कर्म से तपोवन तक - भाग 3 Santosh Srivastav द्वारा फिक्शन कहानी में हिंदी पीडीएफ

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कर्म से तपोवन तक - भाग 3

अध्याय 3

वह गालव के पीछे-पीछे ऐसे चल रही थी जैसे उसका अपने ऊपर वश ही न रहा हो । अयोध्या नगरी पार होते ही गालव ने माधवी का हाथ पकड़ लिया- "शोक न करो माधवी। तुम्हें तो वरदान प्राप्त है । तुमने अपना कौमार्य पुनः पा लिया है । तुम्हारे बदन पर माँ बनने के चिन्ह विलुप्त हो जाएंगे। कुंवारी कन्या सी तुम काशी नरेश दिवोदास के राज महल में प्रवेश करोगी एक वर्ष के लिए। "

गालव के कथनों से माधवी की पीड़ा और बढ़ गई । यह कैसी सोच है गालव की जिसमें मेरे पुत्र के हमेशा के लिए छूट जाने का लेश मात्र भी दुख नहीं । जो यह सोच रहा है कि मैं इसलिए दुखी हूं क्योंकि मेरा कौमार्य भंग हो गया और मैं अक्षत यौवना नहीं रही । माधवी का मन समस्त पुरुष जाति के लिए धिक्कार से भर उठा। कितना स्वार्थी है पुरुष । नहीं चाहिए पुरुष को किसी की भोगी हुई स्त्री। वह अपने लिए हमेशा अक्षत यौवना ही चाहता है। वह स्वयं भले ही कई स्त्रियों को भोग रहा हो, फिर चाहें वे विवाहित हों या अविवाहित। बल्कि रनिवास में कई कई रानियों का होना पुरुष की वीरता मानी जाती है । यह कैसा नियम है समाज का!

सोचते सोचते माधवी के कदमों की गति धीमी पड़ गई। 

"शीघ्र चलो माधवी । सावन के बादलों को देखो आकाश में । बस बरसना ही चाहते हैं । "

गालव ने तेज गति से कदम बढ़ाए । वह शीघ्र से शीघ्र काशी पहुंच जाना चाहता था किंतु माधवी विचारों की आंधी में चलने में असमर्थ हो रही थी । 

गालव ने पुनः माधवी का हाथ पकड़ा-" माधवी, काशी के अधिपति शक्तिशाली राजा दिवोदास महापराक्रमी एवं प्रख्यात भूमिपाल हैं। तुम मन में किसी प्रकार का शोक न करो और गुरु दक्षिणा के इस महती कार्य में मेरी सहायता करो । राजा दिवोदास धर्मात्मा, संयमी तथा सत्य परायण हैं। संभव है उन्हीं के पास से पूरी गुरुदक्षिणा का प्रबंध हो जाए । "

गालव के मन का उत्साह देखते ही बनता था। 

किंतु माधवी के लिए वह व्यथित भी था । 

राजमहलों की राजकन्या माधवी जो कभी कंटकाकीर्ण मार्ग पर नहीं चली । आज पिता ययाति की दानवीरता को फलीभूत करती गालव के संग चली जा रही है। राज सुखों से परिपूर्ण अत्यंत रूपसी माधवी स्वयं को समर्पित कर उसे विभिन्न राजाओं से गुरु दक्षिणा दिलवाएगी । अपने तन को गला कर, अनचाहे पुरुष के बीज को गर्भ में धारण कर, अपना स्वाभिमान दांव पर लगाकर वह पिताश्री ययाति के पुरुष मद को अक्षुण्ण रख रही है। ओह, माधवी से बढ़कर कोई नहीं। गालव भाव विह्वल हो गया। 

घने वनों में प्रवेश करते हुए संध्या हो रही थी। घने वटवृक्ष के नीचे निर्मित खाली कुटिया देख गालव ने उसमें प्रवेश किया। ऐसा लग रहा था जैसे कोई साधु अभी-अभी कुटिया छोड़ कर गया है। उसने अपना अंगोछा साफ सुथरी भूमि पर बिछाते हुए कहा -

"विश्राम कर लो माधवी, मैं तब तक जल और भोजन का प्रबंध करता हूँ। " माधवी ने अंगोछा उठाकर गालव को देते हुए कहा - "मेरे लिए क्लेश न करो गालव। मैं पिताश्री के वचन के प्रति प्रतिबद्ध हूं । पिता के नाते उनका मेरे ऊपर संपूर्ण अधिकार है । वे मेरा किसी भी तरह उपयोग कर सकते हैं और फिर तुम तो पुण्य का कार्य कर रहे हो। यदि उसमें मेरी सहभागिता है तो मैं तो धन्य हुई न। "

