उन्हीं रास्तों से गुज़रते हुए - भाग 13 Neerja Hemendra द्वारा फिक्शन कहानी में हिंदी पीडीएफ

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उन्हीं रास्तों से गुज़रते हुए - भाग 13

भाग 13

समय व्यतीत होता जा रहा था। आजकल मुझे माँ के घर की बहुत याद आ रही थी। जब से इन्द्रेश की अस्वस्थता के विषय में ज्ञात हुआ है तब से कुछ अधिक ही। अन्ततः मुझसे रहा नही गया और एक दिन का अवकाश लेकर मैं माँ के घर के लिए चल पड़ी। मुझे कुशीनगर से पडरौना जाते समय मार्ग में पड़ने वाले मनोरम दृश्य तथा वो मुख्य सड़क जो पडरौना छावनी की ओर जाती थी, जो चारों ओर हरियाली के साथ अपने भीतर असीम शान्ति समेटे हुए थी, मुझे सदा से आकर्षित करती थी।

कदाचित् तथागत् की शान्ति का प्रभाव चारो ओर स्वतः फैल गया था। महात्मा बुद्ध के स्तूप, उपदेश लिखी दीवारें, बौद्धकलीन खण्डहर, तथागत् की मूर्तियों की शान्त मुद्रा मुझे सदैव अपनी ओर आकृष्ट करती। मेरे भीतर शान्ति की वही अनुभूति हाने लगती जो तथागत् बुद्ध के चेहरे पर परिलक्षित होती। वही शान्ति मानो मुझमें समाहित होने लगती। वहाँ के अवशेष, मन्दिर, चारों ओर फैली हरियाली अपने मोहपाश में मुझे जकड़ते चले जाते।

इस आकर्षण का कारण कदाचित् यही था कि मुझे अपना घर यहीं बसाना था। कुशीनगर की आध्यात्किता व शान्ति के बीच। माँ के घर मुझे अच्छा लगा। एक दिन रूककर मैं वापस कुशीनगर आ गयी। अब मेरा मन हल्का अनुभव कर रहा था। हम सब अपनी दिनचर्या में पुनः व्यस्त हो गये। वही कार्यालय, घर, बच्चे, परिवार.....सबका अपना-अपना लक्ष्य....अपनी-अपनी व्यस्ततायें। दिन व्यतीत होते जा रहे थे।

कई दिनों के पश्चात् आज माँ का फोन आया है। सबका हाल, कुशलक्षेम पूछने के पश्चात् माँ इन्द्रेश का हाल बताने लगी कि " उड़ती-उड़ती खबर मिली कि इन्द्रेश की किडनी बदलने के लिए उसे पुनः किसी दूसरे अस्पताल ले जाया जा रहा है। अब तक जिस अस्पतरल में वह भर्ती था उससे शालिनी संतुष्ट नही थी। पाँच महीने हो गये शालिनी अभी तक कुशीनगर नही आयी है।

न जाने उसके भाग्य में कितने दुःख लिखे हैं। पति को लेकर दर-दर, शहर-शहर भटक रही है। सब कुछ होते हुए भी बच्चे बिना माँ-बाप के जैसे-तैसे पल रहे हैं। माना कि घर में नौकर-चाकर हैं। माँ-बाप का स्थान नौकर-चाकर थोड़े ही ले लेंगे। " माँ की बात मै सुन रही थी साथ ही मन में विचार कर रही थी कि ओह! समय सबके हिस्से का दुःख उसके हाथ की लकीरों में लिख देता है। न जाने वो दुख किस रूप में सामने आ जाता है।

माँ की बात बिलकुल सही थी। बूढ़े ताऊ जी-ताई जी भला बच्चों की देखभाल कैसे कर पाते? बच्चों को नहलाना-धुलाना, वस्त्र पहनाना, विद्यालय से लाने और छोड़ने तक, सब कुछ नौकरों को ही करना है। नौकर भला क्या करते होंगे? बच्चों की शिक्षा प्रभावित हो रही होगी सो अलग?

