पेंडुलम sudha jugran द्वारा प्रेरक कथा में हिंदी पीडीएफ

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पेंडुलम

“पेंडुलम”

विद्या ने जूते हाथ में लिए, दुपट्टा गले में लपेटा और उठ कर रेत पर नंगे पांव चलने लगी। दूर क्षितिज पर थके हारे सूरज का इंतजार करती धरती से मिलन का दृश्य आल्हादित कर रहा था। संपूर्ण गगन जैसे आलोड़ित हो रहा था। सूर्यास्त, इंतजार से राहत का समय है। पशु, पक्षी, इंसान सभी तो अपने विश्रामगृह की तरफ लौटते है। उनके लिए इंतजार में रत आंखें सुकून पाती हैं। एक नई आशा में रात्रि का अवसान हो जाता है। एक नई सुबह इंतजार में रहती है। सुबह रूपक है आशा का विश्वास का....खुशी का, उमंग का।
“लेकिन”...., विद्या एकाएक ठिठक कर धरती के आगोश में समाते उस लाल सुर्ख गोले को भ्रमित सी निहारने लगी। पिछले दो साल से उगने वाला यह सूरज उसके लिए कुछ भी तो नया लेकर नहीं आता। उसकी जिंदगी का संध्याकाल लंबा हो चला है। रवि के जाने के साथ ही उसकी सुबहें रूठ गईं। शामें रंगहीन हो गईं। अरुणोदय की लालिमा और सूर्यास्त की लालिमा का फर्क उसे अब समझ में नहीं आता। सोच टप से दो शबनम की बूंदे पलकों को गीला कर गालों पर लुढ़क गईं।
उसने जूते पहने और तेज चाल से चलती हुई सड़क तक आ गई। पिछले कुछ दिनों से उसका यह रुटीन सा बन गया था। शाम के 5 बजते ही उसकी उंगलियां लिफ्ट का बटन दबा देती और लगभग 30-40 मिनट की पैदल वॉक कर वह समुद्र के इस किनारे पर पहुंच जाती। उसके वापस घर पहुंचते-पहुंचते अंधेरा घिर जाता था। आज भी वह जब घर पहुंची तो अंधेरा घिर आया था। चाय का कप लेकर वह बालकनी में झूले पर बैठ गई। पूरा शहर जगमगाने लगा था। 20-22 दिन पहले ही वह बड़े बेटे के पास से वापस लौटी थी। इस बार लौटना इतना आसान न था लेकिन वह अपनी सोच पर अटल थी। बड़ा बेटा निमिष दिल्ली व छोटा नितिन चेन्नई में था। दो साल पहले ऐसे ही तो एक दिन वह इसी बालकनी में बैठी रवि का इंतजार कर रही थी। रोज रवि जब आ जाते तभी वह उनके साथ चाय पीती थी। दो महीने बाद रवि रिटायर होने वाले थे। लेकिन उस दिन जब रवि लौटे तो, स्पंदनविहीन देह के साथ, बिना सांसो की गर्माहट लिए...वह अवाक रह गई। नीचे आई अस्पताल की एंबुलेंस की आवाज सुन उसने सोचा...शायद बिल्डिंग में कोई बीमार होगा।
लेकिन जब चंद मिनट बाद उसके फ्लैट की घंटी बजी तो उसकी छठी इंद्री ने जाग्रत हो अनहोनी की सूचना देदी। धड़कते ह्रदय से दरवाजा खोला तो रवि की खून से सनी देह के साथ ऑफिस के कुछ लोग खड़े थे। उसकी आंखों ने जैसे किसी को पहचाना ही नहीं। संभवतः सामने घटने वाली घटना से वह अनजान है। सामने खड़े लोगों को वह नहीं जानती। रवि के दोस्त ने बांह पकड़ कर उसे सोफे पर बिठा दिया,
