प्रेम गली अति साँकरी - 116 Pranava Bharti द्वारा प्रेम कथाएँ में हिंदी पीडीएफ

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प्रेम गली अति साँकरी - 116

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पता नहीं क्यों मेरी बेचैनी और भी बढ़ने लगी| परसों? चाहे इस घर में आना-जाना बना रहे पर एक तरह से पराई तो हो ही जाऊँगी न ! दूर तो हो जाऊँगी न ! अभी तक मैं खुद को अम्मा की नाल से बँधा हुआ महसूस करती थी| लगा, अब वह नाल से बंधा रिश्ता खतम हो जाएगा ! क्या कुछ ऐसा ही सब लड़कियाँ अपनी शादी के समय महसूस करती होंगी?यह ‘पराई’ शब्द कितना कठिन है !कितना कष्टकर ! अपने रिश्तों में जब कोई औपचारिकता की बात होने लगती है, तुरंत बोला जाता है;

’हमें पराया मत करो भई?’मुझे खुद पर हँसी आई ‘क्या मैं कहीं से भी लड़की रही हूँ ?’खैर जो भी स्थिति हो ऐसे समय की मन:स्थिति हर उम्र में एक सी ही होती होगी तभी तो शादी के बरसों बाद, कई बच्चों की माँ बनने के बाद भी किसी भी परेशानी में, तकलीफ़ में मुँह से सबसे पहला शब्द ‘माँ’ ही निकलता है| 

तो क्या मैं भी ऐसी ही पराई होने जा रही थी?मालूम नहीं क्यों अंदर से पूरा शरीर हिलने लगा और एक अजीब सी बेचैनी में डूबने लगी मैं! इस ज़िंदगी में कौन होगा जिसे प्यार की ज़रूरत न हो?मैंने तो प्यार की प्रतीक्षा में अपनी ज़िंदगी खतम कर दी थी!उत्पल ही मेरा प्यार था। मस्तमौला उत्पल ! बार-बार महसूस होता कि प्यार मन का संबंध नहीं, आत्मा का संबंध है| जिससे आत्मा जुड़ जाए, वहीं समर्पण की चाह होती है और आत्मा की तृप्ति भी !मन जैसे खाली गुब्बारा सा एक कोने में बिसुरा हुआ पड़ा था जिसकी गैस निकल चुकी थी और आत्मा छटपटा रही थी| कहाँ हो उत्पल ?

कभी संवेदनशील स्थिति में मन अशांत होने लगता, कभी फिर से कोशिश करती उसे शांत करने की| सब कितने खुश हैं !मुझे भी तो खुश होना चाहिए न! भाई के साथ जो बहस हो गई थी उसका प्रभाव इतनी जल्दी समाप्त होने वाला तो था नहीं| मन की दीवार पर जैसे कुछ खुरचनों के निशान थे जो बढ़ते ही जा रहे थे| बेटी की शादी होते ही उसका सरनेम बदल दो, उसे सिर से लेकर पाँव तक बेड़ियों में जकड़ दो, उसे भाषण देते रहो कि अब उसे पराए घर जाना है और मरते दम तक उधर ही रहना है, चाहे कितीने भी आँधी-तूफ़ान क्यों न झेलने पड़ें| मैंने तो कितनी ही लड़कियों के माता-पिता को यह कहते सुना था कि जब तक जिंदा हो, वहीं रहना है| यानि कोई भी परेशानी हो, अपना युद्ध अपने आप लड़ना है और वह भी विनम्रता के साथ!कई बार मन में आता कि आखिर दो प्यार करने वालों के बीच में क्यों जा घुसते हैं लोग ?जरूरी है बीच में पंडित बनकर अपनी महत्ता दिखाना?ये सब शिक्षाएं बेटी को ही दी जाती हैं, अधिकतर !बेटों को भी तो यह शिक्षा देनी जरूरी है न?लेकिन नहीं----उसे किसी भी स्थिति में स्वीकार किया जाता है| आखिर जीवन का तरणतार तो वही हुआ न!

