उन्हीं रास्तों से गुज़रते हुए - भाग 28 Neerja Hemendra द्वारा फिक्शन कहानी में हिंदी पीडीएफ

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उन्हीं रास्तों से गुज़रते हुए - भाग 28

भाग 28

मेरे बार-बार हँस पड़ने का कारण यह था कि अनिमा ने परिस्थिति ही ऐसी बना दी थी। वह साफ-साफ कुछ बता भी नही रही थी और अपनी बात भी बताना चाह रही थी। वैसे भी अनिमा मेरी घनिष्ठ मित्र है। उसके साथ हास-परिहास चलता रहता है।

" प्रेमी...? वो भी मेरा....? उम्र देखी है उसकी...? मुझसे बहुत छोटा है उम्र में वो और मुझसे कहीं अधिक आकर्षक। " अनिमा ने तुरन्त स्थिति इस प्रकार स्पष्ट कर रही थी, जैसे मैं उसे उसका प्रेमी ही न बना दूँ।

" अरे भई, कुछ नही। मैं यूँ ही परिहास कर रही थी। " अनिमा को आश्वस्त करते हुए मैंने कहा।

अनिमा की बातें सुनकर मुझे ऐसा लगने लगा था कि कहीं न कहीं यह स्थिति आपसी आकर्षण की बन रही है। अनिमा भले ही स्वंय को रिजर्व रख रही हो, किन्तु वह लड़का नीलाभ अवश्य अनिमा की ओर आकर्षित हो रहा है। साँवली-सलोनी अनिमा आकर्षक तो है ही। अपनी उम्र को मात देती हुई वो कहीं कम उम्र की प्रतीत होती है। सर्वविदित है कि बाह्नय सौन्दर्य प्रेम और आपसी आकर्षण में अहं भूमिका निभाता है। अनिमा देखने में आकर्षक है। इसमें कोई संशय नही कि प्रथम दृष्ट्या उसे देखते ही नीलाभ उसकी ओर आकर्षित हो गया हो। बाद में वह उसकी अच्छाइयों व उसके व्यक्तित्व के अन्य पहलुओं से प्रभावित हुआ हो।

इधर दो-तीन दिनों से अनिमा से मुलाकत नही हो पा रही थी। एक दिन अनिमा लंच के समय मिली। उस दिन अनिमा हालचाल, कुशलक्षेम तथा कार्यालय आदि सामान्य बातें करती रही। उसकी बातों में नीलाभ की चर्चा नही थी।

" आजकल लंच में भी दिखाई नही देती हो। साथ में लंच करने वाला कोई मिल गया है क्या....? " मैंने हँसते हुए अनिमा से कहा।

" अरे नही! आजकल काम बहुत रहता है। लंच के समय बाहर निकलने का भी समय नही मिलता। अपने कबिन में ही अक्सर लंच कर लेती हूँ।......किसके साथ लंच कर लूँगी...? कौन साथ देगा मेरा....तुम्हारे अतिरिक्त...? " उसने हँसते हुए कहा।

" प्रमोशन के कुछ फायदे हैं, तो कुछ हानियाँ भी। " अनिमा ने अपनी बात पूरी करते हुए कहा।

" नीलाभ के क्या हाल हैं? " मैंने परिहास करते हुए मैंने उससे पूछा।

" कुछ नही। उसका हाल वैसा ही है। मेरे सामने वाले केबिन में बैठा रहता है। काम पूछने के बहाने दिन में कई बार आता है। इसके बावजूद बार-बार मुझे देखा करता है। मैं रिजर्व रहती हूँ अन्यथा वो मुझे चिपकू-सा लगता है। " अनिमा ने कहा। मैं मुस्करा पड़ी।

" एक बात बताऊँ अनिमा....? " अनिमा मेरी ओर देखने लगी।

" तुम एक बार अपने बेटे श्लोक की चर्चा करो तत्पश्चात् उसकी प्रतिक्रिया देखो। " मैंने अनिमा से कहा।

" ठीक है। किन्तु इससे क्या होगा... मैं उससे विवाह की इच्छा थोड़े ही रखती हूँ? " अनिमा ने कुछ बेरूखी से कहा।

" माना कि तुम नही रख रही हो किन्तु वो तो रख रहा है, तुम्हारी बातों से मुझे ऐसा प्रतीत हो रहा है। किसी को दुविधा में रखना बुरी बात है। " कहकर मैं हँस पड़ी।

" वो मुझसे इस बारे में कोई बात नही करता है, तो मैं उससे ये सब क्यों कहूँ...? " अनिमा के अपनी शंका व्यक्त की।

