विवाहोपरांत सारिका अपनी ससुराल पहुँच गई। बहुत ही धूम धाम से उसका गृह प्रवेश किया गया। अपना इतना भव्य स्वागत देखकर सारिका फूली नहीं समा रही थी। सोनिया उस पर अपना प्यार इस तरह लुटा रही थी मानो बरसों बाद उनकी बेटी घर आई हो। पूरा दिन रस्में निभाने में कैसे निकल गया किसी को पता ही नहीं चला।
धीरे-धीरे चाँद आसमान में नज़र आने लगा। रजत के सूने कमरे में आज हर तरफ़ फूल अपनी सुंदरता बिखेर रहे थे। सुहाग की सजी हुई सेज उन दोनों का इंतज़ार कर रही थी। रजत और सारिका के मिलन की यह पहली रात थी। वह अपनी नई नवेली दुल्हन के लिए सोने के कीमती कंगन लेकर आया था।
उसने सारिका के पास बैठकर उसके हाथ को अपने हाथों में लेते हुए कहा, “सारिका देखो यह कंगन तुम्हें पसंद हैं?”
सारिका ने जवाब देते हुए कहा, “पसंद तो बहुत हैं लेकिन अभी इनकी क्या ज़रूरत थी? वैसे ही शादी में बहुत पैसा ख़र्च हो गया होगा।”
“नहीं सारिका वक़्त की नज़ाकत को समझना ज़्यादा ज़रूरी होता है। पैसा तो हाथ का मैल है, आता जाता रहता है। लेकिन यह दिन आज के बाद कभी नहीं आएगा। इस दिन को हमें यादगार बनाना है और वह ऐसे ही तो नहीं बन जाएगा ना?”
सारिका तन से एक होने से पहले मन से एक होना चाहती थी।
उसने रजत से कहा, “रजत मुझे लगता है इस रात को यादगार बनाने के लिए सबसे पहले हमें एक दूसरे को अच्छे से जान लेना चाहिए। कुछ देर बात करते हैं।”
“हाँ ठीक है सारिका, तुम बिल्कुल ठीक कह रही हो।”
उसके बाद वे काफ़ी रात तक बातें करते रहे और फिर एक दूसरे की बाँहों में खोकर हमेशा-हमेशा के लिए एक दूसरे के हो गए।
दोनों ही परिवार बहुत खुश थे। एक अपनी बेटी देकर तो दूसरा इतनी प्यारी बेटी लेकर। सारिका भी इतना प्यार करने वाला परिवार पाकर बहुत खुश थी। उसके पति रजत के अलावा उसके साथ ससुर भी उससे बहुत प्यार करते थे, बिल्कुल अपनी बेटी की तरह। सारिका की सासू माँ ने उसे कीमती सोने की चैन और ससुर जी ने झुमकी उपहार स्वरुप दी।
एक हफ्ते के बाद सारिका अपने मायके पहुँची। उसे देखकर घर में सभी के चेहरे ख़ुशी से झूम रहे थे। बेटी की ख़ुशी से बड़ा आख़िर और क्या हो सकता है। सारिका भी अपनी ससुराल की तारीफ करते न थकती। सारे किस्से वह सुनाती ही जा रही थी। कुशल, अनामिका और सोनम अब अपनी बेटी के लिए चिंता मुक्त हो गए थे। लेकिन इंसान जैसा सोचता है, जैसा चाहता है, ज़रूरी तो नहीं कि सचमुच में वैसा ही हो।
पंद्रह दिन अपने मायके में रहने के पश्चात सारिका वापस अपनी ससुराल आ गई। यहाँ आने के बाद उसे जाने से पहले जैसी ख़ुशी कहीं नज़र नहीं आ रही थी। ऐसा लग रहा था मानो वह कहीं जाकर छुप गई है। अजय और सोनिया धीरे-धीरे आपस में कुछ बातें करते और यदि उस समय सारिका वहाँ आ जाती तो बातों को उलट पलट कर दिया जाता या वे अचानक ही चुप हो जाते।
सारिका को समझ नहीं आ रहा था कि बात क्या है, परेशानी क्या है? क्योंकि उसके साथ तो किसी का भी व्यवहार नहीं बदला था। सब उसे बहुत प्यार करते थे। उसका ख़्याल भी बहुत रखते थे। इस उदासी का कारण सारिका जानना चाह रही थी। लेकिन कोई उसे कुछ भी नहीं बता रहा था पर हाँ वह महसूस कर रही थी कि कुछ तो गड़बड़ है। लगभग तीन हफ्ते इसी तरह गुजर गए। सारिका की बेचैनी अब तो बढ़ती ही जा रही थी।
आखिरकार जब उससे रहा नहीं गया तो उसने रात को रजत से पूछ लिया, “रजत क्या मैं इस घर की मेंबर नहीं हूँ?”
“अरे यह कैसा प्रश्न है सारिका? यह क्या पूछ रही हो तुम? यह तुम्हारा ही तो घर है।”
“फिर आप सब मुझसे क्या छुपा रहे हो? मुझे पता है कुछ तो परेशानी है, जिसने हमारे घर की खुशियों को निगल लिया है। रजत मैं जानना चाहती हूँ वह परेशानी क्या है?”
“अरे कुछ भी तो नहीं है सारिका तुम ग़लत समझ रही हो, कहते हो रजत ने बात को टाल दिया और कहा, चलो सो जाते हैं सुबह जल्दी उठना है।”
करवटें बदलते हुए कुछ समय बीता और फिर वे दोनों ही नींद की आगोश में चले गए।
रत्ना पांडे, वडोदरा (गुजरात)
स्वरचित और मौलिक
क्रमशः