बेटा बेशक कितनी दूर चल जाए वह अपना ही रहता है और बेटी कितनी भी पास क्यों न हो पराई हो जाती है! और ये ‘कन्यादान!’ शब्द से मुझे हमेशा से चिढ़ रही है| क्या बेटी को इसीलिए जन्म दिया जाता है कि उसे दान कर दिया जाए? ये सब रीति-रिवाज़ हमारे समाज के ही तो बनाए हुए हैं| यानि किसी न किसी तरह लड़की को नीचा दिखाने की बात हो गई| वह कितनी भी योग्य क्यों न हो, शादी के बाद ‘दान’जैसे शब्द से उसे बाँध दो! आखिर क्यों भला?इस समाज में जो भी पर्दे में हो वह ठीक है और जो खुले आम हो, बात पूरी चरित्र पर ही आ जाती है, वह भी विशेषकर स्त्री पर!क्यों पैदा करते हो फिर लड़की को? ये समाज टिक सकेगा बिना लड़की के? कहाँ से कहाँ बातों के सिलसिले बिखरे जा रहे थे और मैं उनके साथ इधर से उधर डोल रही थी, सामने बिना किसी लक्ष्य के ! मेरी तो एक ही चुभन थी और वह मैं बखूबी जानती थी---

मुझे अपने उत्पल से बात करनी थी, मैं जानती थी, वह वहाँ नहीं था फिर भी भई-भाभी के जाने के बाद मैं लगभग दौड़ती हुई उसके चैंबर में गई| उसका असिस्टेंट कुछ काम कर रहा था| मुझे देखकर चौंक गया, जानता था मैं उत्पल की अनुपस्थिति में कभी उस चैंबर में नहीं जाती थी | मैंने उसकी ओर ध्यान भी नहीं दिया और एक बनावटी मुस्कान हल्के से उसकी ओर फेंककर मैं उत्पल के उस ड्राअर की ओर बढ़ चली जहाँ वह मेरा स्कार्फ़ छिपाकर रखता था| 

“दीदी ! कुछ चाहिए---?” वह मेरे सामने ही खड़ा था| मैंने उसे हाथ के इशारे से अपना काम करने के लिए कहा| आँखें झुकाकर वह चुपचाप वहाँ से अपने डार्क-रूम में चल गया| जाते-जाते कहा गया;

“दीदी! कुछ चाहिए तो आवाज़ दे लीजिएगा| ”वह मानो मेरे आदेश की प्रतीक्षा में मेरे सामने खड़ा रहा| 

मैंने चुपचाप हाँ में गर्दन हिला दी और आगे बढ़कर उत्पल की रिवॉलविंग कुर्सी पर बैठ गई | मेज़ की दोनों ओर की ड्राअर्स खुली थीं| मैं जानती थी किस ड्राअर में क्या रखता है वह| अब मेरे काँपते हाथ उस ड्राअर को खोलकर उसे टटोल रहे थे जिसमें मेरा चोरी किया हुआ स्कार्फ़ रखा रहता था | कमरे में खासी रोशनी थी इसलिए ऐसा भी नहीं था कि ड्राअर में अंधेरा होने के कारण मुझे कुछ दिखाई नहीं दे रहा था| वहाँ मेरा स्कार्फ़ नहीं था| हड़बड़ाकर मैंने दूसरे सभी ड्राअर्स खोलने शुरू किए| लेकिन मुझे वह स्कार्फ़ नहीं मिला| ज़रूर वह अपने साथ ले गया है| पर क्यों? क्या वह यहाँ से हमेशा के लिए छोड़ गया है?मैं नर्वस होने लगी, मन में यह बात तो थी ही फिर मैं ऐसा क्यों महसूस कर रही थी?उसके जाने का कारण भी तो मेरे पास था| फिर ?क्या अब मेरा उससे कभी मिलना नहीं होगा?मेरा मन किया मैं वहीं बैठकर चिल्लाने लगूँ लेकिन शायद मन अपनी स्थिति समझ रहा था और मेरी संवेदना को विवेक ने संभाल लिया था| 