" बात नही करता है पर तुम्हें अविवाहित समझने की ग़लतफहमी भी तो उसने पाल ली है। " मैंने हँसतेे हुए कहा। मेरे साथ अनिमा भी ठहाका लगाकर हँस पड़ी। बहुत दिनों के पश्चात् अनिमा को इस प्रकार खुलकर हँसते हुए देखा। लंच समय समाप्त हो गया था। हम अपने-अपने केबिन की ओर बढ़ चले थे। अनिमा कई दिनों तक पुनः दिखाई नही दी।

समय व्यतीत होता जा रहा था। कई दिनों से अनिमा से मुलाकात नही हो रही थी। फोन पर कभी वो तो कभी मैं एक दूसरे का कुशलक्षेम पूछ लेते। लंच समय में एक बार अनिमा के कबिन की ओर देख अवश्य लेती। कदाचित् वो लंच में बाहर आती दिख जाये। किन्तु वो दिखाई नही देती। एक दिन सहसा वो लंच समय में केबिन से बाहर आती दिख गयी।

" तो आज अवतरित होने का समय मिल गया? " मैंने कहा। अनिमा ने वही व्यस्तता की बात बतायी।

" मैं तो समझ रही थी कि केबिन में ही व्यस्त रहने का कोई और कारण भी है। " मैंने अनिमा से चुहल की।

" अरे नही! बिलकुल भी नही। मैं पुनः किन्हीं चक्करों में पड़ने वाली नही हूँ। " अनिमा ने कहा।

" मैं कब कह रही हूँ कि तुम चक्कर में हो। उसे तुम्हारे चक्कर में पड़ने से कैसे रोकोगी...? " मैंने मुस्कराते हुए कहा। मेरे साथ अनिमा भी मुस्करा पड़ी।

" तुमने श्लोक के बारे में बता दिया है उसे। उसे पता तो चले कि तुम एक बच्चे की माँ हो। " मैंने पुनः उसे छेड़ा।

" हाँ......हाँ......सब कुछ बता दिया। फिर भी वही ढाक के तीन पात। " कहकर अनिमा हँसने लगी।

" वो तुम्हारा पक्का प्रेमी प्रतीत होता है। " मैंने कहा।

" अरे हटो। उम्र देखी है उसकी और मेरी? " अनिमा ने कहा।

" तो इस बार उसे अपनी उम्र भी बता दो। पक्का प्रेमी है वो, इस बात से भी उस पर कुछ फर्क पड़ने वाला नही है। " मैंने कहा।

" ठीक है। इस बार उसे अपनी उम्र भी बता दूँगी। पहले वाले विवाह व विवाह-विच्छेद के किस्से भी सुना दूँगी। " कहकर अनिमा हँसने लगी।

मैं सोच रही थी कि औरत के हृदय की रचना विधाता ने किस प्रकार की होगी? कैसे उसे इतनी भूमिकाओं को वहन करने की क्षमता से सुसज्जित किया होगा? एक स्त्री को कैसे इस सृष्टि की सृजनकत्र्ता, निर्माणकत्र्ता, पालनकत्र्ता के रूप में सृजित किया होगा? कभी ऐसा प्रतीत होता है जैसे उसे समुद्र-सा विशाल हृदय दिया है जिसमंे वह सब कुछ समाहित कर लेती है। कभी ऐसा लगता है उसके हृदस में एक हरा पर्वत स्थित है जिसमें से अनेक झरने फूट रहे हैं पुत्री, पत्नी, प्रेयसी, माँ, सखी अनेक रूप हैं झरनों के। तीव्र वेग से फूट रहे झरनों के जल को वह किस प्रकार वह हृदय में सम्हाल कर रखती है। कैसे समाहित किए रहती है अपने भीतर कैसे.....? कैसे......?। कैसे सब कुछ समेट कर रखती है वह अपने भीतर?

