उजाले की ओर –संस्मरण Pranava Bharti द्वारा सामाजिक कहानियां में हिंदी पीडीएफ

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उजाले की ओर –संस्मरण

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स्नेहिल नमस्कार प्यारे मित्रों

हर दिन छोटी-बड़ी बातें होती रहती हैं | जीवन का न तो कोई भी पल खाली रहता है न ही कोई भी दिन अथवा कोई भी मन का कोना | मन तो ऐसा कंप्यूटर है जो भरा ही रहता है | अब जब कोई भी चीज़ अधिक भर जाए, उसमें कुछ इतना ठुँसने लगे कि भीतर ही भीतर युद्ध छिड़ने लगे, वहाँ कुछ जगह तो बनानी ही पड़ती है | कुछ चीज़ों को खाली करना पड़ता है, कुछ चीज़ों को समेटना पड़ता है तब कहीं जाकर कुछ खुली साँस आ सकती है | 

अपने इसी जीवन में हमने कितने-कितने बदलाव देखे है, हम सब ही देख रहे हैँ, अपने-अपने जीवन के अनुसार, उम्र के अनुसार, अनुभवों के अनुसार !हम बदलावों की किस दुनिया से इतने बाबस्ता हो चुके होते है कि बदलाव के बिना हमें चैन ही नहीं आता | 

बदलाव स्वाभाविक भी है । दुनिया सृष्टि के प्रारंभ से बदलती है, न बदलने की तो कोई गुंजाइश हो ही नहीं सकती | मनुष्य जन्म लेकर शनै:शनै: उम्र के अनुसार बदलता है, उसकी मानसिक और शारीरिक स्थितियों में बदलाव होता है और एक सुखद वातावरण उत्पन्न करता है | बदलाव न हो तो चीजें बदलने के स्थान पर सड़ने, गलने लगती हैं और जीवन का हर पड़ाव सिमटने लगता है जो किसी भी स्थिति में ठीक नहीं | 

हमारे मन व तन को जब चोट लगती है तब हमारा विवेक भी कमज़ोर पड़ने लगता है | 

"दीदी! बक्शी हर समय मुझे नीच दिखाने की कोशिश करता रहता है | " अक्सर अपने छोटे भाई विनय को ऑफ़िस से आकर दुखी होते हुए देखती | 

हम दोनों साथ ही ऑफ़िस से लौटते थे और अक्सर एकसाथ ही चाय पीते और दिन भर में हुई बातों पर चर्चा करते | मैं बड़ी हूँ, जीवन के अनुभवों ने बहुत कुछ सिखाया है | कई वर्षों से कार्यरत हूँ लेकिन विनय को अभी लगभग एक वर्ष ही हुआ है काम शुरू करते | वैसे भी वह मेरे से कुछ अलग ही स्वभाव का है | छोटी-छोटी बातों को पकड़कर बैठ जाने वाला !

मैंने उसे बहुत बार समझाया भी है कि बहुत सी बातों को पकड़कफ़र बैठना न तो उसके कैरियर के लिए ठीक है, न ही उसके मानसिक स्वास्थ्य के लिए | 

मेरे सामने वह चुप तो हो जाता है लेकिन दो/चार दिन बाद फिर से दुखी भी हो जाता है | 

"दीदी! समझ में ही नहीं आता, यह बक्शी आखिर क्यों मेरे पीछे पड़ा है ?कितना भी कर लो इसे कुछ न कुछ कमी निकालनी ही होती है | "

मेरे सामने वह एक छोटे रूठे हुए बच्चे सा बन जाता है और मेरा उस पर माँ का सा प्यार बरसने लगता है | 
"करने दे न, तू अपने काम को गंभीरता से कर, देख कब तक वह तुझे परेशान करेगा ?" उस दिन मैंने उसे बहुत लाड़ से समझाया और मुझे लगा कि वह समझ भी गया | 

वह बुद्धि से सदा बहुत तेज़ रहा है और शिक्षा के क्षेत्र में सदा आगे रहा है | 

एक अच्छे संस्थान से एम.बी. करके अच्छे स्थान पर कार्यरत विनय की अत्यधिक संवेदनशीलता उसे परेशान करने लगती है।

मैं उसे यही समझाने की कोशिश करती हूँ कि वह छोटी छोटी बातों को ऐसे देखेगा तब उसका अपना काम ही पीछे रह जाएगा।

समय इस ब्रह्माण्ड का सबसे बड़ा चिकित्सक है, जो जीवन में शांति, प्रसन्नता का लेप लगाकर सबके दुख-कष्ट, पीड़ाओें को हर लेता है। यह सबसे बड़ा सर्जक भी है और सर्वश्रेष्ठ औषधिदाता वैद्य भी। समय ही उखाड़ और विनाश का कारक भी बनता है और असम्भव को सम्भव बना देने वाला निर्माणकर्ता भी यही है। वह नयी ऊर्जा से फिर भर देता है।

बात गंभीरता के दूसरे कटघरे में पहुँच गई है किंतु है सत्य! विचारकर देखें तो सही।

समय को काल भी कहते हैं। काल अनन्तकाल से अपने साथ न जाने कितने प्रभावों, स्वभावों, अभावों, दबाओं से लेकर जीवन-परिवार-समाज से जुडे़ उखाड़-पछाड़ को अपने में समाता रहा है, आगे भी समाता जायेगा। लेकिन समझदार लोग मिले अनुभवों के सहारे आने वाले समय के अच्छे से उपयोग का तरीका निकाल कर सुखमय भविष्य की ओर फिर से बढ़ चलेंगे। यही जीवन का उसूल है।

वर्तमान में इंसान का अपना प्रिय जीवन संगीत टूट रहा है, निजी एकांत खो रहा है। वह अपने से अपने लोगों से और प्रकृति से कटता जा रहा है। परिवर्तन की इस बेला में, आर्थिक आजादी और आक्रमकता के इस दौर में एक ऐसी मानसिकता की आवश्यकता है जहाँ इंसान और उसकी इंसानियत दोनों बरकरार रहे। इसके लिए संघर्ष और पुरुषार्थ दोनों करते रहना आवश्यक है। क्योंकि जीवन का अर्थ केवल संघर्ष में है। जीत या हार के बारे में, किसी के गलतियाँ निकालने के बारे न सोचकर वह देखें जो अपने हाथ में है। इसीलिए चलिए संघर्ष का जश्न मनाते हैं।

 

आपका दिन सपरिवार शुभ एवं मंगलमय हो।

सस्नेह

आपकी मित्र

डॉ.प्रणव भारती