अधिकार sudha jugran द्वारा सामाजिक कहानियां में हिंदी पीडीएफ

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“अधिकार”

बस अपनी तीब्र रफ्तार से पहाड़ी रास्तों पर भागी जा रही थी. पारुल खिड़की से तेजी से पीछे छूटते जा रहे दृश्यों को देख रही थी. जैसे-जैसे बस मैदानी इलाकों को छोड़कर पहाड़ों की तरफ बढ़ रही थी. एक तरफ पहाड़ ऊंचे हो रहे थे. दूसरी तरफ घाटियां हो रही थीं.
दूर-दूर तक फैली पर्वत श्रंखलायें और उनके शिखरों पर फैले बादलों के टकड़े, मन को बरबस मोह रहे थे. यह देश का खूबसूरत पहाड़ी क्षेत्र उत्तराखंड था.
“हमारे पहाड़ बहुत खूबसूरत हैं पारुल...” पापा अक्सर कहते, “वहां की हरीतिमा मन मोह लेती है...देवदार के घने जंगलों में खो जाने का मन करता है”
पापा बहुत पीछे छोड़ आए अपने अतीत में डूबे हुए कहते और पारुल सोचती, ‘कैसे होते होंगे पहाड़..‘ उसने तो पहाड़ी दृश्य सिर्फ फिल्मों में ही देखे हैं. उसके पापा पहाड़ी थे व मां मारवाड़ी. पापा का पहाड़ जाना क्यों कर बंद हुआ, इसके बारे में वह कुछ अधिक तो नहीं जानती थी, लेकिन परिवार जनों की दबी-ढकी बातों से पापा के जीवन का विगत इतिहास वह कुछ-कुछ समझ गई थी. उसके पापा उस वक्त 16, 17 साल के थे. तब दादाजी ने उनका विवाह गांव में पक्का कर दिया था. पापा बहुत छटपटाये, बहुत मना किया, लेकिन दादाजी ने एक न सुनी.
पापा कुशाग्रबुद्वी के धनी थे. गांव की सीमित सुविधायें भी सफलता की तरफ बढ़ते उनके कदमों को नहीं रोक पायी थीं. पापा 12वीं में पूरे जिले में प्रथम आये थे. 12वीं करते ही दादाजी ने उनका विवाह कर दिया, लेकिन पापा एक बार भी अपनी अनपढ़ व गंवार पत्नी को स्वीकार न कर पाए. मेडिकल के इम्तिहान में निकल कर पापा आगरा आ गए. वहीं उनकी मुलाकात सहपाठी नितिन से हुई और वहीं नितिन की छोटी बहन मेघा उनके दिल में घर कर गई.
दादाजी को बिना बताए उन्होंने दूसरा विवाह कर लिया. दूसरे विवाह की खबर जब दादाजी तक पहुंची तो क्रोध में पागल हुए दादाजी आगरा आए. पापा को बहुत बुरा भला कहा, और उनसे हमेशा के लिए रिश्ता तोड़कर चले गए. मम्मी व नाना लोगों पर जब पापा के विवाहित होने का भेद खुला तो सब सन्न रह गए. लेकिन अब कोसने का कोई फायदा नहीं था.
धीरे-धीरे सबने इस सारे प्रकरण को किसी दुःस्वप्न की भांति भुला दिया, लेकिन पापा अपनी जड़ों को कैसे भुला सकते थे. दादाजी के निधन पर पापा आखिरी बार गांव गए. उनकी पहली पत्नी अभी भी दादाजी के साथ ही रहती थी. पापा दादाजी की तेरहवीं तक गांव में रहे. उन्हीं दिनों अपराधबोध से ग्रस्त पापा ने, किन्हीं दुर्बल छणों में, अपनी इस तिरस्कृत परिणीता को स्वीकार कर लिया था. लेकिन उन दुर्बल छणों का नतीजा जब सामने आया तो पापा भी हक्के-बक्के रह गए.
