अध्याय 8
उत्तर दिशा की ओर जाते हुए गरुड़ सघन वृक्षों में समा गया । गालव ने कुटिया को मुग्ध दृष्टि से देखा। कितनी रुचि से उसने अपने और माधवी के लिए कुटिया का निर्माण किया था। अंतरंग संबंध तो बने उनके लेकिन हर दिन गुरु दक्षिणा की चिंता में ही व्यतीत हुआ । वह माधवी को तल्लीनता से प्यार नहीं कर पाया ।
धीरे-धीरे कुटिया नजरों की ओट हो गई और वे पथरीले कंटकाकीर्ण मार्ग में अपने उद्देश्य को प्राप्त करने के लिए चलने लगे। चलते चलते रात हो जाती । फिर दिन निकल आता। फिर दोपहर ढल जाती । आंधी, पानी, ओले की मार सहते अंत में वे अपने गंतव्य पर पहुंच ही गए। सामने विश्वामित्र का आश्रम था । वर्षों से तपस्या, ध्यान, साधना में लीन एक बड़े शिष्य समूह को दीक्षा देने वाले, वेदों का पाठ कराने वाले विश्वामित्र का आश्रम सुंदर पुष्पवाटिका युक्त बड़ा ही रमणीय था। जो विश्वामित्र के तेज से देदीप्यमान था। इसी आश्रम में गालव ने दीक्षा ग्रहण की थी । उसे याद है उषाकाल से संध्याकाल तक वह अन्य शिष्यों के साथ अध्ययन करता था । संध्या होते ही वनों में लकड़िया लेने चला जाता, कुछ शिष्य नदी से जल भर लाते। कुछ शिष्यों को भिक्षाटन के लिए समीप के गांव में जाना होता था। वनों से लाई लकड़ियां जलाकर रात्रि की रसोई तैयार की जाती। कितने वर्ष इसी दिनचर्या में बीते हैं।
गालव को देखते ही एक शिष्य तेजी से उसकी ओर आया-" मुनिवर आप? "
विश्वामित्र द्वारा गुरु दक्षिणा में मांगे हुए अश्व न देख कर वह चकित हुआ -
"आप अकेले ? साथ में यह देवी कौन हैं? "
" धैर्य रखो मित्र, गुरुजी की चरण धूलि तो लेने दो। धीरे-धीरे सब पता चल जाएगा। "
"ठीक है आप तब तक जल ग्रहण कीजिए। मैं गुरु जी को आपके आगमन की सूचना देकर आता हूं। "
कहते हुए वह पूर्व दिशा के कक्ष की ओर चला गया। यह कक्ष विश्वामित्र का अध्ययन कक्ष था । थोड़ी ही देर में वह उन की आज्ञा लेकर आ गया।
"जाइए मुनिवर। गुरु जी के दर्शन कर लीजिए । तब तक मैं आपके जलपान की व्यवस्था करता हूं । "
और वह आश्रम की रसोई की ओर चला गया।
गालव माधवी सहित विश्वामित्र के कक्ष में जाकर चरण वंदना कर, हाथ जोड़ कर सिर झुकाए एक ओर खड़ा हो गया। माधवी ने भी ऐसा ही किया। विश्वामित्र उस समय भोजपत्र पर कुछ लिख रहे थे । उन्होंने कलम एक ओर रखकर माधवी को नख से शिख तक देखा। सौंदर्य की खान माधवी को वे अपलक देखते ही रह गये। मन में संदेह जागा कि कहीं उनकी साधना भंग करने के लिए इंद्र के द्वारा भेजी हुई अप्सरा तो नहीं! किंतु यह गालव के साथ कैसे?
