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अंधेरे में खिलता गुलाब

“अंधेरे में खिलता गुलाब”

उससे शिवांगी की मुलाकात बैंक में हुई थी अपने डेविट कार्ड में आ रही परेशानी को ठीक करवाने के दौरान। वह डेविट कार्ड से कोई भी ऑनलाइन पेमेंट नहीं कर पा रही थी। बैंक से ओटीपी के मेसेज नहीं आ रहे थे। परेशान सी वह बैंक पहुंची। पूछताछ कर पता चला कि इस तरह की परेशानी को 17 नं वाले सीनियर मैनेजर मि.रित्विक देखेंगे। अपनी परेशानी लेकर वहां पहुंची तो 17 न. सीट पर एक थोड़ा गदबदा, गोरा, सुंदर सा लड़का काला चश्मा लगाए कंप्यूटर पर काम कर रहा था। दो तीन लोग कांउटर के सामने खड़े थे। वह उनसे पूछ कर उनकी परेशानी का निदान कर रहा था।
अंदर इतना काला चश्मा लगाए देख उसे कुछ अटपटा तो लगा लेकिन ध्यान फिर भी अपने काम पर अधिक था। वह रित्विक के खाली होने का इंतजार करने लगी। वह खाली हुआ। लेकिन उसे कंप्यूटर से उलझे देख वह कुछ बोलने का सोच ही रही थी कि उसीने पूछ लिया,
“कहिए क्या परेशानी है?”
“मेरा डेविट कार्ड काम नहीं कर रहा है”
“ठीक है मैम आप इधर बैठिए...” वह एक स्टूल उसकी तरफ खिसकाता हुआ बोला, “अब जो डीटेल पूछूं बताते जाइए”
वह कभी कार्ड नं, कभी अकांउट न. पूछ रहा था और कंप्यूटर पर कुछ करता जा रहा था। उसका मोबाइल व कंप्यूटर से लगातार कुछ साउंड आ रही थी। वह क्योंकि उसकी बगल में बैठी थी और वह सीधा बैठा कंप्यूटर स्क्रिीन पर देख रहा था। इसलिए उसकी नजर काले चश्मे के अंदर से होती हुई उसकी आंखों तक चली गई। मि. रित्विक ब्लाइंड था। शिवांगी सिहर कर प्रस्तर प्रतिमा बन उसे थोड़ी देर अपलक निहारती रह गई। रित्विक के कंप्यूटर व मोबाइल पर स्क्रीन रीडिर सॉफ्टवेयर का उपयोग हो रहा था। जो ब्लाइंड लोगों के लिए होता है। जैसे उनकी पुस्तकें ब्रेल लिपि में होती है।
“क्या हुआ मैम...?” रित्विक मुस्कुराता हुआ पूछ रहा था।
“नहीं, कुछ नहीं...” वह हड़बड़ा गई।
“मैं आपसे कुछ कह रहा हूं...पर लगता है आपका ध्यान कहीं और है” उससे जवाब देते न बना। क्या बताए कहां खो गई थी वह...अपने मन के अंधेरे में गुम हो गई थी.
“हां तो मैं कह रहा था कि आप बैंक के रीजनल ऑफिस में चले जाइए...वहां मैं मिस लतिका जी को फोन कर देता हूं...आपकी यह समस्या वहीं से ठीक होगी। दरअसल बैंकों के मर्ज होने के कारण यह समस्या बहुतों को आ रही है।
“ठीक है....दूसरे दिन वह बैंक की रीजनल ऑफिस में पहुंच गई। मिस लतिका को रित्विक फोन पर उसकी समस्या बता चुके थे, इसलिए वह उसका इंतजार कर रही थीं। लतिका ने अपने सामने बिठा कर उससे कई बार ऑनलाइन पेमेंट करवाया और कंप्यूटर पर चेक करती रही, लेकिन सफलता नहीं मिली।
“मैम आप जब पेमेंट इनीशिएट करती हैं तो हिट होता है लेकिन आपको ओटीपी नहीं जा पाता है। मैं पूरी कोशिश कर रही हूं। आप घर जाकर कोशिश कीजिए। लेकिन जब भी करें स्क्रीन शॉट्स जरूर ले लेकर मुझे भेज दें ताकि मुझे फॉल्ट पता चलता रहे। एक दो दिन में आपकी प्रॉब्लम दूर हो जाएगी।
