कर्म से तपोवन तक - भाग 5 Santosh Srivastav द्वारा फिक्शन कहानी में हिंदी पीडीएफ

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कर्म से तपोवन तक - भाग 5

अध्याय 5

गालव के साथ उदास खिन्न सी माधवी चली जा रही थी। राजमहल पार करते ही दोनों गंगा तट पर आये और गंगा के जल में पैर डुबोकर बैठे रहे। गंगा की लहरों के स्पर्श ने जैसे माधवी का संताप हर लिया। गंगा भी तो आठ पुत्रों को जन्म देकर मातृत्व सुख से वंचित रही। अंतर केवल इतना है कि गंगा ने स्वेच्छा से शांतनु का वरण कर उनसे उत्पन्न पुत्रों का त्याग किया । जबकि माधवी को परिस्थिति वश ऐसा करना पड़ रहा है । 

"क्या सोच रही हो माधवी । चलो चलते हैं। मार्ग लंबा है और संध्या होने के पहले हमें वन में अपना ठिकाना खोज लेना है । थोड़ा जलपान कर लेते हैं जिससे रात्रि को भूख न सताए । "

गालव ने जल में से पैर निकाले और चलने को उद्यत हुआ । उसने माधवी का हाथ पकड़कर उसे उठाया । 

"आगे की क्या योजना है गालव? "

" चलो विश्राम करते हुए बताएंगे। 

पहले कुछ खा लें। "

थोड़ी ही दूरी पर चूल्हा जलता दिखाई दिया । वहां पहुंचकर गालव ने चटाई पर बैठे वृद्ध व्यक्ति से पूछा जो दो बच्चों से बातें कर रहा था। 

" कुछ खाने को प्राप्त हो सकेगा महाशय। "

वृद्ध व्यक्ति उन्हें देखते ही खड़ा हो गया- "आप कहां से आ रहे हैं साधु महाराज? "

तभी चूल्हे पर रखे पतीले में करछुल चलाते हुए अधेड़ स्त्री ने कहा-

"हमारे अहोभाग्य । आप साधु जान पड़ते हैं। बैठिये, गर्मागर्म खिचड़ी परोसती हूं आपको। 

वृद्ध व्यक्ति चुपचाप चटाई पर बैठकर पुनः दोनों बच्चों से वार्तालाप करने लगा। 

अधेड़ स्त्री ने दोनों के लिए फर्श पर आसन बिछा दिया। दोनों आसन पर बैठ गये। 

अधेड़ स्त्री ने पत्तलों पर घी की सोंधी खुशबू वाली खिचड़ी परोसी। भुने आलूओं को नमक मिर्च डालकर दिया और कुल्हड़ में गर्म दूध। दोनों ने भरपेट भोजन कर स्त्री को मुद्रा देनी चाही जिसे लेने से उसने मना कर दिया-

"नहीं मान्यवर, हमें पाप में न डालिए। साधुओं को भोजन कराना पुण्य होता है। हमें पुण्य कमा लेने दीजिए । "

दोनों गदगद थे । वे वहाँ घड़ी भर और बैठे। सूर्य अस्ताचल गामी था । दोनों ने विदा ली और वन की ओर प्रस्थान किया। 

घने वृक्षों की छाया में कुश और पत्ते बिछाकर गालव ने शैया बनाई। दोनों शैया पर विश्राम के लिए लेटे। कहाँ नहुष कुल में उत्पन्न चंद्रवंश के पाँचवें राजा ययाति की पुत्री राज महलों के मखमली बिछावन पर सोने वाली राजकुमारी माधवी, कहाँ ये पर्ण शैया। और वह !अगले विक्रय के लिए तैयार वस्तु। माधवी का मन रो पड़ा। आसमान तारों से खचाखच भरा था। और झाड़ियों में जुगनू चमक रहे थे। जहरीले कीट -पतंग भी आसपास होंगे। उन्हें सोता समझ शरीर पर डंक चुभा सकते हैं लेकिन हवा तेज चल रही थी अतः इस बात की आशंका कम थी। 