माधवी भूमि पर ही लेट गई। जाने किस प्रेरणा के वशीभूत गालव ने माधवी के पैर अपनी गोद में रख धीमे धीमे सहलाए-" तुम धन्य हो माधवी। काश मैं गुरु दक्षिणा के वचन से बंधा न होता। तब मैं राजा ययाति के पास भी नहीं जाता और तब तुम्हें इस तरह अवांछित भूमिका नहीं निभानी पड़ती। "

माधवी हौले से मुस्कुराई। कुछ देर पहले उसके मन में गालव को लेकर जो प्रतिकूल विचार थे उन्हें मन से निकाल अब वह पूर्ण शांत थी। यही तो विशेषता है नारी की, ईश्वर ने उसे न जाने किन तत्वों से गढ़ा है कि वह क्षण भर में अपनी पीड़ा भुलाकर दूसरों के हित तत्पर हो उठती है । माधवी भी सब कुछ भूलकर गालव के प्रति उमड़े प्रेम से भर उठी। वह गालव के कहे शब्दों को देर तक अनुभव करना चाहती थी। अतः उसने खामोशी से पलके मूंद लीं। गालव देर तक उसके तलवों को सहलाता रहा । फिर अँगोछे से उसके पैर ढक कर कुटिया के बाहर चला गया। 

कुटिया में माधवी के साथ रहते हुए दिन तेजी से व्यतीत होने लगे । श्रावण मास भक्ति और श्रंगार रस का मास। एक ओर मन भक्ति में रमने को आतुर रहता है तो दूसरी ओर प्रेम का उल्लेख भी तीव्रता से मन को अपने बंधन में जकड़े रहता है । कहां तो गालव को वर्षा ऋतु प्रारंभ होने के पहले काशी पहुंचना था । कहां सावन और फिर भादो ने मानो उसके कदम माधवी के मोहपाश में बांध दिए वन भी अपने संपूर्ण सौंदर्य में खिल उठा था। शाखाओं पर वर्षा ऋतु के फल, फूल बहुतायत से खिल उठे थे । मानो वृक्ष की शाखाओं ने माधवी के वनवास की खुशी में पुष्पित पल्लवित होने में कोई कसर नहीं छोड़ी थी। जलस्तर बढ़ने से नदी भी किनारों को लहरों के आगोश में भरे ले रही थी। कभी रिमझिम, कभी धारासार, कभी धूप, कभी आकाश में बादलों की अठखेलियां, कभी घटाटोप बादलों के बीच बिजली चमकने, कड़कने की तीव्रता और कभी मौसम सुहावना होकर इंद्रधनुष निकल आता । माधवी और गालव के दिन स्वप्न जैसे बीत रहे थे दोनों के मन में सावन के बादलों की तरह प्रेम उमड़ घुमड़ रहा था। गालव माधवी के ज्ञान से आश्चर्य में पड़ने लगा। वह ज्योतिष पर भी तर्क कर लेती। ब्रह्मांड के रहस्य भी बताने लगती। मौसम के परिवर्तन पर तो वह धाराप्रवाह बोलती । धार्मिक ग्रंथों को तर्क की सीमा में रख घंटों बहस करती। "तुमने कौन-कौन सी विद्याएं सीखी हैं? तुम्हारे तार्किक ज्ञान से तो मैं परिचित हो चुका हूं । "

गालव ने जानना चाहा। 

" गालव, राज महल में जन्म लेना औरों की नजरों में भोग ऐश्वर्य को सहज प्राप्त करना है । पर तुम जानते हो गालव, बहुत बड़े उत्तरदायित्व को निभाना पड़ता है राजमहल में रहते हुए। हमें रण कौशल में दक्षता प्राप्त करनी होती है । संगीत नृत्य तो मामूली बातें हैं। हमें प्रजा की रक्षा के लिए कभी कभी खुद की आहुति देनी पड़ती है । वचनों का पालन भी स्वयं को समर्पित करके करना होता है और सबसे बढ़कर याचना को पूरा करना है। याचक राजमहल के दरवाजे से कभी खाली हाथ नहीं जाता है। राजमहल में पुत्र हो या पुत्री दोनों को इस संसार का सामना करने के योग्य बनाया जाता है। हां, पुत्री को यह भी शिक्षा दी जाती है कि अगर रनिवास में राजा की एक से अधिक रानियां हो तो ..."

