कर्म से तपोवन तक - भाग 2 Santosh Srivastav द्वारा फिक्शन कहानी में हिंदी पीडीएफ

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कर्म से तपोवन तक - भाग 2

अध्याय 2

अयोध्या में राजा हर्यश्व का राज महल देखते ही गालव की आँखें चौंधिया गईं। क्षण भर को वह भूल गया कि उसके साथ माधवी भी है। चकित हो वह अयोध्या के हरे भरे खूबसूरत रास्तों, बाग बगीचों, फव्वारों को देखता ही रह गया । राज महल की भव्यता देख उसे संदेह हुआ कहीं वह स्वर्ग में राजा इंद्र के महल में तो नहीं!

" कहाँ खो गए मुनिवर ? यह सांसारिक चकाचौंध है । आप तो तपस्वी हैं। इतने वर्षों तप करके संसार का सार समझ गए हैं। लेकिन गुरु दक्षिणा देकर अपने तप और साधना को संपूर्ण करने की इच्छा आपके मन में बलवती है। मुझे यहां किस उद्देश्य से लाए हैं यह भी आप भली-भांति जानते हैं । "कहना चाहा माधवी ने पर वह चुप ही रही। वह अपनी नियति जानती है । पुरुष सत्ता में स्त्री का अस्तित्व ही क्या? फिर चाहे वह पुत्री हो, बहन हो, पत्नी हो या दान में दी हुई मात्र वस्तु । 

राजमहल के पहरेदारों से अपने आने का उद्देश्य बता गालव ने माधवी के संग सेवकों का अनुसरण किया। राज दरबार में राजा हर्यश्व बैठे सभासदों से मंत्रणा में तल्लीन थे। उन्हें देखते ही राजा हर्यश्व ने आदेश दिया -

"सम्माननीय अतिथियों का आगमन हुआ है । अहोभाग्य, इन्हें आदर पूर्वक आसन दिया जाए । "

आसन ग्रहण कर मुनि गालव ने अपने आने का उद्देश्य बताया गुरु दक्षिणा में गुरु विश्वामित्र द्वारा मांगे गए आठ सौ श्वेत वर्ण, श्याम कर्ण अश्व के विषय में बताते हुए कहा -"महाराज मेरी सहायता करें । गुरु दक्षिणा दिए बिना मेरी साधना अधूरी रह जाएगी। "

राजा हर्यश्व सोच में पड़ गया -"आपके साथ यह कन्या कौन है? "

" यह माधवी है। राजा ययाति की पुत्री। अक्षत कौमार्य का वरदान प्राप्त है इसे। यह चक्रवर्ती पुत्र को जन्म देगी। "

राजा हर्यश्व माधवी को देखते ही रह गए । इतना सौंदर्य उन्होंने पहले नहीं देखा था । वे उस पर मोहित हो गए। माधवी अक्षत कुमारी है जिसे अभी तक किसी पुरुष ने स्पर्श नहीं किया है। यह निश्चय ही उन्हें चक्रवर्ती पुत्र देगी। उतावली न दिखा उन्होंने धैर्य पूर्वक कहा-" राजकुमारी माधवी को आप किस उद्देश्य से यहां लाए हैं? "

गालव अधीर हो उठा -"आप माधवी को पत्नी रूप में स्वीकार कर सकते हैं और अपनी अश्वशाला से शुल्क स्वरूप 800 अश्व दे सकते हैं । हम दोनों के मनोरथ इस तरह पूरे हो जाएंगे। "

" मुनि गालव, अगर आपको आपत्ति न हो तो मैं अपने राज ज्योतिषी से राजकुमारी माधवी के विषय में जानना चाहूंगा । "

गालव को भला क्या आपत्ति हो सकती है। वह तो माधवी के शुल्क स्वरूप 800 अश्वों को मानो साक्षात देख रहा है। अश्वशाला से बाहर आए उन अश्वों के मानो पंख निकल आए हों। वे आकाश में उड़ रहे हैं। हवा उनके पंखों की सरसराहट से बांसुरी बजा रही है । 

अपने लिए सुनिश्चित किए सिंहासन पर बैठे राज ज्योतिषाचार्य सामने बैठी माधवी का अंग प्रत्यंग निहार रहे थे । देह की मंडी में माधवी देह बन कर रह गई थी। राज ज्योतिषाचार्य के बोल उसके हृदय में अग्निबाण से चुभ रहे थे। "महाराज यह कन्या शुभ लक्षणों से युक्त और तीन पुत्रों तथा एक चक्रवर्ती पुत्र को जन्म देने में समर्थ है । इसके अंग प्रत्यंग इन शुभ लक्षणों से युक्त हैं। इसकी नासिका, ओष्ठ .......

आगे के शब्द माधवी सुनते हुए भी अनसुना करती रही। उसका ह्रदय हाहाकार कर उठा । देह की मंडी में वह ठोक बजाकर देखी परखी जा रही है। 

हे प्रभु क्यों जन्म दिया उसे और जन्म दिया था तो पिताश्री ययाति की पुत्री क्यों बनाया ? माधवी के प्रश्न राजा हर्यश्व के कहे शब्दों में तिरोहित हो रहे थे। 

"मुनी गालव मैं राजकुमारी माधवी को स्वीकार करता हूं । कहो इसका कितना शुल्क दूं तुम्हें? "

"जिससे मेरी गुरु दक्षिणा पूर्ण हो महाराज। चंद्रमा के समान शुभ्र वर्ण और श्याम कर्ण के अति विशिष्ट 800 अश्व शुल्क स्वरूप चाहिए महाराज। "गालव ने बिना विलंब किए कहा । 

राजा हर्यश्व सोच में पड़ गए......थोड़े विचलित भी हुए-" मेरी अश्वशाला में इस प्रकार के अति विशिष्ट केवल 200 ही अश्व हैं । "

गालव भी सोच में पड़ गया। बाकी के 600 अश्व कहां से लाएगा? लेकिन इन 200 अश्वों को भी वह हाथ से नहीं जाने देना चाह रहा था .......क्या करे? हल राजा हर्यश्व ने ही निकाला -

"ठीक है, मुनि गालव, इस स्थिति में राजकुमारी माधवी मेरे पास केवल एक वर्ष ही रहेगी । चक्रवर्ती पुत्र की प्राप्ति होते ही मैं 200 अश्वों सहित माधवी आपको सौंप दूंगा । "