“ठीक है” कह, वह अपने पीजी हॉस्टल वापस आ गई।
नई-नई नौकरी थी। बीएससी के बाद उसने ओएनजीसी में इस पोस्ट के लिए प्रतियोगी परीक्षा दी थी और सलेक्ट हो गई थी। थक कर कुर्सी पर ढेर होती शिवांगी सोच रही थी। आज तो उसने अपने इस काम के लिए छुट्टी ले ली थी। लेकिन रोज तो ऐसा नहीं कर सकती। अनाथालय में होश संभालती शिवांगी जब दुनिया को अपनी नजरों से नापने तोलने लायक हुई तो समझ गई कि इस संसार में खून के रिश्तों का उसके लिए कोई मतलब नहीं हैं। जो भी रिश्ते इस नश्वर संसार से बने वे सब अनाथालय ने ही दिए। केदारनाथ आपदा में अपनों से बिछुड़ी शिवांगी तब इतनी छोटी भी न थी कि उसे बिल्कुल भी कुछ याद न हो, लेकिन वह याद करना नहीं चाहती। अपनी आंखों के सामने उस गरजन-तरजन में काल के गाल में समाते, लुप्त होते अपने माता-पिता व छोटे भाई को उसने अपनी आंखों से देखा था।
उसे एक अनाथ उम्र देने के लिए ही शायद विधि ने उसे उम्र दराज की थी। उस भयानक आपदा के उन बचे हुए लोगों में जिनको लेने या ढूंढने कोई नहीं आया था, वह भी एक थी। उसके साथ उससे छोटी व बड़ी उम्र के लड़कियां व लड़के भी उस अनाथालय की संख्या बढ़ाने आ गए थे। आपदा से बच कर आए बच्चे अजीब सी मानसिक यंत्रणा में फंस गए थे। जो अधिक छोटे थे वे अपनों के लिए रोते, उसके जैसी उम्र वाले त्रासदी को याद कर डर से सिहर कर रोते। बहुत समय लगा था उस मंजर को भुलाने में।
बस एक उसकी कुशाग्र बुद्धि को आपदा न लील पाई और जब उसने स्कूल में पढ़ना शुरू किया तो सभी उसकी बुद्धि की तीब्रता से दंग रह गए। उन्हीं दिनों एक सज्जन साल में दो बार अनाथालय आते और कुछ धन दे जाते। उनका युवा बेटा कम उम्र में काल कलवित हो चुका था। जिसकी याद में वे अनाथालय के बच्चों पर अपना स्नेह इस रूप में लुटाते थे। उसी दौरान उन्होंने एक दिन अनाथालय के मैनेजर से अपनी यह इच्छा व्यक्त की कि वे एक अच्छे पढ़ने वाले बच्चे की शिक्षा की पूर्ण जिम्मेदारी उठाना चाहते हैं। विशेषकर अगर वह बेटी हो तो उन्हें अधिक खुशी होगी। मेरे बेटे के नाम पर किसी अनाथ बच्ची का जीवन संवर जाएगा। तब मैनेजर अंकल ने उन्हें शिवांगी का नाम सुझाया था,
“बहुत ही होनहार बच्ची है...केदारनाथ आपदा में अनाथ होने वाले बच्चों में वह भी थी। किसी अच्छे घर की बच्ची लगती है। बहुत ही संस्कारी व मेहनती बच्ची है, अगर आप उसकी शिक्षा की जिम्मा ले सकें तो मुझे व्यक्तिगत रूप से खुशी होगी”
बस उसी दिन से शिवांगी तिवारी अंकल की मुंहबोली बेटी बन गई। तिवारी जी ने उसकी शिक्षा की ही नहीं अपितु सभी जरूरतों की जिम्मेदारी ले ली। लेकिन शिवांगी के भाग्य ने एक बार फिर उसे अंगूठा दिखा दिया। वह बीएससी फाइनल में थी कि तिवारी जी की ह्रदयगति रुकने से देहांत हो गया। अभी तक दूर से ही सही लेकिन तिवारी जी की छत्रछाया का रक्षाकवच उसकी रक्षा अनाथालय के अंदर भी करता था। लेकिन अब युवा व खूबसूरत शिवांगी को बदलते माहोल का जायजा लेने में देर न लगी। उसने निश्चय कर लिया, बीएससी के बाद जैसे भी हो उसे नौकरी चाहिए, जिससे वह इस जगह से बाहर निकल कर आत्मनिर्भर बन सके। किस्मत से वह इस प्रतियोगी परीक्षा में सलेक्ट होकर देहरादून आ गई थी और पीजी हॉस्टल में रहने लगी। उसे अभी नौकरी करते हुए मात्र छै महीने ही हुए थे।
