मृगमरीचिका sudha jugran द्वारा सामाजिक कहानियां में हिंदी पीडीएफ

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मृगमरीचिका

“मृगमरीचिका”

‘वह‘ रवीना को रोज मॉर्निंग वॉक के समय दिखती। दिखती क्या...उसे देखने की आदत ही पड़ गई थी। उसका दिखना, रवीना की मॉर्निंग वॉक का एक हिस्सा बन गया था। वह जैसे ही मुख्य सड़क से दाईं तरफ छोटी सड़क पर मुड़ती, उसकी आंखें उसके मस्तिष्क को संदेश भेजने लगतीं। मस्तिष्क पटल पर उसकी तस्वीर बनती और आंखें उसे दूर तक तलाश करने लगतीं। रवीना को अधिक इंतजार नहीं करना पड़ता। हैरत की बात तो यह थी कि उससे आमना सामना हमेशा उसी छोटी सड़क पर ही होता। छोटी सड़क वास्तव में छोटी ही थी और आगे जाकर उसका विलय दूसरी मुख्य सड़क पर हो जाता था। एक तरह से यह सड़क दोनों मुख्य सड़कों को जोड़ने का काम करती थी। ‘वह‘ भी रवीना को उस मोड़ से इस मोड़ के बीच, शुरू या अंत...में कहीं भी मिल जाती।
15-16 साल की वह कमसिन लड़की मैला सलवार कुर्ता पहने, फटी चुन्नी एक कंधे पर डाल सामने से ढकते हुए कमर में लपेट, कस कर बांधे रखती। जिसमें से उसका नवयौवन बिना अंतर्वस्त्र के किसी को भी एक नजर देखने को मजबूर कर देता। साथ में चल रही उसी के जैसे मैला लंबा ढीला सा फ्रॉक पहने एक छोटी सी लड़की से वह अटर पटर न जाने किस भाषा में बात करती हुई चलती।
उसके कंधे पर एक बड़ा सा मटमैला सफेद रंग का थैला लटका होता। वे दोनों इतनी तेज चलतीं कि छण भर में ही उसके सामने से गुजर जातीं। उसकी देहयष्टि बहुत आकर्षक लगतीजैसे कीचड़ में कमल। लंबी छरहरी सांवली, तीखे नैन-नक्श वाली उस अल्हड़ किशोरी में भविष्य की एक खूबसूरत नवयौवना के दर्शन होते। रवीना उसे दूर से ही पहचान लेती। कुछ दिन न दिखती तो वह एक अनजानी आशंका से भर जाती। कहीं कोई अनहोनी न हो गई हो उस के साथ। उसका दिल करता उसे किसी दिन रोक कर उससे कोई बात करे। उसका नाम पूछे। पर फिलहाल उसने उसका नाम किशोरी रख दिया था।
कहां रहती होगी। इधर तो सब उच्च मध्यमवर्गीय परिवार रहते हैं। जरूर कहीं दूर से आती होगी। इधर मुख्य सड़क पर कूड़ेदान रखे रहते हैं। वहीं से कूड़ा बीनने आती होगी। उसे किशोरी से अनजाना सा जुड़ाव हो गया था। ब्रैंडेड ट्रैक सूट पहने, कंधों तक के बालों की एक पोनी बनाए मार्निंग वॉक पर जाती आधुनिका रवीना का जुड़ाव एक कूड़ा बीनने वाली लड़की से। बात अनोखी थी पर सत्य थी।
उसे युवा हो रही उस आकर्षक किशोरी की चिंता लगभग उसीकी उम्र की अपनी बेटी रियाना जैसी हो जाती। 14-15 वर्ष की रियाना उम्र के नाजुक दौर से गुजर रही थी। मानसिक, शारीरिक, भावनात्मक उतार चढ़ाव दिखाई दे जाते। वह अनायास ही रियाना की तुलना किशोरी से करने लगी थी। उसकी बेटी की उम्र की किशोरी भी तो इन्हीं दबावों से गुजर रही होगी। लेकिन उसकी बेसिर पैर की चिंताओं से बेखबर किशोरी सुबह फिर वही कपड़े पहने, उसी सांचे में ढली छोटी बहन के साथ अटर पटर बोलती बगल से निकल जाती।
आज रवीना 4-5 दिन बाद मॉर्निंग वॉक पर निकली थी। छोटी सड़क पर मुड़ते ही उसकी आंखे किशोरी को ढूंढने लगी। धीरेधीरे वह छोटी सड़क पार कर गई पर उसे किशोरी न दिखी। उसका मन अनमना सा हो गया। 3-4 दिन बीत गए, तब भी किशोरी न दिखी। आज तो पूरा एक हफ्ता बीत गया था। आज तो उसे जरूर मिलना चाहिए। उसका ह्रदय अनेकों आशंकाओं से गडमड हुआ जा रहा था। घर आकर उसने सुकेश से बात की। बेटी से कहा।
“तुम तो उस कूड़ा बीनने वाली लड़की के लिए ऐसे पागल हो रही हो...जैसे हमारी बेटी हो...अरे इन लोगों की जिंदगी ऐसी ही होती है। ये लड़कियां अधिकतर 10-12 साल की उम्र से ही कूड़ा बीनने लगती है। कई बच्चे तो 5-6 की उम्र से ही अपने वयस्क लोगों के साथ जातेजाते कूड़ा बीनना सीख जाते हैं। थोड़ी बड़ी होने पर तो पूरी घाघ हो जाती हैं। अधिकतर के मां या बाप में से एक ही होता है और किसी का तो कोई भी नहीं। थोड़ी बड़ी होकर धंधा भी करने लगती हैं कई तो..”
