कर्म से तपोवन तक - भाग 10 Santosh Srivastav द्वारा फिक्शन कहानी में हिंदी पीडीएफ

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कर्म से तपोवन तक - भाग 10

अध्याय 10

गालव और माधवी संग-संग वन वीथिकाओं में चल रहे थे। किंतु अपनी इस यात्रा में गालव ने न तो माधवी का हाथ पकड़ा और न एकांत पाकर उसे गले लगाया । वह विचारों की तीव्र आंधियों से दो चार हो रहा था। उसकी मनः स्थिति एक लुटे हुए यात्री जैसी थी जिसने मेले में अपनी पसंद का बहुत कुछ पा लिया था लेकिन अचानक सब कुछ उसके हाथ से छिन गया। वह उन घड़ियों को याद कर रहा था। 

जब वह 600 अश्वों को एकत्रित कर विश्वामित्र के आश्रम की ओर आ रहा था। वन के सघन वृक्षों से गुजरते हुए वह माधवी को पाने के लिए उतावला हो रहा था । 

कितना सुहावना समय होगा जब वह माधवी के साथ इन्हीं वृक्षों के साये में सुरम्य स्थल पर आश्रम बनाकर रहेगा । वह स्थान कहलाएगा महर्षि गालव का आश्रम । आश्रम का परिसर शिष्यों से भरा होगा। 

वह मुक्त हस्त से अपनी विद्या का दान करेगा। विद्या जो कभी घटती नहीं देने से और बढ़ती है। विदुषी माधवी के साथ भी वह विभिन्न विषयों के तार्किक विमर्श करेगा। माधवी से उत्पन्न उसके शिशुओं से आश्रम का कोना कोना मुखरित होगा। उसके शिष्य माधवी को गुरु माता कहेंगे। 

गुरू माता!

विचारों के प्रवाह को एकाएक ठोकर सी लगी। है प्रभु, तो क्या माधवी अब उसकी गुरु माता है। गुरु विश्वामित्र के पुत्र की माता है वह । इस नाते से उसकी भी गुरु माता हुई। 

चलते-चलते लड़खड़ा गया गालव। ओह यह क्या सोच रहा है वह ? वह जिससे प्रेम करता है उसी को गुरु की शैया पर अपने स्वार्थ सिद्धि के लिए ढकेल दिया। घोर अनर्थ, प्रभु अब क्या होगा। इस बात का क्या दंड मिलेगा उसे? 

उसके पैर मन मन भर के हो गए। चलना मुश्किल हो गया। वह सघन जामुन के वृक्ष के नीचे लगभग गिरते हुए बैठा। गनीमत है कि सामने सरोवर था। गुलाबी सफेद कमल खिले थे सरोवर में। अश्वों ने समझा यहां जल पीना है । अतः वे सरोवर को घेरकर खड़े हो गए। सरोवर दिखना बंद हो गया और अश्वों की लहराती पूंछ ने जैसे सरोवर पर तंबू सा तान दिया। उसे  अश्वों से घृणा हो गई । किंतु दूसरे ही पल घृणा तिरोहित होकर आभार में बदल गई। माधवी को उससे मिलाने वाले भी तो ये अश्व ही हैं। माधवी नहीं जानती गुरु विश्वामित्र के पास रुकने, उनके पुत्र को जन्म देकर गुरु दक्षिणा चुकाने के उसके हठ ने गालव के जीवन में ग्रहण लगा दिया। गालव संस्कारों वाला चरित्रवान पुरुष है। अपने संस्कारों के लिए वह किसी से भी समझौता नहीं कर सकता। फिर चाहे वह प्रेम ही क्यों न हो । 

उसके हृदय से उठी आह ने उसके समक्ष एक बड़ा सा शून्य रच दिया। शून्य में किसी का प्रतिबिंब झिलमिला रहा था । किसका स्पष्ट नहीं था । उसने आंखें मलमल कर देखा। प्रतिबिंब स्पष्ट हुआ। गुरु विश्वामित्र शून्य में मुस्कुरा रहे थे -" इतना भी अन्याय नहीं किया मैंने तुम पर गालव, वे अश्व मेरे ही थे। मेरे राज्य के, मेरे पिताश्री गाधि की संपत्ति। उन्हें मुझ तक लौटना ही था। मैं यह विलक्षण पैतृक संपत्ति अष्टक को सौंपकर हिमालय तप के लिए चला जाऊंगा। "