लेकिन अचानक उसके डेविट कार्ड के इस्तेमाल में परेशानी आने लगी और उसकी मुलाकात रित्विक से हो गई। कुर्सी पर लस्त-पस्त लटकी शिवानी के जेहन में इस समय रित्विक का मुस्कुराता हुआ चेहरा तैर रहा था। उसे कंप्यूटर पर काम करते देख कोई भी उसकी चश्में के पीछे के अंधेरों के बारे में सोच भी नहीं सकता। उससे 3-4 लोग एक साथ बात कर रहे थे और वह सबकी आवाजों को अलग-अलग पहचान रहा था। एकदम सहज बातचीत...लग ही नहीं रहा था कि वह सामने खड़े लोगों को अलग-अलग नहीं देख पा रहा है। अद्भुत....अगर उसने खुद नहीं परखा होता तो उसे विश्वास नहीं होता।
एकाएक उसे रित्विक के प्रति उत्सुकता जग गई। उसका दिल किया उसके बारे में जाने...उसके घर परिवार के बारे में...और यह भी कि वह अपनी दिनचर्या में आने वाली चुनौतियों को कैसे पूरा करता है।
वह एक-दो दिन अपने डेविट कार्ड को इस्तेमाल करने पर लगी रही और मिस लतिका से संपर्क बनाए रही। आखिर एक दिन उसके डेविट कार्ड ने काम करना शुरू कर दिया। उसने चैन की सांस ली। फोन पर लतिका जी को धन्यवाद कर वह लंच टाइम में रित्विक को धन्यवाद देने के बहाने मिलने चली गई। रित्विक अपने काम में व्यस्त था। पास जाकर उसने धीरे से, “हैलो” कहा,
सोचा देखें इतना भर बोलने से वह उसे पहचान पाता है या नहीं। लेकिन उसका हैलो सुनते ही निष्पाप सी मुस्कान उसके होंटो पर बिखर गई।
“आइए मैम...आपका काम तो हो गया...लतिका जी का फोन आ गया था” वह अचंभित सी उसे निहारती रह गई।
“कैसी हैं आप...?” उसे चुप देख कर वह आगे बोला।
“बिल्कुल ठीक हूं....आपका धन्यवाद देने आई थी”
“मुझे धन्यवाद देने के लिए अपने घर कॉफी पर आमंत्रित कीजिए” वह परिहास करने वाले अंदाज में बोला, “वैसे इसमें धन्यवाद की कोई बात नहीं है, यह तो मेरा काम है...”
“मैं तो वीनस पीजी हॉस्टल में रहती हूं...घर होता तो जरूर बुलाती...” वार्तालाप आगे बढ़ाती हुई वह बोली।
“अरे नहीं मैम...मैं तो यूंही मजा़क कर रहा था....आप बैठिए...मैं आपको चाय पिलवाता हूं”
“नहीं फिर कभी...” वह हंस पड़ी, “अभी तो लंच टाइम में ऑफिस से निकली हूं....वापस पहुंचना है”
“ओके....फिर कॉफी तो पक्की रही...घर न सही, बाहर ही सही। अपना फोन न. बोलिएगा”
“जी बिल्कुल पक्की...” वह फोन न. देती हुई बोली।
अजीब सी उत्सुकता हो आई थी उसे रित्विक में। अच्छी नौकरी और इतना व्यवहारकुशल लड़का देखने भर से ही किसी अच्छे घर-परिवार का लगता है। आखिर उसकी निजी जिंदगी बिना आंखों के कैसे सांस लेती होगी? अंधेरे में यह गुलाब खिलता कैसे है?