माधवी ने करुण नेत्रों से गालव की ओर देखा । एक वर्ष तक उसके शरीर का भोग कर राजा हर्यश्व पुनः गालव के हाथों सौंप देंगे, वह उनके पुत्र की माँ होगी किंतु मातृत्व सुख से वंचित रहेगी अर्थात उसकी कोख का किराया देकर ले रहे हैं हर्यश्व उसे और वह अपने कोख का शुल्क हर्यश्व के द्वारा पूर्ण होने तक उनकी अंकशायनी बनी रहेगी। सोचते हुए माधवी के पैरों तले धरती कंपित होने लगी । वह लड़खडाते हुए पास खड़े गालव पर गिरने को हुई कि गालव ने उसे बांहों से संभालते हुए कहा-" ठीक है महाराज, अब इसे स्वीकार करिए। यह थक चुकी है। विश्राम चाहती है। राजा हर्यश्व के संकेत करते ही दो दासियाँ माधवी के पास आईं और उसे सहारा देते हुए रनिवास की ओर ले चलीं। 

माधवी को रनिवास में प्रवेश करते देख राजा हर्यश्व की रानियों में हलचल मच गई। महाराज एक और सौतन ले आए। सबसे छोटी रानी ने सोचा । जो इन दिनों उनके समस्त प्रेम और रात्रि की एकमात्र अधिकारिणी थी । उसने प्रश्नवाचक मुद्रा से बड़ी रानी की ओर देखा । तत्काल उत्तर भी मिला । 

"तुम पुत्र को कोख में धारण नहीं कर पा रही हो । चक्रवर्ती पुत्र की आकांक्षा में ही माधवी यहां लाई गई है। "

इस वार्तालाप से अनभिज्ञ माधवी रनिवास की साज-सज्जा देखती रही। पिताश्री का निवास इससे कहीं अधिक सुंदर और भव्य था । यह स्मरण करते ही माधवी को पिताश्री बेहद याद आए। लेकिन अब उन्हें लेकर उसके मन में तिक्तता भी आ गई थी । लाड़ प्यार में पली अपनी पुत्री को बिना विवाह के अनजान पुरुष के हाथों में सौंपते हुए क्या उनके मन में लेशमात्र भी यह विचार नहीं आया कि वे क्या कर रहे हैं। मात्र स्वयं की दानवीर की छवि धूमिल न होने देने की चाह में वे यह भी भूल गए कि माधवी उनका ही अंश है। उनकी ही पाली पोसी दुलारी पुत्री है, या माधवी यह मान ले कि कुछ भी प्रबल नहीं भाग्य के आगे । माधवी के भाग्य में ऐसा होना लिखा था तो वह भोग रही है।  तो क्या इसमें पिताश्री का दोष नहीं? क्या माधवी के दुर्भाग्य ने ही उनसे यह सब करवाया । किंतु..... फिर..... फिर मनुष्य की सोच का क्या? उसके कर्मों का क्या ? अपनी संतान के प्रति दायित्वों का क्या और अगर इस सब का कोई अर्थ नहीं तो क्यों करता है मनुष्य गृहास्थाश्रम में प्रवेश ? क्यों..... क्यों ? 

एकाएक ही वह विचारों के प्रवाह से बाहर आई । दासियाँ उसे श्रंगार आदि के लिए ले जाने की उससे आज्ञा चाह रही थी किंतु वह तो शिथिल हो चुकी थी । इस योग्य भी नहीं कि स्वीकृति दे सके । वह मौन ही रही। दासियों ने उसे सुगंधित जल से स्नान कराया । कीमती रेशमी परिधान पहनकर माधवी का रूप खिल उठा। हीरे जवाहरात के आभूषण और सोलह सिंगार में वह रुप का भंडार लग रही थी। राजा के शयनागार में उसे स्वर्णजटित पलंग पर बैठाकर दासियाँ हंसते हुए जाने लगी। किंतु माधवी ने उन्हें रुकने को कहा-" मुझे अकेले भय लगेगा"

" भय कैसा !आप तो हमारे महाराज की पसंदीदा हैं। हमारे जाते ही महाराज आ जाएंगे। फिर तो....."

माधवी से परिहास करती दासियाँ बाहर चली गई। 

राजा हर्यश्व के शयनागार में प्रवेश करते ही माधवी का ह्रदय जोरो से धड़कने लगा । यह उसकी कैसी परीक्षा है प्रभु ! बिना परिणीता हुए, बिना अग्नि को साक्षी माने उसे अपनी देह हर्यश्व को सौंपनी होगी। उसे लगा वह ऐसी खोह में समा रही है जिसका धरातल है ही नहीं। आहिस्ता से पलंग पर विराजमान हो हर्यश्व ने माधवी के मुखड़े को अपनी अंजुरी में भर लिया। 

"ओह, जैसे चाँद आकाश से उतरकर मेरी अंजुरी में समा गया हो । जैसे चंद्रिका ने इस कक्ष में डेरा डाला हो। माधवी अब तक कहां थी तुम? "

कहते हुए उन्होंने पास ही रखी सुगंधित पुष्पों से भरी डलिया उठाकर पलंग पर रख ली और उसके अंगों से आभूषणों को उतारने लगे। 

" तुम कितनी कोमलांगी हो। कैसे सह पाओगी इन भारी आभूषणों को। मैं तुम्हारा फूलों से श्रृंगार करूंगा । तुम्हारे रूप के अनुकूल ये कोमल खूबसूरत फूल तुम्हारी देह पर सजकर धन्य हो जाएंगे। "

सारे आभूषण उतारकर हर्यश्व ने दासियों द्वारा पहले से तैयार फूलों के कर्ण फूल, चंपा हार, कंगन, बाजूबंद पहनाकर उसकी चोटी में भी फूल गूंथ दिए । ऐसा लग रहा था जैसे स्वयं इंद्र इंद्राणी का श्रंगार कर रहे हों। माधवी मूक निश्चल बैठी विधि का विधान देख रही थी। इस प्रथम मिलन, प्रथम रात्रि, सुहाग रात्रि की कल्पना में कुमारियों की नींदे उड़ जाती हैं। फिर माधवी तो राजघराने की है। क्या क्या सपने देखे होंगे। स्वयंवर, कन्यादान, चरण पूजन, भव्य बरात, भव्य विदाई, पहले रानी, फिर पटरानी सब कुछ धूलधूसरित। वह एक क्रीतदासी की तरह हर्यश्व के शयनागार में है । वह ठगी गई है। सर्वप्रथम पिताश्री ययाति से। जिन्होंने गालव की मांग पूरी न कर सकने की विवशता में उसे ही दांव पर लगा दिया कि कहीं उनकी दानवीरता का यश धूल में न मिल जाए। गालव को राह भी सुझा दी कि इसे विभिन्न राजाओं के पास बारी-बारी से ले जाना ताकि इसके शुल्क स्वरूप तुम्हें अश्व प्राप्त हो जाएं क्योंकि इस पूरे आर्यावर्त में किसी भी राज्य में एक साथ इतने अश्व नहीं होंगे । जो पिताश्री उसके घुटनों चलने पर पैरों में पहनी पायल की रुनझुन से आल्हादित होते थे । वही उसे कितनी निर्ममता से निस्संकोच गालव को सौंप रहे थे । 