“छी कैसी बात करते हो...ऐसा कैसे सोच सकते हो किसी बच्ची के बारे में.. “रवीना को बुरा लग रहा था, तेजी से बोली।
“गलत क्या बोल रहा हूं....चोरी चकारी में भी पकड़ी जाती हैं....कहीं थाने में बंद न हो तुम्हारी किशोरी” सुकेश ने मामला मजाक में उड़ा कर रफा दफा कर दिया।
लेकिन रवीना के दिल से बात न निकली। वह बुझी हुई सी विचारमग्न बैठी ही रह गई। “रिलैक्स्ड मॉम...किस चिंता में पड़ गईं आप....मुझे विश्वास है आपकी वह फेवरेट कूड़े वाली जल्दी ही आने लगेगी” रियाना ने उसके कंधे थपथपाए और स्कूल जाने की तैयारी करने लगी।
कुछ दिन और बीत गए। लेकिन किशोरी का कहीं अता पता न था। कहां से पता लगाए उसका। रवीना की आशंका अब उद्गिनता को पार करने लगी थी। एक दिन वह पास की ही एक शॉप पर कुछ खरीद रही थी। तभी उसकी नजर सड़क के उस पार रद्दी वाले की दुकान पर पड़ी। ‘ओह उसे पहले क्यों नहीं आया इस दुकान का ध्यान...यह रद्दी का डीलर कूड़ा बीनने वालों से कूड़ा खरीदा करता है और फिर रीसाइक्लिंग उद्योग के लिए भेज देता है।
उतावली हो वह सड़क पार करने लगी। दुकान पर पहुंच कर वह उसके मालिक से कुछ पूछ पाती...तभी उसकी नजर दुकान की बगल वाली गली पर पड़ गई। वहां पर कूड़ा बीनने वाली 3 औरतें बीना हुआ कूड़ा छांट कर अलगअलग कर रहीं थीं। उनके साथ किशोरी के साथ दिखने वाली छोटी लड़की भी थी। उसे देख कर रवीना के अंदर अनायास ही कुछ बहने लगा। किशोरी की खबर जानने का संपर्क सूत्र सामने देख वह ऊपर से नीचे तक तनाव बह जाने से हल्की हो गई थी। वह झपट कर उनके पास गई पर हटात रुक गई। आखिर क्या बोले इनसे।
उसके अचानक सामने प्रकट हो जाने पर वे चारों उसे असमंजस से देखने लगीं। उनके चेहरों पर प्रश्न व शंका एक साथ दृष्टिगोचर हो रही थी। उनके चेहरों पर पसरी अजनबीयत ने उसे असहज कर दिया। तभी वह छोटी लड़की एक औरत के कान में फुसफुसाते हुए बोली,
“यह मैडम मुझे और दीदी को रोज मिलती है सुबह..” बाकि तीन चेहरे उसकी बात कुछ समझे, कुछ नहीं समझे। पर पूर्वत उसे घूरते रहे। लेकिन लड़की की बातों में पहचाने जाने के अहसास ने रवीना के अंदर छाती हुई शंकाओं को स्वर दे दिए थे। प्रकृतिस्थ होते ही उससे मुखातिब हुई,
“मुझे पहचान रही हो न बेटा...तुम्हारी दीदी कहां है? नजर नहीं आती आजकल...” लेकिन लड़की ने कोई जवाब नहीं दिया। वह उसे पूर्वत घूरती रही। अलबत्ता उस औरत ने, जिससे लड़की ने उसे पहचाने जाने की बात कही थी, बोली,
“सुगना से कुछ काम है क्या मेमसाब..?” ओह! सुगना नाम है उसका। रवीना को खुशी हुई...एक लापता लड़की का नाम जानकर। कुछ सोच कर बोली, “हां काम तो है सुगना से...बता सकती हो वो कहां है....और कब आएगी?”
