लागा चुनरी में दाग़--भाग(२९) Saroj Verma द्वारा महिला विशेष में हिंदी पीडीएफ

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लागा चुनरी में दाग़--भाग(२९)

धनुष तेजपाल जी और भागीरथ जी की बात मानकर प्रत्यन्चा को ढूढ़ने चला तो गया लेकिन उसका बिलकुल भी मन नहीं था कि प्रत्यन्चा घर में दोबारा लौटकर आएँ,लेकिन प्रत्यन्चा को ढूढ़ना उसकी मजबूरी थी,नहीं तो उसे भी घर में घुसने नहीं दिया जाएगा,उस पर रात भी हो चुकी थी इसलिए उसे समझ में नहीं आ रहा था कि वो प्रत्यन्चा को कहाँ ढूढ़े....
अगर वो उसे ढूढ़ भी लेता है तो क्या प्रत्यन्चा उसके साथ घर वापस आऐगी,यही सवाल उसके मन में चल रहा था,इसी सवाल के साथ वो प्रत्यन्चा को ढूढ़ने में जुट गया.....
और इधर प्रत्यन्चा का रो रोकर बुरा हाल था,वो अपने आँसू दुपट्टे से पोछती हुई सड़क पर चलती चली जा रही थी,वो एक बार फिर से बेघर हो चुकी थी,शायद उसके मन की पीड़ा उसके अलावा और कोई नहीं समझ सकता था,किस्मत उसके साथ कैंसा खेल खेल रही थी ये वो नहीं समझ पा रही थी,अब वो कहाँ जाऐगी यही सोच रही थी वो,ना उसके पास एक भी रुपए थे और ना ही रहने का कोई ठिकाना,कोई उसका अपना भी तो नहीं था इस शहर में,लेकिन कुछ भी हो जीना तो पड़ेगा ही,वो कब तक दूसरों से सहारा माँगती फिरेगी,अब उसे खुद ही खुद का सहारा बनना पड़ेगा....
और यही सब सोचते सोचते उसने फिर से दुपट्टे से अपने आँसू पोछें,फिर उसे चलते चलते अब प्यास भी लग आई थी,इसलिए वो इधर उधर नजरें दौड़ाकर पानी ढूढ़ने लगी,फिर उसे एक बड़ा सा पुराना मकान दिखा, जिसके ऊपर लिखा था जीवन-ज्योति अनाथालय,वहीं पर उसके बाहर उसे नल लगा हुआ दिखा और फिर उसने वहाँ जाकर पानी पिया और मुँह धोया,उसके बाद वो वहीं अनाथालय के चबूतरे पर बैठ गई,क्योंकि उसे समझ नहीं आ रहा था कि वो अब कहाँ जाएँ,इसलिए वो वहीं बैठ गई.....
तभी उसके मन में विचार आया कि क्यों ना वो उस अनाथालय में जाकर कोई काम माँग ले और यही सोचकर वो अनाथालय के भीतर चली गई....
वो अनाथालय के भीतर गई तो चौकीदार ने उससे पूछा....
"जी! कहिए! क्या काम है?"
"जी! क्या यहाँ कोई काम मिल जाएगा",प्रत्यन्चा ने चौकीदार से पूछा...
चौकीदार बहुत बूढ़ा था,जो कि किसी मुस्लिम परिवार से तालुकात रखता था और उसका नाम दिलावर खान था,इसलिए वो बड़ी शालीनता से प्रत्यन्चा से बोला....
"नहीं! मोहतरमा! यहाँ आपके लिए कोई काम नहीं है,वैसे भी बड़ी मुश्किलों से इस अनाथालय का खर्चा चल पा रहा है,यहाँ की मालकिन बूढ़ी हो चुकीं हैं उस पर से वे बेवा हैं बेचारी,उनकी कोई औलाद भी नहीं हैं और उनके पास इतनी दौलत भी नहीं है कि इस अनाथालय में और भी लोगों को वो काम पर रख सकें, इसलिए उन्होंने एक रसोइया,एक आया और मुझे चौकीदार रखा है,हम लोगों की तनख्वाह भी बड़ी मुश्किल से दे पातीं हैं वो,मैं तो उनकी मजबूरी समझता हूँ क्योंकि मैं यहाँ बहुत सालों से काम कर रहा हूँ,लेकिन आया और रसोइए को तो उन्हें वक्त पर तनख्वाह देनी पड़ती है, उस पर बच्चों के भी बहुत खर्चे हैं,कभी कपड़ो का खर्चा,तो कभी किताबों का खर्चा,उस पर से दवाओं का खर्चा तो लगा ही रहता है"
"ठीक है तो कोई बात नहीं,मैं चलती हूँ"
और ऐसा कहकर प्रत्यन्चा वहाँ से आने लगी तो चौकीदार ने पता नहीं उसे क्या सोचकर रोकते हुए उससे कहा....
"ऐसा लगता है कि जैसे आपको काम की सख्त जुरुरत है"
"जी! काम की तो नहीं लेकिन सिर छुपाने की बहुत जरूरत है,क्योंकि जहाँ मैं रहती थी,उन्होंने मुझे घर से निकाल दिया है"प्रत्यन्चा बोली....
"तो आपका इस शहर में और कोई नहीं है"चौकीदार ने पूछा...
"जी! नहीं! तभी तो आपके दरवाजे पर काम माँगने आई थी",प्रत्यन्चा बोली....