अगले दिन से अनजाने ही सही वह रोज उसके फोन का इंतजा़र करने लगी। लेकिन पूरे एक हफ्ते तक उसका कोई फोन नहीं आया। रविवार को वह अलसाई सी लेटी थी। उसकी रूममेट इशिता का अपने ब्वायफ्रेंड के साथ आउटिंग का प्रोग्राम था। वह तैयार हो रही थी। वह उसे तैयार होते देख रही थी। तभी फोन की घंटी बज गई। शिवांगी ने स्क्रीन पर नजर डाली, अननोन न. था। दिल ने कुछ कहा और उसने सुन लिया। फोन अवश्य ही रित्विक का होगा। उसका अनुमान सही था।
“हैलो शिवांगी जी...” उसके हैलो के जवाब में चिरपरिचित स्वर गूंजा। शिवांगी नहीं समझ पाई कि उसे इतनी प्रसन्नता क्यों हुई। सारा आलस्य हवा हो गया। बदन में जैसे जलतरंग दौड़ गई। दिल हुआ बोले, ‘इतने दिनों से फोन क्यों नहीं किया...‘ लेकिन जवाब में सिर्फ ‘गुड मार्निंग‘ ही बोल पाई।
“सोच रहा था, अगर आज आपको टाइम हो तो कॉफी पीने का वादा निभा दिया जाए”
“जी...” उसकी आवाज को अनाथालय की पृष्ठभूमि का संकोच जकड़ रहा था। किसी से इतना महत्व पाना उसके जीवन की यह पहली घटना थी।
“आपके पीजी हॉस्टल से 10-15 मिनट की दूरी पर एक कॉफी शॉप है...अगर आप आना चाहे तो?” इस बार वह कुछ संकोच से बोला।
“मैं पहुंच जाऊंगी...” कह कर उसने फोन ऑफ किया और फूर्ती से बिस्तर ठीक कर नहाने घुस गई। 5 मिनट में नहाकर आ गई और तैयार होने लगी।
“क्या बात है शिवांगी....तू तो बिस्तर से उठने को तैयार नहीं थी और कहां....अब...?” इशिता उसे दुविधा व शंकाग्रस्त हो देख रही थी।
“नहीं कुछ नहीं....शाम को मिलते हैं...” वह बालों पर कंघी फेरती बाहर निकल गई। बाहर निकल उसने ऑटो किया और कॉफी शॉप पर पहुंच गई। रित्विक बाहर ही खड़ा था।
औपचारिक मुलाकातों के बाद यह पहली अनौपचारिक मुलाकात थी हालांकि दोनों के चेहरों पर गुलाब खिले थे। लेकिन इन खिले गुलाबों को नकारते दोनों कुछ और ही सोच रहे थे। शिवांगी सोच रही थी कि उसे तो मात्र सहानुभूति हो आई है बेचारे रित्विक से....जानना चाहती है, आखिर ऐसे लोग अपनी दिनचर्या की साजसंभाल किस प्रकार करते हैं। खुद कर लेते हैं या फिर उन्हें घर में हर पल दूसरे की हेल्प की जरूरत होती है।
रित्विक सोच रहा था, उसके अंधेरे कोने में पहली बार किसी ने मुस्कुरा कर दस्तक दी है। वह जानता है कि यह मात्र इस भली लड़की की उसके प्रति धन्यवाद के वशीभूत हो आई सहानुभूति है या फिर...उसे उसका थोड़ा सा ही सही साथ भला लग रहा था। खुद को पूर्ण समझने की खुशफहमी हो रही थी।
कॉफी और कुछ खाने को आर्डर कर दोनों अब आमने-सामने थे। जानना तो बहुत कुछ था। दोनों का ही तो एक अनजाना अतीत था, अंधेरा कोना था, जिसके बारे में दोनों ही अनभिज्ञ थे।
“अपने बारे में कुछ बताइए...अपने घर-परिवार के बारे में...” आखिर रित्विक ने दोनों के बीच पसरी चुप्पी को समेटते हुए पूछा। क्षणभर के लिए शिवांगी सोच में पड़ गई। सोचा न था, सबसे पहले इसी प्रश्न से सामना हो जाएगा। कुछ देर कांच की खिड़की से बाहर सड़क के रेलमपेल को निहारती रही। उसके अंदर भी तो एक बवंडर उठ गया था इस प्रश्न के उत्तर में....एक लंबा अतीत एक भयानक दृश्य तैर गया था। फिर शांत स्वर में बोली,
“मेरा कोई नहीं है...2013 में आई केदारनाथ आपदा में सबकुछ खत्म हो गया था। अनाथालय में पलकर बड़ी हुई। एक सज्जन की मेहरबानी से अच्छी शिक्षा हासिल हो गई...आगे भी पढ़ना चाहती थी लेकिन अकस्मात उनका देहांत हो गया और मुझे बीएससी के बाद पढ़ाई छोड़नी पड़ी...अभी ओएनजीसी में जॉब करती हूं” उसने एक सांस में अपनी पूरी कहानी सुना दी।
“ओह! आई एम सॉरी...” वह अफसोस के स्वर में बोला।
“किस बात के लिए...?”