"तो क्या माधवी, सीधी सी बात है, सौतियाडाह तो होगा ही। "

"नहीं यह होना नहीं चाहिए । क्योंकि पुत्री को इस बात के लिए मानसिक रूप से तैयार किया जाता है। " माधवी ने थोड़ा ठहर कर कहा । 

"लेकिन फिर भी होता तो है। तभी तो कथाएं सुनने में आती हैं कि एक रानी ने दूसरी रानी को जहर दे दिया या किसी से कह कर मरवा डाला । " गालव तर्क पर उतर आया। माधवी ने समाधान किया । यह सब सौतियाडाह के कारण नहीं होता । हर रानी राजपाट पर एकाधिकार चाहती है । अपने पुत्र को राजा के सिंहासन पर आसीन देखना चाहती है, इस हेतु वह हर संभव प्रयास करती है। फिर चाहे हत्या ही क्यों न करनी पड़े। "

"माधवी तुम्हारी माताएं देवयानी और शर्मिष्ठा को लेकर कुछ कथाएं प्रचलित हैं वास्तविकता क्या है जानना चाहता हूं। "

"गालव तुमने जो कथाएं सुनी हैं वो वास्तविक कथाएं ही हैं। राजमहल में मेरी अत्यंत प्रिय सेविका जिसे मैं प्रेमवश दाई मां कहती थी उन्होंने इस विषय में मुझे बताया था-"

दोनों माताएं बचपन की सखियां थी । शर्मिष्ठा शुक्राचार्य के शिष्य असुरों के राजा वृषपर्वा की अति सुन्दर राजपुत्री थी, तो देवयानी असुरों के महागुरु शुक्राचार्य की पुत्री थी। दोनों एक दूसरे से सुंदरता के मामले में कम नहीं थी। दोनों सखियों में इतना प्रेम था कि उनकी सुंदरता कभी उनके प्रेम में बाधक नहीं बनी। 

वे प्रायः संध्याकाल होते ही उद्यान में घूमने जाती थीं। एक संध्या अपनी सखियों के साथ उद्यान में भ्रमण करते हुए उनका मन सरोवर में जल क्रीड़ा करने का हुआ । उन्होंने अपने वस्त्र उतारकर जल में प्रवेश किया और एक दूसरे पर जल की बौछारें करतीं क्रीड़ा करने लगीं। कभी एक सखी जल में डुबकी लगाकर कुछ क्षणों के लिए अंतर्ध्यान हो जाती। उसे अपने बीच न पाकर अन्य सखियां व्याकुल होकर उसे सरोवर की गहराई में ढूंढने लगतीं । उद्यान में लगे वृक्षों से सूखे फल हवा से टूटकर सरोवर की सतह पर तैरते थे । उन फ़लों को कन्दुक की तरह उछाल कर वे आनंद लेने लगीं। तभी वहां से कुछ साधुओं सहित शिव पार्वती भ्रमण करते हुए निकले। सभी घबरा गईं। कहीं उनकी दृष्टि उन पर न पड़ जाए। वे तीव्रता से सरोवर से निकलकर वृक्षों की ओट ले अपने अपने वस्त्र पहनने लगी । जल्दबाजी में भूलवश शर्मिष्ठा ने देवयानी के वस्त्र पहन लिए । इस बात से अत्यंत रुष्ट हो देवयानी ने शर्मिष्ठा को भला बुरा कहा-" शर्मिष्ठा! एक असुर पुत्री होकर तूने ब्राह्मण कन्या का वस्त्र धारण करने का साहस कैसे किया? तूने मेरे वस्त्र धारण करके मेरा अपमान किया है। "

"इसमें अपमान कैसा ? वे दोनों तो सखियां थीं। एक दूसरे को प्रेम करती थीं अगर देवी शर्मिष्ठा ने माता देवयानी के वस्त्र पहन लिये तो इसमें अपराध क्यों हुआ? "

"गालव जब दाई मां ने मुझे यह कथा सुनाई थी तब मेरा भी यही प्रश्न था। "

"तब दाई माँ ने तुम्हारे प्रश्न का किस प्रकार समाधान किया। 

माधवी ने लंबी सांस भरी। 

"सब विधि का विधान है गालव। कब क्या हो जाए मानव नहीं जानता । किंतु विधाता ने पहले से रच रखा है। अब देखो ना राज महलों को छोड़कर इस तरह मुझे वन में दिन बिताने पड़ेंगे यह विधि का विधान ही तो है। मनुष्य नहीं जानता किंतु कभी-कभी एक क्षण की भूल जिंदगी भर का अवसाद बन जाती। माता देवयानी के साथ भी यही हुआ। 

देवयानी के अपशब्दों को सुनकर शर्मिष्ठा अपने अपमान से तिलमिला गई और देवयानी के वस्त्र छीन कर उसे समीप ही सूखे कुएं में ढकेल दिया। 

"ओह निर्ममता की पराकाष्ठा। देवी शर्मिष्ठा को ऐसा नहीं करना था। "

गालव ने इस घटना का प्रतिवाद करते हुए कहा। 

"हाँ गालव, सचमुच अपराध था यह। ऐसा लग रहा था कि नियति ही शर्मिष्ठा से यह सब करवा रही है। 