उत्पल का सहायक अभी तक भी वहीं खड़ा था| वह बेचारा मेरे लिए खड़ा था, संभवत:मुझे किसी चीज़ की ज़रूरत हो तो?लेकिन मुझे उसका वहाँ खड़ा रहना असहज कर रहा था| 

“तुम अपना काम करो, मुझे ज़रूरत होगी तो तुम्हें बुला लूँगी| ”मैं उसके साथ थोड़ी रूड थी जबकि उसके साथ रूड होने की आखिर मुझे ज़रूरत क्या थी?

मैं उत्पल से अकेले में मिलना चाहती थी, उससे अपने दिल के सारे अवसाद साझा करना चाहती थी| मैं जानती थी कि उसे मेरा दो नावों के बीच में लटकना बिलकुल पसंद नहीं था| वह हर बात में बिलकुल स्पष्ट था और चाहता था कि मैं भी स्पष्ट होने का साहस करूँ| हाँ तो हाँ, नहीं तो नहीं ---ये क्या हुआ कि मन में हाँ, ऊपर नहीं| मैं यह भी महसूस करती व समझती थी कि उसका सोचना व कहना शत प्रतिशत सही था लेकिन मैं यह भी जानती ही थी न कि मैं एक कमज़ोर इंसान थी| मैं क्यों ऐसी थी?इतने खुले वातावरण और खुली सोच के लोगों के बीच में मैं ही क्यों ऐसी थी? परिवार में अम्मा से लेकर सबने अपनी इच्छानुसार ही सब कुछ किया था, अपने जीवन के निर्णय लिए थे जिन्हें सबका सपोर्ट मिल था तो क्या इस परिवार की लाड़ली को न मिलता यानि मुझे? लेकिन परिस्थितियाँ एकदम भिन्न थीं, स्थिति भिन्न थी और मेरे मन की सोच व घबराहट भी शायद परिवार से अधिक समाज की सोच मुझ पर हावी थी, परिवार की इज़्ज़त कहीं न कहीं मेरे मन में कुंडली मारकर बैठी हुई थी| मैंने कुछ किया नहीं कि वह मुझ पर और मुझसे भी अधिक परिवार पर मेरे निर्णय का प्रभाव पड़ेगा| 

मैं उत्पल के चैंबर से जल्दी से निकल भागना चाहती थी और अपने कमरे में बंद करके उस चीज़ को देखना चाहती थी जो मैंने चुपके से उठा ली थी| बिना कुछ कहे मैं सीधी लगभग भागती सी या कहें कि तेज़ कदमों से मैं अपने कमरे में पहुंची, जल्दी से अंदर से दरवाज़ा बंद कर लिया और आँखें बंद करके साँसों के उतार-चढ़ाव के साथ खुद को पलंग पर फेंक दिया| न जाने कब तक मैं इसी प्रकार आँखें बंद किए हुए पड़ी रही| अचानक मेरा गला सूखने लगा और बड़ी मुश्किल से उठकर मैंने पलंग से लगी साइड टेबल पर रखे जग से पास रखे ग्लास में पानी उंडेल लिया और गटागट पानी गले से नीचे उतार लिया | लंबी साँस व धड़कते दिल की तरंगों को संभालते हुए मैंने उस लिफ़ाफ़े पर नज़र डाली जो मैं उत्पल के ड्राअर में से उठाकर ले आई थी| काँपते हाथों से मैंने उस लिफ़ाफ़े को खोलकर उसके अंदर का सामान पलंग पर उलट दिया और फटी हुई आँखों से उन चीज़ों को घूरने लगी | मेरे सामने एक नहीं, कई आश्चर्य थे जो प्रश्न बनकर मेरी आँखों में समय गए थे |