माधवी के हृदय से सिसकी सी निकली। उसने लंबी सांस भरी। 

" क्या हुआ माधवी, हमारी इस चंद्र रात्रि में तुम उदास क्यों हो? क्या तुम्हारे सेवा सत्कार में हमारी दासियों से कोई भूल हुई ? "

माधवी ने इंकारी में सिर हिलाया। लेकिन नेत्रों को बंद ही रखा। हर्यश्व से अब और धैर्य नहीं रखा जा रहा था। वह माधवी को शीघ्र से शीघ्र पाना चाहता था। उसने उसे अपने आलिंगन में लेते हुए पास ही रखे स्वर्णदीप की लौ की ओर हाथ बढ़ाया। हाथों के बंधन के संग संग माधवी भी स्वर्णदीप की ओर झुकती चली गई। दिपदिपाती लौ क्षण भर में बुझकर धुआं छोड़ने लगी। 

******

राज महल से निकलते ही गालव माधवी को लेकर उद्विग्न सा हो उठा । माधवी के सौंदर्य ने गालव को भी विचलित कर दिया था। कई बार मन में विचार आता माधवी के साथ जीवन गुजारने का । कई बार वह अपने इस विचार को झटक देता । माधवी के संग गृहस्थआश्रम में प्रवेश कर सांसारिक जीवन अवश्य सुखमय हो जाता किंतु उसकी कठोर साधना, उच्च शिक्षा व्यर्थ चली जाती बिना गुरु दक्षिणा के । बल्कि उस साधना के कारण ही तो माधवी से उसका साक्षात्कार हुआ। इतने वर्षों की कठोर साधना तपस्या को वह कैसे भूल सकता है। वह भी एक स्त्री को पाने की चाह में? स्त्री के मोह में ? सिद्ध पुरुष, आध्यात्मिक ग्रंथ और बड़े-बड़े ऋषि मुनि इसीलिए तो स्त्री को नर्क का द्वार कहते हैं । किंतु क्या सचमुच स्त्री नर्क का द्वार है ? मन ही मन में इस धारणा का खंडन करता है गालव। 

होगी उन ऋषि-मुनियों तपस्वियों के लिए स्त्री नर्क का द्वार। इस धारणा के पीछे भी पुरुष के मन की दुर्बलता ही है। पुरुष क्यों रीझा तप भंग करने के लिए भेजी गई अप्सराओं पे? 

क्या इस बात में कोई तथ्य दृष्टिगोचर होता है कि कामवासना के वशीभूत पुरुष अपना तप भूल स्त्री में आसक्त हो जाये और दोष दे स्त्री को ? 

नहीं मानता गालव इस बेबुनियाद धारणा को। 

स्त्री तो जन्म दात्री है । इस संसार में मानव मात्र को लाने का श्रेय स्त्री को ही जाता है। 

सृष्टि के आरंभ में किसी प्राणी का कोई अस्तित्व नहीं था। केवल विष्णु थे जो क्षीरसागर में निद्रा में मग्न थे। चारों ओर अजीब सा सन्नाटा था। उनकी निद्रा में बाधा न पड़े इसलिए समुद्र भी बिल्कुल शांत था। दीर्घ समय के बाद वे जागे तब उन्होंने विचार किया कि यह पूरा ब्रह्मांड कितना सूना है। इसमें हलचल होनी चाहिए। इसमें जीवन होना चाहिए । 

कई दिनों तक वे इसी विचार में खोए रहे। तब एक दिन अचानक उन्होंने देखा कि उनकी नाभि में कुछ अप्रत्याशित घटा है। 

कुछ ऐसा जिसकी उन्होंने कभी कल्पना भी नहीं की थी। 

उनकी नाभि से एक कमल पुष्प खिलकर मुस्कुरा रहा था । यह कमल अपनी प्रकृति के अनुसार समुद्र की तलहटी से समुद्र की ऊपरी सतह पर पहुंचकर विष्णु की नाभि में खिला था । इसी कमल पुष्प से ब्रह्मा का जन्म हुआ। 

विष्णु को यह सब एक स्वप्न जैसा लग रहा था। ब्रह्मा उन्हीं के सदृश्य रूप सौष्ठव के थे। तब तो वे सृष्टि की रचना कर सकते हैं इसी रूप सौष्ठव के प्राणियों का निर्माण कर सकते हैं। 

कमल पुष्प पर विराजमान अथाह विस्तार में फैले हुए जल के बीच ब्रह्मा सोचने लगे कि मै कौन हूं। मैं यहां कहां से आया। मेरा नाम क्या है और मेरे यहां आने का क्या उद्देश्य है। अपने जन्म के बाद ब्रह्मा युगों तक सोचते ही रहे। 

तब विष्णु की प्रेरणा से उन्हें ज्ञान प्राप्त हुआ जो आगे चलकर महर्षि वेद-व्यास द्वारा लिखे गये चार वेदों के रूप में जाना गया। इसी ज्ञान के आधार पर उन्होंने विष्णु की आराधना की । विष्णु ने उन्हें सृष्टि की रचना करने का आदेश दिया। 

आरंभ में ब्रह्मा ने नारद आदि ऋषियों की मानसिक रचना की तथा उनको संतान पैदा करने का आदेश दिया लेकिन बहुत से ऋषियों ने इस आदेश को मानने से मना कर दिया और तप करने चले गए। 

सृष्टि की रचना का कार्य पूरा नहीं हो पा रहा था। इसका कारण था कि ब्रह्मा ने पुरुषों की रचना तो कर दी थी लेकिन स्त्री की रचना नहीं की थी और स्त्री के बिना सृष्टि की रचना तो असंभव थी। बहुत अवरोधों के बाद ब्रह्मा ने अपने शरीर के दाएं भाग से मनु तथा बाएं भाग से शतरूपा की रचना की। इन दोनों ने ब्रह्मा के कहे अनुसार एक दूसरे के समागम से सृष्टि की रचना की। 

चलते हुए गालव स्वयं से तर्क भी करता जा रहा था। उसे अपने प्रश्नों के उत्तर भी इस तर्क से प्राप्त होते रहे। वह इस निर्णय पर आया कि सृष्टि की रचना करते हुए ब्रह्मा हज़ारों वर्ष तक स्वयं प्रयास करते रहे किंतु उनके सभी मानस पुत्र सृष्टि रचना में भागीदार न बनकर तपस्या आदि में लीन होते रहे। इससे यह बात भी सिद्ध हो जाती है कि बिना स्त्री के संसार में कुछ भी संभव नहीं है। स्त्री ही अपने अस्तित्व से संसार को समृद्ध बनाती है, बढ़ाती है और जीने की प्रेरणा देती है। जब से सृष्टि की शुरुआत हुई है तभी से स्त्री पुरुष एक-दूसरे के बिना अधूरे हैं।  दोनों एक-दूसरे से अलग-अलग गुणों वाले होते हुए भी एक दूसरे के पूरक हैं। जैसे वह और माधवी। माधवी नहीं होती तो गुरु दक्षिणा पूर्ण करना असंभव होता। 