देवयानी को कुएं में ढकेल कर शर्मिष्ठा चली गई। 

देवयानी को अपने बीच न पाकर सखियां घबरा गई-

"कहां गई राजकुमारी। "

वे सरोवर के जल में, वृक्षों के आसपास, उद्यान के हर कोने में उसे ढूंढने लगीं। वहां शर्मिष्ठा भी नहीं थी। सखियां शर्मिष्ठा के लिए भी चिंतित हो उठीं। तभी उनका ध्यान ध्यान सूखे कुँए की ओर गया जब तक वह कुँए के नजदीक पहुंचती राजसी वेशभूषा में एक युवक कुँए में अपना दुशाला फेंक रहा था । समीप ही उस युवक का अश्व भी खड़ा था। सखियों ने देखा युवक ने जिस कन्या को कुँए से बाहर निकाला वह राजकुमारी देवयानी ही थी । सूखा कुँआ होने के कारण उसमें कीट पतंगों का निवास भी था । कांटो भरी डालियां और सूखे पत्तों के बीच देवयानी के निर्वस्त्र बदन पर कई जहरीले कीड़ों ने दंश चुभोये थे । कुँए से बाहर आते ही देवयानी दुशाला ओढ़े थरथर कांपती भूमि पर गिर पड़ी । सखियां उसे घेरकर खड़ी हो गईं। युवक ने पूछा-

"कौन है ये देवी? और उनकी यह दशा किसने की? "

सखियों ने देवयानी का परिचय देते हुए युवक से पूछा-

"आप कौन हैं श्रीमान । हम आपके आभारी हैं । कठिन समय में आपने सहायता करके राजकुमारी के प्राण बचाए। "

"मैं इक्षवाकु वंशी राजा ययाति हूं। 

भ्रमण के दौरान प्यास लगने के कारण मैं इस कुँए के पास आया और आपकी सखी को इसमें देखा। "

"आपका हम पर बहुत उपकार है। कृपया राजकुमारी को महल तक पहुंचाने में हमारी सहायता करें। "

"अवश्य। इन्हें अश्व पर ले जाना पड़ेगा। क्योंकि ये अर्धमूर्छित हैं। "

कहते हुए सखियों की सहायता से राजा ययाति देवयानी को अश्व तक ले गए और हाथ पकड़कर उसे अश्व पर बैठा दिया। 

जिस समय राजा ययाति और देवयानी राज महल में पहुंचे शुक्राचार्य अनुपस्थित थे । अतः माता जयंती ने राजा ययाति के प्रति कृतज्ञता प्रगट करते हुए उनका यथोचित सत्कार कर उन्हें जलपान करा कर विदा किया । अब तक राजवैद्य आ चुके थे और देवयानी का उपचार आरंभ हो चुका था। स्वस्थ होते ही देवयानी ने सखियों से कुँए से निकालकर राज महल तक राजा ययाति के द्वारा पहुंचाने का सारा वृत्तांत सुना और सोच में पड़ गई । ययाति ने तो उसका नग्न बदन देख लिया है। हाथ पकड़कर कुँए से बाहर भी निकाला है । अश्व पर भी बैठा कर उसे राज महल तक पहुंचाया है। अब क्या होगा? अब तो ययाति के अतिरिक्त उसका किसी से विवाह नहीं हो सकता? उसने माता जयंती से कहा-

" माता, शर्मिष्ठा ने जो मेरे साथ अपराध किया है उसका दंड तो उसे, भुगतना ही होगा । किंतु मैं क्या करूं ? उस नवयुवक ययाति ने तो मुझे नग्नावस्था में देख लिया है । मेरा हाथ पकड़ कर मुझे कुँए से बाहर निकाला है। मेरी मूर्छित अवस्था होने के कारण अश्व पर भी मैं उनके वक्षस्थल से सटी बैठी थी। इन सभी बातों को लेकर मेरे मन में बहुत ग्लानि हो रही है माता। "

देवयानी की बातों से जयंती भी सोच में पड़ गई । ठीक तो कह रही है पुत्री, कोई भी संस्कारी कन्या ऐसा सोच सकती है। इस स्थिति से कैसे निपटा जाए सोचती रही जयंती। तभी शुक्राचार्य के महल में पधारने की सूचना मिली। 

थोड़े विलंब के पश्चात जयंती उनके कक्ष में पहुंची। शुक्राचार्य शैया पर विश्राम के लिए बैठे ही थे कि जयंती को कक्ष में आया देख उन्होंने प्रसन्नता से जयंती का हाथ पकड़ अपने समीप बैठाया- "अहोभाग्य, आज बिना बुलाए आप के दर्शन हो रहे हैं। अप्रत्याशित !"