"शेष अश्व कहां से प्राप्त करोगे गालव? " माधवी ने जानना चाहा। 

"मैंने पता किया है। भोजनगर के सम्राट उशीनर से अपेक्षा की जा सकती है । वे सत्य पराक्रमी हैं। किंतु पुत्रहीन हैं। हम कल सुबह ही प्रस्थान करेंगे । भोजनगर यहां से काफी दूर है। पहुंचने में कई दिन लग जाएंगे। "

अर्थात फिर से चाक पर चढ़ाई जाएगी माधवी । मिट्टी का लौंदा बन। जिससे इच्छित पात्र प्राप्त करेंगे उशीनर।  और गालव शुल्क स्वरूप गुरु दक्षिणा के अश्व प्राप्त करेगा । माधवी ने पीड़ा में भरकर नेत्र बंद कर लिए । उसके नेत्रों के सामने पिताश्री राजा ययाति का राज महल था । पिताश्री राजमहल के प्रांगण में एक ओर सान कर रखी मिट्टी को सामने रखे चाक पर गोल गोल घुमा रहे हैं । घूम रही है माधवी पिताश्री की बेटी बन जन्मी लेकिन इस समय मात्र उनकी संपत्ति। जिसे निःसंकोच वे याचक बने गालव को भेंट कर रहे हैं। पिताश्री का चरित्र आरंभ से भूल भुलैया में भटका लगा। वह समझ नहीं पाई कि पिताश्री ने किस तरह अपने स्वार्थ, लोलुपता, विषयवासनावश भ्राता पुरु से जवानी ली और दानवीर कहलाने की महत्वाकांक्षा के कारण माधवी को दान में दिया। 

आत्ममुग्ध वे केवल अपने ही विषय में सोचते रहे। अपनी ही दानवीरता को अक्षुण्ण रखने के लिए उन्होंने माधवी को दांव पर लगा दिया । उसकी कोख का सौदा करने गालव को प्रेरित किया। जो किसी भी पिता के लिए डूब मरने की स्थिति है । देवयानी, पुरूऔर माधवी के कितने बड़े अपराधी हैं वे। इस अपराध तुल्य तो कोई दूसरा अपराध ही नहीं। 

पिताश्री के प्रति वह वितृष्णा से भर उठी। न जाने क्यों वह बार-बार इन प्रसंगों को याद करती है। बार-बार अपने मन को नश्तर चुभोती है । बार-बार उस यातना से गुजरती है जिसकी दोषी वह कहीं से नहीं। बार-बार अपने पिताश्री राजा ययाति के विषय में सोच कर वह खिन्नता से भर जाती है। पिताश्री की दृष्टि में स्त्री तो बस भोग की वस्तु है। उनकी वंश वृद्धि करने वाला उपकरण मात्र। 

माधवी के नेत्रों से अश्रु बूंदे ढलकने लगीं। उसने देखा गालव गहरी निद्रा में सोया है। मन हुआ भाग जाये यहां से। इस चक्रव्यूह से दूर किसी शांत स्थान पर या नदी में कूदकर आत्महत्या कर ले। एकाएक इन विचारों को झटक कर वह उठ बैठी और वनवीथियों में विचरण करने लगी। उसका मन सभी बातों पर गौर करके धीरे-धीरे शांत होने लगा। यही तो विशेषता है माधवी की।  पिताश्री के एकदम विपरीत वह अपने विषय में कम दूसरों के विषय में अधिक सोचती है। विरोध करना था तो पिताश्री का करती, आत्महत्या करना था तो हर्यश्व के राजमहल में पदार्पण करने से पहले करती। अब इस सबसे क्या प्राप्त होगा ? दो पुत्रों की माता बनकर गालव को 400 अश्व दिलाकर पीछे हटे यह उसके स्वभाव में नहीं। ग़ालव की दक्षिणा पूर्ण होने पर ही वह अपने विषय में सोच सकती है। तब तक वह दानपात्र में ययाति के हाथों डाली स्वर्णमुद्रा ही है। 