माधवी को स्मरण करते ही वह विचलित हो गया। 

माधवी कितनी कोमल है। न जाने क्या बीत रही होगी उस पर राजा हर्यश्व के शयनागार में। वह मृदुभाषी है। मृगनयनी माधवी तो बस चुप रहना ही जानती है । प्रयागराज के वनप्रदेश से अयोध्या नगरी तक आने में जो दिन-रात माधवी के संग व्यतीत हुए उन्हीं से उसके संस्कारों का पता चलता है। 

माधवी के प्रति उसके मन में प्रेम का होना स्वाभाविक है । उम्र ही ऐसी है । इस उम्र में स्त्री पुरुष का एक दूसरे के प्रति आकर्षण होता ही है और फिर माधवी जैसी विलक्षण प्रतिभावान स्त्री। इतने समय से वह माधवी के साथ है। कभी भी उसके मुख से राजा ययाति के विषय में या सौतेली माता शर्मिष्ठा के विषय में अपशब्द नहीं सुने। वह जितने लगाव से स्वर्गवासी माता देवयानी के विषय में गालव से चर्चा करती थी उतने ही लगाव से शर्मिष्ठा के विषय में भी । वह अपने पिता का मान रख रही है वरना मैं कौन हूं उसका जो वह मेरे लिए किसी और की शैया पर समर्पित हो। ओह माधवी । सोचते हुए गालव अयोध्या नगरी से बाहर आकर सरयू नदी के किनारे रात्रि विश्राम का प्रबंध करने लगा। जब तक माधवी अयोध्या नरेश के पास रहेगी उसे सरयू के किनारे घने वनों में ही दिन बिताने हैं और तलाश करनी है बाकी के 600 अश्वों की। किस राज्य में है, कहां से प्राप्त हो सकते हैं। 

वह गुरु विश्वामित्र का ध्यान करते हुए निद्रा की प्रतीक्षा करने लगा। 

रनिवास में राजा हर्यश्व के ही चर्चे थे । यह तो माधवी को ज्ञात हो चुका था कि राजा हर्यश्व इक्ष्वाकुवंश के राजा थे । महा पराक्रमी थे, चतुरंगिणी सेना से संपन्न थे । उनका कोष मानो कुबेर का ही कोष था । धन-धान्य से परिपूर्ण और मंत्रशक्ति से समृद्ध थे। छोटी रानी ने बताया -"माधवी यह न सोचना कि महाराजा ने तुम्हें अपनी काम पिपासा शांत करने के लिए स्वीकार किया है। नारियों का उनके मन में बहुत सम्मान है। तुम्हें तो मुनि गालव की याचना पर ही उन्होंने स्वीकार किया है । महाराजा की अश्वशाला में 200 अति विशिष्ट अश्व हैं जो गालव को चाहिए। महाराजा भला इस याचना को कैसे अस्वीकार करते । "

अब तक माधवी ने उन कालखण्डों को स्वीकार कर लिया था जो इस महल में पदार्पण से अब तक उसके साथ बीते थे। उसके मन में न क्लेश था न क्षोभ। सब कुछ भाग्य के वशीभूत पा वह सामान्य होने के प्रयास में थी। 

" मैं जानती हूं रानी, मैं भाग्य ही ऐसा लेकर आई हूं। इसमें किसी को क्यों दोष दूँ। "

"इतना बता देती हूं माधवी, महाराजा के साहचर्य का यह एक वर्ष मेरी ओर से तुम्हें भेंट है । इस पूरे वर्ष मैं समस्त भोग ऐश्वर्य से दूर रह प्रभु से प्रार्थना करूंगी कि तुम्हें शीघ्र पुत्र रत्न की प्राप्ति हो ताकि मुनि गालव अपना लक्ष्य साध सकें। 

माधवी के मन में छोटी रानी के प्रति सद्भावना जाग उठी। 

 

पश्चिम दिशा में शुक्र तारा भोर के धुंधलके में कोहिनूर सा चमक रहा था। राजा हर्यश्व ने माधवी को आलिंगन बद्ध करते हुए कहा -

"2 दिन बाद हम आखेट के लिए प्रयाग वन की ओर जाएंगे । तुम्हें भी साथ चलना होगा। "

राजघराने के इस शौक से माधवी परिचित थी । अपनी सेना के साथ रानियों को भी आखेट के लिए ले जाने के राजाओं के स्वभाव को वह भलीभांति जानती थी । प्रस्ताव अस्वीकार करने का प्रश्न ही कहां उठता था । 

"आखेट तो हम अपने मन बहलाने के लिए करते हैं। तुम जानती हो हम निरामिष हैं। माँस नहीं खाते । "

आश्चर्य नहीं हुआ माधवी को। निरामिष होना न होना मनुष्य की प्रकृति पर निर्भर है । लेकिन किसी के प्राण लेना मन बहलाव कैसे हुआ ? यह कैसा निर्मम शौक । 

आलिंगन में लिए हुए ही उन्होंने माधवी से कहा-" तुम सोच रही होगी जब माँस नहीं खाना है तो आखेट क्यों करना? कुछ बातें राजघराने का होने के नाते निभानी पड़ती है वरना तुम इस महल में आती क्यों? "

हाँ सत्य कहा राजा हर्यश्व ने। यदि वे साधारण गृहस्थ होते तो माधवी से विधिवत पाणिग्रहण करते । लेकिन यहाँ तो स्थिति कुछ और थी । केवल एक वर्ष का सौदा था । एक वर्ष में माधवी को हर्यश्व के शिशु को अपनी कोख में धारण कर जन्म देना था । 

"उठो माधवी, प्रातः वंदन की बेला है। तुम भी तैयार हो जाओ। "

कहते हुए राजा हर्यश्व शयनागार से बाहर चले गए । सभी रानियां मंदिर में राजा हर्यश्व की प्रतीक्षा कर रही थीं। 

जिस समय माधवी ने मंदिर में प्रवेश किया ठीक उसी समय राजा हर्यश्व भी पधारे । 

पंडित ने शंख घोष करते हुए प्रातः वंदना आरंभ की। विधिवत पूजा, आरती आदि होते - होते सूर्य की रश्मियां राजमहल के सुनहले कंगूरों को और सुनहला करने लगी थीं। पीले परिधान में माधवी भी मानो सुनहले पल का हिस्सा हो रही थी। 

