,लेकिन कृपा करके खाना फर्श पर मत फेंका कीजिए,ऐसा करना आपको शोभा नहीं देता", प्रत्यन्चा ने बड़े प्यार से धनुष से कहा और धनुष ने किसी मासूम बच्चे की तरह हाँ में अपना सिर हिला दिया...
उन दोनों की बातों और क्रियाकलापों पर भागीरथ जी भी गौर कर रहे थे,उनके बीच समझौता देख उन्हें भी अच्छा लगा,धनुष को खिचड़ी खिलाने के बाद प्रत्यन्चा ने गीले कपड़े से धनुष का मुँह पोछा और जहाँ जहाँ बिस्तर पर धनुष ने खिचड़ी टपकाई थी,तो वो वहाँ पर भी वो पोंछने लगी,तब बिस्तर पोछते पोछते वो धनुष से बोली....
"अगर मुझसे मदद माँग ली होती तो बिस्तर पर जगह जगह खिचड़ी नहीं टपकती,लेकिन मदद माँगने से शायद आपके आत्मसम्मान को ठेस लग जाती,है ना!",
"नहीं! ऐसी कोई बात नहीं है,मुझे डर था कि कहीं इतनी कहा सुनी के बाद शायद तुम मेरी मदद नहीं करोगी", धनुष ने प्रत्यन्चा से कहा....
"अगर मदद ना करनी होती तो मैं आपके लिए खिचड़ी बनाकर ना लाती",प्रत्यन्चा बोली...
"हाँ! ये बात भी है",धनुष बोला....
"अच्छा! लीजिए! ये दवा खाकर अब आप आराम कीजिए,ये दवा नर्स देकर गई है",प्रत्यन्चा बोली...
"दवाई तो मैं खा लूँगा,लेकिन आराम कर करके मैं परेशान हो चुका हूँ",धनुष बोला...
"अब ठीक होना है तो आराम तो करना ही पड़ेगा",और ऐसा कहकर प्रत्यन्चा धनुष को चादर ओढ़ाकर चली गई,फिर अपने बिस्तर पर आकर उसने एक थैली निकाली ,जिसमें कढ़ाई करने का सामान था और वो वहाँ बैठकर कढ़ाई करने लगी,तभी डाक्टर सतीश धनुष का रुटीन चेकअप करने आएँ और प्रत्यन्चा को कढ़ाई करता देख उससे बोले....
"ये आप क्या कर रही हैं प्रत्यन्चा जी!"
"जी! आपके अस्पताल में मन लगाने की कोशिश कर रही थी,घर में तो कई तरह के काम होते हैं करने के लिए,यहाँ फुरसत बैठकर क्या करूँ,इसलिए आज अपना कढ़ाई करने का सामान साथ ले आई थी", प्रत्यन्चा ने डाक्टर सतीश से कहा...
"पढ़ने का शौक रखतीं हैं क्या आप?",डाक्टर सतीश ने प्रत्यन्चा से पूछा...
"पता नहीं!"प्रत्यन्चा बोली...
"पता नहीं का क्या मतलब है प्रत्यन्चा जी!",डाक्टर सतीश ने पूछा...
"मेरे कहने का मतलब है कि मैं ज्यादा तो नहीं पढ़ी,लेकिन हाँ हिन्दी बाँच लेती हूँ,लिख भी लेती हूँ,स्कूल में किताबों में लिखी किस्से कहानियांँ बाँच लेती थीं और घर में कभी कभार अखबार आ जाता था तो उसे बाँच लेती थी,ऐसी कोई बड़ी बड़ी किताबें नहीं पढ़ी मैंने",प्रत्यन्चा ने सब सच सच कह दिया.....
"कोई बात नहीं,आप एक बार पढ़ना शुरू करेगीं ना तो फिर आपको पढ़ने की आदत हो जाऐगी", डाक्टर सतीश राय बोले...
"लेकिन पढ़ने के लिए किताबें भी तो चाहिए",प्रत्यन्चा बोली...
"आप चिन्ता ना करें,आपको किताबें मुहैया कराने की जिम्मेदारी मेरी",डाक्टर सतीश राय बोले...
"नहीं! आप भला मेरे लिए किताबें क्यों खरीदेगें,आपको किताबों के लिए अपने रूपए खर्च करने की कोई जरूरत नहीं है",प्रत्यन्चा उदास होकर बोली....
"अरे! किताबें यहीं मेरे पास हैं,वो मेरे ही केबिन में रखीं हुईं हैं,दरअसल बात ये है कि मुझे किताबें पढ़ने का बहुत शौक है,खरीदकर तो रख लेता हूँ लेकिन वक्त नहीं मिल पाता पढ़ने का और वो सारी किताबें अब आप पढ़ सकतीं हैं",डाक्टर सतीश राय बोले...
"फिर ये तो बड़ी अच्छी बात है,जब आप अपने काम से फुरसत हो जाइएगा तब वो किताबें आप मुझे पढ़ने के लिए दे दीजिएगा", प्रत्यन्चा ने डाक्टर सतीश राय से कहा....