ताऊ जी का पूरा घर अस्त-व्यस्त हो गया है। ताऊजी के जीवन में इतना बड़ा परिवर्तन आ गया है इतने दुख भरे दिन देखने पड़ रहे हैं। बेटा गम्भीर रूप से अस्वस्थ है। किन्तु उनका व्यवहार अभी तक वही है अकड़ व घमंड भरा। सबके साथ वही अक्कखड़पन व घमंड भरा व्यवहार करते है ताऊजी। बाबूजी के साथ अब भी ईष्र्या भरी हुई हैं उनके मन में।

जब-तब लाॅन में खड़े होकर बाबूजी को अब भी उल्टी-सीधी बातें व अपशब्द सुनते रहते हैं। एक काग़ज का टुकड़ा भी उनकी ओर उड़ कर चला जाये तो अपशब्दों की बौछार व बड़बड़ाहट शुरू हो जाती। इन्दे्रश की अस्वस्थता को तथा उसे कुशीनगर से बाहर गये छः माह हो गये। यह चुनाव का वर्ष था। ताऊजी पुनः इन्द्रेश के लिए टिकट पाने की जुगत में लग गये हैं। यह कैसी विडम्बना है कि जिसके लिए टिकट लेने के लिए दौड़ रहे हैं उसकी बीमारी तथा अस्पताल भी छुपाकर रखा है।

लड़के के लिए वृद्धावस्था में पार्टी मुख्यालय से लेकर बड़े-बड़े नेताओं के घरों तक की दौड़ प्रारम्भ कर दिये हैं। चाटुकारों की भीड उनके दरवाजे पर पुनः लगने लगी है। चहल-पहल बढ़ने लगी है। किसी को भी इन्द्रेश के स्वास्थ्य की सही जानकारी नही थी। मामला किडनी ट्रान्सप्लान्ट का था, साथ ही उसमें राजनीति भी थी। किन्तु ये बातें ताऊजी अपनी चालाकियों से कब तक गोपनीय रख सकते थे।

एक दिन उनके दरवाजे पर प्रतिदिन से अधिक भीड़ एकत्र हुई थी। घर के भीतर से रोने की आवाजें आने लगी थीं। माँ-बाबूजी ने पता किया तो ज्ञात हुआ कि किडनी ट्रान्सप्लांट के दौरान इन्द्रेश का निधन हो गया है। शालिनी का फोन आया था। वो अपने छोटे भाई के साथ अस्पताल में है। इन्द्रेश की अस्वस्थता छुपाने के कारण अभी तक उसके पास कोई जा नही पाया है।

सब उसके आने की प्रतीक्षा कर रहे थे। अस्पताल के पैसों की भुगतान से लेकर इन्दे्रश को लेकर उस अबला को लेकर अकेले ही आना था। पन्द्रह-सोलह वर्ष का उसका छोटा भाई भला उसकी कितनी मदद कर सकता था? लगभग आधी रात के पश्चात् अस्पताल की गाड़ी से इन्द्रेश का पार्थिव शरीर लेकर शालिनी घर आ गयी। इनके आते ही पूरे घर में कोहराम मच गया। रोने की आवाजें सबका हृदय द्रवित व आखें नम कर रही थीं।

इन्दे्रश के शव को सजा कर सबके दर्शनार्थ रखा गया। शालिनी व उसके बच्चों को देखकर आने-जाने वाले सभी नाते-रिश्तेदार रो पड़ रहे थे। किन्तु इन्दे्रश के शव के पास शालिनी निर्विकार बैठी थी। महीनों से पति को लेकर शहर-शहर, अस्पताल-अस्पताल घूमती रही। उसने सोचा भी नही होगा कि इस प्रकार इन्द्रेश उसे व बच्चों को मझधार में छोड़कर चला जायेगा। उसके अश्रु सूख चुके थे। पीड़ा से हृदय पत्थर हो गया था, और वह पत्थर की प्रतिमा।

वह सब कुछ चुपचाप देख रही थी। कैसे किसी का हाथ हाथों से फिसलता है, देखते-देखते हाथों से सब कुछ छूट जाता है.......? कैसे कोई रहे या न रहे दुनिया रूकती नही है। सब कुछ पूर्ववत् चलता रहता है। किसी के न रहने पर भी लोग किस प्रकार संासारिकता में लिप्त रहते हैं। इस क्षणभंगुर जीवन की सच्चाई से परे। वह निर्विकार भाव से चुपचाप सब कुछ देख रही थी। सामने लेटा हुआ व्यक्ति सब कुछ छोड़कर कितनी सरलता से चला गया। धन-सम्पदा, वैभव, सत्ता बच्चे परिवार सब कुछ। इस दुखद घड़ी में मैं भी ताऊजी के घर पहुँची। वहाँ का माहौल मुझे कई रंगों में रंगा मिला।