“क्या हुआ?” वह घुटे-घुटे स्वर में किसी तरह बस इतना ही बोल पाई।
“भाभीजी घर आते समय जाने कैसे रवि की कार डिवाडर पर चढ़कर पलट गई। मैं पीछे ही आ रहा था। उस समय टाइम नहीं था कि आपको सूचित कर पाता। भरकस प्रयत्न कर रवि की जाती चेतना को बचाने के लिए लोगों की मदद से अपनी कार में रख पहले सीधा अस्पताल ले गया। उसके बाद आपको फोन किया पर आपके फोन पर घंटी ही नहीं जा रही थी। डॉक्टरों ने बहुत कोशिश की...लेकिन उसकी सांसों ने साथ छोड़ दिया। रवि के अभिन्न दोस्त अनिमेष का स्वर कातर हो कांप रहा था। भर्रा रहा था। लेकिन वह रो नहीं पा रही थी।
“बच्चों को फोन कर दो” बमुश्किल उसने इतना कहा। वह पत्थर सी हो गई थी। बेटे आए उससे लिपट कर रोए, दोनों बहुओं ने गले लगाया। लेकिन वह जो उस पल पत्थर बनी तो पिघल ही न पाई। पिघलने के लिए विश्वास आना भी तो आवश्यक था और उसे तो विश्वास ही न आया था रवि के जाने का। भूले भटके कोई आंसू पलकों को गीला कर देता। दिल फूट-फूट कर रोना चाहता था। पर मन जैसे निष्ठुर बना बैठा था। पिछले दो साल कैसे बीते पता नहीं। दिल डूबता हुआ लगता। शरीर हर वक्त घबराहट से भरा रहता। बेटों ने उसे अकेला नहीं छोड़ा। अकेले मुंबई के अपने फ्लैट में रहने की उसकी हिम्मत भी न थी। वह पेंडुलम बन गई दिल्ली और चेन्नई के बीच। जिंदगी इस कदर बिखरी कि संभलने पर ही न आई। वह अपनी घबराहट दूर रखने के लिए दवाई खा लेती लेकिन कितने दिन। एक बेटा उसकी ऐसी हालत देख कर उसे बदलाव के लिए दूसरे के पास छोड़ जाता। दूसरा फिर पहले के पास, पर उसे अकेले इस घर में रहने के लिए नहीं छोड़ते और न वह ही लौटने का साहस करती।
लेकिन जहां भी रहती घर अपना ही याद आता। चेन्नई रहती तो वह छोटे बेटे-बहू का घर लगता। दिल्ली रहती तो बड़े बेटे-बहू का घर। उसका अपना घर छूट गया था। उसकी एक दिनचर्या थी जो मुंबई के उस फ्लैट में सांस लेती थी। बेटों के घर में सर्वसुख होते भी न जाने क्या था जो छूटा जा रहा था। एक दिन अपनी बड़ी बहन से फोन पर बात करते उसका स्वर कातर हो गया,
“मन नहीं लगता कहीं भी दीदी...”
“कैसे लगेगा विद्या...उसे साथ लेकर ही कब गई थी। वह तो मुंबई के तेरे घर में ही बंद है न”
“फिर भी कोशिश तो करती हूं न....”
“कोशिश में सहजता कहां से आएगी?”
“ऐसा क्यों होता है दी, मां-बाप का घर बच्चों का घर होता है लेकिन बच्चों का घर मां-बाप का घर नहीं बन पाता...”
“क्या हो गया...तू कभी भी ऐसी नकारात्मक बातें नहीं करती थी...मुझे लगता है विद्या तेरी मन स्थिति ठीक नहीं है, इसलिए...”