"क्षमा करें गुरुदेव, अगर आपको अपनी संपत्ति चाहिए थी तो उसे पराक्रम से प्राप्त करना था। माधवी को मोहरा बनाकर नहीं। "

"हठ तो तुम्हीं ने किया गालव। मैं उस समय ग्रंथ की रचना में तल्लीन था और तुम हठ कर रहे थे । मेरी तो कोई आकांक्षा नहीं थी । बस यही थी जो मैंने तुमसे मांग ली। "

"अगर यही आपका निर्णय था गुरुदेव तो आपने माधवी से पुत्र क्यों उत्पन्न किया? "

"ठहरो, ठहरो गालव । माधवी की यही इच्छा थी। तुम्हारे प्रति अतुलनीय प्रेम की पराकाष्ठा ने उससे ऐसा कराया । वह तुम्हें पराजित नहीं देख सकती थी किंतु अब तुम उसे कैसे स्वीकार करोगे? अब तो वह तुम्हारी गुरुमाता है। " "गुरु विश्वामित्र आप गुरु नहीं शाप हैं मेरा । आप शाप बनकर मेरे जीवन में आए। "

सहसा शून्य मिट गया । गुरु विश्वामित्र लुप्त हो गए । एक अंधकार भरी, दुर्गम, लंबी और भयावह कंदरा में उसे धकेल कर जिस के मुहाने का न आदि था न अंत। 

गालव को लगा जैसे वह शताब्दियों से अभिशप्त है, दिग्भ्रमित है । उसके पैरों के नीचे वन की लचीली दूर्वा का विस्तार नहीं बल्कि सूखी दरकी हुई भूमि है जो उसे निगल जाने को बस फटने ही वाली है । तेज़ वायु में पलाश के पत्र नहीं बल्कि उसके स्वप्न झर रहे हैं। यह कैसा समय चक्र है जो उसे तीव्रता से घुमा रहा है। बार-बार वह चक्र गगन को स्पर्श करता है। जहां से काले घने मेघ वर्षा की बौछारें, कड़कती सौदामिनी खिंची चली आ रही है उसकी ओर। वह निरूपाय आंखें मूंद लेता है। देखता है श्याम कर्ण, श्वेत वर्ण अश्वो के गले में बंधी घंटियां टुनटुना रही हैं। वह ध्वनि महाकाल की प्रचंड ध्वनि बन उसके हृदय के टुकड़े-टुकड़े किए जा रही है । 

कांप उठा गालव-'मुक्ति दो प्रभु मुक्ति दो । इस विभीषिका में मेरी श्वास घुट रही है। नहीं जीना चाहता मैं । इस भयँकर अपराध बोध को लिए कैसे जिऊंगा मैं? 

साथ चलते चलते माधवी चकित थी कि गालव कुछ कहता क्यों नहीं? 

"मौन क्यों हो गालव? वर्ष भर के वियोग के पश्चात हम मिल रहे हैं क्या तुम प्रसन्न नहीं? "

गालव ने अपने मन की पीड़ा छुपाते हुए कहा-

"बस यूं ही । मिलना बिछड़ना हमारी नियति बन गया है। 4 वर्षों से यही लुकाछिपी तो चल रही है । "

गालव के कथन में उदासी थी। 

" इसी लुकाछिपी ने तो हमें एक दूसरे के प्रति अधिक प्रेम में डुबाया है । बिछड़ेंगे नहीं तो मिलेंगे कैसे? किंतु अब तो लुकाछिपी समाप्त हुई । यहीं कहीं अच्छा स्थान ढूंढते हैं अपने आश्रम के लिए। मुनिवर गालव और माधवी का आश्रम । "कहते हुए माधवी दिवास्वप्न में खो गई । थोड़ी देर दोनों के बीच मौन रहा । मौन गालव ने तोड़ा-

