भाग-13
रेणु की किस्मत देखिये कि जब वह लोग वहाँ पहुंचे तो उस दिन रमेश छुट्टी पर गया हुआ था. आज अक्कू को देखने वाला कोई नहीं था. जब वह दोनों वहाँ पहुंची तो लक्ष्मी आपने काम में छोटे बच्चे के साथ व्यस्त हो गयी. लेकिन रेणु के लिए कोई काम दिखायी नहीं दे रहा था, उसने अपनी माँ से कई बार पूछा माँ मेरा तो कोई काम नहीं है यहाँ, आप मुझे यहाँ आपने साथ क्यूँ लायी. ? अब रेणु अपनी की माँ की ओर देखकर यह सवाल कर ही रही थी कि अचानक अक्कू अपने कमरे से बाहर आ गया. थोड़ी देर तक तो वो समान्य ही रहा क्यूंकि वह लक्ष्मी को पहचाने लागा था. लेकिन जैसी ही उसकी नज़र रेणु पर पड़ी, वह एकदम से अजीब सी हरकते करने लगा. उसके मुंह से लार गिरने लगी, उसका बदन एकदम से अकड़ने लगा और पूरे शरीर में सर से पाँव तक तनाव आने लगा. रेणु यह सब देखकर पहले तो डर गयी. लेकिन फिर उसे भूमिजा की याद आगयी.
उसने जाकर अक्कू को समझा बूझकर काबू में लेने की कोशिश की लेकिन वह काबू में नहीं आया. तो लक्ष्मी आकर बोली तू जा मैं संभाल लूँगी, तू जा लेकिन रेणु ने कहा, नहीं माँ मैं हूँ ना....! आप चिंता ना करें. आप जाकर बच्चे को संभाले. इतने में सभी की आवाज सुनकर रुक्मणी जी भी वहाँ आ पहुंची और अक्कू को समझाने लगी मगर अक्कू तो उस वक्त खुद ही आपने आपे में नहीं था. वह बेचारा भला क्या समझता, उसे तो मानो एक दौरा सा पड़ा था. रुक्मणी जी बहुत घबरा गयी थी, घबराहट के मारे उनका चेहरा पीला पड़ गया था. इधर रेणु ने टीवी पर गाने बजाने शुरू कर दिये. थोड़ी ही देर में अक्कू के शरीर का तनाव कुछ कुछ कम हो चला था. लेकिन अब भी वो पूरी तरह काबू में नहीं आ पाया था. रेणु उसे उसके कमरे में ले गयी, उसे उसके खिलौने दिखाकर उससे बातें कर के उसके साथ खेलने का नाटक करके उसे समान्य करने की कोशिश करने लगी. थोड़ी देर बाद रेणु के ऐसे हंसमुख व्यवहार से अक्कू समान्य हो गया.
रेणु ने भी चैन की सांस ली और उसके साथ साथ रुक्मणी जी ने भी चैन की सांस ली और जब उन्होने यह देखा कि रेणु उनके अक्कू को संभालने में पूरी तरह सक्षम है क्यूंकि उसने बिना किसी ज़ोर जबर्दस्ती और बिना आवाज़ ऊंची किए, बड़े ही प्यार से उनके अक्कू को शांत अर्थात सामान्य कर दिया था. रेणु को लेकर उनका मन बदलने लगा था. अभी थोड़ा ही समय निकला था, सब को सब सामान्य ही प्रतीत हो रहा था कि थोड़ी देर बाद अक्कू को जब दुबारा रेणु का थोड़ा थोड़ा खुला हुआ बदन दिखा जैसे उसके कुर्ते का पीछे का गला, जिसमें से उसकी गोरी -गोरी पीठ दिखायी दे रही थी क्यूंकि काम के चक्कर में अक्सर रेणु आपने बालों का जुड़ा बना लिया करती थी, जिससे उसके गले के आस पास का हिस्सा खुला -खुला दिखयी देता था. रेणु को देख अक्कू को दुबारा दौरा पड़ा और उसने रेणु को पीछे से उसकी कमर से पकड़ते हुए उसके दिख रहे खुले कंधे के भाग पर काट लिया...रेणु बुरी तरह दर्द और पीड़ा से कराह उठी ...और उसने कस के अक्कू को एक जोरदार थप्पड़ जमा दिया.