“मुझे मालूम नहीं था..आपके परिवार के बारे में...” जवाब में वह चुप रही। कॉफी आ गई। दोनों धीरे-धीरे खाने-पीने लगे।
“जानती हैं शिवांगी जी....मैं बचपन से ब्लाइंड नहीं था...संसार के समस्त रंग और खूबसूरती मैंने भी देखी थी”
“अरे...तो फिर यह कैसे? कब? ” शिवांगी कुछ दुख, कुछ सहानूभति से मायूस हो उसे निहारने लगी।
“मैं बहुत छोटा था, शायद 5 साल या इससे भी कम का...मां कहती है, एकाएक आंख में प्रॉब्लम होने लगी...कुछ किस्मत कहें या लापरवाही, शुरू में समझ नहीं आया इसलिए इलाज में देरी हो गई। जब तक ध्यान दिया गया, आंख का कैंसर रेटिनोब्लास्टोमा एडवांस स्टेज में पहुंच कर दूसरी आंख को भी अपनी चपेट में ले चुका था। फिर ज़िदगी बचाने के लिए आंखें ही निकलवानी पड़ीं” सुनकर शिवांगी अंदर तक सिहर गई। वह इस पल रित्विक की न देख पाने की घुटन को महसूस कर रही थी। उसी महसूसने के फलस्वरूप वह पसीने से नहा गई थी। गुमसुम सी बैठी सोच रही थी, दुख रित्विक का बड़ा है या उसका, पता नहीं। पर वह कम से कम अपने आप में संपूर्ण तो है। उसका दुख समय के साथ कुछ तठस्थ सा हो चला है। लेकिन रित्विक के अंधेरे उसका पीछा कहां कभी छोड़ेंगे।
“क्या हुआ...आप एकदम खामोश हो गईं?” उसकी आवाज में फिर पहले वाली स्निग्धता थी।
“नहीं बस ऐसे ही...कुछ सोच रही थी...”
“मैं जानता हूं आप क्या सोच रहीं हैं..”
“क्या..?” वह आश्चर्य से बोली।
“यही कि मैं न देख पाने के कारण कितना घुटन महसूस करता होऊंगा...है न” वह हड़बड़ा गई। उसकी सोच कैसे उस मायावी ने पकड़ ली थी।
“दरअसल जब आंखें गईं...तब इतनी अकल नहीं थी...बस रोता रहता था...मां बहलाती रहती थी। ‘डॉक्टर दवाई दे रहा है...ऑपरेशन किया है। थोड़े दिनों में तू देखने लगेगा‘। पापा गोद में लेकर इधर उधर घुमाते और बहलाने के चक्कर में भूल कर कहते, ‘देखो रित्विक....कितने सारे पक्षी उड़ रहे हैं...‘ फिर याद आ जाता फिर भूल जाते, ‘देखो रित्विक, उधर देखो बच्चे फुटबॉल खेल रहे हैं‘ या ऐसा ही कुछ। मैं छटपटाता, ‘मुझे कब दिखेगा‘ पापा कातर हो जाते, वे अनायास ही क्या कर बैठते हैं। आखिर अंधे बच्चे को कोई क्या दिखा कर बहलाए। पापा के अंदर यह दुख पलता रहा और एक दिन वे सुबह उठे ही नहीं। मां आर्तनाद करती रह गई। अंधेरे में डूबते-उतरते बच्चे के साथ अकेले।
जाने कैसे मां ने जिंदगी के तब से अब तक के फासले तय किए। लेकिन उन्होंने मुझे कभी कुछ दिखाया नहीं, गलती से भी नहीं। बल्कि सुनाने लगीं। संगीत, कविताएं...महापुरुषों की कहानियां और मैं उनमें डूबने लगा। मां बहुत अच्छा गाती थी। मैं भी गाने लगा। मां ने मेरे लिए संगीत सीखने की व्यवस्था कर दी। मैं कविता मां को सुनाता और मां उन्हें लिपिबद्व कर देती। उन्हें सुधारती और बाल-पत्रिकाओं में भेज देती। फिर मुझे बताती। मेरे गाने के वीडियों बना कर सोशल मीडिया पर डालने लगी। श्रोताओं के कमेंट्स पढ़ कर सुनाती। मां की कोशिशों से ही मैं टीवी के एक फेमस गीत-संगीत प्रोग्राम में टॉप फिफ्टीन तक पहुंचा था।
मैं ब्लाइंड स्कूल में पढ़ रहा था। पढ़ने में अच्छा था। मैं बड़ा होने लगा। कविताओं व गीत-संगीत की धुन पर खुद की कमी भूलने लगा। आंखों के अंधेरों ने मन और इंद्री के दूसरे उजालों को प्रखर कर दिया और मैं बढ़ता चला गया। अपनी दिनचर्या के कामों में आत्मनिर्भर बनने के लिए मां ने हमेशा मुझे प्रेरित किया। वे मेरा संबल बनी, शक्ति बनीं, लेकिन सहारा बन कर मुझे कमजोर नहीं होने दिया। आज मेरे पास सबकुछ है शिवांगी जी, अच्छी नौकरी, घर, हर तरह से आत्मनिर्भर हूं...लेकिन नहीं है तो बस एक साथी जो बिल्कुल अपना सा हो, सच्चा हो...जिसके पास मेरे लिए आदर हो प्यार हो, दया या सहानुभूति न हो‘ बोले-बोलते रित्विक का स्वर हल्का सा भावुक हो गया था।
“मां ने इस दिशा में कोशिश तो की ही होगी” समझ कर वह संकोच से बोली।
“बहुत की...और कर भी रही हैं...लेकिन अब मैंने उन्हें मना कर दिया है”
“क्यों?”