" माधवी इस समय हम राजा ययाति के आश्रम चल रहे हैं । तुम्हें सही सलामत उन्हें सौंपने। "

चौक पड़ी माधवी -"क्या!क्या कहा तुमने । फिर से तो कहो । "

"हाँ माधवी। हमारा विवाह असंभव है। ऐसा करना पाप होगा । "

" पाप, कैसा पाप? मेरी तो कुछ भी समझ में नहीं आ रहा है । 

"बहुत स्पष्ट है माधवी । अब तुम मेरी गुरु माता हो। मेरे गुरु विश्वामित्र के पुत्र की माता। हम कैसे विवाह कर सकते हैं। यह अनर्थ होगा । पाप होगा। 

जहां की तहां ठिठक गई माधवी। यह किस तरह का कथन है गालव का । 

जहां प्रेम की आंच तो छोड़ो एक चिंगारी तक नहीं । 

तो क्या गालव ने भी उसे अन्य पुरुषों की तरह मात्र भोग की वस्तु समझा है। 

अभी तक वह गालव के प्रति प्रेम, अनुराग के भावों से भरी थी। अब जैसे उन भावों के मेघों में दामिनी सी कौंधी-

"ओह तो अब तुम पाप-पुण्य की व्याख्या भी करने लगे? तब तुम्हारे संस्कार कहां थे जब तुमने एक के बाद एक चार पुरुषों के हवाले किया था मुझे? तब तुम्हारे संस्कार कहां थे जब तुमने स्वार्थ सिद्धि की मंडी में मुझे विक्रय कर मेरा शुल्क वसूलने के लिए खड़ा किया था ? अब तुम्हें पाप पुण्य नजर आ रहा है? "

"समझने की कोशिश करो माधवी, तुमने भी तो वेद पुराण पढ़े हैं । नियमों से तुम भी भलीभांति परिचित हो। "

"नियमों से तो परिचित हूँ गालव लेकिन तुम्हें समझने में मैंने भूल की। "

"तो क्या मैं गुरु माता से विवाह......"

"विश्वामित्र तो मेरे द्वारा तुम्हारी गुरु दक्षिणा वसूल कर रहे थे। उन्होंने मुझसे विवाह तो नहीं किया । उन्होंने मुझे अपनी परिणीता तो नहीं बनाया। फिर मैं तुम्हारी गुरु माता कैसे हो गई? "

माधवी का तर्क अकाट्य था। गालव के पास कुछ कहने को शेष नहीं था। लेकिन उसकी शिक्षा इस तर्क के आड़े आ रही थी। क्या वह यह बात भूल जाए कि माधवी उसके गुरु के पुत्र की माता है? नहीं, यह संभव नहीं। 

चलते-चलते दोपहर ढल चुकी थी। गालव ने वृक्षों के नीचे विश्राम करना चाहा। लेकिन माधवी चलती रही। अब उसका गंतव्य पिताश्री ययाति का आश्रम ही था। 

वह शीघ्र से शीघ्र गालव को उसके इस अंतिम कर्तव्य से या विश्वामित्र के आदेश से मुक्त करना चाहती थी। 

उसके मन का उबाल उसे यह कहने के लिए विवश कर रहा था कि

"गालव तुमने मेरा दुरुपयोग किया है। तुमने मुझे अपने उद्देश्य की पूर्ति के लिए साधन मात्र बनाया है । तुमने मेरा ही नहीं समस्त स्त्री जाति का अपमान किया है । युगों -युगों तक कोई स्त्री तुम्हें क्षमा नहीं करेगी । सुन रहे हो गालव? आज से तुम्हारी अपकीर्ति की लंबी यात्रा आरंभ हो रही है । "

इस समय माधवी के मुख पर मलिनता या क्लेश नहीं था अपितु एक तेज था। जिसकी ओर देखना गालव के लिए असंभव हो रहा था । वह माधवी को समझाना चाहता था । स्वयं का निर्दोष होना सिद्ध करना चाहता था। पर वह ऐसा कर न सका । 