“क्या काम है...?” कह कर वह पूर्वत कूड़ा छांटने लगी। उसका स्वर सपाट था। जैसे वह बात खत्म करने के मूड में हो। लेकिन रवीना हाथ आए इस अवसर को गंवाना नहीं चाहती थी।
“तुम मुझे इतना बता दो कि उससे कैसे मुलाकात हो सकती है?” रवीना सोच रही थी, वह आगे पूछेगी...क्यों मुलाकात करनी है। पर उसने ऐसा कुछ नहीं पूछा। दोनों तरफ आशंकाएं सिर उठा रही थीं। फिर शायद उस औरत की आशंका को कोई विश्वास का सूत्र मिल गया था। लड़की इन्हें पहचानती है। बोली,
“उसका फोन नंबर लिख लो..” वह अपना डिबिया वाला बदरंग सा मोबाइल कमर से निकाल कर रवीना की तरफ बढ़ाती हुई बोली। मुझे नहीं आता देखना। उसीने अपना नंबर मेरे मोबाइल में भर दिया था। रवीना को आश्चर्य और खुशी एक साथ हुई। इन सबके पास मोबाइल है। क्यों नही होगा, ये लोग भी तो आखिर कामकाजी हैं। मोबाइल इनके लिए भी जरूरी है। उसने सुगना नाम से नंबर ढूंढा और अपने मोबाइल में सेव कर लिया। उसने देखा औरत के मोबाइल में जरूरत भर के ही नंबर थे।
“लेकिन सुगना काफी दिन से नहीं आ रही....आखिर क्या बात है?” मोबाइल वापस देते हुए वह बोली। उसे लगा, अब कुछ जान-पहचान हो गई है तो कारण जरूर बता देगी।
“उसके दोनों हाथ बहुत जख्मी हो गए हैं मेमसाब...इलाज करवा रही है। काम पर आ सकने के लायक नहीं है। इसीलिए तो उसकी बहन आ रही है कूड़ा बीनने” बोलते हुए उस औरत के चेहरे पर सुगना के लिए कोई दर्द नहीं उभरा। उसकी बात सुन और तटस्थता देख उसका खुद का दर्द और गहरा हो गया था।
“कैसे जख्मी हो गया... चोट बहुत ज्यादा है क्या?”
“बहुत ज्यादा क्या और कम क्या....हमारे काम में तो यह खतरा बना ही रहता है”
“कूड़ा बीनने में खतरे वाली कौन सी बात है?” उसे बात समझ नहीं आई।
“खतरा कैसे नहीं....कूड़ा बीनते हैं, फूल नहीं चुनते...सुगना का ही देख लो”
“बताओ तो सही क्या हुआ उसे?” वह व्यग्र हो रही थी।
“लोग भी टूटा कांच...जहरीली चीजों को अलग नहीं कर पाते...सुगना एक पॉलिथीन के अंदर हाथ डाल कर अंदर की चीजें बाहर निकालने की कोशिश कर रही थी। अंदर किसी एसिड जैसी चीज की बोतल थी। जो उसके हाथ में उठाते ही टूट गई और जो कुछ उसके अंदर था। उसके दोनों हाथों में गिर गया। कितनी तड़फी बेचारी दर्द और जलन के मारे और कांच टूटने से उसके हाथ कई जगह से कट गए” रवीना का ह्रदय अंदर तक पसीज गया।
घर आते समय सोच रही थी, उससे बात करके उसके घर का पता पूछ कर उसके घर जाएगी। जो मदद बन पड़ेगी, कर देगी।
घर आकर सुगना का नंबर मिलाने की उतावली ऐसी थी कि पहुंचते ही उसने सुगना का नंबर लगा दिया। 2, 3 कॉल के बाद फोन उठा। सुगना की आवाज सुनकर रवीना को लगा उसे शाम तक इंतजार कर लेना चाहिए था। तब तक उसकी छोटी बहन आज सुबह का वाकया उसे सुना देती तो उसे अपना परिचय देने में आसानी होती।
“सुगना.., वह आराम से बोली, “मैंने तुम्हारी बहन से तुम्हारा नंबर लिया...तुमसे कुछ बात करना चाहती हूं..मिल सकती हो?”
