दिवास्वप्न Prabodh Kumar Govil द्वारा फिक्शन कहानी में हिंदी पीडीएफ

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दिवास्वप्न

"दिवास्वप्न"
एक दूसरे से सटे फ्लैट्स का यही फायदा है कि कभी - कभी सहज ही कही गई बातें भी आसानी से पड़ोसियों को सुनाई दे जाती हैं। लेकिन शायद यही नुकसान भी है।
मैं बालकनी में बैठा कुछ पढ़ ही रहा था कि नज़दीक के एक दरवाजे पर कुछ बेचने वाले की दस्तक और मनुहार सी सुनाई दी। शायद वह पनीर लाया था और घर की महिला से बार- बार उसे खरीद लेने का आग्रह कर रहा था।
पूरा वार्तालाप तो नहीं सुनाई दिया लेकिन कुछ झुंझला कर महिला के बोलने और दरवाजा बंद कर लेने की आहट ज़रूर सुनाई दी, वो कह रही थी - नहीं चाहिए यार!
लड़का तो चला गया, महिला भी अपने दैनिक कामकाज में लग ही गई होगी पर मुझे बैठे - बैठे मानो काम मिल गया। हो सकता है कि मैं जो कुछ पढ़ रहा था वह ज्यादा रोचक न रहा हो इसी लिए मैं उससे छिटक कर कुछ सोचने पर आ गया।
मैं सोचने लगा कि यदि यह आज से बीस साल पहले की बात होती तो महिला पनीर के लिए लड़के को किस तरह मना करती।
शायद महिला प्रौढ़ या बुजुर्ग होती तो कहती- नहीं चाहिए बेटा! या फ़िर वह युवा होती तो कहती- भैया, आज नहीं चाहिए।
और अगर वो बच्ची ही होती और बेचने वाला कुछ प्रौढ़ रहा होता तो कहती- नहीं चाहिए बाबा। या फ़िर अंकल...!
अब सोचने पर कोई पाबंदी तो है नहीं, तो मैं कुछ और आगे तक सोच गया। मैंने सोचा, उसका पनीर तो देर - सवेर बिक ही जाता, लेकिन घर - घर घूमने वाले उस अल्पशिक्षित लड़के की सामाजिक पढ़ाई जारी रहती। उसके अवचेतन में कहीं ये बात भी मिट्टी की लकीर की तरह रह जाती कि बड़ी उमर की औरत माँ होती है, बराबर की बहन और छोटी सी मुनिया बिटिया सरीखी।
मैं "यार" शब्द के पर्यायवाची गुनने लगा। मित्र, दोस्त, सखा आदि।
सोचने का सबसे बड़ा खतरा यही है कि आदमी अच्छा भी सोचता है और बुरा भी। मैं सोचने लगा कि मान लो, कभी आते- जाते ये महिला उस युवक को अकेले में मिल गई तो वो इसे किस नज़र से देखेगा?
तभी अचानक मेरी सोच की तंद्रा भंग हो गई। एक फ़ोन आ गया। उधर से कोई महिला स्वर था। थोड़ी तल्ख़ी थी आवाज़ में। बोली- हमेशा हर बात में गलती महिला की ही क्यों बताई जाती है? क्या औरत किसी को दोस्त नहीं कह सकती? कह भी दे तो क्या उस दोस्त को उससे खिलवाड़ करने का हक मिल जाता है? मैंने हड़बड़ा कर फ़ोन काट दिया।
लेकिन तभी घंटी फ़िर बजी। शायद फोन मेरे काटने से कटा नहीं था बल्कि किसी और फोन के आ जाने से स्वतः कट गया था।
यह फोन जिन सज्जन का था वो कह रहे थे - उस दिन टीवी पर न्यूज़ीलैंड की प्रधानमंत्री हमारे एक बड़े नेता को फ्रेन्ड कह रही थीं, तो क्या ये उनकी वासना थी?
मैंने घबरा कर पूछा- आप कौन? लेकिन उन्होंने मेरी बात को अनसुनी कर के बोलना जारी रखा - हम भगवान को सखा नहीं कहते क्या? कृष्ण - सुदामा मित्र नहीं थे क्या?