"चल रही हूं पिताश्री के आश्रम । लौटा देना उन्हें दान में दी हुई यह वस्तु। किंतु इतना याद रखना दान कभी लौटाया नहीं जाता । ऋण लौटाया जाता है। और पिताश्री ने तुम्हें ऋण नहीं दिया, दान दिया है। दान लौटाने की परंपरा होती तो याचक ही क्यों होता मनुष्य। तुम तो याचक हो । कोई अर्थ नहीं तुम्हारे ज्ञान प्राप्ति का क्योंकि ज्ञान मनुष्य को कभी याचक नहीं बनाता। ज्ञान ही तो मनुष्य को उसके संकटों से उबारता है । जाओ क्षमा किया मैंने तुम्हें। क्षमा ही तो करती आई हूँ पिताश्री को, हर्यश्व को, उशीनर को, दिवोदास को और परम ज्ञानी, महान तपस्वी विश्वामित्र को जो चाहते तो तुम्हारी गुरु दक्षिणा क्षमा कर सकते थे किंतु स्त्री को देखते ही उनका पौरूष जाग उठा। स्त्री को देखते ही अपने अपने क्षेत्र के यह सभी महारथी लार टपकाने लगे । तुम उनसे भिन्न नहीं हो गालव। क्षमा करती हूं तुम्हें। अब हम कभी नहीं मिलेंगे । ईश्वर तुम्हें सद्बुद्धि दे। "

राजा ययाति का आश्रम आ चुका था। सघन वृक्षों, पुष्पित वन लताओं, कुंजों से घिरा । संध्या का समय, प्रातः काल संपन्न हुए यज्ञ कुंड की आंच समाप्त हो चुकी थी और सुगंधित धुँआ आश्रम को ऐसे घेरा था मानो आश्रम पर मेघों का डेरा हो। 

संध्या आरती की तैयारी चल रही थी। श्लोकों की गूंज सुनकर गालव और माधवी आश्रम के द्वार पर ठिठक गए। तभी माधवी की बाल सखी वासवदत्ता की उस पर नजर पड़ी । हर्ष के अतिरेक में वह जहां थी वहीं से पुकार उठी- "माधवी तुम आ गईं? "

दामिनी की गति से आश्रम के कोने कोने में माधवी के आने का समाचार पहुंच गया। समाचार माता शर्मिष्ठा के पास पहुंचा, समाचार पिताश्री ययाति के पास पहुंचा। लंबे-लंबे 4 वर्षों के उपरांत पुत्री माधवी को सामने पा पिताश्री राजा ययाति विह्वल हो गये। यूँ तो माधवी को हुलसकर उनके अंक में समा जाना था। पर वह तो भावना शून्य हो चुकी थी। राजा ययाति जहां के तहां प्रस्तर हुए बैठे थे। वे माधवी के संग संग गालव की भी उपस्थिति को बड़े ही हर्ष से अनुभव कर रहे थे । किंतु यह क्या दोनों के चेहरों पर किसी भी प्रकार की प्रसन्नता नहीं थी। उन्होंने प्रश्न भरे नेत्रों से गालव की ओर देखते हुए पूछा -"मुनिवर गालव आप गुरु दक्षिणा जुटाने में सफल तो हुए न? "

'गुरु दक्षिणा तो जुटा ली महाराज, किंतु माधवी को खो दिया । 'कहना चाहा गालव ने । किंतु अपने भावों को हृदय में दबाकर उसने बस इतना ही कहा-" हाँ महाराज, आपके आदेशानुसार माधवी ही निमित्त बनी गुरु दक्षिणा जुटाने की। "

राजा ययाति ने प्रसन्नता से कहा -"मुझे अपनी पुत्री पर भरोसा था। तभी तो मैंने उसे इस कार्य के लिए आपको दिया । मुनिवर मैं पूरी बातें विस्तार से जानना चाहता हूं। "

"महाराज किसी के पास 800 अश्व नहीं थे। जिस भी राज्य में हम गए वहां से केवल 200 अश्व ही प्राप्त हुए । अयोध्या, काशी और भोजनगर से 3 वर्ष की अवधि में 600 अश्व प्राप्त हुए। "