“क्योंकि गए बीते लोगों से भी ऐसे सवाल सुनने को मिलते हैं कि आत्मसम्मान तार-तार हो जाता है, जैसे खुद से नहा लेते हो....? खुद से खा लेते हो?” यह बोलते हुए रित्विक का स्वर स्पष्ट रूप से भर्रा गया था। शिवांगी सोच रही थी कि अगर वह इस समय चश्मों के पीछे के रित्विक के उन अंधेरों में उतर पाती तो अवश्य भीग जाती। वह उस भीषण बरसात वाली लगभग अंधेरे प्रचंड दिन को सोच रही थी जिस दिन हजारों लोग देखते ही देखते काल के गाल में समा गए थे। उसके सामने उसकी मां पहले बही, उन्हें संभालने के लिए पिता बढ़े और शिवांगी का हाथ उनके हाथ से छूट गया। वह एक बड़े पत्थर की ओट में किनारे पर अटक गई। छोटू तो दिखा भी नहीं कहां गया। उसे भी कहां कुछ पता चला था। जब ठीक से होश में आई तो अनाथालय में खुद को पाया। उस दिन का मंजर जब भी आंखों के सामने घूमता है वह जैसे होश खो देने वाली अवस्था में आ जाती है। वह उससे पहले का सब कुछ भूल चुकी है। कोई उसे ढूंढने भी नहीं आया था।
“चलें...” रित्विक कह रहा था।
“आपका घर कितनी दूर है?” अनायास ही वह पूछ बैठी।
“प्लीज अब यह मत कहिएगा कि मैं घर छोड़ आती हूं...” वह हंसता हुआ उठ खड़ा हुआ।
“बिल्कुल नहीं मैं तो सोच रही थी कि अगर मेरे हॉस्टल से होते हुए आप घर जा पाते तो मुझे हॉस्टल छोड़ देते” वह भी खिलखिला का हंस पड़ी।
“एक बात कहूं, बुरा तो नहीं मानेंगी”
“नहीं...”
“आप बहुत खूबसूरत हैं..” वह शरमा सी गई।
“लेकिन यह मत कहिएगा कि मैंने कैसे देखा...?”
“जी यह भी नहीं पूछूंगी”
“क्योंकि जहां सुंदर तन होता है, वहां सुंदर मन हो या न हो....लेकिन जहां सुंदर मन होता है वहां सुंदर तन अवश्य होता है” सुन कर वह अंदर तक भीग गई। ऐसा रुई के फाहे सा किसी ने पहली बार ही तो सराहा था।
“चलिए आपको छोड़ता हुआ निकल जाऊंगा” कहते हुए रित्विक ने अपनी स्टिक निकाली तो चेयर पीछे करते हुए हाथ से नीचे फिसल गई। वह उठाने को झुकी।
“रहने दीजिए...मैं अपने आपको संभालना जानता हूं...” किंकर्तव्यविमूढ सी वह खड़ी रह गई। रित्विक नीचे झुका, थोड़ा सा टटोल कर अपनी स्टिक उठा ली और चेयर पीछे खिसकाता बाहर चल दिया। वह पीछे चल दी। वह उस जगह पर खड़ा हो गया जहां पर ऑटो मिलने की संभावना थी। ऑटो, बस, कार सबकी आवाजें वह बखूबी पहचान रहा था। आते हुए ऑटो की आवाज पहचान कर उसने रुकने का संकेत दे दिया। ऑटोवाले को अपना गंतव्य बता कर दोनों बैठ गए।
दोनों चुप थे लेकिन दोनों के भीतर बहुत से सवाल जवाब घमासान मचा रहे थे। एक दूसरे के आसपास बैठे होने का अहसास अजीब सा रोमांच पैदा कर रहा था। यह अनुभूति दोनों के अंधेरे जीवन में नई सी रोशनी भर रही थी।
ऑटो 10-15 मिनट में शिवांगी के हॉस्टल के सामने पहुंच गया। शिवांगी ने नीचे उतर कर कुछ कहना चाहा, तभी रित्विक बोल पड़ा, “फिर कब मिलेंगी” वह हंस पड़ी। चाहती तो वह भी यही थी। बोली,
“जल्दी ही किसी दिन....” रित्विक के चेहरे पर उजली सी हंसी बिखर गई।