♦ ♦ ♦ ♦

विवशता में राजेश्वर के साथ शालिनी ने जो सम्बन्ध बनाया था, वह आज उसके लिए प्राणवायु बन गया है। उसके बिना वह कुछ सोच नही सकती, कर नही सकतह। उसके बिना सुबह की कल्पना, साँझ का यथार्थ नही समझ सकती। राजेश्वर उसके लिए इतना आवश्यक है कि वह उसकी पत्नी की अपराधिनी होते हुए भी उसे मुक्त नही करना चाहती। ये अलग बात है कि राजेश्वर भी उससे दूर भला कहाँ जाना चहता है? ये प्रेम है या कुछ और? इस रिश्ते का क्या नाम देना चाहेगी शालिनी? हाँ, ये प्रेम ही है। सागर की गहराईयों-सा गहरा अतुलनीय प्रेम जिसमें कोई कामना, कुछ भी पाने की इच्छा शेष नही है। मात्र समर्पण है। दैहिक आकर्षण और किसी सुख से परे एक दूसरे के प्रति समर्पित होते चले जाना। राजेश्वर और शालिनी प्रेम के पथ पर बढ़ते चले जा रहे हैं। राजनीति में हार-जीत तो लगी रहेगी, किन्तु इन सबसे परे राजेश्वर व शालिनी का प्रेम सदैव विजयी रहेगा।

ये ऋतुयें भी अजीब होती हैं। न जाने कब....? कैसे....दबे पाँव आती हैं.... प्रकृति, मानव, जीव-जन्तुओं पर अपनी छाप छोड़कर चली जाती हैं? मेरी प्रिय ऋतु वसंत की यह विशेषता है कि यद्यपि यह शीत ऋतु की कठोरता को एक खूबसूरत, मनभावन, मादक ऋतु वसंत में परिवर्तित कर देती है किन्तु अपने साथ पतझण को भी लेकर आती है। शीत ऋतु का कठोर हवायें देखते-देखते मलय समीर में परिवर्तित हो जाती हैं। वृक्षांे से पुराने पत्ते गिरने लगते हैं। नयी कोंपले, नये पत्तांे से वृक्ष सुसज्जित होने लगते हैं। नयी नर्म दूब पर बिखरी मातियों सदृश्य ओस की बूँदें स्वर्णिम सूर्य की किरणों के आते ही इस प्रकार चली गयीं मानों एक सखी ने दूसरी सखी के लिए प्रकृति से प्रेम करने हेतु स्थान रिक्त किया हो। नव -पल्लव, नव-पुष्पों, नव-मंजरियों का आगमन पतझण के साथ होता। पक्षियों के कलरव, व कोयल की कूक से अमराईयाँ भर उठतीं। मादक वसंत के स्वागत् के लिए वृक्षों से निकल पड़ते नयी-नवेली कोंपले और बौर। ऋतुराज वसंत का पूरी सृष्टि पर अपनी मादकता का विस्तार कर देता। न जाने कब वसंत भी ग्रीष्म ऋतु को आमंत्रण देकर दबे पाँव चला जाता।

शालिनी समझ न पाती कि ऋतुयें तो आकर चली जातीं किन्तु अपने साथ लायी विगत् स्मृतियों को छोड़कर क्यों चली जातीं? अभी पिछले चुनावों की बात है। जीत के उत्सव में उसके साथ अनेक जाने-अनजाने चेहरे उसके आस-पास थे। समय बदला, ऋतुयें बदलीं, परिस्थितियाँ भी बदल गयीं। आज उसके आस-पास रहने वाली भीड़ न जाने कहाँ विलुप्त हो गयी है। उसके साथ है तो सदा की भाँति मात्र राजेश्वर। शालिनी इस तथ्स से अवगत् है कि परिवर्तन सृष्टि का शाश्वत् नियम है। जीवनमें किसी भी परिवर्तन के लिए वो सदैव तत्पर है। कारण मात्र यही है कि अपने जीवन में उसने अनेक ऐसे परिवर्तन देखे है जिसकी कल्पना एक साधरण व्यक्ति नही कर सकता। उसने तो उन परिवर्तनो से मुठभेड़ किया है......लोहा लिया है। कोई साधरण स्त्री उन सबसे टूट चुकी होती किन्तु शालिनी ने उन सबक मध्य अपना मार्ग स्वंय बनाया है। उन पर चली है तथा सफल होकर दिखाया है।

अनिमा से मेरी मुलाकात अब कई-कई दिनों के पश्चात् होती। प्रमोशन के पश्चात् उसका काम बढ़ गया था। लंच भी अब वो अपने केबिन में ही बैठकर कर लेती। बाहर कम निकल पाती। कई दिन हो गए थे उसे मिले हुए। उससे मिलने के लिए मेरा मन हो रहा था। लंच समय में फोन कर के मैंने उसे बाहर बुलाया। अनिमा आयी। हम दोनों कैण्टीन में बैठ गए।

" तुम्हारा प्रमोशन हमारे लिए घाटे का सौदा सिद्ध हो रहा है। " एक दूसरे का कुशलक्षेम पूछने के पश्चात् मैंने अनिमा से कहा। मेरी बात सुनकर वो हँस पड़ी।