यह देख रुक्मणी जी और लक्ष्मी दोनों की आंखे फटी की फटी रह गयी. लक्ष्मी ने रेणु पर ज़ोर से चिल्लाया रेणु यह क्या किया तुम ने ?....पता है न कि वो कैसा है, रेणु अब भी दर्द से कराह रही थी. लेकिन अपनी माँ की यह बात सुनकर उसने अपनी माँ को हैरानी से देखा और कहा तुमने देखा ना माँ, उसने क्या किया ?? ऐसे में उसे थोड़ा तो सबक सिखाना जरूरी था. तुम होती कौन हो किसी को सबक सीखने वाली. रेणु अपनी माँ के व्यवहार से हैरान थी. इधर रुक्मणी जी का रेणु के प्रति जो ज़रा देर के लिए वहम बना था कि वह अक्कू को संभालने में सक्षम है. टूटकर चूर चूर होगया और उन्होने रेणु को दवा देते हुए कहा, यह लगा लेना बेटा, जख्म ठीक हो जाएगा. मैंने अपने बेटे की तरफ से तुम से हाथ जोड़कर माफी मांगती हूँ. हो सके तो तुम उसे माफ कर देना. रेणु ने कुछ नहीं कहा और आँखों में आँसू भरकर वहाँ से निकल गयी. घर पहुँचकर जब लक्ष्मी ने उसके पास आकर उसको दवा लगाते देखा, तो उस के हाथों से ट्यूब लेकर खुद लगाते हुए कहने लगी. तुझे ऐसा नहीं करना चाहिए था बेटा, वह तो विकलांग हैं, मंदबुद्धि है, उसे थोड़ी न समझ आता है कि क्या सही है क्या गलत है. अगर उसमें इतनी ही अक्ल होती तो वह ऐसा ना होता जैसा वह है. और फिर मालकिन क्या सोच रही होंगी तेरे बारे में, माँ तुम्हें हो क्या गया है ? आज तुम्हें अपनी बेटी के दर्द और पीड़ा से अधिक उस पागल के जज़्बातों की अधिक चिंता है ? वह इंसान नहीं है माँ, जानवर है जानवर....!
चुपकर, कुछ भी बोले जा रही है. ऐसी किसी के लिए बोलते हैं क्या ? यही सब सिखाया है मैंने तुझे ...? रेणु समझ गयी माँ को इस वक्त कुछ भी समझना पत्थर पर सर फोड़ने जैसा है. इसलिए उसने कुछ नहीं कहा और अपनी चादर लेकर चुपचाप सो गयी. अगले दिन उठी और अपने काम पर जाने के लिए निकलने ही वाली थी कि काशी आ पहुंची, रेणु के चेहरे की उदासी के साथ-साथ बाकी के घरवालों के मुख मण्डल पर भी हताशा निराशा के भाव देख, उसने रेणु से पूछा क्या हुआ रे सब ठीक तो है न ? काम सही चल रहा है न तेरा ? रेणु ने उदास मन से कहा, ‘हाँ ऐसे तो सब ठीक ही चल रहा है’. कहते हुए रेणु दूरी और मुंह कर के खड़ी हो गयी. अच्छा तो फिर आज मेरी हीरोइन भेंजी क्यों बनी हुई है ? कहते हुए उसने एकदम से रेणु का दुपट्टा खींच दिया जैसे ही उसने खींचा, वैसे ही उसका जख्म देखकर रेणु के बाबा दीनदयाल जी और काशी दोनों की आँखें बड़ी हो गयी.