जयंती जिस बात से चिंतित थी वह तुरंत न बता कर इधर-उधर की बातों से शुक्राचार्य का मन बहलाती रही। शुक्राचार्य शैया पर आराम से तकियों के सहारे बैठ गये-"देवी जयंती, अब हमें देवयानी का विवाह कर देना चाहिए। मैं सुयोग्य वर की खोज में हूं। "

यह तो जयंती के मन की बात हो गई। बिना भूमिका के तुरंत बोली- "आज इक्षवाकु वंशज राजा ययाति महल पधारे थे। "

" अच्छा किस हेतु पधारे थे वे। आज से पूर्व तो कभी आए नहीं। " जयंती ने देवयानी के साथ घटी घटना का विस्तार से उल्लेख करते हुए कहा -

"अब हमारे पास दूसरा उपाय नहीं है महाराज। देवयानी का विवाह ययाति से ही करना उचित है । वरना देवयानी आजन्म कुंवारी ही रहेगी। वैसे देवयानी ने स्वयं भी ययाति से विवाह की इच्छा प्रकट की है। "

शुक्राचार्य ने सहमति तो प्रगट की किंतु वे शर्मिष्ठा की करतूत से अत्यंत रुष्ट हुए। 

मैं आज ही वृषपर्वा से कहकर शर्मिष्ठा को दंड दिलवाता हूं । "

"नहीं महाराज, शांत रहें । देवयानी के विवाह तक इस विषय में शांत रहना ही उचित है। कल प्रातः ही आप ययाति के पास विवाह प्रस्ताव भेजें। इस कार्य को शीघ्र संपन्न करना ही देवयानी के हित में उचित होगा। "

जयंती ने शुक्राचार्य को रेशमी चादर उढ़ाते हुए कहा -"मैं चलती हूं अब आप भी विश्राम करें। "

राजा ययाति को भला क्या इन्कारी होती। वे तो देवयानी के सौंदर्य पर तभी मोहित हो गए थे जब उसे कुँए में से निकाला था। अगर शुक्राचार्य संदेश नहीं भेजते तो संभव है कि वही प्रस्ताव भेजता। 

उसने तुरंत संदेश भिजवाया-" विवाह का मुहूर्त निकलवाईये, आप की पुत्री मुझे स्वीकार है। " राजा ययाति की ओर से स्वीकृति का समाचार प्राप्त कर देवयानी ने सोचा -'विधि का कैसा विधान है। इस संसार में जिसकी कामना करो वह कभी नहीं मिलता। 

बृहस्पति पुत्र कच शुक्राचार्य से शिक्षा ग्रहण करने आया था । देवयानी उसे पसंद करने लगी और दोनों प्रेम पाश में बंध गए । लेकिन किन्ही कारणों वश उनका विवाह न हो सका था। कच तो बिना शुक्राचार्य और बृहस्पति की अनुमति के भी विवाह के लिए तैयार था किंतु देवयानी संस्कारी कन्या थी। जीवन में वह बड़े से बड़े अभाव से सकती हैं किंतु माता-पिता की आज्ञा के बिना कुछ भी करने का उसका साहस न था । उसका मानना था कि जो प्रारब्ध में होगा वह अवश्य मिलेगा । 

देवयानी की अस्वीकृति से कच का मन व्यथित हो गया। उसके ठेस खाए दुखी मन की आह ही थी जो उसे क्षत्रिय वंश के राजा ययाति जीवनसाथी के रूप में मिल रहे हैं। उनके विषय में जिन तथ्यों से वह अवगत हुई उसमें एक तथ्य यह भी है कि ययाति चरित्रवान नहीं है। किसी भी सुंदर स्त्री को देख वे कामवासना से ग्रसित हो जाते हैं। देवयानी कई दिन राजा ययाति के ऐसे चरित्र को लेकर मंथन करती रही । किंतु वह आजीवन कुंवारी भी तो नहीं रह सकती । शर्मिष्ठा ने उसे कैसे संकट में डाल दिया । वह मन ही मन शर्मिष्ठा के विषय में कुछ निर्णय ले रही थी। 

राजा ययाति से विवाह की स्वीकृति देते हुए देवयानी ने शर्त रखी कि शर्मिष्ठा उसकी दासी बनकर उसके ससुराल जाएगी। लंबे समय तक देवयानी की यह शर्त शुक्राचार्य वृषपर्वा और जयंती के बीच तर्क का विषय रही। अंत में शुक्राचार्य ने अपना निर्णय सुनाया कि शर्मिष्ठा ने अपने बचपन की सखी के साथ जो अशोभनीय, अनैतिक व्यवहार किया है उसका दंड यही है। 