उषाकाल तक वह वन में विचरण करती रही रात्रि में जागकर शिकार करने वाले पक्षियों, जुगनूओं के संग । 

न तो कोई हिंसक पशु दिखाई दिया न उसकी आवाज सुनाई दी। 

गालव माधवी को न पाकर हड़बड़ा गया। वह उसका नाम जोर-जोर से पुकारने लगा-

"माधवी कहां हो तुम? मुझे इस तरह छोड़ कर कहां चली गई तुम ? "

"कहीं नहीं गालव। वनसौंदर्य को देखने बस थोड़ी ही दूर गई थी। तुम्हें छोड़कर कहां जाऊंगी गालव। "

गालव की जान में जान आई-"तुम्हें न पाकर पल भर कर तो मुझे लगा था जैसे मैंने तुम्हें हमेशा के लिए खो दिया। अशुभ विचार भी मन में आए कि कहीं तुम ने परिस्थितियों से घबराकर आत्महत्या......"

हंसी माधवी, एक ऐसी हंसी जिसमें दूर दूर तक कहीं खुशी या विनोद का भाव नहीं था। एक तिक्त मुस्कुराहट, एक तिरस्कार या अवमानना से भरी हंसी- 'मुझे क्या अपने जैसा कायर समझा है? ' कहना चाहा पर मात्र हंसकर रह गई माधवी। 

"सूरज का रथ तीव्र गति से बढ़ रहा है। हम यात्रा आरंभ करते हैं। मार्ग में नदी में स्नान करते हुए कंदमूल फल भी खाते चलेंगे। अब इस स्थान पर अधिक रुकना व्यर्थ है। समय की बर्बादी है। " कहते हुए गालव चलने को तत्पर हुआ। माधवी के लिए तो और कोई दूसरा विकल्प न था । सिवा गालव के संग हो लेने के । और अब कोई दूसरा विकल्प उसे चाहिये भी नहीं। 

गालव के साथ चलते हुए उसे ऐसा लगता था जैसे अंधकार में वह जुगनू के पीछे चल रही है। जैसे गालव वह क्षितिज है जिसमें धरती बन वह समाई है। धरती दिखती नहीं, दिखता तो बस क्षितिज ही है। यही पूर्णता तो प्रेम की पराकाष्ठा है। 

घड़ी भर बाद वे नदी के किनारे थे। वन सांय-सांय कर रहा था । पक्षियों का कलरव वन की आवाज में मिश्री घोल रहा था । शांत सरिता मंथर बह रही थी। सूरज की धूप में नदी का जल निखर आया था। गालव स्नान और ईश वंदना कर कंदमूल फल जुटाने चला गया । माधवी की रात्रि जागरण की थकान जल में उतरते ही बिला गई। उसने अपने संगमरमर से उज्ज्वल बदन को निहारा । वह अपने ही सौंदर्य पर मुग्ध हो गई । उसे लगा जैसे वह संसार की सबसे सुंदर स्त्री है जिसे बनाकर ईश्वर उसके भाग्य को गढ़ना भूल गया और इसीलिए दुख दर्द पीड़ा जीवन के साथ है। वह पुत्री होकर भी पिताश्री के घर से सुहागन बनकर विदा नहीं हुई। हर्यश्व, देवदास की शैया पर पत्नी धर्म निभाते हुए भी वह पत्नी नहीं बनी। मांग भी बिना सिंदूर के सूनी ही रही। पुत्रों को जन्म देकर भी मातृत्व विहीन रही । क्या इस सब में उसके रूप सौंदर्य का दोष है ? उसके कौमार्य उसके यौवन का दोष है ? वह कौमार्य जिसे वह दैवीय शक्ति के बाद पुनः धारण कर लेती है। यह कौमार्य ही तो माधवी के लिए अभिशाप बन गया । उसके संपर्क में आये हर्यश्व और दिवोदास ने यही सोच कर तो उसे स्वीकार किया कि वह चिर यौवना है और उसे भोगने वाले वे प्रथम पुरुष ही हैं । आह! कैसी मानसिकता की रानियों से भरे हुए रनिवास में भोग विलास करता पुरुष अपने लिए प्रथम स्पर्शा युवती ही चाहता है। 