घर के लोग शोकाकुल थे। कुछ दूर के रिश्तेदार दालान के एक कोने में कुर्सी डाले एकजुट होकर बैठे थे। दुख की इस घड़ी में भी वे धीमें स्वर में इधर-उधर की बातें कर रहे थे तथा बीच-बीच में हँसी-ठिठोली कर हँस भी ले रहे थे। दालान के दूसरे कोने में हलवाई भोजन बना रहा था। इस समय मुझे पाश्चात्य कवि ब्लाॅक की कविता मृत्यु का उत्सव याद आ गया। सचमुच संसार का कटु सत्य मृत्यु है और उस मृत्यु कर उत्सव कुछ लोग मना रहे थे। घर के लोग अन्तिम सस्ंकार को पूरा करने की तैयारियों में लगे थे। एक तो घर के सदस्य के चले जाने का दुख ऊपर से अन्तिम संस्कार की अनेक विधियों को पूरा करने में घर वालों की भागदौड़।

वे तो इस समय मृत्यु का शोक भी नही मना पा रहे थे। किन्तु मृत्यु का शोक मनेगा अवश्य और इसे मनायेंगे शालिनी और उसके बच्चे। सबके चले जाने के बाद अकेले, जब-जब इन्दे्रश की स्मृतियाँ उन्हें उन्हें घेरंेगी, जब-जब इन्दे्रश की आवश्यकता उन्हें महसूस होगी और कोई उनके पास नही होगा तब-तब इन्दे्रश की मृत्यु का शोक वे मानयेंगे। मैं शालिनी भाभी के पास जाकर चुपचाप बैठ गयी।

" कब आयी...? " शालिनी भाभी ने थकी आवाज में पूछा।

" अभी-अभी घर से सीधे यहीं चली आ रही हूँ। " मैंने कहा। शालिनी भाभी के पास कुछ देर बैठने के उपरान्त मैं माँ के घर चली आयी।

दो-चार दिनों में ताऊजी के घर में सभी रस्में पूरी हो गयीं। घर के बाहर लगी रहने वाली भीड़ जा चुकी थी। इस संसार की रस्में अज़ीब-सी हैं। व्यक्ति जब पद और पावर में रहता है तो उस समय नाते-रिश्तेदार आस-पास रहते हैं। जैसे ही जीवन में धूप दस्तक देने लगती है, सभी परछाईयों की भाँति साथ छोड़ देते हैं। बस! ऐसा ही ताऊजी के परिवार के साथ हुआ है।

शालिनी को अपने छोटे बच्चों के साथ पूरी उम्र अकेले व्यतीत करनी है। अकेले बच्चों का पालन-पोषण करना इतना सरल नही है। पिता का स्थान कोई नही ले सकता। ताऊजी का एक बेटा और है चन्दे्रश। अपनी राजनैतिक महत्वाकांक्षा की पिपासा शान्त करने के लिए ताऊजी चन्दे्रश को टिकट दिलाने के लिए प्रयत्न करने लगे। वे इन्द्रेश का लगभग विस्मृत कर चुके थे। राजनीति के नशे में जब वे अपने बेटे को विस्मृत कर सकते हैं, तो शालिनी की परवाह वे क्यों व कब तक करते?

घर के एक कोने में पड़ी शालिनी उपेक्षित होने लगी थी। उसका जीवन का लक्ष्य अब घर में रहकर रोटी और वस्त्र प्राप्त करने तक रह गया था। इस बार चन्द्रेश को टिकट दिलाने के लिए उसे अपने साथ लेकर ताऊजी पार्टी के बड़े-बड़े नेताओं के घर दौड़ लगाने लगे थे। इन्द्रेश जब जीवित था तब शालिनी इस घर की प्रिय दुलारी बहू थी। अब उसे ऐसा प्रतीत होने लगा था कि इस घर में रोटी व वस्त्र पाना ही उसका अधिकार रह गया है।

उसके बच्चे भी चन्दे्रश के बच्चोें का बचा हुआ प्यार पाते। जितना अधिकार उसे मिल रहा है, उतना ही अधिकार इस घर के नौकर-चाकरों को भी है। भोजन व वस्त्र पाने का अधिकार । शालिनी इस समय को आगे बढ़ते हुए चुपचाप देखती रहती जो स्वंय तो आगे बढ़ जाता और इन्द्रेश की स्मृतियों को उसके पास छोड़ जाता।

इन्दे्रश के एक मित्र थे, जिन्हें शालिनी इन्द्रेश के साथ बहुधा देखा करती थी, किन्तु उनका नाम नही ज्ञात था। इन्दे्रश के जाने के पश्चात् वो अब भी यदाकदा घर आते थे।