“नहीं दी....ऐसी कोई बात नहीं....पर बच्चों के अपने तौर तरीके हैं। वे अपने बच्चों को हमारी तरह से नहीं पालते, उनका कहना है बच्चों को ऑलराउंडर होना चाहिए....कोल्हू के बैल बन गए हैं आजकल के बच्चे। जो दोनों जॉब करते हैं वे भी बच्चों को बुरी तरह व्यस्त रखते हैं, जो एक नहीं भी करती है वह भी...खाने में भी बच्चों के लिए पौष्टिकता का कोई ध्यान नहीं...रोज ऊटपटांग खाना सीख गए है...दरअसल किचन में जाना तो किसी को पसंद ही नहीं है न...कुक ने जो बना दिया, बना दिया, नहीं तो बाहर से आर्डर करने के लिए पित्जा बर्गर है न”
“तो होने दे न...उनके बच्चे, उनका तरीका...”
“और घर भी तो...कुछ भी फेर बदल पसंद नहीं उनको....यूं मेरा खयाल रखते हैं। लेकिन मेरी उम्र अभी मात्र 58 वर्ष है...कैसे भूल जाऊं। कैसे एकतरफ बैठी रहूं। मुंबई में अकेले रहने की हिम्मत नहीं हो रही, बच्चों के घर में मन नहीं लग रहा है... करूं तो क्या करूं...ऐसा निरर्थक सा जीवन...अजीब सा डर समाता जा रहा है” विद्या भाव-विवह्ल सी बोली। दीदी का ह्रदय द्रवित हो गया।
“जब तक सच की आंख से आंख मिला कर सामना नहीं करेगी...तब तक डर परेशान करता रहेगा। दो साल होने को आए तू रवि की फोटो तक भी देखने को तैयार नहीं। इसी कारण तेरहवीं की पूजा भी फोटो के बिना ही करनी पड़ी”
विद्या को याद आया। बेटों ने पूजा में पिता की बड़ी सी फोटो फूल माला डाल कर रख दी थी। विद्या कि नजर पड़ी तो एक चीख के साथ बेहोश हो गई थी। वो दिन और आज का दिन रवि की फोटो आलमारी से बाहर नहीं निकाली गई।
“हिम्मत नहीं होती दी...रवि को देखने की....न जाने मुझे क्या हो जाएगा”
“यही है तेरा डर जिससे तू भाग रही है। अपने घर में रहने की हिम्मत कर विद्या...रवि अपनी जिंदगी जी कर चला गया। तुझे अभी जीनी है...तेरे अंदर का डर तुझे खत्म कर देगा। डर फिर चाहे किसी इंसान से हो या भाव से, यदि हम उससे डरते हैं तो वह हम पर हावी होता है और सामना करते हैं तो हम उस पर हावी हो जाते हैं”
“आपकी बातों से हिम्मत आती है दी...लेकिन इतना आसान नहीं लगता”
“तू कोशिश कर तो सही....तू कहेगी तो कुछ दिन के लिए मैं आ जाऊंगी तेरे पास...लेकिन आना तभी जब मन से जीतने की चाह हो...आखिर रहना तो तुझे अकेले ही है”
“लेकिन दी अकेले रहूंगी कैसे..?”