अब मैंने मुस्तैदी से फोन काट दिया। लेकिन शायद फोन इस बार भी कटा नहीं था बल्कि कोई क्रॉस - कनेक्शन लग जाने से बीच में ही किसी महिला की कुछ परिचित सी आवाज़ सुनाई देने लगी। वो कह रही थी- अरे सर, आपका तो साहित्य में बड़ा नाम है। स्त्री- विमर्श के विरोधी इस स्वर से तो आपकी छवि बहुत खराब होगी।
मैं अंगुली से सिर खुजाने लगा।
सिर पर हाथ जाते ही मानो मेरा एंटिना हिल गया। मुझे कुछ दिन पहले हुई एक संगोष्ठी याद आने लगी जिसमें विदेश से आई एक प्रोफेसर बोल रही थीं कि अविवाहित या पति से दूर रह रही औरत हर आदमी को भाई या पिता की नज़र से देखे तो उसके ऑर्गेज्म का क्या? शरीर पर किसी का वश है क्या? क्या समाज ने कोई व्यवस्था बनाई है? वो महिला बोलते- बोलते कुछ क्रोध में आ गई और उत्तेजित होकर बोली- कुत्ते- बिल्ली तक के अधिकार के लिए लड़ने वाले हैं पर औरत हर जगह अकेली है! उसके कुछ मानव अधिकार नहीं हैं क्या? अफसोस।
मैंने एकदम से मोबाइल को झटक कर दूर खिसका दिया। मुझे ऐसा लगा जैसे मेरी हथेली पर कोई छिपकली रेंग गई हो। मैं अपने ही हाथों से अपने गाल पर तमाचे मारने लगा।
अब कोई दूसरा नहीं, बल्कि मेरा ही ज़मीर मुझे कौंचने लगा, बोला- आदमी अपनी नज़र क्यों नहीं संभालता? अगर कोई औरत कहे कि उसके बटुए में पैसे हैं, तो क्या वो पैसे चुराने का हक मिल गया आपको? आपकी नीयत का कोई मोल नहीं है?
मैं निरुत्तर सा होकर इधर- उधर देखने लगा। मुझे लगा कि मैं ये किस चक्रव्यूह में फँस गया। इससे तो मैं उस लड़के से पनीर ही खरीद लेता और शाम को शाही पनीर का आनंद लेता।
तभी मुझे लगा कि मेरे दरवाजे पर भी कोई दस्तक हो रही है। मैंने उठ कर खिड़की से देखा- दरवाजे पर बाहर कोई औरत खड़ी थी। उसकी कुछ ऊब और झुंझलाहट भरी आवाज़ सुनाई दे रही थी - प्रेस के कपड़े दे दो...
मैंने मन में कहा - आया डार्लिंग! और मैं धुले हुए कपड़े प्रेस के लिए उसे देने को समेटने लगा।
ओह! ये आज हो क्या रहा है। ये क्या कह दिया मैंने? क्या मैं कानून नहीं जानता। किसी की मर्ज़ी के खिलाफ उससे प्रेम निवेदन करना भी तो एक प्रकार से उसकी निजता पर हमला ही तो है। अगर किसी महिला को डार्लिंग कह दिया तो फ़िर बाकी क्या रहा, ये तो प्रेम निवेदन है ही न। और प्रेम निवेदन तो एक बार को फ़िर भी क्षम्य है, ये तो वासना निवेदन हुआ। मैं अपने आप को अपराधी महसूस करने लगा। मेरा सिर कुछ भारी सा हो गया।
लेकिन तभी अचानक मुझे ख्याल आया कि मैं तो यहाँ अकेला हूँ, न मैंने किसी से कुछ कहा है और न ही किसी से कुछ सुना है। यानी मेरे सारे तीर अभी मेरे तरकश में ही हैं। कोई भी छूटा नहीं है। केवल सोचने पर न कोई धारा लगती है और न ही कोई अपराध सिद्ध होता है।
वैसे भी अपने सपनों के डायरेक्टर - प्रोड्यूसर हम स्वयं नहीं होते। क्योंकि न इनमें हमारी पूंजी लगी होती है और न हमारी मेहनत।
मेरे सिर से मानो सारा बोझ उतर गया। मैं चाय बनाने के लिए रसोई घर की ओर बढ़ चला।
- प्रबोध कुमार गोविल,