115 ---
===============
मन बीहड़ बन में घूम रहा था| क्या और कैसे करूँ, कैसे संभालूँ इस शादी को? मैंने देखा है, महसूस भी किया है प्रेमी जोड़ों की मुहब्बत को जो डूबे रहते हैं, मैं क्यों नहीं कोई उत्साह महसूस कर रही थी उत्साह? क्या मैं एक ऐसी नदी सी बन रही थी जिसके बहाव को पत्थर रोक लेते हैं और नदी की कलकल ध्वनि अचानक बंद हो जाती है| पत्थरों की आड़ से बनाती हुई वह न जाने कितनी पीड़ा झेलती हुई तरलता, सरलता से बहने के स्थान पर घायल होती हुई शिथिलता से आगे बढ़ती है|
प्रमेश और उसकी बहन बड़े मजे में सब कुछ समेटते जा रहे थे| मुझे बड़ा अजीब लग रहा था कि सब लोग उनकी हर बात बड़ी आसानी से स्वीकार ही नहीं कर रहे थे बल्कि बड़े प्यार, उत्साह व सम्मान से स्वीकार कर रहे थे | धुंधले सपने से दिन जैसे मेरे मस्तिष्क के पटल पर चिपके जा रहे थे| कैसे इनके साथ रहूँगी? मेरे मन में एक भय सा समाया हुआ था, क्या था, कुछ पता नहीं था लेकिन था कुछ ! कभी ऐसा होता है न कि भविष्य की ख्याली सोच मन में पसर जाती है और जैसे हम किसी अनहोनी की कल्पना करके उखड़ने लगते हैं, बस वही मेरी स्थिति हो रही थी| जैसे मुँह में आ-आकर शब्द फिर अंदर धकेले जाते|
अमोल भाई और भाभी बड़े खुश थे, प्रमेश व उसकी दीदी को सामान के अंबार लादकर!वैसे ये आज की पीढ़ी है जो शादी में बेकार के लेने-देने में विश्वास नहीं करती, दहेज़ यानि डावरी को बहुत बुरा मानती है लेकिन मेरी शादी में ये क्यों पैसा पानी की तरह बहा रहा था?क्या इसे दहेज़ नहीं कहेंगे?माना, पैसे की कोई परेशानी नहीं थी लेकिन जो भी था वह मेहनत से कमाया गया था और खर्चे भी उसके अनुसार ही थे| पहले तो भाई प्रमेश के नाम से इतना ऊँचा-नीचा हो रहा था लेकिन जबसे इन लोगों से मिला जैसे कोई प्रेम का प्याला ही पी लिया हो| हाँ, सच ही उस शर्बत का ही कमाल हो सकता है ! लेकिन बहुत देर हो चुकी थी|
असहज तो मैं तभी से थी जब से प्रमेश से शादी की बात शुरू हुई थी लेकिन आज मुझे बार-बार महसूस हो रहा था कि मैं अपने मन की उथल-पुथल को उत्पल के सामने खोलकर रख दूँ, उससे बात करूँ| वैसे उससे बात करके कोई समाधान तो निकलने वाला था नहीं फिर? लेकिन वह तो अपनी प्यारी दोस्त को लहरों के हवाले छोड़कर निकल गया था| इसमें भी उसी की गलती? क्या हो गया था मुझे? अपनी गलतियों को दूसरे के कंधे पर रखकर बंदूक चलाने जैसा निंदापूर्ण काम मैं सीखती जा रही थी| मैं इतनी निकृष्ट कब से और क्यों हो रही थी? मेरे चरित्र की परतें मेरे सामने ही उधड़ रही थीं !
“अमी डार्लिंग !” प्रमेश के पास से आकर पता नहीं भाई को क्यों अचानक मुझ पर लाड़ आया| वह अक्सर ऐसे तभी बोलता था जब कभी मुझ पर उसका प्यार बरसाने का मन होता | वैसे प्यार तो वह मुझे बहुत करता था, स्वाभाविक भी था, एक ही तो बहन थी मैं उसकी!लेकिन अचानक ऐसा लाड़ क्यों भला ?!