उनके पुत्रलाभ होने की खबर सुनकर मम्मी ने खाना-पीना छोड़ दिया. पापा ने बार-बार कसमें खाकर मम्मी को विश्वास दिलाया कि वे अपनी पहली पत्नी व पुत्र से कोई संबध नहीं रखेंगे. धीरे-धीरे सब कुछ शांत हो गया. लेकिन पापा के ह्रदय पर अपराधबोध सदा हावी रहा. पुत्र का अभाव उन्हें उस अनदेखे पुत्र की याद दिला देता.
“कभी मौका मिला तो तू पहाड़ जरूर जाना पारुल...शहरों की मशीनी जिंदगी के बाद तुझे वहां बहुत शांति महसूस होगी” पापा कहते तो उनकी बातों से मम्मी व बड़ी होती पारुल, उनके दिल के झंझावत को समझ जाते. आकर्षण तो उस अनदेखे भाई के लिए पारुल के मन में भी बहुत था...स्नेह नफरत व कुतूहल के मिले-जुले भाव उसके दिल में भी उठते. उसके दिल में भी पापा की बातों को सुनकर पहाड़ी गांव को देखने का गहरा आकर्षण था.
पापा के दिल का अपराध बोध शायद इतना बढ़ गया था कि वे दिल का रोग लगा बैठे. उस समय पारुल एम.ए. प्रथम वर्ष में थी. जब पापा उन दोनों को रोता-बिलखता छोड़कर, हमेशा के लिए अलविदा कह गए थे. उसकी प्रिय सखी सावित्री ने ही तब उसे इस दुखः से उभारा था.
पापा के गांव जाने की उनकी आखिरी इच्छा समझकर उसने मन ही मन प्रण कर लिया था कि वह एक दिन पापा के गांव अवश्य जाएगी, उन पहाड़ों को अवश्य देखेगी… जिनसे पापा को इतना प्यार था. पापा की चिता को अग्नि देते समय, सुदूर पहाड़ी गांव में रह रहे, उनके उस अनदेखे पुत्र की याद सभी को आई. पापा की गलतियों की यही सजा शायद ईश्वर ने उनको दी थी कि पुत्र होते हुए भी वह उनकी चिता को अग्नि नहीं दे पाया था. पापा के जिस अक्षम्य अपराध के लिए मम्मी उन्हें जीते जी क्षमा नहीं कर पाई… मरने के बाद स्वतः ही कर दिया. सावित्री उत्तराखंड को देखने की उसकी अदम्य इच्छा को जानती थी.
इसलिए जब उसने छट्टियों में उसे अपने साथ गांव चलने को कहा तो वह सहर्ष तैयार हो गई. अनिच्छा से मम्मी ने उसे जाने की इजा़जत दे दी और ढेर सारी खुशी व उत्सुकता समेटे वह सावित्री के साथ अपनी इस चिरप्रतिक्षित यात्रा पर निकल गई.
पारुल अपने विचारों में गुम थी कि तभी ‘धच्च‘ की आवाज के साथ बस रुक गई. वह अचकचा कर उठ बैठी, “क्या हुआ...?”
“कुछ नहीं...हमें यहीं उतरना है और तू चप्पल पहन ले...सैंडिल से चल नहीं पाएगी...”
पारुल इधर-उधर देखने लगी. चारों तरफ पहाड़ ही पहाड़...एक अजीब सी भीनी- भीनी, तन-मन को तरोताजा करने वाली खुशबू सरसराती हवा में घुली थी. कहीं पास ही बह रही नदी का मधुर स्वर कानों में गूंज रहा था. तभी सामने से कुर्ता-पायजामा व सदरी पहने एक व्यक्ति उनकी तरफ बढ़ गया.
“पहुंच गईं तुम दोनों...सुबह से बैठा तुम लोगों का इंतजा़र कर रहा हूं...कई बस व ट्रैकर निकल गए”
“मामाजी...” कहकर सावित्री ने उस व्यक्ति के पैर छू लिए तो पारुल ने भी छू लिए.
“उद्वव बेटा जरा आना, यह सामान जरा घर तक पहुंचा देना” मामाजी ने दुकान की तरफ मुंह करके आवाज दी.
18-20 साल का एक खूबसूरत पहाड़ी युवक दुकान से बाहर निकला और दोनों को देखकर हाथ जोड़ दिए.