" तीन वर्ष! तो क्या माधवी प्रत्येक राजा के पुत्र की माता बनी ? ओह मैंने इस तरह तो सोचा नहीं था। मुनिवर इस मार्ग पर आप मेरी पुत्री को ले जाओगे यह तो मेरी कल्पना से परे था। "

'गालव संकट में पड़ गया। यह क्या कह रहे हैं राजा ययाति! उन्हीं ने तो कहा था कि माधवी चक्रवर्ती पुत्रों की माता बनेगी, और तुम्हारी गुरु दक्षिणा जुटाएगी क्योंकि उसे अक्षत कौमार्य का वरदान प्राप्त है!'

माधवी ने आग्नेय नेत्रों से पिता की ओर देखा । आपने तो मुझे दान में दिया था गालव को। दान की वस्तु का वह चाहे जैसे उपयोग करें। जब आप मुझे गालव को सौंप रहे थे तब आपने नहीं सोचा कि गालव भी एक युवा है और आपकी पुत्री भी। एक युवा किशोर को आपने कैसे सौंपी अपनी पुत्री? उस पर विडंबना यह कि आपने गालव को इस बात से भी विदित कराया कि माधवी अक्षत यौवना है । वह चक्रवर्ती पुत्रों को जन्म भी देगी । आप ही ने तो इस मार्ग की ओर अग्रसर किया गालव को । इसमें गालव का क्या दोष ? कहना चाहा माधवी ने। पर वह मौन ही रही। 

ह्रदय बेधते सन्नाटे को झेलना सबके लिए असंभव था । 

माता शर्मिष्ठा ने आग्रह किया -"इतनी शीघ्रता क्यों मुनिवर ? कुछ दिन आश्रम का आथित्य ग्रहण करें । "

गालव की मनःस्थिति ठीक नहीं थी। वह शीघ्र से शीघ्र वहां से चला जाना चाहता था। वह माधवी के सदा के लिए बिछोह की कल्पना से ही अनमना हो उठा था । व्यर्थता का बोध उसकी अंतरात्मा को झंझोड़ रहा था । माधवी के साथ अन्याय हुआ है जिसका एकमात्र दोषी वह है । वह स्वयं को कभी क्षमा नहीं करेगा । "

"किस विचार में डूबे हैं मुनिवर ? "

"मुनिवर नहीं, अब तो गालव महर्षि हैं माता। इनकी शिक्षा, गुरु दक्षिणा, दीक्षांत समारोह संपन्न हो चुका है। और इनके महान गुरु विश्वामित्र ने इन्हें महर्षि की उपाधि प्रदान की है । "माधवी के वचनों के तीखे व्यंग्य बाण गालव को घायल किए जा रहे थे । उसने सिर झुका कर विनम्रता से कहा -

"रोकें न देवी, विलंब हो जाएगा । आज्ञा दें । "

माधवी जानती थी गालव हठी है। इस हठ ने ही उसे दुर्लभ गुरु दक्षिणा के चक्र में फंसाया। 

गालव बिना माधवी की ओर देखे कक्ष से बाहर चला गया। माधवी के ह्रदय का एक टुकड़ा गालव के संग चला गया। आश्रम से बाहर निकल घने अंधकार में गालव लुप्त हो गया। 

गालव जिस घने अंधकार में चल रहा था वहां वृक्ष भी परछाई मात्र दिख रहे थे। झाड़ियों में जुगनू चमक रहे थे और आसमान में श्री हीन दूज का चांद । गालव को प्रकृति की हर वस्तु श्रीहीन दिखाई दे रही थी। वह माधवी के चेहरे के तेज को क्यों नहीं संभाल पाया। क्यों अपने आदर्शों के लिए हठ कर बैठा। क्यों जीवन भर का दुख, वियोग, अशांति अपने कंधों पर ढोते रहने की ठान ली उसने। गुरु दक्षिणा में गुरु विश्वामित्र द्वारा मांगे गए दुर्लभ अश्वों को प्राप्त न कर सकने की पीड़ा में वह आत्महत्या करने चला था । तब बचाया था गरुड़ ने। आज माधवी के जीवन भर के वियोग की पीड़ा के वशीभूत आत्महत्या का पुनः विचार उसके हृदय को मथने लगा । 