इस निर्णय को वृषपर्वा कैसे टाल सकता था यह गुरु आज्ञा थी। 

विवाह में देवयानी के साथ दासी के रूप में शर्मिष्ठा तो गई ही 2 हज़ार दासियां और रत्न आभूषण भी शुक्राचार्य ने यथोचित दान दहेज के साथ उपहार के रूप में पुत्री देवयानी और दामाद ययाति को दिए। देवयानी की विदा के पहले शुक्राचार्य ने ययाति के चारित्रिक किस्सों को सुन यह वचन पहले ही ले लिया था कि वे देवयानी के अतिरिक्त किसी अन्य स्त्री से शारीरिक संबंध नहीं बनाएंगे । किंतु वचनबद्धता के बावजूद उन्होंने शर्मिष्ठा से संबंध बनाए। दासी बनकर आई शर्मिष्ठा देवयानी की सौतन बन गई। इस वचन को भंग करने के परिणाम ययाति सहित उसके पुत्र पुरु को भी भुगतने पड़े। 

" वृद्धावस्था का शाप ? " गालव ने पूछा। 

" हां, वह तो सर्वविदित है। "

"हां, मुझे पता है कि किस तरह उन्होंने पुत्र पुरू को अपना शापग्रस्त बुढ़ापा देकर उसकी जवानी मांग ली थी और वर्षों वर्ष मौज मस्ती में बिताए थे। "

"गालव, यहीं तो मैं पिताश्री राजा ययाति को क्षमा नहीं कर पाती । मेरी दृष्टि में वे भ्राता पुरु के अपराधी हैं । उन्होंने उसके विषय में नहीं सोचा और अपने स्वार्थ को ही सिद्ध करते रहे। "

अंधकार कुटिया में प्रवेश कर रहा था। माधवी ने दीपक प्रज्ज्वलित किया और उसे ओट देने के लिए आले में रख दिया। आज वायु निस्पंद थी। वन के वृक्ष स्तब्ध से खड़े थे, मानो कोई अनहोनी घटने वाली हो । जब-जब मौसम ने अंगड़ाई ली है । वृक्ष उसी भावों से भर जाते हैं । वायु चलती है तो झूमने लगते हैं। वायु रूकती है तो निस्तब्ध हो जाते हैं । वर्षा की बूंदों में भीगते सिहरते रहते हैं। ओले या पाला पड़ने पर ठिठुर जाते हैं। वृक्षों के इन भावों को माधवी भली-भांति समझने लगी थी। वृक्ष उसके सच्चे साथी हैं। वह उनसे बतियाती है । अपनी प्रसन्नता या पीड़ा उनसे बांट लेती है। विभिन्न अवसरों पर वह उनका पूजन, अर्चन कर उन्हें देव सादृश्य मान भी देती है । नहीं जानती कि उसे वृक्षों से क्यों इतना लगाव है। 

गालव कंदमूल, फल ले आया था। माधवी ने चूल्हा जलाकर रात की रसोई तैयार की और लुटिया में रखा दूध चूल्हे की गर्म राख पर रख दिया । भोजन के पश्चात पीने योग्य गर्म हो ही जाएगा । 

माधवी और गालव एक दूसरे को समर्पित अंधकार में मानो दो आकाशीय ग्रहों से चमक रहे थे। प्रिय मिलन वैसे भी सुखों से पूर्ण होता है । 

"माधवी, दो तीन महीने और यहीं व्यतीत कर लेते हैं । फिर चलेंगे काशी। इतनी जल्दी प्रसव तुम्हारे स्वास्थ्य की दृष्टि से उचित नहीं। "

हत भाग्य गालव के जो अपनी प्रिया से दूसरे की संतति उत्पन्न करने की चर्चा कर रहा है, यह कहते हुए वह अंतर्मन तक पीड़ित हो उठा। 

"तुम्हें जो उचित लगे गालव मेरा उद्देश्य तुम्हारी गुरु दक्षिणा को पूर्ण करना है । उसके पूर्ण हुए बिना हमारा भविष्य भी अपूर्ण ही रहेगा। "

गालव ने माधुरी के कथन से गदगद हो उसे अपने बाहुपाश में जकड़ सा लिया। 

" माधवी, मेरी प्रिया, तुम मेरे पूर्व जन्म के अच्छे कर्मों का फल हो । मैं तुम्हें पाकर धन्य हो गया । "

भोर होते ही माधवी के प्रिय हिरण कुटिया के द्वार पर अपने सींग मारने लगे। यह माधवी को अपने पास बुलाने का संकेत था उनका। माधवी के द्वार खोलते ही वे उसके आंचल के छोर को मुंह में दबाकर खींचने लगे -

"हां, चलती हूं, चलती हूँ। मेरे प्रिय मृगों। नदी की ओर ही चलती हूं। मुझे पता है नदी के कछार से लगे लंबी घास के मैदान में कोई तुम्हारी प्रतीक्षा कर रहा है । "