“कैसे हो उद्वव...?” सावित्री ने पूछा. यह मेरी सहेली पारुल है. उद्वव ने दोबारा हाथ जोड़ दिए और उसकी तरफ देखकर मुस्कुरा दिया. शुभ्र दंतपंक्ति की उजली हंसी उसके गोरे चेहरे को और भी उजला बना गई थी.
पारुल को लगा उसने इस युवक को कहीं देखा है, लेकिन कहां…युवक ने चट से सारा सामान सिर पर व कंधों पर लटकाया और ऊपर की तरफ जा रहे पहाड़ी रास्ते पर कदम बढ़ा दिए. सावित्री उद्वव से कुछ न कुछ पूछती जा रही थी और पारुल सोच रही थी कि पहाड़ी वेशभूषा और पहाड़ी लय में हिंदी बोलता यह युवक अनपढ़ या गंवार नहीं लग रहा. बल्कि उसका शिक्षित व कुशाग्र बुद्वी का होना साफ झलक रहा था.
मामाजी व सावित्री पारुल के कारण धीरे-धीरे चल रहे थे. थोड़ा ऊपर जाकर पारुल घम्म से बैठ गई, “मैं नहीं चल सकती अब”
“बस थोड़ा सा रह गया पारुल....वह देख, घर आ गया.” सावित्री ने उकसाया. किसी तरह गिरते-पड़ते पारुल ने रास्ता पार किया.
घर पहाड़ी पर था. साफ-सुथरा, लिपा-पुता, गांव का दोमंजिला घर. तभी मामी व नानी आ गई. दोनों ने बारी-बारी से दोनों को गले लगाया. कुशल क्षेम पूछी. मामी गिलासों में चाय बनाकर ले आईं. शुद्व दूध की चाय...पारुल को चाय का कम, दूध का स्वाद ज्यादा आया.
पहाड़ों में रात जल्दी घिर जाती है. दोनों सहेलियां थकान के कारण खाना खाकर जल्दी ही सो गईं. सुबह-सुबह पारुल की नींद खुल गई. कल की थकान, रात की भरपूर नींद ने उतार दी थी. वह उठकर बाहर छज्जे पर खड़ी हो गई. बाहर का दृश्य अत्यंत मनोरम था. पहाड़ के पीछे से उग रहे सूरज की रश्मियां, संपूर्ण पर्वत श्रंखलाओं को सुनहरे रंग में रंग रही थी. सरसराती ठंडी हवा, पक्षियों का कलरव, इठलाते झूमते पेड़-पौधे, सभी कुछ इतना मनोहारी था कि पारुल सोचने लगी कि धरती पर यदि कहीं स्वर्ग है तो बस इन्हीं पहाड़ों पर है.
“उठ गई बिटिया...आजा, नीचे आकर चाय पीले...” नानी आंगन में खटिया पर साफ चादर बिछाते हुए बोली. वह नीचे उतर गई. तभी मामी आंखों का पानी साड़ी के पल्लू से पोंछते हुए 3-4 गिलासों में चाय लेकर आ गई.
“यहां गैस नहीं मिलती क्या मामी...?”
“मिलती है बिटिया...गैस भी है और बिजली भी, लेकिन गैस का इस्तेमाल कम करते हैं... क्योंकि खत्म हो जाए तो लाना मुश्किल हो जाता है. बिजली है पर अक्सर गायब रहती है...रहती भी है तो ‘पावर‘ इतनी कम रहती है कि उससे तो लालटेन भली...”
तभी उद्वव मुस्कुराता हुआ आकर खड़ा हो गया. पारुल फिर उसकी सूरत में उलझ गई. ‘कितनी जानी पहचानी सूरत है‘ कोई अदृश्य रेशमी डोर उसे उस भोले-भाले ग्रामीण युवक की तरफ खींच रही थी. 5-6 दिन पारुल व सावित्री गांव में रहे तो उद्वव ही उनका गाइड बना रहा. आसपास के दर्शनीय स्थल, टिहरी बांध-परियोजना का निर्माण कार्य भी वे उद्वव के साथ जाकर देख आए. एक दिन गांव में चल रही रामलीला भी देख आए.