" क्यों.....क्या हुआ....? " मेरी बात समझते हुए भी नासमझ बनते हुए उसने कहा।

" कुछ नही। अब तुम लंच के समय में भी नही दिखती। ये मेरे लिए ठीक नही है। " मैंने हँसते हुए कहा। मेरे साथ अनिमा भी मुस्करा पड़ी।

" तुम्हारा उलाहना उचित है। किन्तु यही जीवन है जिसमें धूप भी है तो छाँव भी।......तुम्हारी जैसी मित्र धूप में छाँव की भाँति होती है। " अनिमा ने कहा।

" बस.....बस...। मित्र पर याद आया, तुम्हारा वो मित्र कैसा है? नीलाभ...? " अनिमा की बातें सुनकर मैं भावुक हो उठी थी अतः बातों का रूख बदलना आवश्यक था।

" कुछ न पूछो। वही हाल है। " अनिमा ने कहा।

" तुमने अपनी पुरानी हिस्ट्री बतायी थी कि नही उस कुँवारे को। " मैंने कहा।

" बताया था....सब कुछ बताया था। उसके पश्चात् भी उसका हाल वही है। वो सुधरने वाला नही लग रहा है। " अनिमा ने कड़वा मुँह बनाते हुए कहा।

" तुम कहो तो उस बन्दे की स्टैमिना व प्रेम का परीक्षण कर लिया जाये। " कह कर मैं हँस पड़ी।

" अरे छोड़ो! उसका प्रेम व उसके प्रेम का परीक्षण। " अनिमा ने उपेक्षा से कहा।

अनिमा श्लोक के बारे में बातें करती रही। वह बता रही थी कि शनै-शनै श्लोक बड़ा हो रहा है। उसकी चंचलता व उसमें हो रहे परिवर्तन को देखकर वह प्रसन्न हो उठती है। उसके बचपन के साथ वह भी जी रही थी। श्लोक की चर्चा कर वह प्रसन्न हो उठती।

समय व्यतीत होता जा रहा था। प्रकृति अपना रूप परिवर्तित करती। ऋतुयें बदलती......ऋतुओं के साथ कदचित् मनःस्थितियाँ भी परिवर्तित हो जातीं। समय के साथ मेरी प्रिय ऋतु वसंत का आगमन पुनः हो गया था। नव-पल्लव, नव-पुष्पों के साथ किसी प्रिय की स्मृतियाँ जो हमारे साथ नही हैं, लेकर आता। हमारे मन को वेदना से भर देता। मेरे जीवन के सबसे अच्छे दिन, मेरे बचपन के दिन जो किसी परीन्दे की भाँति उड़कर न जाने कहाँ चले गए, मुझे गाहे -बगाहे याद आते। वो दिन अब कभी भी वापस नही आ सकते। मुझे वसंत ऋतु में कोयल की कूक में, मंजरियों से भरी अमराईयों में, सरसों के पीले पुष्पों से भरे खेतों में खोया हुआ बचपन दिखाई देता। इन ऋतुओं के साथ मैं विगत् समय को भी जी लेती। कभी-कभी मैं सोचती कि क्या अनिमा को भी ये ऋतुयें वसंत, सावन, शरद.....आदि अच्छी लगती होंगी? ये ऋतुयें जब आती होंगी तो क्या अपने साथ उसे जीवन की कुछ कड़वी स्मृतियाँ लेकर न आती होंगी? तब क्या ये ऋतुयें उसे सुखद लगती होंगी? एक दिन अनिमा से ये प्रश्न मैंने पूछ ही लिया।

" विद्यार्थी जीवन के दिन ही सबसे अच्छे व सुखद दिन थे। उन्हें भरपूर जी भी न पायी थी कि देखते-देखते आसमान में उगे इन्द्रधनुष की भाँति वे दिन न जाने कहाँ विलुप्त हो गए।......कितने सपने देखे थे......ये पढूँ़गी......वो बनूँगी......बहुत सपने थे मेरे। सपनों तक पहुँचने से पूर्व ही विवाह के बन्धन में बाँध दी गयी। उसके बाद का तो तुम्हें ज्ञात ही है। " अनिमा रूक-रूक कर बोलती जा रही थी। मैं सुन रही थी। मात्र सुन ही नही रही थी, बल्कि उसकी पीड़ा समझ रही थी। उसकी भावनाओं के साथ ही मैं भी न जाने किस दुनिया में चलती चली जा रही थी।