ऑटो चला गया, शिवांगी अपने हॉस्टल के गेट के अंदर घुस गई। लेकिन दोनों को लग रहा था जैसे बहुत कुछ वहीं कहीं एक-दूसरे के पास छूट गया। पर जो छूटा था उसे ढूंढने का मन दोनों का ही नहीं था। विशेषकर रित्विक का, बार-बार सोचता आखिर एक अच्छी भली, पढ़ी-लिखी लड़की उसके अंधेरों को क्यों गले लगाएगी।
उसके बाद काफी दिन गुजर गए। रित्विक सोचता, पहली बार उसने फोन किया था। अब अगर शिवांगी का मन होगा तो फोन करेगी, वरना तो नाहक ही उधर कदम बढ़ाना है। कितनी बार दोनों फोन उठाते, मिस्ड कॉल्स चेक करते। व्हाट्सएप पर ऑनलाइन स्टेटस चेक करते। एक-दूसरे की प्रोफाइल पिक्चर को निहारते रहते। लेकिन फोन करने की बात सोच हिम्मत जवाब दे जाती।
शिवांगी का दिल कुछ और कहता और दिमाग कुछ और। दिल रित्विक की तरफ आकर्षित था। पहली बार कोई इतना अच्छा लगा था। दिमाग कहता, बहुत कोशिशों के बाद एक तरह के अंधेरों से निकल कर उसने जरा सी रोशनी अपने आंचल में भरी थी अब फिर से....कहीं ऐसा न हो कि सहारा ढूंढते-ढूंढते वह रित्विक का सहारा बन कर रह जाए। लेकिन जितना मन रित्विक से हटाने की कोशिश करती, बैरी मन उसकी गिरफ्त से छूट कर रित्विक से जा मिलता।
उन्हें मिले दो हफ्ते गुजर चुके थे। आज रविवार को इशिता गुनगुनाती हुई फिर अपने ब्वायफ्रेंड से मिलने के लिए तैयार हो रही थी और शिवांगी वैसी ही अलसाई सी बिस्तर पर पड़ी उसे निहार रही थी।
“तू क्यों ऐसे लेट-लेट कर अपना रविवार खराब करती है...कहीं हो क्यूं नहीं आती।” इशिता बाली।
“किसके साथ जाऊं...तू तो हर रविवार को चल देती है”
“धत्त तेरे की...अरे मैं अपनी बात नहीं कर रही...उससे झगड़ा हो गया क्या?”
“किससे?” शिवांगी ने अनजान बन कर कहा।
“उसीसे...जिससे मिलने उस दिन भाग कर गई थी...जिसकी तस्वीर छिप-छिप कर देखती है...तू सोचती है मुझे कुछ पता नहीं”
“कुछ समझ नहीं आता इशिता...” उलझी सी शिवांगी उठकर गोद में तकिया लेकर बैठ गई।
“क्या समझ में नहीं आता...अगर उचित समझे तो मुझसे शेयर कर सकती है”
आज तो शिवांगी का भी सबकुछ कह देने का मन हो रहा था। उसने रित्विक से पहली मुलाकात से लेकर सारी बातें कह दी, “काम के सिलसिले में मिली थी इशिता...पहले कुछ दया का ही भाव जागा था, पर सोचा न था कि दिल इस कदर उलझ जाएगा”
“हूं..मतलब, मामला गंभीर है”
“पता नहीं...लेकिन उसका भी फोन नहीं आया तो खुद को किसी तरफ भी नहीं समझा पा रही हूं”
“शिवांगी अगर वह तुझे अच्छा लगता है तो उसमें जो कमी है वही कल तेरी ताकत बन सकती है”
“जानती हूं...रित्विक मेरी कद्र करेगा...जिसकी मुझे जरूरत है, जो शायद मुझे कोई दूसरा न दे पाए”
“बस यही कहना चाहती हूं...असल जीवन कोई काल्पनिक कहानी नहीं होती... बहुत सारे समझौतों का नाम ही तो जिंदगी है।”
“जब से रित्विक से मिली हूं, यही सोच रही हूं इशिता...पता नहीं क्या ठीक रहेगा और क्या नहीं..”