राजा हर्यश्व अधिक देर माधवी को नहीं देख पाए । उन्हें राजसभा में भी तो उपस्थित होना था। वे न्याय प्रिय थे और प्रजा के कष्टों का निवारण करने, उन्हें न्याय दिलाने बिलानागा राजसभा में उपस्थित रहते थे। न्याय के दौरान उन्हें अपने खाने-पीने तक का होश नहीं रहता था। 

दो दिन पश्चात मंत्रियों पर राजसभा का राजकाज सौंप उन्होंने माधवी तथा अपनी सेना के काफिले के साथ आखेट के लिए वन की ओर प्रस्थान किया । अन्य रानियाँ आखेट में शामिल नहीं हुईं। माधवी अच्छी तीरंदाज थी। पिताश्री के राज महल में उसने विधिवत इस की शिक्षा ली थी । बहुत सादे, आखेट में परेशानी पैदा न करें ऐसे वस्त्र पहनकर वह अश्व पर बैठी। 

माधवी के लिए अश्व नया था, कभी भी बिदक सकता था किंतु राजा हर्यश्व यह देखकर चकित रह गया कि माधवी ऐसे अश्व चला रही है जैसे अश्व और उसका वर्षों पुराना नाता हो । 

घने वन में विचरण करते हुए माधवी को गालव याद आया । कितनी शीघ्रता से समय बीत जाता है। न जाने कहां होगा गालव। उसकी महत्वाकांक्षा की शिकार माधवी अपने स्त्री होने का दंड भुगत रही है। 

" क्या सोच रही हो माधवी ? देखो, हिरणों के झुंड लंबी लंबी घास में हिरणियों के संग चौकड़ी भर रहे हैं। वृक्षों की शाखाओं पर रंग-बिरंगे पक्षी मानो तुम्हारे आगमन पर संगीत छेड़ रहे हैं। कितना मनोरम दृश्य है। "

"फिर भी आप इनके आखेट की आकांक्षा रखते हैं। "माधवी के कहने पर हर्यश्व ने माधवी को बहुत स्नेह से देखा- "नहीं माधवी, हिंसक पशुओं का ही शिकार करूंगा। शेर तेंदुआ ...."

घने वृक्ष पर बहुत खूबसूरती से मचान बनाया गया था । अश्वों से उतरकर दोनों मचान पर जाकर बैठ गए। सेवकों ने केसर मिश्रित दूध और हल्का सा स्वल्पाहार इन्हें दिया । हर आहट पर दोनों सतर्क होकर घनी झाड़ियों की ओर देखने लगते। सेवकों ने हाँका लगाते हुए वनों के भीतरी भाग में प्रवेश किया। कई घड़ियां बीत गईं। सुबह से शाम हो गई पर कोई हिंसक पशु नजर नहीं आया। अंधकार होने के पहले उन्हें राजमहल लौटना था। लौटते हुए माधवी की नजर झाड़ियों में छिपे तेंदुए पर गई। उसने अपना अश्व रोककर निशाना साधा। तेंदुआ उछलकर माधवी की ओर कूदा। तभी राजा हर्यश्व का तीर उसे बेध गया। गिरते-गिरते उसने भयंकर आवाज निकाली जिसे सुनते ही वन में सन्नाटा छा गया। 

राजा हर्यश्व जिसे आखेट से खाली हाथ लौटने का क्षोभ सता रहा था माधवी के प्रयास से गदगद हो उठा। पहला तीर माधवी का ही लगा था तेंदुए को। 

रनिवास में इस समाचार से माधवी के प्रति, उसकी वीरता के प्रति खुशी का संचार हुआ । जो थोड़ी-बहुत माधवी के प्रति सौतेलेपन की भावना थी वह समाप्त हो गई। सभी ने उसे गले से लगाकर बधाई दी। 

लगभग 15 दिन बाद जब संध्या वंदन से माधवी अपने कक्ष में लौट रही थी तो उसे चक्कर सा आया । तबीयत भी अनमनी हो रही थी। वह पलंग पर लेटी तो सब तेजी से घूमता नजर आया । दासी ने दीप स्तंभ को जलाने के लिए कक्ष में प्रवेश किया तो देखा अंधकार में माधवी अचेत पड़ी थी। उसने दौड़कर यह समाचार रनिवास में दिया। बड़ी रानी ने तुरंत राजवैद्य को बुलाया। नाड़ी देखकर राजवैद्य ने हर्षदायक समाचार दिया -"बधाई हो महारानी गर्भाधान हो चुका है। "

देखते ही देखते समाचार राज महल के हर व्यक्ति की जुबान पर था। राजा हर्यश्व भी शीघ्रता पूर्वक कक्ष में पहुंचा। राजवैद्य की औषधि से माधवी की मूर्छा दूर हो गई थी। वह पलंग पर तकियों के सहारे टिकी बैठी थी। अन्य रानियां भी कक्ष में थीं। सभी ने राजा हर्यश्व को बधाई दी -

"बधाई महाराज, आज चक्रवर्ती पुत्र ने राज महल में पधारने की सूचना दे दी है। "

सभी आनंदित हर्षित थे । भले ही साधन माधवी हो पर वे सभी तो पुत्र की माता कहलाएंगी। माधवी तो पुत्र को जन्म दे चली जाएगी । पुत्र का पालन पोषण तो उनके ही हाथों होगा । 

मंदिर में दिए जल उठे । शंखनाद से महल गूंज उठा। राज रसोई से प्रसाद बनने की सुगंध उठने लगी। जब कक्ष में एकांत हुआ तो राजा हर्यश्व ने माधवी को आलिंगन में भर उसका मुख चूमते हुए कहा-" माधवी, तुम मेरी पुत्र की आकांक्षा पूर्ण करोगी। आज मैं कितना हर्षित हूं। तुमने मुझे जीवनदान दिया। तुम्हारा कृतज्ञ हूं । "

माधवी भी प्रथम मातृत्व की कल्पना से एक अलग ही अनुभूति से गुजर रही थी। उसके अधर कांपे जैसे कमल कली ओस गिरने से थरथराई हो । 

"महाराज, , मैं आप की आकांक्षा पूर्ण करने में बूंद मात्र सहयोग कर पाई यह मेरा सौभाग्य है। "

"माधवी भाग्य का लिखा कौन मिटा सकता है । तुम मेरे भाग्य में थीं, मिलीं। तुम ही से मेरा वंश वृक्ष पुष्पित हो रहा है। मेरे किन्ही जन्मों के पुण्य का फल हो तुम। "

दोनों भावी कल्पनाओं में डूबे रात्रि को व्यतीत होता देखते रहे। भोर की ताजी हवा चंपा के पुष्पों की सुगंध लिए जब कमरे में प्रवेश करने लगी तो राजा हर्यश्व उठा। थोड़ी ही देर पहले माधवी उसके आलिंगन में सोई थी । उसने धीरे से उसे अपने से अलग करते हुए मखमली चादर ओढ़ा दी और सधे कदमों से कक्ष से बाहर चला गय। 