एक दिन शालिनी को अकेले पा कर उन्होंने जो जानकारी दी उससे शालिनी के दिन ही परिवर्तित हो गए। उन्होंने बताया कि जहाँ कहीं भी पार्टी के बड़े नेताओं से बाबूजी चन्द्रेश के लिए टिकट की बात करने जा रहे हैं, सभी बड़े नेता इन्द्रेश की जगह पर आपको टिकट देने की इच्छा जता रहे हैं। पार्टी के सभी बड़े नेताओं का कहना है कि यदि आपको टिकट दिया जायेगा तो उस सीट से आपकी जीत निश्चित है। क्यों कि इस समय जनता की संवेदनाएँ आपके साथ हैं तथा चाहे जैसा भी था इन्द्रेश ने क्षेत्र में काम भी किया है। उसका लाभ भी पार्टी को मिलेगा।

किन्तु बाबूजी नही चाहते कि आपको टिकट मिले। आपके स्थान पर वो चन्द्रेश को टिकट दिलाने के लिए पूरा प्रयास कर रहे हैं। यह बात आपसे छुपाई जा रही है। इसीलिए टिकट पर कोई अन्तिम निर्णय अभी नही हो पा रहा है। इन्द्रेश के उस मित्र ने यह भी बताया कि यह भी आशंका है कि आपकी ओर से यदि कोई दावा प्रस्तुत नही किया गया तो चन्द्रेश के स्थान पर पार्टी किसी अन्य को टिकट दे सकती है, किन्तु चन्द्रेश को टिकट मिलना मुश्किल है। अब निर्णय आपके हाथ में है।

यह सब बातें बता कर वह चला गया। शालिनी सोचती रही कि वह क्या कर.े... क्या न करे....? बाबूजी तो इस विषय पर शालिनी का साथ नही देंगे। अतः उनसे कोई उम्मीद करना व्यर्थ है। पूरी रात वह इस विषय पर सोचती रही। निर्णय नही ले पा रही कि उसे क्या करना चाहिए। राजनीति में उसकी रूचि नही है। न ही उसे राजनीति की समझ है। वह निर्णय-अनिर्णय की स्थिति में त्रिशंकु की भाँति लटक कर रह गयी थी।

किन्तु दूसरे दिन वह घर वालों का पुनः वही अपमानजनक व्यवहार देखकर अन्तिम निर्णय ले चुकी थी तथा उस व्यक्ति के आने की प्रतीक्षा कर रही थी। लगभग प्रतिदिन वह यहाँ आता है। किन्तु जब उसकी आवश्यकता है तो अब नही दिख रहा है। तीसरे दिन वह व्यक्ति पुनः दिखाई दिया। शालिनी ने अवसर देखकर उसे अपनी इच्छा से अवगत् कराया तथा दूसरे दिन घर में किसी का बताये बिना माँ से मिलने के बहाने उसी व्यक्ति के साथ लखनऊ आकर पार्टी अध्यक्ष से मिलकर चुनाव में टिकट के लिए अपना दावा लिखित रूप से प्रस्तुत कर दिया।

अब तक उस अनाम व्यक्ति का नाम भी उसने ज्ञात कर लिया था। उस व्यक्ति का नाम राजेश्वर था। राजेश्वर की सलाह पर उसने सभी से यह बात गोपनीय रखी। उधर बाबूजी भी चन्द्रेश को टिकट दिलाने का पूरा प्रयास कर रहे थे। बड़े-बड़े नेताओं से मेल मुलाकात जारी रखे हुए थे।

चुनाव का वर्ष था। पार्टी मुख्यालय में उम्मीदवारों की भागदौड़ और अधिक तेज हो गयी थी। धीरे-धीरे पार्टी के उम्मीदवार तय होने लगे। उम्मीदवारों की सूची जारी होने लगी थी। इन्दे्रश सत्ताधारी पार्टी का विधायक था। लोगों का अनुमान था कि यही पार्टी पुनः चुनाव में विजयी हो सकती है। राजनीति के मद में ताऊजी इन्दे्रश को ही भूल गये थे तो भला शालिनी और उसके बच्चों के भले के लिए कहाँ तक सोचते या उनके भविष्य की फिक्र करते। उन्हें पूरा विश्वास था कि चन्दे्रश को टिकट मिल जायेगा।

ताईजी शालिनी की उपेक्षा करती रहतीं। पार्टी धीरे-धीरे उम्मीदवारों की सूची जारी करती जा रही थी। .....और एक दिन जो एक सूची जारी हुई और ताऊजी को ऐसा झटका लगा कि वो सम्हल न सके। उन्हें सोच-सोच झटके लग रहे थे कि न जाने कैसे चन्दे्रश के स्थान पर सूची में शालिनी का नाम था। पार्टी ने अवश्य कोई त्रुटि की है कि सूची में शालिनी का नाम चला गया है। शालिनी ने राजेश्वर की सलाह पर खामोशी धारण कर रखी थी। ताऊजी व ताईजी का व्यवहार शालिनी के प्रति और कठोर हो गया था।