“क्या हुआ भाई ?” मैंने अमोल से पूछा| उसने मुझे अपने से चिपटा लिया |
“अब हमारी बहन मेहमान बनने जा रही है| ”उसने मुस्कुराकर कहा|
“मैं कहाँ से मेहमान बन जाऊँगी? मुझे तो यहीं रहना है। मेहमान तो आप लोग हो ! ”मुझे अजीब भी लगा और कुछ अच्छा भी नहीं लगा| आखिर क्यों ऐसा कहा अमोल ने? पलक झपकते ही समझ भी आ गया कि शादी के बाद लड़की को ही तो अपना घर छोड़कर जाना होता है लेकिन मेरे लिए तो संभव ही नहीं था| संस्थान तो छोड़ नहीं सकती थी मैं, जब तक मैं थी| वैसे भी स्थानीय ही तो थी मैं, लोकल ! जाना तो भाई और भाभी को ही था अपने परिवार में!
“प्रमेश बहुत अच्छा इंसान लगा मुझे !इससे पहले तो मैं कहाँ उनसे इतने करीब से मिला था| ”अमोल ने अपने मन की बात कही|
कमाल ही था न! जो उसके साथ ताउम्र के लिए बंधने जा रही थी, उसे तो कुछ मालूम ही नहीं था, कहाँ पहचान पाई थी मैं अभी तक उसे?अंधी आँखों से मैं दिशा-विहीन ही तीर चला रही थी| मन में न जाने कितने कितने बुलबुले उठ रहे थे ! घबराहट के !
“भाई!मैं कभी भी इस घर की मेहमान नहीं बन सकती| ”मैंने कुछ नाराजगी दिखाने की कोशिश की|
“क्यों भई, कैसे?”
“ऐसे कि संस्थान में तो मुझे रोज़ ही आना होगा, अब अम्मा पर मैं अकेले तो संस्थान को नहीं छोड़ सकती?”
“संस्थान के तो अब कितने बच्चे हो गए हैं जो सब कुछ संभाल रहे हैं !फिर अम्मा पापा अब मेरे साथ जाएंगे —यहाँ पर शीला दीदी हैं, रतनी हैं, उनके परिवार के सभी लोग तो जुड़े हुए हैं संस्थान से अब| ” अमोल ने कहा|
बात उसकी गलत नहीं थी लेकिन कुछ मानवीय प्रकृति होती है जो रक्त के संबंधों के तंतुओं से जकड़ी होती है| सच तो यह था कि हम दोनों भाई-बहन तो शायद नाम भर के लिए ही संस्थान के अधिकारी थे , वो भी इसलिए कि हम अम्मा के बच्चे थे अन्यथा काम तो वहाँ के उन सभी लोगों के सहारे चल रहा था जो वहाँ अपना समय और ऊर्जा समर्पित करके संस्थान में ईमानदारी से बरसों से अपनी सेवाएं दे रहे थे| वह बात ठीक है कि उन सबको उसका ईनाम भी मिल रहा था| अम्मा, पापा का उन्हें हर जगह साथ व आशीर्वाद प्राप्त था| संस्थान में न केवल वे, सभी अपनी-अपनी सेवाओं से कहीं अधिक पाते थे|
“मतलब---मुझे यहाँ से निकालकर तुम लोग अम्मा-पापा को भी अपने साथ ले जाओगे और मुझे अकेला कर दोगे?”मेरे मन में अचानक ही सच में ही एकाकीपन उतरने लगा था और जैसे आँखों के आँसुओं में मेरा पूरा भविष्य तैरने लगा था| उनमें मेरा उत्पल था जो न जाने मुझसे रूठकर कहीं जा छिपा था| यह तो कोई नहीं जानता, समझता था और मैं न किसी को बता सकती, न ही समझा सकती थी|
“पागल है—रो क्यों रही है ? कितने सालों की तपस्या के बाद तो शिव-शंकर यानि मौनी बाबा मिले हैं| ”फिर हँसकर बोल उठा ;