गांव के 5-6 दिन पंख लगाकर उड़ गए. सबको छोड़कर जाने में पारुल को दुख हो रहा था. ‘अब शायद वह यहां कभी नहीं आ पाएगी, इस परिवार को, उद्वव को, इन पहाड़ों को फिर कभी नहीं देख पाएगी‘ उस दिन गांव से थोड़ी दूर स्थित शिवजी के मंदिर में दर्शनों के लिए जाना था. सावित्री की तबीयत ठीक नहीं थी. इसलिए वह उद्वव के साथ अकेली ही चली गई.
उद्वव कोई पहाड़ी गीत गुनगुनाता हुआ आगे-आगे चल रहा था. “तुम पढ़ते भी हो उद्वव...” वह बातचीत का सूत्र पकड़ते हुए बोली.
“हां दीदी....इसी साल 12वीं पास किया है. 10वीं में मैं पूरे जिले में प्रथम आया था. गणित अंग्रेजी व विज्ञान में मेरे 75 प्रतिशत से अधिक अंक थे. 12वीं में मेरे जीव-विज्ञान व रसायन-विज्ञान में 75 प्रतिशत से अधिक अंक थे.
“अच्छा....” पारुल सुखद आश्चर्य में डूब गई, “तुम्हारे माता-पिता तो बहुत खुश होते होंगे..”
“मेरा कोई नहीं है दीदी...” उद्वव उदास स्वर में बोला और किनारे पर खड़े बड़े से पत्थर के सहारे खड़ा हो गया. उसकी पलकें आंसुवों से भीगी हुईं थीं.
“साल भर हुआ, मां गुज़र गई”
“और पिता....”
“पिताजी आगरा में हैं....डॉक्टर हैं...वहां उन्होंने दूसरी शादी कर ली थी....मैंने उन्हें कभी नहीं देखा...”
“क्या...?” पारुल फिर उलझ गई, ”तुम्हारे पिताजी का नाम क्या था...”
“सोहनलाल तिवारी...”
पारुल को लगा, वह गिर पड़ेगी. उसकी कल्पना का वह भाई, सजीवता की प्रतिमूर्ति बन, उद्वव के रूप में उसके सामने खड़ा था. वह चित्रलिखित सी उसे देख रही थी. यही थी वह अदृश्य रेशम की डोर, जो उसे बार-बार उद्वव की तरफ खींचती थी. खून का रिश्ता था उन दोनों का...पिता के चेहरे से उद्वव का अद्भुत साम्य ही शायद उसे बार-बार उलझा देता था.
“चलिए दीदी...जल्दी चलिए, फिर धूप तेज हो जाएगी” उद्वव उसे वर्तमान में लाता हुआ बोला. पारुल बातचीत का सूत्र आगे बढ़ाते हुए बोली, “तुम क्या बनना चाहते हो उद्वव..?”
“मैं..” उद्वव रुक कर उसकी तरफ देखते हुए बोला, “बनना तो डॉक्टर चाहता था दीदी...पर अब कौन पढ़ाएगा मुझे...चाहता तो था, एक दिन डॉक्टर बनकर, पिताजी के सामने तनकर खड़ा हो जाऊं कि उन्होंने मेरी देखभाल नहीं की तो क्या हुआ....मैं खुद ही इस लायक बन गया...उनसे पूछता कि मेरा अपराध क्या था..?”
तभी देवालय की घटिंयों और आरती का मधुर स्वर कानों से टकराया. पारुल ने अपना सिर दुपट्टे से ढक लिया. मंदिर में मांगने तो कुछ और ही गई थी, कुछ और ही मांग लौटी. जब घर पहुंची तो मन शांत था.
दोपहर में खाना खाकर थोड़ी देर सो गई. संध्या को जब उठी तो 6 बज रहे थे. वह लेटे-लेटे ही सोच रही थी कि उद्वव को बताना तो पड़ेगा ही...फिर कभी जीवन में यह शुभ अवसर मिले या न मिले. इस सारे घटनाक्रम में उद्वव या उद्वव की मां का क्या दोष था. उद्वव या उद्वव की मां अपने अधिकारों के लिए लड़े होते, तो पारुल या पारुल की मां कहां होतीं. लेकिन अनपढ़ ग्रामीण महिला जो निरपराध होते हुए भी जीवन पर्यन्त दादाजी व पापा की गलतियों की सजा भुगतती रही. अपने अधिकारों के बारे में कहां जानती थी.