”क्या काम है..” उसकी आवाज बेहद शुष्क थी, ”मेरे चोट लगी है...मैं आजकल कूड़ा बीनने के लिए भी नहीं जा रही हूं”
“हां बताया तुम्हारी बहन ने...तुम कहां रहती हो...मैं आ जाती हूं तुमसे मिलने” सुगना की तरफ से चुप्पी थी। शायद वह अपने अंदर ही उत्तर ढूंढ रही थी कि मैं उससे क्यों मिलना चाहती हूं।
“क्या काम है आपको....मैं तो आपको जानती भी नहीं..”
“तुम मुझे पहचान जाओगी...सुबह जब तुम कूड़ा बीनने जाती हो तो मैं सैर पर जाती हूं” सुगना को शायद कुछकुछ पहचाने जाने का अहसास हो गया था। बोली,
“जब हाथ ठीक हो जाएंगे...तब काम पर जाऊंगी” ‘तब ही मिलूंगीं’...यह उसकी बात खत्म करने के बाद की चुप्पी में छुप गया था। रवीना समझ गई। सुगना को उसमें कोई दिलचस्पी नहीं। उसके जैसी लड़कियां रवीना जैसी हैसियत की महिलाओं की मंसा में सिर्फ स्वार्थ ही ढूंढ सकती है। फिर भी उसने एक कोशिश की,
“दरअसल मेरी एक फ्रेंड डॉक्टर है...” उसने थोड़ा सा झूठ का सहारा लिया, ”मैं तुम्हारी मदद करना चाहती हूं...तुम्हारा इलाज ठीक से होगा तो तुम जल्दी ठीक हो जाओगी” सुगना चुप रही।
“तुम्हारी इतनी छोटी सी बहन कूड़ा बीनती है...क्या तुम्हें अच्छा लगता है...तुम्हारा घर कहां है,मुझे बस अंदाजा देदो”
“सूखी नदी के पार जो मलिन बस्ती है...वहीं रहती हूं...मेरे नाम से कोई भी बता देगा” सुगना ऐसे बोली जैसे वह कोई नामचीन हस्ती हो।
रवीना जब सुगना के बताए अनुसार उसकी बस्ती में पहुंची तो विश्वास नहीं कर पा रही थी कि ऐसे भी लोग रहते हैं,जीते हैं और खुश भी रह लेते हैं। गंधाती नालियां, भिनभिनाती मक्खियां मच्छर, नंगे पैर घूमते नंग-धड़ंग बच्चे। एक-दूसरे के सिर पर जूं मारती स्त्रियां। घरों की दीवारें कहीं टीन की हैं तो कहीं बांस की टट्टियां लगीं हैं। दरवाजों की जगह मोटे गंदे परदे झूल रहे। कहीं पुरानी चादर ही दरवाजे का काम कर रही हैं। शायद यह भी उन्हें कचरे से मिला हो। कचरे के जिस ढेर के सामने से गुजरते हुए उस जैसे लोग नाक मुंह रुमाल से ढक लेतें हैं उसी गंधाते ढेर के बीच सुगना जैसे लोगों की पूरी जिंदगी सांस लेती है।
गंदगी से बचते बचाते, मुंह नाक, रुमाल से ढक कर उसने एक बच्चे को सुगना का घर बताने के लिए कहा तो बच्चा इतनी तत्परता से चल दिया जैसे इन फिल्म हीरोइन सी लगती मेमसाब को सुगना का घर बताने जैसा महत्वपूर्ण काम उससे छूट न जाए। बाकि बच्चे भी उनके पीछेपीछे चल दिए थे। इधरउधर बिखरी महिलाएं उसे आश्चर्य से देख रहीं थीं। शायद ये सब उसे किसी समाज सेवी संस्था की कार्यकत्री समझ रहे हैं।
सुगना के पर्दे वाले दरवाजे पर खड़े होकर 3-4 बच्चे सप्तम सुर में आवाज देने लगे, “सुगना दीदीइइइइ...सुगना दीदीइइइइइ”
“क्या है...” सुगना बच्चों को 2-4 गालियां देती बाहर निकली और उसे देख कर ठिठक गई। लेकिन रवीना उसके घर को परख रही थी। उसके लिए जीवन का यह सर्वथा एक नया अनुभव था। सुगना का घर भी किसी कूड़े के ढेर से कम न था। जिसमें पर्दे से लेकर छत बनाने में भी अनेकों कूड़े से मिली चीजों का इस्तेमाल हुआ था।
उसे देख कर सुगना ने सभ्यता की दिशा में कदम बढ़ाते हुए हाथ जोड़े। उसके हाथ वास्तव में बहुत जख्मी थे। कटे हुए और जले हुए भी। रवीना के ह्रदय में मिला जुला सा कुछ पिघल गया। उसने हाथ में पकड़ा दवाइयों का पैकेट उसकी तरफ बढ़ा दिया साथ में कुछ रुपए भी। रुपए देख सुगना की आंखों में आत्मीयता पिघल गई। परदा पूरा हटा पैकेट पकड़ लिया।