“लगता है, हमारी अमी ने ज़रूर कोई व्रत-उपवास किए हैं, तभी प्रमेश बर्मन जैसा संस्कारी इंसान इसकी ज़िंदगी का हिस्सा बनने आया है| क्यों—एमिली, एम आई राइट?”शादी के अपने लंबे बरसों में एमिली ने न जाने कौन- कौन सी कथा-कहानियाँ पढ़ डालीं थीं और उसे बहुत सी वे सब पौराणिक व ऐतिहासिक बातें मालूम थीं जो मैं भी नहीं जानती थी |
“ऑफ़ कोर्स , यू आर राइट आमोल----इट्स नैवर लेट, डू यू डू ऑल फास्ट एंड रिचुअल्स—” उसने मुस्कुराकर मुझसे पूछा| वह भाई को अमोल की जगह शुरु से ही आमोल बोलती थी जो उसके मुखे से बहुत प्यारा लगता था|
“क्या भाई , तुम भी----”मैंने उसके पेट में एक हल्का सा मुक्का मारा तो वे दोनों ज़ोर से हँस पड़े|
“मैं कहाँ कुछ करती हूँ , ये जानता तो है फिर क्यों---?” मैंने कुछ रुखाई से कहा|
“व्हाई ? यू मस्ट डू अमी, मैंने बहुत सारी कहानियाँ पढ़ी हैं ---ऐसा करने से अच्छा पति मिलता है| ”मुस्कुराते हुए एमिली बोली|
“क्या तुमने किये हैं फ़ास्ट----?” मैंने एमिली से हँसकर पूछा |
“बट, ये तो यहाँ बारत में होता है न—मुजको वैसे ही अच्छा पति मिल गया न!” कितनी अच्छी तरह , सरलता से एमिली अपनी बातें समझा देती थी!
मेरा और भाई का रिश्ता कितना मज़ेदार था बचपन से ही! हम एक-दूसरे की बातों को काटते भी रहते। माँ-पापा की मज़ाक भी करते रहते और साथ ही खेलना, खिलखिलाकर हँसना---सब कुछ हमारी किताब में दर्ज रहता| शायद ही कोई बात ऐसी हो जो हम एक-दूसरे से शेयर न कर पाते हों| आज क्या हो गया था?न वह मेरे मन को समझ रहा था और न ही मैं उससे कुछ कह पा रही थी|
“अंतरा भी आ गई है---”भाई ने कहा तो चौंककर मैंने उसकी तरफ़ देखा|
“उसने मुझे तो बताया भी नहीं, कह रही थी आने को लेकिन मैंने उसे मना कर दिया था| ऐसा तो है क्या इस शादी में ??
“मना तो उसने मुझे भी किया था अभी बताने के लिए, पर मेरे तो---जस्ट स्लिप ऑफ़ टंग ----और बाई द वे ये क्या बात हुई कि ऐसा तो क्या है शादी में ? हमारी लाड़ली बहन की शादी है !”भाई ने लाड़ से कहा और अपनी जीभ निकालकर दांतों में दबाई|
“चलो , ठीक है न, जो हो गया सो हो गया| यह छिपाने वाली बात थोड़े ही है | मेरे बस चले तो मैं अपने गले में ढोल बाँधकर अपनी बहना की शादी का ढिंढोरा पीटता फिरूँ | कितना वेट करवाया भई , परसों सुबह ही तो कोर्ट में रजिस्टर होनी है शादी, शाम को पार्टी और फिर बाय—बाय---”अमोल ने अपनी आदत और लाड़ के मुताबिक मेरे सिर पर छोटी सी टपली लगाकर मुझे अपने गले से लगा लिया | लाड़ तो करता ही था मुझे, हम सभी जानते थे| उसका बस चलता तो न जाने क्या-क्या लुटा देता अपनी लाड़ली बहन पर | वह तो मेरे कारण चुप था कि किसी तरह बहन अपना साथी तो तय कर ले| कितना महत्वपूर्ण है , जीवन में एक साथी का होना !
“लेट अस हैव सम रेस्ट---”मुझे एक बार ज़ोर से अपने से चिपकाकर उसने एमिली से कहा और दोनों फटाफट मेरे कमरे से निकल गए| मैं जानती थी उसके इतनी जल्दी निकल जाने का कारण , वह असहज हो रहा था, मैंने उसकी नं आँखें देख ली थीं|