“फिर वही बात...व्यस्त इंसान अकेला हो सकता है लेकिन उसे अकेलापन नहीं हो सकता”
“वही तो...कहां व्यस्त करूंगी खुद को... “वह रोंआंसी सी हो गई, “हर समय अकेले में कई खयाल आकर डराएंगे, फिर कैसे दिन बिताऊंगी”
“पहले तो अपने दिल से पूछ विद्या कि वह चाहता क्या है...बच्चों के घरों के बीच हमेशा इसी तरह इधर से उधर डोलते रहना या अपने घर पर अकेले रहना। दोनों रास्ते दुष्कर हो सकते हैं। लेकिन तुझे उस रास्ते पर सुकून की तलाश करनी है जो कम दुष्कर लगे”
जवाब में वह चुप रही। एकाएक कोई जवाब नहीं सूझ रहा था।
“विद्या क्या तुझे अपनी जड़ों से उखड़ना मंजूर है? जब तू अपनी रास्ता ढूंढ लेगी तो संबल कई मिल जाएंगे...तूने पापा से जिद्द करके कत्थक नृत्य सीखा था। कविता लिखने का तुझे शौक है। पाक कला में तेरा अभी भी मन रमता है। आज सोशल मीडिया ने कई सशक्त माध्यम प्रदान किए हैं किसी भी शौक को दूसरे तक पहुंचाने के लिए। जब मन से रास्ता ढूंढेगी और उस पर चलना चाहेगी तभी तेरा निर्णय सार्थक होगा...दूसरे की राय इसमें काम नहीं करती है...मात्र एक रोशनी दिखा सकती है बस”
“बताती हूं दी..सोच कर” कह उसने फोन ऑफ कर दिया।
उस रात नींद नहीं आई। दीदी की बातें याद कर खुद को समझाती रही। ‘मुझे डरना नहीं है...डर का सामना करना है...अकेलेपन का सामना करना है। दोनों बच्चों के घरों में कब तक यूं डोलती रहूंगी। जड़ से उखड़ने जैसा अहसास उसे पिछले काफी समय से घेर रहा था। दीदी ने उस अहसास को शब्द दे दिए। यही तो है वह भाव जो उसे चैन नहीं लेने दे रहा। रवि के जाते ही उसका घर, उसका वजूद, उसकी दुनिया सबकुछ बिखर गई। मुंबई में अपना आशयां सजाया था। उस घर के कोने-कोने में वह है, रवि है। लेकिन रवि के जाते ही वह उखड़ गई। दीदी ठीक कह रही हैं। उसका मन कैसे कहीं लगेगा, वह तो मुंबई के अपने घर में बंद है न। वह लगेगा तो वहीं, और लगेगा तभी जब वह सच का सामना करेगी और सच? वह कितना भयानक है। विद्या को लगता है जैसे उसके अकेले होते ही वह सच उसे निगल जाएगा। वह जी नहीं पाएगी उस सच के साथ।
लेकिन दो साल होने को आए, जितने यत्न वह और बेटे कर सकते थे उसे फिर से जीवन की तरफ लौटाने के, वह सब किए जा चुके हैं। क्या एक बार यह भी करके देख ले। पूना में दीदी हैं। शहर में उसकी इतने वर्षों की जान-पहचान है। घने अंधकार में दूर दिखती रोशनी की एक किरण जैसा विश्वास है उसके पास। रात भर सोच कर उसने मन मजबूत किया और सुबह बहुत कमजोर मन के साथ निमिष को अपना फैसला सुनाया।
“कैसी बात करती हो मम्मी....कैसे रहोगी अकेली....अकेले मैनेज करना इतना आसान है क्या? ”
“अगर ड्राइविंग सीखने से पहले ही कह दोगे कि एक्सीडेंट हो जाएगा तो सीखने वाले की हिम्मत तो टूट ही जाएगी न। इस समय मुझे तुम्हारी केयर की नहीं सहारे की जरूरत है। एक बार कोशिश तो कर लेने दो निमिष...वरना तुम दोनों तो हो ही। मैं तुम दोनों के घर में पेंडुलम बनी डोलती रहूं...क्या यह अच्छा नहीं होगा कि तुम और नितिन बारी-बारी से मेरे पास आते रहो। धीरे-धीरे मुझे आदत पड़ जाएगी और फिर मैं अकेली कहां हूं। नहीं रह पाऊंगी तो चली आऊंगी। दिल में कसक तो न रहेगी कि मैंने कोशिश नहीं की थी”
“लेकिन मम्मी...वहां अकेले....मुझे समझ में नहीं आ रहा आपका फैसला?”