"कहो गालव, निश्चय ही अपने उद्देश्य में सफल होकर लौटे हो। "
गालव को लगा उसकी शक्ति धीरे-धीरे उसका साथ छोड़ रही है। उसने कातर हो माधवी की ओर देखा। माधवी भी उसी की ओर देख रही थी। उसने आंखों ही आंखों में ढांढस बंधाया। बहुत साहस करके उसने शक्ति बटोरी -"गुरुवर आपका प्रिय शिष्य आपके सम्मुख असफल होकर आया है । संपूर्ण गुरुदक्षिणा में 200 अश्व अभी भी शेष हैं जिनका प्रबंध नहीं हो सका। " विश्वामित्र ने गालव और माधवी से आसन ग्रहण करने को कहा । एक अन्य शिष्य से उनके लिए जल मंगवाया।
" विस्तार से बताओ गालव, तुमने 600 अश्व किस तरह प्राप्त किए और तुम्हारे साथ ये कन्या कौन है? "
गालव अब तक प्रकृतिस्थ हो गया था। उसने आदि से अंत तक सारी घटनाएं कह सुनाईं। सुनकर विश्वामित्र द्रवित हुए । माधवी का रूप सौष्ठव देखते हुए बोले -"तुम्हें पहले यहां आना था। यहां आते तो माधवी को इतने कष्ट नहीं सहने पड़ते । "
गालव विश्वामित्र के वचनों से थोड़ी और शक्ति जुटा पाया-" तो क्या गुरु दक्षिणा के 200 अश्व अब नहीं ....."
"नहीं गालव। " एकाएक माधवी के तेवर बदल गए। " नहीं गालव, नहीं । तुम गुरु दक्षिणा पूरी दोगे । "
गालव जैसे लड़खड़ा सा गया।
" यह क्या कह रही हो माधवी। यहां आने से पूर्व हम दोनों ने यही तो निश्चित किया था। "
माधवी इस बात का उत्तर न देते हुए सीधे विश्वामित्र की ओर उन्मुख हुई। "गुरुवर शेष 200 अश्वों की गालव की गुरु दक्षिणा के लिए मैं प्रस्तुत हूं । मैं आपके पुत्र को जन्म देकर गालव को गुरु दक्षिणा से मुक्त करूंगी। "
सहसा कक्ष में सन्नाटा छा गया। अवाक था गालव और मन ही मन माधवी के इस निर्णय से प्रसन्न थे विश्वामित्र।
विश्वामित्र जो मेनका के रूप सौंदर्य पर मुग्ध हो तपस्या करना भूल गए थे । इंद्र के द्वारा उनका तप भंग करने भेजी गई अप्सरा मेनका को जल क्रीड़ा करते देख विश्वामित्र सूर्य को अर्ध्य देना भूल गए थे । भूल गए थे कि वह अपने कमंडल में अर्घ्य के लिए जल लेने ही तो आए थे । आखिर स्त्री को देख क्यों डगमगा जाते हैं बड़े-बड़े ऋषि -मुनि, राजा -महाराजा । विश्वामित्र और मेनका की पुत्री शकुंतला को देखकर दुष्यंत भी भूल गए थे आखेट करना । यह कैसा स्त्री देह का सम्मोहन है। सोच रही थी माधवी। शेष गुरु दक्षिणा को क्षमा कर देने की गालव के साथ बनी योजनाओं को विश्वामित्र के बस एक वाक्य से ठुकरा दिया था माधवी ने ।
'पहले यहां आते तो माधवी को इतने कष्टों से नहीं गुजरना पड़ता। ' तीर की तरह लगे थे माधवी के ह्रदय में येशब्द । विश्वामित्र माधवी की देह पाकर क्षमा कर देते गुरु दक्षिणा लेकिन स्वाभिमानी गालव का क्या होता? क्या वह गुरु दक्षिणा न दे पाने का क्लेश अपनी आत्मा पर मृत्यु पर्यंत ढोता? क्या उसे अपनी शिक्षा,
अपना ज्ञान अधूरा नहीं लगता और जब देह को तीन पुरुषों के हवाले कर उसने गुरु दक्षिणा के 600 अश्व जुटा ही लिए हैं तो कष्ट भरा अंतिम सफर और सही । वरना माधवी का त्याग व्यर्थ जाएगा और उसका प्रिय गालव यंत्रणा की आंच में तपता रहेगा।
विश्वामित्र मुस्कुराए-
" माधवी तुम्हें बहुत प्रेम करती है गालव। तुम सौभाग्यशाली हो । "
थोड़े विलंब के बाद उन्होंने माधवी के प्रस्ताव पर स्वीकृति की मुहर लगा दी। और पुनः लिखने के लिए कलम उठा ली। माधवी गालव को विदा करने आश्रम के द्वार तक आई।
" माधवी समझ में आ रहा है तुम्हारा निर्णय। मैं तुम्हें पाकर धन्य हो गया । "
"अब तुम जाओ गालव और तीनों राज्यों से अश्व एकत्रित करो। तब तक एक वर्ष बीत ही जाएगा।
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