विचारों के मंथन में माधवी नदी जल से निकलना ही भूल गई । गालव खाद्य सामग्री लेकर आ गया था । वह हाथों में पकड़ी सामग्री को वृक्ष के नीचे रखना भूल गया। माधवी का भीगा बदन अपने समस्त उभारों सहित उसके सामने था। वह अपलक उसे निहारते ही रह गया। माधवी लजाती हुई वृक्ष की ओट में चली गई । माधवी भी चकित थी । दो पुरुषों के अंक में निर्वस्त्र काया सौंपते वह लजाई नहीं थी। कोई भाव मन में न थे तब । किंतु आज गालव के सामने पड़ते ही ये कैसे भाव ! गालों पर लज्जा की लाली क्यों ? धड़कनों में तीव्रता क्यों? अंग अंग में सनसनाहट क्यों? आखिर कौन है गालव उसका? प्रेमी, सखा या फिर जन्म जन्मांतर का जीवनसाथी? गालव भी इन्हीं विचारों को अनुभव कर रहा था। जब भी वह माधवी को अपने समक्ष पाता है उसे पश्चाताप होता है। क्यों सौंपा उसे अन्य पुरुषों के हाथों में? क्यों अपने ही जीवन में सेंध लगा ली? क्या वह स्वयं को क्षमा कर पाएगा? 

किंतु अगले ही पल मन पर पत्थर रखकर इस कार्य के उद्देश्य को सोचता है। यह कार्य कलंकित नहीं है। क्योंकि इसके उद्देश्य के पीछे प्रभु का संकेत है । जीवन में जितना आवश्यक उसका होना है जिसे हम प्रेम करते हैं, उतना ही आवश्यक शिक्षा प्राप्त कर गुरु दक्षिणा है। बिना गुरु दक्षिणा के शिक्षा अधूरी है और इस अधूरेपन को पूर्णता दे रही है माधवी । इस संसार में माधवी का जन्म अलौकिक है। माधवी का त्याग अलौकिक है। यदि वह माधवी के चरणों में अपना मस्तक टिका दे तो यह अन्यथा नहीं होगा। 

वस्त्र बदलकर माधवी मन के भाव छुपाते हुए गालव की लाई खाद्य सामग्री पत्तों पर परोसने लगी। 

"माधवी इधर देखो, मेरे नेत्रों में । तुम हो न माधवी ? "

माधवी मुस्कुराई -"मुनिकुमार, क्या हुआ? "

गालव झेंप गया-" नहीं, कुछ भी तो नहीं। "

कहते हुए गालव ने उसके दोनों हाथ ऐसे कोमलता से थामे जैसे दो कमल पुष्प को अपनी अंजली में भर रहा हो। 

"चलो माधवी, अब आगे का जीवन हम साथ बिताएं। "

माधवी भी उस क्षण बहक गई थी। "चलो गालव। " किंतु अगले ही पल वह सम्हली-" और गुरु दक्षिणा? "

गालव भी सम्हला-" हां माधवी, बिना गुरु दक्षिणा के ज्ञान, तप, अधूरा। मेरे इतने वर्षों की साधना व्यर्थ जाएगी। क्या करूं माधवी तुम्हीं कहो । "

"गुरु दक्षिणा आधी तो हमने जुटा ही ली है । आधी और जुटा लेंगे। फिर तो हम साथ हैं ही गालव । "