“मैं तुम्हें समझा देती हूं...कौन सी दवाई कब लगानी है” वह कैमेस्ट को पूछ कर अंदाजे से 2-3 मरहम ले आई थी। पर सुगना को तो सचमुच डॉक्टर को दिखाने की जरूरत थी, “तुम्हारे जख्म तो बहुत ज्यादा है...कल मेरे घर पर आ जाओ। मैं तुम्हें डॉक्टर को दिखा दूंगी”
सुगना के कहने पर एक बच्चा अंदर से एक मैली सी प्लास्टिक की कुर्सी उठा लाया। कुर्सी का एक हत्था प्लास्टिक की डोरी से बंध कर सुशोभित हो रहा था।
“बैठिए मेमसाब...पानी लाऊं..?” रवीना को अंदर से उबकाई आ गई। दलित, गरीब के घर में भोजन करते अखबार में छपे राजनेताओं के फोटो उसके मस्तिष्क पटल पर कौंध गए। वे प्रोग्राम तो सब प्री प्लान्ड होते हैं। यहां आकर कोई नेता एक गिलास पानी भर पी ले सचमुच में। वह सच्चे मन से सुगना की मदद करने आई है। पर गंदगी व बीमारियों के ढेर पर बैठे इन लोगों के घर में पानी तो वह भी नहीं पी सकती।
“नहीं मैं ठीक हूं...” हटे पर्दे से रवीना की कुतूहल भरी नजरें अंदर का मुवायना कर रही थी। पन्नियां...फटे हुए कुशन कवर, चादरें, टूटी मेज, पुराने बरतन, किनारे पर रखे प्लास्टिक के 2, कप..एक बड़ा कप जिस पर बार्बी डाॅल बनी थी। साफ लग रहा था कि अधिकतर वही सामान है जो लोग कूड़े में फेंक देते हैं। सुगना को अपनी नजर का पीछा करते देख उसने नजरें हटा लीं।
“तुम कल आना...मेरा मोबाइल नंबर है तुम्हारे पास...जब उस छोटी सड़क पर पहुंच जाओ तो फोन कर देना। मैं घर समझा दूंगी” कह कर वह वापस पलट गई। सुगना ने कोई प्रतिक्रिया जाहिर नहीं की थी। इसलिए वह समझ नहीं पा रही थी कि वह आएगी भी या नहीं। वह उससे बहुत सी बातें करना चाहती थी। उस सुंदर लड़की में उसकी दिलचस्पी बढ़ गई थी। यह इतनी सुंदर कैसे है, जबकि छोटी बहन साधारण सी लगती है।
“हो सकता है माता पिता में से एक सुंदर रहा होगा...एक नहीं” रवीना रात में सुकेश से बातचीत करती हुई बोली। दोनों बाप बेटी ने पहले तो उसकी खूब टांग खींची, ”मम्मी की फेवरेट कूड़े वाली मिल गई...चलो एक समस्या तो खत्म हो गई लेकिन दूसरी शुरू हो गई, आखिर वह सुंदर कैसे है” सुकेश ने बहुत अर्थपूर्ण नजरों से रवीना की तरफ देखा जिसमें एक रहस्यमय परिहास घुला था।
“मम्मी मेरे खयाल से आपकी इस खूबसूरत फेवरेट कूड़े वाली को भी सबसे सुंदर लड़की की तरह चुना जा सकता है...क्योंकि मैंने पढ़ा था कि चीन के एक लोकप्रिय इंटरनेट पोर्टल ने कूड़ा बीनने वाली एक तिब्बती लड़की को एक वीडियो में शंघाई एक्सपो में इधरउधर फेंकी बोतलों को चुनते देख उसे सबसे सुंदर लड़की घोषित किया था। पर्यावरण को स्वच्छ रखने के उसके प्रयास की बहुत सराहना भी हुई थी” रवीना बोली।
रवीना ने बाप बेटी को शह नहीं दी। वह कल आने वाली सुगना के बारे में सोच रही थी। लेकिन दूसरे दिन वह इंतजार ही करती रह गई। सुगना नहीं आई। फोन मिलाया तो उठा नहीं। आॅफिस से घर आए सुकेश उसको व्यर्थ चिंतित देख नाराज हो गए।
“तुम आजकल ये क्या जंजाल ले बैठी। जब आ जाएगी तो थोड़ा बहुत पैसे की मदद और कर देना। इस तरह हर वक्त उसके बारे में सोचना बंद करो” सुकेश एकाएक तल्ख से हो गए।
“सुकेश, क्या ऐसा नहीं हो सकता कि हम उन बच्चियों की मदद करें...उनको पढ़ाएं लिखाएं...एक नोबल वर्क होगा”
“वो कूड़ेवाली बुलाने पर भी नहीं आई और तुम पर तो बहुत आगे का फितूर शुरू हो गया...अरे इन सबको अपनी जिंदगी ऐसे ही प्यारी होती है...थोड़ा बहुत पैसे की मदद कर दो बस...स्कूल में डालना क्या इतना आसान है...एक बार स्कूल में नाम लिखा कर उनकी निगरानी करोगी कि वे स्कूल जा भी रहीं हैं या नहीं...”