दिन मानो पंख लगाकर उड़ने लगे। माधवी मातृत्व की सुखद अनुभूतियों में डूबी रही । उसके गर्भ में पलने वाला वह नन्हा जीव जो जन्म लेकर उसे माता का गौरव प्रदान करेगा । धीरे-धीरे वह जीव उसके गर्भ में हलचल उत्पन्न करने लगा। जब वह गर्भ में घूमता, करवट लेता माधवी सुख से आँखें मूंद लेती। राजा हर्यश्व उसके फूले हुए पेट को सहलाता, कभी कान लगाकर शिशु की धड़कनें सुनता । माधवी सोचती यह कैसा विधि का विधान है कि वह राजा हर्यश्व के संपर्क में आने के महीने भर बाद ही गर्भवती हो गई । जैसे काल ने निर्धारित कर दिया हो कि ऐसा होगा। आनन-फानन में होगा। वरना वह बांझ भी तो हो सकती थी या फिर गर्भाधान ही देर से होता। तो क्या काल भी गालव के पक्ष में है। गालव की दी हुई समय सीमा में माधवी पुत्र को जन्म देगी और वह राजा हर्यश्व से शुल्क वसूल लेगा। जैसे सब कुछ पहले से निर्धारित है। एक बारगी माधवी के मन में विचार आया कि काश ऐसा हो कि उसे पुत्री हो। वह गालव और राजा हर्यश्व की मनोकामना के आगे चुनौती बनकर खड़ी हो जाए। तब क्या करेगा गालव? जब एक वर्ष की अवधि भी समाप्त हो जाएगी और वह शुल्क भी नहीं वसूल पाएगा।  बहुत विश्वास से उसने राजा हर्यश्व को उसे सौंपा है। जब पुत्र ही नहीं होगा तो वह किस मुँह से शुल्क वसूलेगा। 

लेकिन यह सारी सोच माधवी की मातृत्व भावना के आगे धूमिल पड़ती गई। दिन-प्रतिदिन उसके मुखड़े पर लावण्य और अधिक आता गया। रनिवास में उसका विशेष ध्यान रखा जाता । प्रसव पीड़ा कम हो अतः राजवैद्य द्वारा निर्देशित पथ्य, औषधि, विश्राम और हल्का-फुल्का व्यायाम नियमित रूप से माधवी से करवाया जाता। 

नियत समय आने पर माधवी को प्रसव पीड़ा आरंभ हुई । प्रसूति कक्ष में सारी रात पीड़ा में छटपटाते माधवी ने प्रातः काल सूर्य के समान तेजस्वी पुत्र को जन्म दिया । उस समय माधवी के कक्ष में रानियां, दासियां और प्रसूति विशेषज्ञ स्त्री वैद्य ही थीं। माधवी भयंकर पीड़ा से निढाल सफेद पड़ गई थी जैसे उसके शरीर का सारा रक्त निकल गया हो। माधवी ने अपने अर्धनिलीमित नेत्रों से पालने में सोए रेशमी कपड़े में लिपटे पुत्र को देखा । वह अपनी सारी पीड़ा भूल गई । उसके स्तनों से दूध की बूंदे निकल कर उसके वस्त्र भिगोने लगीं। अपने लाल की ओर वह उमड़ी पड़ रही थी । पर जैसे ही पालने की ओर हाथ बढ़ाती हाथ शिथिल हो गिर पड़ते। 

" धैर्य रखो माधवी, अभी तुम बहुत शिथिल हो । अपने भीतर ऊर्जा का संचार होने दो । लो यह औषधि और मेवे युक्त जड़ी बूटी वाला दूध पी लो। "

राज महल में शहनाई बज रही थी । बधाई गीत गाए जा रहे थे। चहुँ ओर उल्लास ही उल्लास था । राजा हर्यश्व पुत्र को अंक में भर लेने को उतावला हो रहा था। राजकाज में उसका मन नहीं लगा। समय से पहले राजसभा समाप्त कर वह जब प्रसूति कक्ष में पहुंचा तो माधवी का शिथिल मुरझाया चेहरा देख उससे रहा न गया। पालने में शिशु सो रहा था। दो दासियां माधवी की सेवा में थीं। उन्होंने एकांत का आदेश दिया और दासियों के जाते ही उन्हें देखते ही उठने का प्रयास करती माधवी को आलिंगन में भरकर उसके सिर को चूमते हुए कहा

"पुत्र प्राप्ति की बधाई माधवी। " "आपको भी महाराज। " यह कहते माधवी के होठ हल्के से कांपे जैसे पुष्प पंखुड़ी को हवा ने हौले से छुआ हो। 

"तुमने मुझे पुत्र दिया। इस उपकार को मैं जन्म जन्मांतर नहीं भूल सकता। "

' जन्म जन्मांतर किसने देखा महाराज, दो माह बाद आप मुझे त्याग देंगे। भविष्य में मेरा स्मरण होगा भी या नहीं। ' माधवी ने कहना चाहा। 

पिछले 9 माह से वह गर्भ में पल रहे शिशु में रमी थी। 

धीरे-धीरे उसका बढ़ना, पोषित होना अनुभव कर रही थी। उसके हृदय की धड़कनें हर क्षण उसके मन को गुदगुदा रही थीं। गर्भ में उसकी उछल कूद पर पेट पकड़कर एकांत में मुस्कुराती रहती थी। उसके रक्त और ऊर्जा से सृजित उसका शिशु, उसका पुत्र पालने में आंखें मूंदे भी मुस्कुरा रहा था। क्या उसने माधवी के मन की खुशी माप ली थी ? क्या वह भी अपनी जन्म दायिनी को महसूस कर रहा था ?