अभिभूत था गालव। मन हुआ माधवी के चरणों को हृदय में दबोच ले । माधवी गुरु दक्षिणा के लिए फिर किसी राजा की शैया पर जाने को तैयार है । माधवी उसके जीवन में वरदान बनकर आई है। वह किसी भी मूल्य पर माधवी को खोने को तैयार नहीं है। अगर अपेक्षित अश्व राजा उशीनर के पास मिल गए तब तो फिर एक ही वर्ष माधवी का वियोग उसे सहना होगा । फिर माधवी पूर्णतया उसकी होगी। उसने पत्तल में से पहला ग्रास उठाया और माधवी को खिलाते हुए सुख से भर उठा । माधवी ने भी पहला ग्रास गालव को खिलाया। भोजन के पश्चात दोनों ने वहीं वृक्ष की सघन शाखाओं की छांव में विश्राम किया। 

वसंत ऋतु का आगमन हो चुका था वन के वृक्ष और लताएं सुंदर सुवासित पुष्पों से श्रृंगार किए सबके मन में अनुराग का संचार कर रहे थे, प्रेम पराग पृथ्वी के कण-कण में समाया था। 

पुष्पों से झुकी हुई लताएं कामदेव के धनुष जैसी लग रही थीं। उनमें गुंजार करते भौंरों का समूह प्रत्यंचा के समान लगता था, जिसे मानो बसंत ने स्वयं ही सजाया हो। 

बसंत के इस साम्राज्य में कितने खुश थे पेड़ -पौधे, लताएं, घास से भरे मैदान, नदी, सरोवर, जलप्रपात। 

महुआ के फूलों की नशीली सुगंध से बौराई आम्र मंजरी से लदी शाखा पर बैठी कोयल की कुहू कुहू का अनुसरण करती माधवी कितनी प्यारी लग रही थी। 

गालव वृक्ष के नीचे बैठे हुए एकटक उसे ही देख रहा था। इस समय वह किशोरी बालिका सी कभी सेमल, कभी किंशुक, कभी कचनार, कभी अमलतास, कभी शिरीष के बेहद कोमल पुष्पों को निहारती जो इतने कोमल होते हैं कि केवल भौंरों के पैरों का दबाव सहन कर सकते हैं, पक्षियों के पैरों का नहीं चकित हिरनी सी लग रही थी। 

पिछले वसंत में वह दिवोदास के राज महल में थी । एक वर्ष व्यतीत हो गया। 

इस एक वर्ष में गालव ने जहां एक ओर गुरु दक्षिणा के 200 अश्व और प्राप्त किए वहीं दूसरी ओर माधवी का वियोग भी सहा। कितने कठिन थे वे दिन जब शेष अश्वों की खोज के लिए वह दर-दर भटक रहा था। जब माधवी उसके साथ नहीं थी और वह दिशाहीन था। कहां जाए? कहां से प्राप्त करे शेष अश्व? 

"मुनिवर, इधर तो आईए देखिए अशोक के नन्हे नन्हे रक्तिम पुष्पों को । आहा साक्षात सौंदर्य का प्रतिमान। "

गालव माधवी के समीप पहुंचकर उन पुष्पों को निहारने लगा। कामदेव के पांच बाणों में से एक अशोक पुष्प । 

जब अपनी प्रत्यंचा में स्वयं बाण का संधान कर कामदेव ने महादेव के तप को भंग करने के लिए उन पर साधा था तो अशोक पुष्प ने कामदेव का साथ देते हुए स्वयं के संधान को स्वर हीन कर दिया था। ताकि बाण के तप को भंग करने की कठोरता और प्रेम का संचार करने की मधुरता का समन्वित स्वर बिखर न जाये। कामदेव का कार्य पृथ्वी के लिए उपकार का कार्य था तभी तो अशोक पुष्प ने साथ दिया । 