“कुछ समझ नहीं आ रहा तो दिल की सुन और दिमाग को उसका साथ देने दे...दोनों मिल कर अच्छा सोचेंगे”
“अच्छा...” शिवांगी मुस्कुरा गई, “लेकिन उसका फोन भी तो नहीं आया”
“आएगा बेबी आएगा....इतनी उतावली क्यों होती है” तभी शिवांगी का मोबाइल बज गया। स्क्रीन पर रित्विक का नाम चमक रहा था। शिवांगी देखती रह गई,
“अरे उठा न...” इशिता ने फोन ऑन कर शिवांगी के हाथ में दे दिया। शिवांगी ने यत्रंवत कान पर लगा दिया, “हैलो”
“आज मेरे घर लंच पर आना पसंद करेंगी...मां बुला रही हैं” वह संकोच से कह रहा था और शिवांगी उसकी आवाज की मुग्धता में डूब रही थी।
“हां...” बड़ी मुश्किल से वह बस इतना ही बोली।
“ठीक है, मैं आपका इंतजार कर रहा हूं”
“ठीक है” उसके गाल अनायास ही आरक्त हो उठे, बिना कारण, जैसे ससुराल जाने का आमंत्रण मिला हो।
“अरे ऐसा भी क्या कह दिया उसने कि बिना श्रंगार के ही दुल्हन बन बैठी” इशिता खिलखिलाकर हंस पड़ी।
“चल हट....दुष्ट कहीं की..” कहकर वह तेजी से बिस्तर ठीक कर नहाने घुस गई।
थोड़ी देर बाद वह इशिता के मीठे तंजों से जान छुड़ा, सड़क पर ऑटो इंतजार कर रही थी। ‘आज तो तैयार होने में तूने अपनी जान ही निकाल दी‘ इशिता उसको होंठो पर लिपस्टिक लगाते देख बोली थी और वह हंसती उसे धकियाते बाहर भाग गई थी।
रित्विक के घर पहुंची तो वह बाहर ही खड़ा उसका इंतजा़र कर रहा था।
“आइए...कोई परेशानी तो नहीं हुई आपको..?” उसके चेहरे पर वही स्निग्ध मुस्कान थी। अभी वह कुछ बोलती कि रित्विक की मां अंदर से आ गई। परिचय की आवश्यकता नहीं पड़ी, मां ने उसे देखते ही गले से लगा लिया। उनकी ममता की बांहों में बंधी शिवांगी को लगा, उसकी मंजिल यही कहीं करीब हैं। उसे अब नहीं भटकना है।
लगभग दो घंटे शिवांगी रित्विक के घर पर रही और उस घर को अपना घर कहने का अहसास उसके मन में रचबस चुका था। लेकिन रित्विक या उसकी मां ने उससे कोई ऐसी बात नहीं की। जाने को हुई तो मां बस इतना ही बोली, “शिवांगी इस घर को अपना घर समझ कर आओगी तो मुझे अत्यधिक खुशी होगी” जवाब में वह उनके गले लग गई।
बाहर पोर्टिको में कार खड़ी थी। शिवांगी सोच रही थी, इसे कौन चलाता होगा। तभी कार के पास से गुजरते रित्विक की स्टिक छिटक कर नीचे गिर गई। आज रित्विक ने उठाने की कोशिश नहीं की। आखिर शिवांगी ने स्टिक उठाकर हाथ में दे दी।
”दिल तो करता है, कहूं कि मेरी स्टिक कई बार गिर जाती है...इसे उठाने के लिए आ जाइए हमेशा के लिए लेकिन हिम्मत नहीं होती। यह कार अभी तक मेरी मां चलाती है, चाहता हूं कि आप इसके स्टियरिंग पर बैठिए और मेरी जिंदगी व इस घर का स्टियरिंग भी अपने हाथ में रखिए। हर कदम पर आपके साथ रहूंगा। कदम नहीं लड़खड़ाएंगे कभी”
“तो क्यों नहीं करते हिम्मत...कह दीजिए न....मैं भी सुनना चाहती हूं” बोलते हुए शिवांगी का स्वर हल्का सा भावुक हो गया था।
रित्विक ने अपने दोनों हाथों से शिवांगी के दोनों हाथ कस कर पकड़ लिए। दोनों के गालों पर ढेर सारे गुलाब खिलखिला रह थे। स्टिक उसके हाथ से फिर छूट गई थी। जिसे उठाने की कोशिश दोनों ने ही नहीं की थी।

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