पारुल उठी और बाहर आकर खड़ी हो गई. सूरज पहाड़ी के ऊपर था. पहाड़ी के पीछे छिपने को बेचैन। पर्वत श्रंखलाओं पर फैली, अपनी ज़िद्दी शरारती रश्मियों को समेटने में व्यस्त....कुछ सोचते हुए वह नीचे उतर आई. उसके कदम अनायास ही उद्वव के घर की तरफ बढ़ चले. घर के सामने पहुंच कर उसने सांकल खटखटा दी.
थोड़ी देर में दरवाजा खुल गया. “अरे दीदी आप....आइये...आइये” उसे देख उद्वव खुश होता हुआ बोला. वह अंदर आंगन में आकर चारों तरफ देखने लगी. यह घर उसका भी है. पापा कभी यहीं रहते रहे होंगे. एक विचित्र अपनापन था जो उसे इस गृह की खामोश दीवारों के साथ जोड़ रहा था.
“कल हम वापस जा रहे हैं उद्वव....इसलिए सोचा, तुमसे मिल लूं...”
“हां हां दीदी बैठिये...मैं चाय बना रहा था...आपके लिए भी लाता हूं.” वह पास ही पड़ी खाट को बीच दालान में खिसकाता हुआ बोला और अंदर जाकर दो गिलासों में चाय बना लाया. पारुल ने चाय का गिलास थाम लिया और खाट पर बैठकर चाय की चुस्कियां लेने लगी. पारुल सोच रही थी कि कैसे भूमिका बांधे, कैसे बताए उद्वव को कि वह उसकी बहन है.
“दीदी कभी मौका मिले तो दोबारा जरूर गांव आना....”
“हां, जरूर आऊंगी....तुम भी आगरा आना...” फिर गंभीरता से बोली, “वहां पर तुम्हारे दूसरे भाई-बहन भी होंगे, क्या उनसे मिलने की इच्छा नहीं होती...”
उद्वव हंस पड़ा, “मेरे चाहने से क्या होता है दीदी...वे थोड़े ही न मुझसे मिलना चाहते होंगे...”
“और अगर चाहते हों तो...”
“चाहते तो क्या...इतने सालों तक पिताजी मेरी कोई खोज खबर न लेते...?” कहकर उद्वव जूठे गिलास रखने के लिए उठ खड़ा हुआ.
“मैं तुम्हारी बहन हूं उद्वव....मेरा पूरा नाम पारुल तिवारी है....मैं डॉक्टर सोहनलाल तिवारी की बेटी हूं...” किसी तरह सबकुछ एक सांस में कह कर पारुल चुप हो उद्वव की प्रतिक्रिया का इंतजा़र करने लगी.
“क्या...?” उद्वव विस्फारित नेत्रों से ठिठक कर पारुल को देखने लगा. सिनेतारिका सी दिखने वाली, फर्राटे से अंग्रेजी बोलने वाली, यह आधुनिक युवती उसकी बहन हो सकती है. उसके लिए विश्वास करना मुश्किल था. लेकिन यह झूठ क्यों बोलेगी.
“क्या आपको पिताजी ने भेजा है...” स्वर में अभी भी अविश्वास का पुट था.
“नहीं उद्वव, पापा को गुज़रे हुए तो 2 साल हो गए...”
पारुल की आंखें भर गईं. उद्वव भी अपनी जगह पर वापस बैठ गया. उसकी गरदन झुकी हुई थी. उसके चेहरे पर क्या भाव थे. पारुल समझ नहीं पा रही थी.
“उद्वव...” उसने स्नेह से उसके सिर पर हाथ फेरा. उद्वव ने गरदन उठाकर देखा. आंखों के कटोरे भरकर छलक गए थे. पता नहीं अपने अनदेखे जनक को अब कभी न देख पाने की पीड़ा थी या फिर कभी डॉक्टर बन, उनके सामने तन कर खड़े होने का सपना टूट जाने का दर्द.
उद्वव थोड़ी देर उसी तरह चुप बैठा रहा. वह अनाथ हो जाने के सदमे से उबर नहीं पा रहा था. मां के जाने के बाद वह सोचता था, कहीं न कहीं उसके पिता हैं.