राजा हर्यश्व ने शिशु को पालने से उठाकर अंक में भर लिया और उसके मुख चंद्र को चकोर की भांति टकटकी लगाकर देखते हुए बोला-

" माधवी, देखो हमारा पुत्र हमें संग संग देख कर मुस्कुरा रहा है । देखो कितना चंचल है । अभी सो रहा था, गोद में आते ही हाथ पैर चलाने लगा। "

माधवी सुनकर भी कुछ नहीं सुन पाने का प्रयास कर रही थी । 

'क्यों कह रहे हैं महाराज ऐसा ? हमारा संग साथ जब कुछ ही दिनों का है । 'सोचते-सोचते माधवी और शिथिल पड़ती गई। उसने पलकें मूँद कर सोने का अभिनय किया। राजा हर्यश्व को लगा वह सो गई है। उसने बहुत संभालकर शिशु को पालने में लेटाया। पल भर वह कुनमुनाया फिर उसने आंखें मूंद ली । वह आहिस्ता कक्ष से बाहर चला गया। 

गालव भ्रमण करते हुए राजा हर्यश्व के राज महल में माधवी के एक वर्ष पूर्ण होने के दिन गिनने लगा। 11 मास हो चुके हैं। वह जिस वन प्रांतर में है वहां से अयोध्या पहुंचने में 20-25 दिन लग जाएंगे। फिर वर्षा काल आरंभ हो जाएगा। ऐसी स्थिति में माधवी को लेकर अन्य नगरों की यात्रा करना कष्टप्रद होगा । उसने सोच लिया था कि अब वह माधवी को लेकर काशी नरेश दिवोदास के पास जाएगा। इस बीच उसने पता कर लिया था कि काशी नरेश दिवोदास के पास श्वेत वर्ण, श्याम कर्ण के 200 अश्व हैं । अर्थात कुल मिलाकर 400 अश्व तो हो ही गए । शेष 400 का भी प्रबंध वह कर ही लेगा। उसके पास माधवी के हर स्थान पर एक वर्ष पूर्ण होने का समय तो है ही। इस पूरे एक वर्ष एक पल को भी नहीं भूल पाया वह माधवी को। अब उसे लगता है गुरु विश्वामित्र के सामने कैसा दुराग्रह भरा हठ कर डाला उसने । वरना माधवी उसके साथ होती। दोनों के मिलन के साक्षी होते वन के सघन वृक्ष, फल फूल से लदी डालियां वृंदगान करते पक्षी, छलांग लगाते हिरण और बादलों को घिरा देख अपने रंग बिरंगे पंख पसारता मयूर । चलते-चलते गालव के कदम शिथिल पड़ गए । आम्रकुंज में विश्राम के लिए वह पीले पत्तों की बिछावन पर बैठ गया । उसे लगा जैसे माधवी सामने बैठी उससे कह रही है 'गालव क्या हम तपोवन में रहते हुए अपना जीवन व्यतीत नहीं कर सकते? तुम्हारा 800 अश्वों का जो हठ है उसे त्याग दो । गुरु विश्वामित्र तो वैसे भी तुमसे गुरु दक्षिणा नहीं मांग रहे थे। '

वह विचलित हो गया माधवी के संग जीवन बिताने की आकांक्षा पर गुरु दक्षिणा के लिए अश्वों को जुटाना हावी हो गया । उस एक पल जब उसे दोनों में से एक का चयन करना था, उस एक पल मानो धरती आकाश एक हो गए उस एक पल ग्रह नक्षत्रों ने दिशाएं बदल दीं। गालव चकराते हुए सिर को पकड़ भूमि पर गिर पड़ा । रात्रि के तीसरे पहर जब उसकी चेतना लौटी उसके सम्मुख 800 श्याम कर्ण, श्वेत वर्ण अश्व खड़े थे जिनके पीछे माधवी अति दुर्बल, कांति हीन खड़ी थी। उसने आंखें मल-मल कर इस दृश्य की पुष्टि करनी चाही। तभी कानों में धीमी आवाज आई, पहले झींगुरों की झंकार । फिर एक-एक शब्द आग में लिपटा, 'तुम दोषी हो माधवी के । तुम्हारी महत्वाकांक्षा ने माधवी को मोहरा बनाया। आखिर गुरु दक्षिणा जुटाने का श्रेय तो माधवी को ही जाता है । तुम तो निमित्त मात्र हो। '

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श्रेष्ठ मुहूर्त में माधवी पुत्र का नामकरण संस्कार होना निश्चित हुआ । इस आयोजन में विभिन्न राज्यों में राजा हर्यश्व के सगे संबंधियों, रानियों के मायके में भी न्योता भेजा गया। राजा ययाति को भी न्योता भेजा जा रहा था पर माधवी ने रोक दिया-

"पिताश्री तो वानप्रस्थ ले चुके हैं। इन सब संस्कारों से दूर ईश भक्ति में लौ लगी है उनकी। "

यह बात हर्यश्व को भी ज्ञात थी। पर वह अपनी तरफ से कोई कसर नहीं छोड़ना चाहते थे। फिर भी माधवी के प्रस्ताव पर उसने गौर किया और न्यौता नहीं भेजा गया। गालव को तो आना ही था। एक वर्ष की अवधि भी समाप्ति की ओर थी। जितने दिन शेष थे वह राजा हर्यश्व के सेवा सत्कार में बिताने का मन था गालव का। 

भव्य और विशाल राज महल रंग-बिरंगे पुष्पों और दीप मालिका से जगमगा उठा था । महल का प्रत्येक द्वार दासियों ने रंगोली से सजाया था । राजरसोई में विशेष व्यंजन बनाने की सुगंध चारों ओर फैली थी। अतिथियों के आगमन से राजमहल की रौनक बढ़ती जा रही थी। आज माधवी का विशेष श्रंगार किया गया था । रत्न जड़ित आभूषण और गुलाबी रेशमी परिधान में वह इंद्रलोक की पटरानी लग रही थी। 

मुहूर्त के अनुसार पूजा अनुष्ठान आरंभ हुआ। शिशु को अपनी गोद में लेकर राजा हर्यश्व बैठा। उसकी बगल में पटरानी, उनके पीछे माधवी तथा अन्य रानियां। जन्मदात्री माधवी देख रही थी अपने शिशु को जो पहले राजा हर्यश्व और अब रानी की गोद में था । यह अधिकार उसे मिलना चाहिए था। पर माधवी तो मानो एक क्रीत माँ थी जिसे दो सौ विशिष्ट अश्वों का शुल्क देकर एक वर्ष के लिए राजा हर्यश्व ने गालव से खरीदा था। भला इस शिशु पर उसका क्या अधिकार ? 

पूजा विधि संपन्न हुई । शिशु का नाम वसुमना रखा गया। राजपुरोहित ने उसकी जन्मकुंडली विस्तार से राजा हर्यश्व को बताई-

" महाराज आपका यह पुत्र वसुओं के समान कांतिमान है । भविष्य में यह खुले हाथों धन दान करने वाला दानवीर राजा कहलाएगा । इसकी ख्याति चारों दिशाओं में कपूर की भांति फैलेगी। प्रजा भी ऐसे दानवीर और पराक्रमी राजा को पाकर सुख समृद्धि का जीवन व्यतीत करेगी। राजा हर्यश्व और सभी रानियां राजपुरोहित के कहे वचनों से अत्यंत प्रसन्न थीं। लेकिन माधवी इन घोषणाओं से दूर अपने लाल के बिछोह की कल्पना से कांप रही थी। वह पटरानी की गोद में अपने शिशु को देख बार-बार उसे अपने अंक में भर लेने की चेष्टा कर रही थी । उसके स्तनों में दूध उमड़ा पड़ रहा था । माधवी की बेचैनी देख पटरानी ने उसकी गोद में शिशु को देते हुए दासी से कहा -