“अभी तो मुझे भी समझ नहीं आ रहा। बस इतना जानती हूं कि मेरी जड़ें वहीं हैं। उस घर की हवा में मेरी आत्मा सांस लेती है”
विद्या का स्वर इतना कातर था कि निमिष से कुछ बोला नहीं गया। वह विद्या को लेकर मुंबई आ गया। काफी समय से बंद पड़े घर को रहने लायक किया। सारी सुविधाएं करके पूना मौसी को फोन कर दिया। एक हफ्ता निमिष रहा और एक हफ्ता दीदी। उसके बाद वह भी चली गईं।
दीदी ने अपने रहते कोशिश की कि रवि की बड़ी सी फोटो आलमारी से निकाल कर बाहर लॉबी में रख दे। लेकिन विद्या ने रखने नहीं दी,
“अभी नहीं दी...जिस दिन मुझे अंदर से लगेगा...जिस दिन मन को विश्वास हो जाएगा...सच का सामना करने की ताकत आ जाएगी, यह काम मैं खुद कर लूंगी”
दीदी उसे कई बातें समझा कर वापस चली गई थीं। पहली रात वह सो नहीं पाई। अकेले रहने का इरादा बार-बार कमजोर पड़ रहा था। सुबह के समय आंख लग गई तो देर तक सोती रह गई। कामवाली रेश्मा के बार-बार घंटी बजाने से नींद खुली। दरवाजा खोला तो रेशमा बदहवाश सी खड़ी थी,
“अरे बाबा रे...कैसा सोता है दीदीजी...बड़ी दीदी मेरे को बोल कर गई...कि दीदी का खयाल रखना। मैं तो पहले ही दिन घबरा गई”
“ओह! नहीं रेशमा...ऐसा कुछ नहीं...रात भर सो नहीं पाई, इसलिए आंख लग गई थी”
“कैसा नींद आएगा दीदी...अकेला दिल घबराता होगा...थोड़ा दिन मेरी छोटी बेटी को अपने पास रख लो। आदत हो जाए अकेला रहने की तब घर ले जाऊंगी” वह स्नेह से रेशमा को देखती रह गई। दिल में कहीं कुछ जुड़ा गया। इतनी भी अकेली नहीं है वह। चलना शुरू करेगी तो संबल भी मिल ही जाएंगे”
“शुक्रिया रेशमा...मुझे बहुत अच्छा लगा यह सुन कर....अगर नहीं रह पाई तो तेरी बेटी को अपने पास रख लूंगी...पढ़ा भी दूंगी उसे” सिर हिलाकर रेशमा अपने काम पर लग गई। रेशमा जितनी देर काम करती, उतनी देर उसकी बकर-बकर चालू रहती। रेशमा उसके घर में कई सालों से काम कर रही थी। उसकी बकर-बकर में कभी भी रुचि न लेने वाली विद्या अब उसकी बातें ध्यान से सुनने लगी थी। दीदी उसके लिए एमेजॉन से काफी सारी उसकी पसंद की किताबें आर्डर कर के चली गईं थी। रेशमा 12 बजे तक काम करके जाती। जब तक वह नहा धोकर आती, तब तक दीदी का फोन आ जाता। दोनों बेटे भी रोज फोन करते। बहुएं पोता-पोती भी फोन पर टच में बने रहते। हर रात उसका डर हल्का-हल्का कुछ कम हो रहा था।
शाम फिर भी परेशान करती। शाम होते ही उस शाम की भयावह यादें पीछा न छोड़ती। इसी ऊहापोह में एक दिन वह उठ कर समुद्र के इस किनारे पर आकर बैठ गई। उसे अच्छा लगा। फिर रोज आने लगी। शाम का यह रुटीन सेट हो गया।
सबकुछ मंथर गति से चलने लगा था फिर भी कुछ ऐसा था उसके अंदर जो बाहर आने को बेचैन था। बार-बार मन व्याकुल हो जाता, पता नहीं कितना रह पाएगी ऐसे....नहीं रह पाएगी तो वापस बेटों के घरों के बीच पेंडुलम ही बन जाएगी। हर दिन सोचती। लेकिन निर्णय किसी आने वाले कल पर छोड़ देती।