अंधकार गहराता जा रहा था। निस्तब्ध वातावरण में कीट पतंगों की झंकार कानों में चुभ रही थी। एकाएक मौलश्री की डाल पर कहीं से उड़कर मोर आ बैठा । उसकी लंबी पूंछ पताका सी दिख रही थी। उसी वृक्ष के नीचे गालव ने रात्रि विश्राम का तय किया । बिछौने के लिए सूखी घास एकत्रित करते हुए उसका हाथ सांप की बांबी से टकराया। मन हुआ छोड़ दे यह स्थान। जीवन को खतरा है यहां। किंतु दूसरे ही क्षण वह आत्मिक संतुष्टि से भी भर उठा । माधवी को खो देने की पीड़ा से छुटकारे का यह संकेत है प्रभु की ओर से। उसने सूखी घास का बिछौना बनाया और उस पर लेट कर सर्प की प्रतीक्षा करने लगा। थोड़ी देर में दूज का चांद अस्त हो गया । उसे लगा माधवी उसके सिरहाने बैठी

हौले-हौले उसके बाल सहला रही है। धीमे से मस्तक को चूमते हुए कह रही है' गालव इतनी लंबी प्रतीक्षा के बाद हम मिले हैं। यह प्रतीक्षा हमारे एक दूसरे के प्रति समर्पण का प्रतीक है। इसे संभालो।  इस प्रतीक्षा को संभालो। '

सहसा तेज़ हवा चली। उसके सीने पर कुछ सरसराया। उसने चौक कर आंखें खोलीं। सर्प उसके सीने से उतरकर अपनी बांबी की ओर जा रहा था। 

प्रातःकाल आंख खुलते ही गालव को स्वयं पर विश्वास नहीं हुआ। सही है मनुष्य कितना परिस्थितियों के वशीभूत है। अनचाहे क्षणों में भी जीवित रहने को विवश है। उसने आंखें बंद कर अपने चारों ओर दृष्टिपात किया। वायु की तरंगों में श्लोकों की मध्यम ध्वनि और वृक्षों पर ठहरा हुआ धुँआ किसी आश्रम के समीप होने का संकेत दे रहा था । एक घड़ी पश्चात किनारे पर बहती नदी में गालव ने स्नान किया और प्रातः वन्दना कर वह अपने लिए कुटिया बनाने का स्थान खोजने लगा । स्थान खोजते खोजते उसके मन में विचार आया कि इस वन प्रदेश में राजा ययाति और गुरु विश्वामित्र का भी तो आश्रम है । दोनों ही आश्रम उसकी स्मृति को तकोरते रहेंगे । इन्हीं दोनों महापुरुषों ने ही तो उसे माधवी से दूर किया है। उसने इस वन प्रदेश को छोड़ने का निर्णय ले लिया। 

******

शयनकक्ष में राजा ययाति शर्मिष्ठा के साथ विचारमग्न थे। चार पुरुषों के पुत्रों की माता के रूप में माधवी को किस रूप में ग्रहण करें । क्या वह उनकी कुमारी पुत्री रही? ब्याहता भी नहीं रही। हाय, विधि का विधान । सोचते हुए राजा ययाति के नेत्र डबडबा आये। शर्मिष्ठा ने सांत्वना दी -

"महाराज इस तरह मन छोटा मत करिए। माधवी आपने दान में दी थी गालव को। आपको उसे स्वीकार करना होगा । "

"किंतु देवी। "

"नहीं महाराज, आप पिता हैं। पुत्री का कन्यादान करें, स्वयंवर रचाएं उसका। यही आपके हित में होगा। माना वह चार पुत्रों की माता है। किंतु वह अनुष्ठान करके पुनः कौमार्य धारण कर चुकी है । आप ही ने तो बताया था मुझे। "

शर्मिष्ठा के कथन ने राजा ययाति के घाव पर मरहम का काम किया। वे शैया से उठ खड़े हुए। 