"ओह...तो ये बात है",चौकीदार बोला...
"जी! मजबूर होकर मैं यहाँ आई थी",प्रत्यन्चा बोली...
प्रत्यन्चा की मजबूरी देखकर चौकीदार को उस पर तरस आ गया और वो उससे बोला....
"अच्छा! आप एक काम कीजिए,आप मेरे साथ भीतर चलिए,अनाथालय की मालकिन बहुत दयालु हैं,शायद वे आपको यहाँ रख लें"
और फिर चौकीदार की बात मानकर प्रत्यन्चा अनाथालय के भीतर चली गई,तब उस चौकीदार ने उसकी मुलाकात अनाथालय की मालकिन से करवाई,उनका नाम अनुसुइया देवी था,जब उन्होंने प्रत्यन्चा की मजबूरी सुनी तो वे प्रत्यन्चा को अपने यहाँ एक शर्त पर रखने के लिए राजी हो गईं कि वो वहाँ रह तो सकती है,लेकिन वे उसे तनख्वाह नहीं दे पाऐगीं और प्रत्यन्चा को भी इससे ज्यादा कुछ नहीं चाहिए था,उसे तो बस दो वक्त खाना और सिर छुपाने के लिए जगह चाहिए थी,जो अब उसे मिल चुकी थी.....
इधर धनुष सारी रात प्रत्यन्चा को खोजता रहा लेकिन प्रत्यन्चा उसे कहींं नहीं मिली और जब थकहार कर वो सुबह सुबह अस्पताल पहुँचा और उसने भागीरथ जी और तेजपाल जी से ये कहा कि उसे प्रत्यन्चा कहीं नहीं मिली तो भागीरथ जी बहुत परेशान हो उठे जिससे उनकी तबियत सुधरने की जगह और भी ज्यादा बिगड़ने लगी,उस समय डाक्टर सतीश राय भी अस्पताल में नहीं थे,वे अपनी ड्यूटी खत्म करके रात को ही अपने घर जा चुके थे,इसलिए भागीरथ जी के इलाज करने की बागडोर किसी और डाक्टर के हाथों में आ गई,बहुत सम्भालने पर भी भागीरथ जी की सेहद में सुधार नहीं हो पा रहा था,उनको केवल एक ही इन्सान ठीक कर सकता था और वो थी प्रत्यन्चा.....
और उधर सुबह सुबह डाक्टर सतीश राय के घर पर उनकी विधवा माँ शीलवती नाश्ते की टेबल पर नाश्ता परोसते हुए उनसे बोलीं.....
"बेटा! एक बात बोलूँ"
"हाँ! बोलो माँ!",डाक्टर सतीश बोले....
"वो मेरी सहेली अनुसुइया है ना जो अनाथालय चलाती है,उससे मिलने का मन कर रहा है,क्या तू अस्पताल जाते वक्त मुझे अपनी मोटर से वहाँ छोड़ देगा",शीलवती जी बोलीं....
"हाँ...हाँ...क्यों नहीं! ये भी कोई पूछने वाली बात है,तुम भी नाश्ता करके तैयार हो जाओ,फिर साथ में चलते हैं",डाक्टर सतीश राय अपनी माँ शीलवती से बोले....
"ठीक है तो मैं भी तेरे साथ ही नाश्ता कर लेती हूँ"
और फिर ऐसा कहकर शीलवती जी ने अपने बेटे सतीश के साथ नाश्ता किया,इसके बाद वे तैयार होकर सतीश की मोटर में बैठकर अपनी सहेली अनुसुइया के अनाथालय की ओर चल पड़ी,जब अनाथालय आ गया तो डाक्टर सतीश ने अपनी मोटर अनाथालय के आगें रोक दी और अपनी माँ से बोले....
"माँ! जाओ तुम्हारी सहेली का अनाथालय आ गया"
"तू भीतर नहीं आऐगा",शीलवती जी ने डाक्टर सतीश से पूछा...
"नहीं! माँ! मैं क्या करूँगा,भीतर आकर",डाक्टर सतीश बोले...
"अरे! अनुसुइया तुझे बहुत याद करती है,उसकी कोई खुद की सन्तान नहीं है इसलिए वो तुझे अपने बेटे की तरह मानती है,फिर भी तू उसके साथ ऐसा कर रहा है,तू उससे मिल लेगा तो तेरा क्या बिगड़ जाऐगा", शीलवती जी डाक्टर सतीश को डाँटते हुए बोलीं...
"अच्छा! चलो! तुम इतनी जिद कर ही रही हो तो मैं उनसे मिल ही लेता हूँ"
और ऐसा कहकर डाक्टर सतीश राय अपनी माँ शीलवती के साथ अनाथालय के भीतर पहुँचे....
फिर वे अनुसुइया जी से मिले और उनके पैर छूकर उनसे पूछा....
"कैंसी हो मौसी!"
"ठीक हूँ बेटा! यहाँ आ जाया कर,तू आता है तो अच्छा लगता है,आओ बैठो ,मैं तुम दोनों के लिए चाय मँगवाती हूँ" अनुसुइया जी बोलीं....
और फिर उन्होंने आया से चाय लेकर आने को कहा,लेकिन आया भीतर जाकर और कोई काम करने लगी और उसने बाहर प्रत्यन्चा को चाय लेकर भेज दिया और जब डाक्टर सतीश राय ने प्रत्यन्चा को देखा तो चौंक पड़े.....

क्रमशः....
सरोज वर्मा....