"जी! आप अभी मेरे साथ मेरे केबिन में चलिए,मैं आपको किताबें अभी दिए देता हूँ,फिर अगर मैं किसी काम पर लग गया ,तो ये बात यहीं रह जाऐगी",डाक्टर सतीश ने प्रत्यन्चा से कहा...
"तो दादाजी! क्या मैं किताबें लेने चली जाऊँ?", प्रत्यन्चा ने भागीरथ जी से पूछा....
"हाँ...हाँ...क्यों नहीं,हमसे क्या पूछती हो बेटी!...जाओ ले आओ किताबें",भागीरथ जी बोले....
और फिर प्रत्यन्चा खुशी खुशी डाक्टर सतीश के साथ उनके केबिन से किताबें लेने चली गई,ये सब धनुष भी देख रहा था और उसे प्रत्यन्चा का यूँ डाक्टर सतीश के साथ जाना अच्छा नहीं लगा,लेकिन वो बोला कुछ नहीं,बस उसका मुँह बन गया और फिर कुछ देर के बाद प्रत्यन्चा किताबे लेकर लौटी और वो उन्हें भागीरथ जी को दिखाने लगी तब भागीरथ जी प्रत्यन्चा से बोले....
"बेटी! मुझे उपन्यास वगैरह में कोई रुचि नहीं है,तू इन्हें धनुष को दिखा दे"
इसके बाद प्रत्यन्चा खुशी खुशी धनुष के पास किताबें लेकर आई और धनुष से बोली....
"ये देखिए धनुष बाबू! मैं कौन कौन सी किताबें लेकर आई हूँ,ये शरतचन्द्र चटोपाध्याय की देवदास,ये देवदास और पारो की प्रेमकहानी है,ये रही चरित्रहीन ये भी शरतचन्द्र चटोपाध्याय की है इसमें सतीश और सावित्री की प्रेम कहानी है और ये किसी नए उभरते हुए लेखक की किताब है ,लेखक का नाम धर्मवीर भारती है और उपन्यास का नाम है गुनाहों का देवता ( इस कहानी का ताना बाना १९६० के दशक का बुना गया है और उस समय गुनाहों का देवता नामक उपन्यास नया नया प्रकाशित हुआ था) और ये सुधा और चन्दर की प्रेमकहानी है,डाक्टर बाबू कह रहे थे कि ये सारी अधूरी प्रेम कहानियाँ हैं,इसमें नायक और नायिका कभी भी मिल नहीं पाएँ"
"तो क्या फायदा ऐसी किताबें पढ़ने का जिन्हें पढ़कर सिर्फ़ रोना आएँ,तुम इन्हें वापस कर दो",धनुष गुस्से से बोला...
"नहीं! मैं इन्हें पढ़े बिना वापस नहीं करूँगीं,जब डाक्टर बाबू ने दी हैं तो ये किताबें भी अच्छी ही होगीं, बिल्कुल उनकी तरह", प्रत्यन्चा ने धनुष से कहा....
"मतलब तुम्हारी नज़रों में डाक्टर सतीश एक अच्छे इन्सान हैं",धनुष ईर्ष्यावश बोला....
"और क्या,इतने पढ़े लिखे हैं वो,उस पर से डाक्टर हैं और सबसे बात भी तो बहुत अच्छी तरह से करते हैं",प्रत्यन्चा बोली...
"तुम्हें बड़ी पहचान है इन्सानों की",धनुष बोला...
"और नहीं तो क्या,आपकी तरह थोड़ी हैं वे,जो आप हमेशा मुझसे झगड़ते रहते हैं",प्रत्यन्चा बोली...
"अच्छा! चलो अब अपनी डाक्टर सतीश गाथा बंद करो और देखो सनातन खाना देकर गया है,जाकर दादाजी को खिला दो और खुद भी खा लो",धनुष ने प्रत्यन्चा से कहा....
"आप नहीं खाऐगें"?,प्रत्यन्चा बोली...
"मैं ये सब नहीं खा सकता,मेरे लिए तो अस्पताल का बना बेस्वाद खाना आने वाला होगा",धनुष मुँह बनाते हुए बोला...
"मैं टिफिन खोलकर देखती हूँ,अगर आपके खाने लायक कुछ होगा तो आप भी इसी में खा से लीजिएगा", प्रत्यन्चा ने ऐसा कहकर टिफिन खोलकर देखा तो उसमें दाल,चावल,आलू की भुजिया,दही और रोटियाँ थीं,जब प्रत्यन्चा टिफिन खोल चुकी तो धनुष ने उससे पूछा....
"है क्या मेरे खाने लायक कुछ"
"हाँ! है,आप दाल चावल खा सकते हैं",प्रत्यन्चा बोली....
"अब तुम्हारे लिए फिर से दिक्कत खड़ी हो गई",धनुष बोला...
"वो भला क्यों?",प्रत्यन्चा ने पूछा....
"क्योंकि अब तुम्हें फिर से मुझे अपने हाथ से खाना खिलाना पड़ेगा",धनुष बोला....
"कोई बात नहीं,भूखे को खाना खिलाना ये तो पुण्य का काम है"
फिर प्रत्यन्चा की बात सुनकर सभी हँस पड़े....

क्रमशः...
सरोज वर्मा.....