“क्यों नहीं जाएंगी स्कूल...इन बच्चों के बारे में क्या सभ्य समाज को सोचना नहीं चाहिए?”
“किसकिस के बारे में सोचोगी....भारत में कूड़ा बीनने वालों की संख्या 15 से चालीस लाख के बीच है....जिसमें से चालीस फीसदी महिलाएं और तीस फीसदी कम उम्र की लड़कियां कूड़े के ढेर में सशक्तिकरण तलाश रही हैं। अकेले दिल्ली में करीब पांच लाख लोग सड़क पर कूड़ा बीनते हैं। कितनी बच्चियां वर्णमाला का ककहरा सीखने से पहले यौन संबधों का ककहरा सीखने लगती हैं..” सुकेश रोष में बोले।
“इसीलिए तो दिल दुखता है मेरा....जब हमारे बच्चे स्कूल बैग और पानी की बाॅटल लेकर स्कूल ड्रेस में सजकर स्कूल जाते हैं...ये बच्चे कंधे पर कूड़े वाला बैग लेकर, कूड़े के ढेर में हमारे घरों से फेंकी हुई चीजों में अपना अपंग भविष्य तलाश रहे होते हैं। सोचो सुकेश इस अनौपचारिक क्षेत्र ने देश को कूड़ादान बनने से बचाया हुआ है....खुद बीमारियों व गंदगियों से गलबहियां करके हमें स्वच्छ वातावरण मुहैया कराया है और हम हमारा समाज इन्हें देख नाक भौं सिकोड़ता है...इनकी मुश्किलों से अनभिज्ञ ही रहना चाहता है” रवीना भी तल्ख हो गई।
रवीना को उन बच्चियों के प्रति इतना गंभीर व भावुक देख सुकेश चुप हो गए, “तुम्हें जो ठीक लगता है करो” कह टीवी के चैनल बदलने लगे।
रवीना अगले दिन भी सुगना की इंतजार करती रही। सुगना पूरे तीन दिन बाद आई। कूड़ा बीननेवालियों को उनकी कर्मस्थली के आसपास रहने वालों का हल्काफुल्का ज्ञान रहता है। इसलिए उसने सीधे घर पहुंच कर घंटी बजा दी। रवीना गेट पर गई तो सुगना को देख कर चैंक गई।
“अरे सुगना तुम....तीन दिन से तुम्हारा इंतजार कर रही हूं...क्यों नहीं आई?”
“मेमसाब हाथ आपकी दी हुई ट्यूब से ठीक हो रहे थे...डाॅक्टर को दिखाने की जरूरत नहीं थी”
“अरे, पर आना तो चाहिए था....फिर आज कैसे आ गइ?”