कहते हुए माधवी ने गगरी उठाई और नदी की ओर चल दी । उसके आगे पीछे हिरण चौकड़ी भरते जा रहे थे। माधवी के नदी के जल में उतरते ही हिरण तीव्रता से भागते हुए लंबी घास के मैदानों में समा गए। वह जानती है लंबी लंबी घास के राजमहल में हिरणों का रनिवास सजा है। ऋतु भी तो मादक और रसवंती है, जिसके वशीभूत सारे चर अचर प्राणी हैं। 

नदी में स्नान के पश्चात वह सूर्य को अर्ध्य चढ़ा कर कदंब के वृक्ष के नीचे आकर खड़ी हो गई। कदंब के पीले पुष्प छोटी-छोटी कन्दुक के समान वन की शोभा बढ़ा रहे थे। लौटते हुए वह बालक भी हिरण के समान चौकड़ी भरता उसके पास आया। जो उसके लिए दूध की व्यवस्था करता है। 

"प्रणाम माता, लुटिया दे दीजिए तो दूध दूध लाऊं। नहीं तो दोनों गौमाता वन में चरने चली जाएंगी। "चलो, चलो। थोड़ी लकड़ियां भी बटोरते चलो रसोई के लिए। " बालक प्रसन्न मन लकड़ियां और सूखे गोबर के टुकड़े बटोरते हुए माधवी से पहले ही कुटिया में पहुंच चुका था । गालव कुटिया के बाहर चबूतरे पर बैठा ध्यान में लीन था। बालक लुटिया में दूध ले आया और माधवी को देते हुए उछलता कूदता गायों के पीछे वन में चला गया। 

सुखद और मनपसंद दिन शीघ्र बीत जाते हैं । 

प्रतिदिन सूर्योदय के होते ही सूरजमुखी के पुष्प और सरोवर में कमल पुष्प खिल जाते हैं । कमल तो फिर भी खिल कर स्थिर ही रहता है । किंतु सूरजमुखी के पुष्प आकाश में सूर्य गमन के साथ उस दिशा में मुड़ते जाते हैं। वे सूर्य के अनन्य प्रेमी सूर्य के अस्त होते ही अपनी पंखुड़ियां समेटकर बंद हो जाते हैं । नहीं देखना उन्हें अपने प्रिय विहीन संसार को। क्या यह सूरजमुखी का प्रेम सूर्य जानता है? 

प्रेम को जीना, प्रेम में रहना, यही तो प्रेम का रहस्य है। इसके आगे संसार का सारा ज्ञान व्यर्थ है। 

एक संध्या नदी के तट पर बैठे हुए माधवी से गालव ने तर्क किया था- "माधवी, प्रेम प्रतिदान नहीं मांगता। यह बात प्रकृति कितने सरल सहज तरीके से हमें समझाती है। हमें ही नहीं समझ पाते । "

"किंतु मैं समझ रही हूं गालव। इतने महीनों से वन में निवास करते हुए मैं प्रकृति से तादात्म्य ही तो कर रही हूं । तभी तो लुभाते हैं मुझे सूर्योदय और सूर्यास्त दोनों। मैं दोनों के ही सौंदर्य में खो जाती हूं। प्रकृति से साक्षात्कार का अपना ही आनंद है। "

माधवी ने गालव के कंधे पर सिर टिका दिया -"देख रहे हो गालव डूबते सूर्य की रश्मियां नदी के जल में लंबवत होकर प्रतिबिंबित हो रही हैं । मानो सुदीर्घ प्रतिबिंबों के द्वारा सूर्य ने जल की सतह पर स्वर्ण सेतु रच डाले हैं । "

"आहा, क्या कल्पना है तुम्हारी। " "कल्पना नहीं सत्य। हम स्पष्ट देख रहे हैं इस मनोरम दृश्य को। "

किंतु प्रकृति सदा ही मनोहर नहीं होती, डरावनी भी हो जाती है। विशेषकर वर्षा काल में या शिशिर के ठिठुरते जाड़ों में । पाले भरी रातें कांटो से चुभती है बदन में। "

"तपस्वी होकर ऐसा न कहो। प्रकृति, प्रकृति की सारी ऋतुएँ हमारी सहचरी हैं। "

"गालव माधवी की गहन विद्वत्ता से कट कर रह जाता । कुछ भी तो नहीं वह माधवी के सम्मुख । माधवी ने उसे दिया ही दिया है। खुले हाथों, हृदयतल से । वही सब कुछ ग्रहण करने की शक्ति नहीं जुटा पा रहा है। फीका पड़ जाता है वह माधवी के सामने । अच्छा लगता है उसे ऐसा होना । माधवी उसके हृदय आसन पर साम्राज्ञी की तरह विराजमान है । उसने माधवी में अपने हर भाव पिरोए हैं । सखी, प्रेमिका, परिणीता, देवी, साम्राज्ञी, सहगामिनी । एक पूरा जीवन, पूरा संसार माधवी में समाया है उसका। 