"माधवी को उनके कक्ष में ले जाओ । वसुमना भूखा हो रहा है । "

कक्ष में आते ही माधवी ने वसुमना को चूमते हुए कहा-" कैसे रह पाऊंगी तेरे बिना । एक-एक क्षण व्यतीत करना कठिन होगा । "

वसुमना धीरे से मुस्कुराया। मानो कह रहा हो। चिंता न करो माँ। हमारे प्रारब्ध में यही लिखा है। हमें इसे स्वीकार करना ही होगा। 

नामकरण संस्कार के समय सभी अतिथियों को बैठने के लिए उचित आसन दिए गए थे । गालव को तो विशेष आसन दिया गया था। उसी के कारण तो राजा हर्यश्व ने वसुमना को पाया था । गालव ने पूजा हवन में बैठी माधवी को देख लिया था । शिशु को जन्म देकर माधवी का लावण्य अत्यधिक बढ़ गया था। गालव उसके सौंदर्य और शालीन स्वभाव के प्रति गहरा लगाव तो पहले से ही रखता था अब और अधिक लगाव हो गया । जैसे भ्रमर खिले पुष्प की ओर मतवाला होकर खिंचा चला जाता है वही स्थिति गालव की थी । 10 दिन बाद उसे यहां से माधवी को लेकर चले जाना है। निश्चय ही वह कुछ दिन माधवी के सान्निध्य में बिताएगा । तत्पश्चात काशी जाएगा । 

राजा हर्यश्व ने गालव के रहने का प्रबंध राजमहल में ही एक सुसज्जित कक्ष में किया । पहले तो गालव ने उस कक्ष में ठहरने में असमर्थता प्रकट की -

"महाराज हम तो वनवासी हैं। राजसी ठाठबाट में रहने के अभ्यस्त नहीं हैं। " लेकिन फिर राजा हर्यश्व के आग्रह पर गालव को उसका प्रस्ताव स्वीकार कर लेना पड़ा । इन 10 दिनों में एक बार भी उसे माधवी के दर्शन नहीं हुए। 

माधवी तो वसुमना को हृदय से लगाए हुए एक पल भी उससे विलग नहीं होती । बार बार ईश्वर को उलाहना देती कि तुमने मुझे इस धरती पर भेजा ही क्यों और भेजा भी था तो मातृत्व से क्यों बांध दिया? बांझ ही रह जाती तो पुत्र वियोग का दुख तो न सहना पड़ता। उसकी अवस्था विक्षिप्त सी हो गई। कभी वह वसुमना को पालने में लिटा कर जोर जोर से पालना झुलाती। वसुमना घबरा कर रोने लगता तो आंखों में आंसू भरे वह हृदय से उसे लगा कर थपकियाँ देने लगती। कभी लोरी गाकर सुनाती। सभी दासियों के हाथ से उबटन का कटोरा लेकर स्वयं ही उसे उबटन लगाने लगती। दासियाँ कहतीं- "रानी आप यह क्या कर रही हैं? यह काम तो हमारा है। हमें करने दें। "

वह ठंडी आह भरकर कहती -"मैं तुम्हारी रानी नहीं हूं। 4 दिन बाद मुझे यहां से हमेशा के लिए चले जाना है। 4 दिन बाद तुम मुझे नहीं देख पाओगी । मैं भी अपने पुत्र को नहीं देख पाऊंगी। कभी नहीं देख पाऊंगी। "

माधवी के अश्रु बहने लगते। उसके संग दासियां भी विचलित थीं। वे उसे विश्वास दिलातीं-" हम आपके पुत्र को कोई कष्ट नहीं होने देंगे। आपकी तरह लोरी गाकर सुनाएंगे । पालना झूलाएंगे और थपकी देकर सुलाएंगे। 

डाल पर बैठे कलरव करते फिर आकाश में उड़ते पंछियों के समान देखते ही देखते उड़ गए चार दिन। वसुमना के जन्म के बाद से ही राजा हर्यश्व ने माधवी के कक्ष में आना बंद कर दिया था। इतने दिन तो माधवी को वसुमना के कारण इस बात का होश न था पर राजमहल से प्रस्थान की अंतिम बेला में उसने सोचा पुरुष कितना निर्मोही होता है । मनवांछित फल पाकर भी राजा हर्यश्व को माधवी से मोह न हुआ । वह उसे हमेशा के लिए त्याग देने को तत्पर था और उसके मन में रंच मात्र भी क्लेश न था। 

रानियों ने माधवी को ऐसे विदा किया जैसे कोई अपनी पुत्री को करता है। राजा हर्यश्व ने माधवी को गालव को सौंपते हुए कहा-

"आपका हृदय से धन्यवाद । माधवी से मुझे पुत्र रत्न प्राप्त हुआ । शुल्क स्वरूप 200 अश्व आप ले जा सकते हैं। "

"अभी उन अश्वों को मेरी धरोहर मानकर आप अपने पास रखें। मुझे 600 अश्वों को प्राप्त करने का प्रयत्न करना है । समय आने पर मैं उन्हें ले जाऊंगा । "

माधवी ने दासी की गोद से कुछ पलों को वसुमना को अपने अंक में भरकर जी भर कर दुलार किया। फिर उसकी गोद में वापस देकर वह अश्रुपूरित नयनों से रानियों से भेंट कर राजमहल के द्वार से बाहर आ गई। पुत्र से विमुख होते हुए जैसे एक भारी चट्टान सी उसके हृदय में आकर लगी। उसने तो अभी अपने लाड़ले को जी भर दुग्ध पान भी नहीं कराया था, अभी तो उसके दुग्ध भीगे गुलाब की पंखुड़ी जैसे होठों को अपने आंचल से पोछा भी न था। कितनी ही बार वह नींद में मुस्कुराता...... कितनी ही बार चौक कर जाग जाता .......उसका मन मसोस उठा। वह अपने दुर्भाग्य पर हंसे या रोए। अपने खून से उत्पन्न संतान को देखने, पालने, पोसने का हक उससे अयोध्या नरेश ने किस निर्ममता से छीन लिया। प्रथम मिलन पर तो राजा हर्यश्व के लिए माधवी से बढ़कर कोई न था। और आज ! स्वार्थ, मौकापरस्ती इसी को तो कहते हैं। भारी मन से वह राज महल से विदा हुई। रनिवास के झरोखों से झांकते कुछ चेहरे उसे दिखे। वहाँ उसके शिशु का चेहरा न था । दूर से बस एक ही चेहरा पहचान में आया छोटी रानी का। बेहद खुश, आज उसे महाराजा हर्यश्व की सेज वापस जो मिल रही है। 

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