गालव ने अशोक की निचली शाखा से पुष्पगुच्छ तोड़कर माधुरी को दिया । माधवी अनुराग के लाल रंग में रंग गई । दोनों मंथर गति से विचरण करने लगे। क्षण भर के मौन के बाद माधवी ने कहा- "गालव, मेरे मन में अशोक को लेकर कई प्रश्न है। "

ठहर गया गालव -"अशोक को लेकर प्रश्न ? भला कौन से? " "पिताश्री राजा ययाति के राज महल में मुझे शिक्षा प्रदान करने वाले मेरे गुरुदेव ने बताया था कि अशोक में पुष्प वसंत ऋतु में आते हैं किंतु जब तक सुंदरियों के नूपुर पहने आलता लगे पाँव उस पर प्रहार नहीं करते तब तक वह नहीं खिलता। 

"हां, यह सत्य है माधवी । सुंदरियों के पदाघात के बिना यह खिलता नहीं है। यही मान्यता है । "

"तो मेरा प्रश्न है कि स्त्री के पदाघात की अवमानना कैसे स्वीकार करता है अशोक? क्या विवशता है उसकी?  वह तो नर है। वह क्यों नहीं स्त्री के पदाघात पर रोष प्रकट करता। उल्टे खिलकर उसके प्रति कृतज्ञता से भर जाता है। "

"इसका उत्तर तुम्हारे पास है माधवी। बिना स्त्री के सृष्टि का कोई भी कार्य संभव नहीं है । यह जानते हुए भी तुम प्रश्न कर रही हो। कहीं तुम्हारा संकेत मेरी ओर तो नहीं ? "

गालव के कथन से माधवी को खेद हुआ । गालव ने उसके प्रश्न को गलत दिशा में मोड़ दिया। इस तरह तो उसने सोचा नहीं था। 

" क्षमा गालव, मेरे प्रश्न का संकेत तुम्हारी ओर नहीं था । तुमने परिस्थितियों के कारण ऐसा सोचा। खेद है मुझे । "

दोनों के बीच काफी देर तक मौन रहा। 

*****

बसंत ऋतु कब बीत गई पता ही न चला । अनुराग के रंग को फीका करती ग्रीष्म ऋतु ने दबे पांव वन प्रदेश में उस समय पदार्पण किया जब गालव और माधवी भोजनगर की ओर प्रस्थान की तैयारी में व्यस्त थे। 

"माधवी हमें ग्रीष्म में ही यात्रा करनी होगी। क्योंकि फिर आषाढ़ आ जाएगा और यात्रा करना सुरक्षित नहीं होगा। "

"भोजनगर आषाढ़ के पहले क्या हम पहुंच सकेंगे गालव। मार्ग भी तो लंबा है। विंध्य पर्वत का वन भी पार करना होगा। "

"प्रयत्न तो किया ही जा सकता है। "

दृढ़ निश्चय को गांठ बांध दोनों भोजनगर के मार्ग की दिशा में चल पड़े । 

उष्ण हवाएं दिन के ताप में उनके पैरों की गति धीमी कर देतीं। यही कारण था कि वह अर्धरात्रि तक चलते रहते और दोपहर होते ही लता कुंजों की शीतलता में विश्राम करते । मार्ग में मिलने वाले गांव कस्बों से भोजन की व्यवस्था हो ही जाती, लंबे मार्ग के लिए जहां आसपास गांव नहीं पड़ेंगे, ग्रामवासी सत्तू और चना चबैना बांध देते। 

कार्य सिद्धि की कैसी लगन थी दोनों में । जिनके लिए रात-दिन एक हो रहे थे। जिनके लिए अब चलने के अर्थ बदल चुके थे। अब दोनों एक दूसरे के प्रति प्रेम, त्याग और विश्वास से भरे थे। मार्ग के कंटक भी मानो पुष्प हो गये थे । 