बस चक्रव्यूह है गुरु दक्षिणा। उस चक्र से निकलना ही उसका मंतव्य है। 

" माधवी, अब हमें काशी की ओर प्रस्थान करना चाहिए । आषाढ़ सावन, भादो विदा हो चुके हैं और यात्रा के लिए आश्विन मास सर्वथा उपयुक्त है। काशी पहुंचने में समय लगेगा माधवी । "

माधवी और गालव ने प्रस्थान का दिन निश्चित कर यात्रा की तैयारी आरंभ कर दी। माधवी प्रति संध्या अपने प्रिय हिरणों को समझाती-" शीघ्र लौटूंगी तुम्हारे पास । तब तक तुम इस वन की, इस स्थान की देखभाल करना। स्वयं को मेरे लिए सुरक्षित रखना । 

विदाई के समय वह प्रत्येक हिरण के गले लग कर उनका दुलार कर रही थी। हिरणों के चंचल, चपल नयन आज चंचलता त्याग कर आंसू बहा रहे थे। कुटिया के आसपास लगे वृक्षों से भी वह मानो उनकी पुत्री के समान विदा ले रही थी। 

चलते हुए काशी का मार्ग आरंभ होने तक अदृश्य होते हुए वन को वह दुलार भरे नेत्रों से देख रही थी। गालव उसके इस रुप से पहली बार परिचित हो रहा था। 

काशी तक का मार्ग वर्षा से धुले पत्तों वाले वृक्ष से आच्छादित था। मार्ग पर चलना ऐसा लग रहा था जैसे पूरा मार्ग उनके आगमन के लिए राजपथ सा सजाया गया हो । 

वन में लंबी अवधि गालव के साथ प्रेम, समर्पण से युक्त व्यतीत कर वह उसकी परिणीता की तरह धीरे-धीरे कदम को उठा रही थी। परम विदुषी, संस्कार, त्याग और मर्यादा का पालन करने वाली माधवी गालव के साथ नववधू सी लजाती चल रही थी। माधवी ने मन में उठे इन भावों को झटकते हुए चाल तेज कर दी । उसे गालव का उद्देश्य पूरा करना है । उस महायज्ञ की एक आहुति वह बन चुकी है। अब पूर्णाहुति बनना है। यदि उसने गालव के साथ रहने के मोहवश कदम पीछे किए तो गालव फिर से आत्महत्या का प्रयास करेगा। जैसा एक बार कर चुका है, जब गुरु विश्वामित्र की अद्भुत, दुर्लभ गुरु दक्षिणा को पूरी न कर सकने की चिंता में गालव सूखकर कांटा हो गया था । उसे अपना जीवन निरर्थक लगने लगा था और वह आत्महत्या का निश्चय कर चुका था । किंतु तभी मित्र गरुड़ ने आकर संभाला था उसे । और 800 विलक्षण अश्व प्राप्त करने की राह सुझाई थी। 

गालव की गरुड़ से विशेष मित्रता थी। विश्वामित्र की विलक्षण गुरु दक्षिणा के लिए गरुड़ ने गालव का बहुत साथ दिया । वह अपने सभी कार्यों से अवकाश लेकर गालव के संग भूमंडल भर की प्रदक्षिणा करके 800 श्याम कर्ण अश्वों की खोज के लिए निकल पड़े। समूचे भूमंडल की परिक्रमा करने पर भी जब गालव को सफलता की कोई आशा नहीं दिखाई दी तब वह निराश होकर अपने जीवन को निरर्थक मानते हुए आत्महत्या के लिए उतारू हो गया किंतु गरुड़ ने अपनी सूझबूझ से उसके प्राणों की रक्षा करके उसे गंगा यमुना के संगम पर स्थित वन प्रतिष्ठानपुर के आश्रम वासी महाराज ययाति की शरण में चलने की प्रेरणा दी। 

इस गुरु दक्षिणा की निमित्त माधवी बनी थी। तो क्या 200 अश्व उसकी कोख के शुल्क स्वरूप गालव को उपलब्ध करा कर वह अपने कदम वापस ले ले ? और मुनि हत्या की दोषी बन जाए? नहीं, नहीं, वह अब ऐसा नहीं कर सकती । अब वह वचनबद्ध है । स्वयं को गला कर विभिन्न राजाओं की अंकशायिनी बन उनके बीज को गर्भ में धारण कर वह स्वयं की दृष्टि में भले ही गिर जाए, स्वयं को पापिनी, कलंकिनी माने पर वह अधबीच में गालव का साथ नहीं छोड़ेगी|

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