काशी ने पूछा यह क्या हो गया ? और कब हुआ ? कैसे हुआ ? रेणु कुछ कह पाती, उससे पहले ही उसकी माँ लक्ष्मी ने आकर काशी के हाथों से उसका दुपट्टे लेकर उसे ढांक दिया और बोली कुछ नहीं, छोटी सी चोट है जल्द ही ठीक हो जाएगी. पर...!!! काकी यह तो....! अरे कहा न कुछ नहीं हुआ है, क्या पर पर लगा रखा है. आज काम पे नहीं जाना है क्या तुझे ? जाना तो है. ‘हाँ तो जा ना फिर,’ काशी इसके आगे कुछ ना कह सकी और रेणु को देख बोली अच्छा मैं चलती हूँ. रेणु ने भी उसकी आँखों में देखते हुए कहा, हाँ ठीक हैं. मानो आँखों ही आँखों में, दोनों सहेलियों ने कहा बाहर मिलते हैं. और काशी वहाँ से बाहर निकल गयी कुछ देर बाद लक्ष्मी और फिर रेणु भी अपने अपने काम के लिए बाहर निकल गए. रेणु ने काशी को फोन कर के एक जगह बुलाया और उसे सब बताया. काशी सुनकर हैरान रह गयी और उसे इस बात से भी बहुत हैरानी हो रही थी कि उसकी अपनी माँ उसके पक्ष में ना बोलकर, उस लड़के के पक्ष में बोल रही थी.
फिर उसने रेणु से कहा तू भी तो पागल है. तुझे क्या जरूरत थी उसे संभालने की, तू एक औरत है और वह एक पूर्ण पुरुष वो चाहे जैसा भी हो, लेकिन शारीरिक बल में तुझसे अधिक ही रहेगा. एक ऐसे मानसिक और शारीरिक रूप से विकलांग पुरुष के लिए एक दूसरा पुरुष ही ठीक तरह से उसकी देखभाल कर सकता है. एक स्त्री ऐसे पुरुष की देखभाल नहीं कर सकती. अरे मैंने सोचा मुझे ‘भूमिजा’ का अनुभव है तो मैं इसे भी संभाल लूँगी. तेरा दिमाग फिर गया था क्या ? भूमिजा एक बच्ची थी, एक स्त्री और यह एक पूर्ण पुरुष था, फिर तूने ऐसा सोचा भी कैसे ? खैर अब जो हुआ सो हुआ, दुबारा यदि काकी के साथ जाना भी पड़े, तो दूर ही रहना ऐसे जानवर से....काशी!!!! क्या काशी ? सही तो कह रही हूँ, ‘ऐसे मत देख मुझे वह इंसान के रूप में एक तरह का जानवर ही है बहन...!’ बाकी तेरी मर्ज़ी. मेरा काम सम्झना था मैंने समझा दिया, आगे तू खुद समझदार है. अच्छा चल, अब मैं चलती हूँ, आज नया आचार बना है कंपनी में फिर मिलते हैं. कहकर उस रोज काशी वहाँ से चली गयी और रेणु के मन में कई सवाल छोड़ गयी. कुछ दिन तक सब सामान्य रूप से चलता रहा. फिर एक दिन दीनदयाल जी ने रेणु से उसके जख्म के बारे में पूछा, तो पहले तो रेणु ने माना कर दिया. कहा कुछ नहीं छोटी सी चोट थी. अब तो ठीक भी हो गयी, परंतु दीनदयाल जी नहीं माने, आखिर मानते भी कैसे उन्होने अपनी आँखों से वो चोट देखी थी. जब उन्होने बहुत ज्यादा ज़िद की तो रेणु को उन्हें सच बताना ही पड़ा और जैसा की रेणु जानती थी सच सुनने के बाद उनका चेहरा गुस्से से तमतमा गया. लेकिन वह सिवाय गुस्सा करने के और कर भी क्या सकते थे. रेणु ने किसी तरह उनको समझा बुझाकर शांत कर दिया. इधर उन्होने लक्ष्मी से भी इस विषय में बहुत से सवाल जवाब किए, पर लक्ष्मी ने उन्हें टाल दिया....आगे क्या हुआ जानने के लिए जुड़े रहें