“काम नहीं है मेमसाब...कूड़ा बीनने लायक नहीं हुई अभी...ये छुटकी अधिक नहीं कर पाती है। मैंने सोचा आप घर का कोई काम दे देंगी तो पेट भरने लायक हो जाएगा”
रवीना का ह्रदय पसीज गया। सुगना शायद कभी नहीं आती अगर पेट की भूख उसे मजबूर नहीं करती। ”तुम दोनों यहां बरामदे में बैठो, मैं कुछ खाने को लाती हूं” दोनों बहने भूखी थीं बैठ र्गईं।
रवीना ने एक प्लेट में सब्जी रोटी डाल कर उन्हें दे दी, एक बोतल पानी की पकड़ा दी। दोनों भूखी थीं। जल्दीजल्दी खाने लगी। वह वहीं कुर्सी पर बैठ गई। रोटी सब्जी खाकर दोनों ने पानी पिया और तृप्त हो गई। पेट भरने की तृप्ति कुछ अलग ही भाव से चेहरे को भर देती है। रवीना उनमें आए परिवर्तन को देख रही थी।
“मेमसाब कोई काम है...बाहर की सफाई या बागवानी का काम भी अच्छे से कर लूंगी..”
“पर तुम्हारे हाथ तो जख्मी हैं?”
“दोनों बहने मिल कर लेंगी...ये छुटकी जिन औरतों के साथ कूड़ा बीनने जाती है...वे इसका पूरा हिस्सा नहीं देती हैं....पैसे मार जातीं हैं इसका..” रवीना उन दोनों के लिए शिक्षा अर्जित करने का साधन ढूंढ रही थी और वे सिर्फ धन अर्जित करने की बात सोच रहीं थीं। उनके सामने मस्तिष्क की भूख कोई मायने नहीं रखती थी।
“मैं तुम दोनों बहनों को स्कूल में पढ़ाऊंगी...जाओगी स्कूल?” दोनों ने अपनी अजीब सी निगाहें उसके चेहरे पर बिछा दी।
“मेमसाब स्कूल जाएंगे तो खाएंगे क्या?” सुगना थोड़ी देर बाद बोली, ”मैंने छटी पास कर रखी है...और इस छुटकी ने दूसरी....मेरे बापू की छोटी सी चाय की दुकान थी। हम दो बहने और सबसे बड़ा मेरा भाई। मेरे पिताजी बीमारी में एक दिन मर गए। मां ने दुकान संभाली पर भाई गलत संगत में पड़ गया। मां के पैसे चुरा कर गुंडे दोस्तों के साथ उड़ा देता। हम दोनों बहने स्कूल जाती थीं। भाई के गुंडे दोस्त हमारा पीछा करते फिकरा कसते। बापू के जाते ही सबकुछ बदल गया। मां हमें लेकर यहां आ गई। लेकिन एक दिन मां भी मर गई और हम दोनों बहने ही रह गईं” एक सांस में अपनी कहानी सुना सुगना की विरान आंखों में चंद कतरे उन सुनहरे लम्हों की याद में तैर आए थे।
“मै तुम्हारा स्कूल का खर्चा उठाऊंगी... घर का कुछ काम भी दूंगी...तुम पैसा भी कमा लोगी और पढ़ भी लोगी” रवीना ने हसरत से सुगना की तरफ देखा।
“लेकिन पढ़ कर क्या होगा...कोई मास्टरनी तो बन नहीं जाऊंगी...इस छुटकी को डाल दो स्कूल में...मैं तो अब बड़ी हो गई” सुगना की आंखें अर्थपूर्ण गहरी मुस्कुराहट से भर गई।
“इतनी बड़ी भी नहीं हुई है....मैं तुम दोनों को घर पर भी पढ़ाऊंगी”
“लेकिन आप हमें क्यों पढ़ाना चाहती हैं..” सुगना एकाएक उकता कर बोली। रवीना असमंजस में पड़ गई। इन्हीं की भलाई के लिए इन्हें स्पष्टिकरण भी देना है।
“तुम दोनों बहुत अच्छी हो...कूड़ा बीनने में अपना जीवन खराब कर रही हो...आखिर शिक्षा पर तो हर बच्चे का अधिकार है” रवीना ने अपनी दलील दी।
“पढ़ भी लेंगे तो भी क्या..?” सुगना किसी बड़ी बूढ़ी की तरह बोली। ”पढ़ लिख कर कूड़ा बीनेंगे। पेट भरने के लिए काम तो करना ही पड़ेगा न मेमसाब। खूब पढ़े लिखों को तो नौकरियों के लाले पड़े रहते हैं....फिर दसवी, बारहवीं करके हमें कौन सी नौकरी मिलेगी....न घर के रहेंगे न घाट के” अल्पशिक्षित सुगना की दलील से अल्प समय के लिए वह निरूत्तर हो गई।