बालकनी में बैठी वह बहुत देर से सामने फैले जगमगाते शहर को घूर रही थी। इंसान सबसे अधिक खुद से भागता है या फिर परिस्थितियों से। वह समझ नहीं पा रही थी। एक ही स्थिति-परिस्थिति को लेकर सबकी प्रतिक्रियाएं अलग-अलग होती हैं। इंसान अगर खुद से न भागे तो किसी भी परिस्थिति का सामना कर सकता है। दीदी कहती है, तुझे खुद को अपने घर में रहने के लिए वक्त देना होगा। अपना जीवन अस्थिर या स्थिर बनाना तेरे हाथ में हैं।
‘नहीं उसे पेंडुलम जैसी इधर से उधर, उधर से इधर डोलती हुई जिंदगी नहीं जीनी है। स्थिरता लानी है अपने जीवन में। अपनी ऊर्जा, अपनी कोशिश, सही दिशा में लगानी है। एकाएक वह उठी और बेडरूम में जाकर, हिम्मत करके वह आलमारी खोल दी, जिसमें रवि की बड़ी सी तस्वीर रखी हुई थी। उसने तस्वीर बाहर निकाली और बाहर लॉबी में आ गई। सामने वाले कोने पर गोल टेबल रखी थी। उसने तस्वीर का कपड़ा हटाया और आंखें बंद कर ली। अंदाजे से तस्वीर टेबल पर दीवार के सहारे टिका दी। तस्वीर से नजरें चुराकर उसने अगरबत्ती जला कर स्टैंड पर लगाई और फोटो के सामने रख दी, फिर न जाने किस आवेग के वशीभूत हो सीधे रवि की आंखों में झांकने लगी।
क्षण भर में ही उसके शरीर का संपूर्ण आवेग हिलोरें लेने लगा था। अंदर का दो साल से रुका तूफान बाहर आने को बेचैन हो रहा था, पर उसकी नजर रवि की नजरों से हटी नहीं। अकस्मात उसका चेहरा भावों के आगोश में आ बिगड़ने लगा। तूफान के जखीरे आंखों में उमड़ने लगे। गंगा-जमुना गालों पर प्रचंड वेग से बहने लगी। वह फूट-फूट कर रो पड़ी। रोते-रोते उसकी हिचकियां बंध गईं। उसने हिचकियां लेते अपना सिर फोटो के सामने टेबल पर टिका दिया। रोते-रोते वह कह रही थी,
“अब कहीं नहीं जाऊंगी रवि...कहीं नहीं...यहीं रहूंगी अपने घर पर....तुम्हारे साथ, तुम्हारे होने का अहसास फिर से मेरे डूबे मन के खोए आत्मविश्वास को वापस ला देगा। जीने का जज्बा दे देगा। उसकी आंखें बरसती चली जा रहीं थीं...बरसतीं चली जा रहीं थीं और घनघोर बरसात के बाद की नीले अकाश की सी मनभावन, पावन स्वच्छ आत्मिक शक्ति उसके अंदर पसर रही थी।
टेबल से सिर उठा, आंसू पोंछते हुए वह सोच रही थी। कल सुबह से ही डांस की प्रैक्टिस शुरू करनी है। डांस स्कूल के बारे में जानकारी इकट्ठी करके टीचिंग के लिए अप्लाई करना है, सबसे बड़ी और अहं बात यह कि रेशमा की बेटी को अपने पास रख कर उसकी पढ़ाई की पूरी जिम्मेदारी उठानी है। जिंदगी घसीटनी या बितानी नहीं है बल्कि उद्देश्यपूर्ण रूप से जीनी है। अब विद्या की आंखों के अश्रुकणों में इंद्रधनुष चमक रहे थे। वह इत्मीनान से मुस्कुराते होठों से अपने आंचल से रवि कि तस्वीर को पोंछने लगी।


लेखिका- सुधा जुगरान