****

आर्यावर्त की दक्षिणी सीमा पर स्थित था भोजनगर। बीच में विंध्य पर्वत का सघन वन। 

कई दिनों की यात्रा के पश्चात वे विंध्य के वन में आ गए, जहां भोजनगर की ओर जाने वाला मार्ग ढूंढना लगभग असंभव था। विंध्य के वनों में हिंसक पशुओं का बोलबाला था । वृक्षों तले रात्रि व्यतीत करना सुरक्षित नहीं था। कभी भी हिंसक पशुओं का सामना करना पड़ सकता था। अतः वे पेड़ पर मचान बनाकर रात्रि व्यतीत करते। कई दिन लग गए इन वनों में किंतु वन से निकलना संभव ही नहीं हो पा रहा था। गालव के मन में खिन्नता आ गई

"इस तरह तो चकरघिन्नी से घूमते रहेंगे। मौसम भी परिवर्तित होने की संभावना है। "

तभी उनकी दृष्टि चार घुड़सवारों पर पड़ी' कहीं ये ठग, लुटेरे तो नहीं? '

सोचा ही था गालव ने कि उन घुड़सवारों में से एक ने घोड़े से उतरकर गालव से पूछा

" इस वन में आप का आश्रम कहां है साधु बाबा? "

दोनों को मौन देख सभी घुड़सवार उतर गए। उन्होंने अपने घोड़ों को वृक्ष से बांध दिया। गालव के मन से उन्हें लेकर डर जाता रहा। 

" तपस्वी है बंधु, भोजनगर की ओर जाना है। 

"अच्छा वहां पहुंचने में तो छह-सात दिन और लग सकते हैं। मार्ग का ज्ञान है आपको? "

"नहीं बंधु, मार्ग ही तो नहीं खोज पा रहे हैं । जिस मार्ग पर चलना आरंभ करते हैं घूम फिर कर फिर उसी मार्ग पर आ जाते हैं। वन का मायाजाल तो देखिए। "

चारों हंसने लगे । अब वे आपस में सहज हो गए थे। माधवी ने पूछा- "आप इस वन में किस उद्देश्य से बंधुवर? "

"हम तो आखेट करने आए हैं। हिंसक पशुओं से भरा है ये वन। राहगीरों के लिए राह पर करना असंभव हो जाता है। हम इस वन के चप्पे-चप्पे से परिचित हैं। आप चाहेंगे तो आपकी सहायता कर सकते हैं । "

"अवश्य, बड़ा उपकार होगा आपका। "

घुसवारों के पास तीर -कमान, भाला आदि थे। उनके साथ चलने में हिंसक पशुओं का डर नहीं रहेगा। वन को पार करने में 8 दिन लग गए । घुड़सवारों के पास पर्याप्त भोजन सामग्री होने के कारण गालव और माधवी को केवल नदियां, झरने, सरोवर को खोजना पड़ता, जहां वे स्नान, पूजन, वंदन कर सकें । 

चार घोड़ों में से एक घोड़ा

अब माधवी और गालव के पास था। माधवी घुड़सवारी में निपुण तो थी ही। गालव उसके पीछे बैठा देख रहा था कि माधवी कितनी कुशलता से उन घुड़सवारों के समांतर चल रही है । 

आषाढ़ की बूंदों ने तपती धरती को स्पर्श किया। सौंधी सुगन्ध से धरती ने उन बूंदों का स्वागत किया। भोजनगर की सीमा भी आ चुकी थी । घुड़सवारों ने उनसे विदा ली। माधवी और गालव ने उनके प्रति कृतज्ञता प्रकट करते हुए कहा आभार बंधुवर, आप के आतिथ्य और साथ से वन को पार करना संभव हो सका। अन्यथा न जाने हमें कितने दिन और लग जाते। " "हमें भी आपके साथ आनंद आया। ईश्वर आपके उद्देश्य को सफल करें। "

कहते हुए शिकारियों ने पुनः वन की दिशा में प्रस्थान किया। 

****