काफी हील हुज्जत हुई। दोनों ने एक दूसरे के तर्क काटे। अपनी दलीलें दी। आखिर सुगना चुप हो गई।
“ठीक है मेमसाब...लिखा दो हमारा नाम स्कूल में...” रवीना को लगा, एक बड़ी जंग जीत ली। सुकेश को बताया। रियाना ने सुना तो बोली, ”मम्मी ऑल द बेस्ट...आई होप कि आपकी ये कूड़े वालियां रोज स्कूल चली जांए”
रवीना ने दोनों का नाम स्कूल में लिखा दिया। उनके लिए ड्रेस, स्कूलबैग, जूते किताबें आदि सब जरूरत का इंतजाम कर दिया। कुछ नए कपड़े भी खरीद दिए। अपने घर में बाहर की साफ सफाई का व फूल पौधों में पानी डालना, खरपतवार साफ करना आदि का काम उन्हें पकड़ा दिया ताकि उनकी कुछ आमदनी होती रहे।
वह खुश थी। उसने जो सोचा कर दिखाया। लड़कियां सुबह शाम में उसके घर नियम से आतीं। काम करती और उससे पढ़ती। दोनों बहनों को पढ़ाई छोड़े हुए बहुत समय हो गया था। इसलिए बहुत मेहनत से भी हासिल थोड़ा ही हो पाता। रवीना ने अपना सौ पतिशत लगा दिया उन्हें साक्षर बनाने में। दो महीना बीततेबीतते वह निश्चिंत हो गई। अब पढ़ाई से नहीं भागेंगी।
बनारस में भाई की बेटी की शादी पड़ गई। उसने लड़कियों को खूब होमवर्क दे दिया। कुछ रुपए भी दिए। पीछे से किसी बात के लिए परेशान न होना। 12-15 दिन बनारस लगा कर आई। आते ही सुगना को फोन किया। फोन आउट ऑफ रेंज आता रहा। स्कूल में पता किया तो पता चला दोनों बहने पिछले एक हफ्ते से स्कूल नहीं आ रहीं। दूसरे दिन रवीना उनकी बस्ती में पहुंच गई। सुगना के घर के आगे खड़े होकर सुगना को आवाज दी। छोटी बहन निकल कर आई।
“तुम दोनों स्कूल क्यों नहीं जा रही हो। सुगना कहां है?” वह रोष में बोली।
“सुगना दीदी भाग गई किसी के साथ...” वह बिल्कुल सपाट स्वर में बोली। जैसे एक उम्र के बाद भाग जाना एक सामान्य प्रक्रिया है...उनका विधिवत व्याह आखिर कौन करेगा। रवीना हतप्रभ रह गई। मात्र 15 साल की सुगना का भविष्य आंखों के आगे नाच गया।
दो दिन की चांदनी भी नसीब होगी या नहीं उसे। नसे में पिटती सुगना, पेट की आग बुझाने के लिए फिर से कूड़ा बीनने लगी है। ढेर सारे बच्चे पैदा कर कृषकाय सुगना....एक बार फिर इसी खोली में आ गई। फर्क सिर्फ इतना कि आंखों में अनदेखे सपनों का स्थान अब बच्चों की भूख ने ले लिया था। वह अपनी मां की कहानी दोहराने लगी है।
“तुम किसके साथ रहती हो...” थकी सी आवाज में वह बोली।
”मैं अपनी खोली में ही रहती हूं...पड़ोस में नर्मदा मौसी है। मौसी तो अच्छी है पर मौसा अच्छा आदमी नहीं है” छुटकी के कथन पर रवीना सकते में आ गई, छुटकी की आवाज में कुछ रहस्य था। उसने आंखें उसकी आंखों से मिलाई। उसकी आंखों में दहशत के चिन्ह साफ नजर आ रहे थे।
“तुम क्यों नहीं गई स्कूल..” वह थकी हुई आवाज में बस इतना ही बोली।
“मौसी ने ना किया...सुबह अपने साथ कूड़ा बीनने ले जाती है”
अबकी बार रवीना कोई जिरह नहीं कर पाई। दिल में आया कहे, ‘मेरे साथ रहोगी‘? लेकिन समझ में भी आ रहा था, यह इतना सरल नहीं है। अपनी मर्जी से ये बाल श्रम कर रहे हैं पर उसकी साफ नियत पर भी कौन भरोसा करेगा। चाइल्ड लेबर का ठप्पा लग जाएगा। होम करते हाथ वह भी नहीं जलाना चाहती। दूर से ही मदद ठीक है जो बन पाएगा। बहुत किंतु परंतु है....और वो मौसा? कितने दिन दूर से दुलराएगा इसे.....।
घर आते रवीना के कदम मनों भारी हो रहे थे।

सुधा जुगरान
देहरादून
उत्तराखंड