" ठीक कहती हो शर्मिष्ठा। मैं कल ही स्वयंवर की घोषणा करके सभी राजाओं और राजकुमारों के पास निमंत्रण भेजता हूं। एक बार तुम भी माधवी से इस विषय में उसकी राय जान लो । "

"क्या कह रहे हैं महाराज? गालव को दान में देते हुए क्या आपने पूछा था माधवी से ? तब तो आप अपने दानवीर होने पर कलंक नहीं आने देना चाहते थे। तब आपको पुत्री मोह नहीं जागा? और अब ? महाराज मैं क्या मुंह लेकर जाऊँ माधवी के पास। मैं भी तो आपको तब नहीं रोक पाई थी। "

"तुम मेरा विरोध कर रही हो शर्मिष्ठा तुम भूल गई हो कि तुम मेरी पत्नी हो। "

"विरोध नहीं महाराज। मैं स्त्री का पक्ष ले रही हूं। माधवी को दान में देते हुए तब जो नहीं कर पाई अब करने की कोशिश कर रही हूं। भले ही विमाता हूं पर हूँ तो एक स्त्री ही। "

कहते हुए शर्मिष्ठा शयन कक्ष से बाहर आ गई । 

राजा ययाति तैश में उठे और सीधे अपने मंत्री के कक्ष में गए । राजपाट त्याग कर वानप्रस्थ में प्रवेश करने के समय मंत्री ने भी उनके साथ ही वानप्रस्थ ले लिया था और वह साये की तरह उनके साथ था । राजा ययाति ने मंत्री से माधवी के स्वयंवर के विषय में मंत्रणा की। दूसरे ही दिन स्वयंवर का दिन निश्चित कर सभी राजाओं राजकुमारों को निमंत्रण भेजा गया और आश्रम में स्वयंवर की तैयारियां आरंभ हो गई । 

वासवदत्ता ने यह सूचना माधवी को देते हुए उसके मुख की ओर आश्चर्य से देखा, जहां किसी भी तरह के भाव नहीं थे । शून्य के विस्तार में वह न जाने किन विचारों में खोई हुई थी। 

"तुमने सुना माधवी? क्या तुम्हें तनिक भी पीड़ा नहीं कि हम कुछ ही समय में बिछड़ जाएंगे। "

सहसा माधवी चेती- "वासवदत्ता, हर कन्या को एक न एक दिन अपने पति के घर जाना होता है। इसमें सोचने जैसी तो कोई बात ही नहीं है। "

"किंतु कन्या अपने विवाह की बात सुनकर हर्षित भी तो होती है । तुम्हारा चेहरा तो भाव शून्य है। जैसे तुम्हारा इस बात से कोई सरोकार ही नहीं हो। जबकि तुम अब गालव के अधीन नहीं हो । अपना वर स्वयं चुन सकती हो । 

"हां वासवदत्ता आज मुझे पिताश्री ने अपना वर स्वयं चुनने का अधिकार दे दिया । मैं नतमस्तक हूं उनके आगे। "

माधवी ने अपने स्वर के उलाहने को बड़ी खूबसूरती से नम्रता में बदलते हुए कहा । वासवदत्ता आश्वस्त हुई उसने माधवी को गले से लगाते हुए चूमा और कक्ष से बाहर हो गई लेकिन माधवी के विचारों का सिलसिला चलता रहा। वह गालव के विषय में सोचती रही। उन पुरुषों के विषय में सोचती रही जो उसके जीवन में आए । मानो उसकी सोच को पंख लग गए हों। उसने आकाश के विस्तार को नापा। पाताल की गहराई को खंगाला । दिशाओं के हर कोण को टटोला पर उसे कहीं ऐसा पुरुष नजर नहीं आया जो माधवी को समझ सके । उसे प्यार कर सके । उसके संग ईमानदारी से जीवन यापन कर सके । अब वह स्वार्थ के पंक में धँसना नहीं चाहती । अब उसे पुरुष की सत्ता से इंकार है । यह कदापि नहीं हो सकता कि वह स्वयंवर में किसी का चयन करे। यह बिल्कुल असंभव बात है। 

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