“उद्वव, हमारे पास आओगे आगरा...?”
“क्या करूंगा अब वहां आकर...” उद्धव आंसू पोंछते हुए बोला.
“डॉक्टर बनने का अपना सपना पूरा नहीं करोगे...?...पापा का क्लीनिक वैसे ही बंद पड़ा है...तुम डॉक्टर बन कर उस क्लीनिक को संभालना...तुम्हारा परिवार है वहां...तुम्हारी बहन, मां व तुम्हारे पिताजी की स्मिृतियां...” पारुल भावुक हो गई. उद्वव कुछ नहीं बोला. शाम का धुंधलका छा गया था.
“पारुल...” मामाजी व सावित्री की मिली-जुली पुकार आई. वे उसे घर में न पाकर इधर-उधर ढूंढ रहे थे.
“उद्वव हम कल जा रहे हैं...तुम घर जरूर आना...” कहकर पारुल जल्दी-जल्दी बाहर निकल गई.
“कहां चली गई थी....हम कब से तुझे ढूंढ रहे हैं...”
“बस, ऐसे ही टहलते-टहलते उद्वव के घर तक चली गई थी..” पारुल असली बात छुपाते हुए बोली.
दूसरे दिन जाने का समय हो गया पर उद्वव नहीं पहुंचा. रास्ते भर पारुल मुड़-मुड़ कर देखती रही. भाई की ममता पैरों में बेड़ियां डाल रही थी, “लेकिन वह क्या कर सकती है, उद्वव नहीं चाहता है तो...”
वे सड़क पर पहुंच कर बस का इंतजा़र करने लगे. दूर से बस आती देखकर उन्होंने अपना सामान समेटना शुरू कर दिया. तभी उद्वव दिखाई दिया. वह दौड़ता हुआ आ रहा था. उद्वव को देखकर पारुल यंत्रवत सी उसकी तरफ बढ़ गई.
“उद्वव तुम घर क्यों नहीं आये?”
“दीदी..” उद्वव हांपता हुआ बोला, “मैं मंदिर चला गया था, वहीं से भागते हुये आ रहा हूं...यह लीजिये आपके लिए प्रसाद...”
उसने पारुल के हाथ में पत्र-पुष्प रख दिए और दूसरे हाथ में कुछ सख्त सी वस्तु रखकर मुट्ठी बंद कर दी.
“दीदी, अगर आपकी मम्मी....मेरा मतलब” वह झिझकता हुआ बोला, “मां मान गईं तो मुझे चिट्ठी लिख देना...मैं आगरा आऊंगा आपके पास...”
“सच उद्वव...” पारुल की आंखें खुशी से भीग गईं. स्नेह-चिन्ह उसके माथे पर अंकित करती हुई बोली, “मम्मी जरूर मान जाएंगी उद्वव, तुम मेरी चिट्ठी का इंतजा़र करना” कह कर पारुल जल्दी से बस में बैठ गई. सावित्री बस में बैठ चुकी थी. बस में बैठ कर उसने उद्वव की तरफ हाथ हिला दिया. सावित्री उसे विचित्र दुविधापूर्ण नेत्रों से देख रही थी. एक झटके से बस चल पड़ी.
पारुल ने अपनी दोनों मुट्ठियां खोली. एक हाथ में पत्र-पुष्प थे, दूसरे में चांदी का सिक्का...खाली हाथ आई थी और दोनों हाथ भरकर जा रही थी. उत्तराखंड के उस अरण्य से मोती बटोर लाई थी पारुल, उसने मुट्ठी बंद करके आंखें मूंद ली.
“मम्मी को मानना ही पड़ेगा, उद्वव को उसका अधिकार देना ही होगा. तभी पापा की आत्मा को भी शांति मिलेगी” उसने दृढ़ निश्चय किया.
बस अपनी पूरी रफ्तार से दौड़ रही थी. अब उसे इन पहाड़ों से डर नहीं लग रहा था और अपनी जगह पर खड़ा उद्वव सोच रहा था कि एक ही दिन में उसकी दुनिया ही बदल गई.

लेखिका-सुधा जुगरान