नाम जप साधना - भाग 15 Charu Mittal द्वारा कुछ भी में हिंदी पीडीएफ

Featured Books
  • My Passionate Hubby - 5

    ॐ गं गणपतये सर्व कार्य सिद्धि कुरु कुरु स्वाहा॥अब आगे –लेकिन...

  • इंटरनेट वाला लव - 91

    हा हा अब जाओ और थोड़ा अच्छे से वक्त बिता लो क्यू की फिर तो त...

  • अपराध ही अपराध - भाग 6

    अध्याय 6   “ ब्रदर फिर भी 3 लाख रुपए ‘टू मच...

  • आखेट महल - 7

    छ:शंभूसिंह के साथ गौरांबर उस दिन उसके गाँव में क्या आया, उसक...

  • Nafrat e Ishq - Part 7

    तीन दिन बीत चुके थे, लेकिन मनोज और आदित्य की चोटों की कसक अब...

श्रेणी
शेयर करे

नाम जप साधना - भाग 15

नाम जप पर पूज्य श्रीजयदयाल गोयन्दका जी के विचार

भगवान् के नाम की महिमा अनन्त है और बड़ी ही रहस्यमयी है। शेष, महेश, गणेश की तो बात ही क्या, जब स्वयं भगवान् भी अपने नाम की महिमा नहीं गा सकते – 'राम न सकहि नाम गुन गाई' तब मुझ सरीखा साधारण मनुष्य नाम-महिमा पर क्या कह सकता है? परन्तु महापुरूषों ने किसी भी निमित्त से भगवान् के गुण गाकर काल बिताने की बड़ी प्रशंसा की है। इसी हेतु से नाम महिमा पर यत्किञ्चित् लिखने की चेष्टा की जाती है। भगवन्नाम की महिमा सभी युगों में सदा ही सभी साधनों से अधिक है, परन्तु कलियुग में तो नाम की महिमा सर्वोपरि है। श्रीनारदपुराण में तो यहाँ तक कहा गया है–
हरेर्नाम हरेर्नाम हरेर्नामैव केवलम् ।
कलौ नास्त्येव नास्त्येव नास्त्येव गतिरन्यथा ।।

'कलियुग में श्रीहरि का नाम ही–हरि का नाम ही–हरि का नाम ही परम कल्याण करने वाला है, इसको छोड़कर अन्य कोई उपाय नहीं है।' इसका यही अभिप्राय है कि कर्म, योग, ज्ञान आदि साधनों का ज्यों का त्यों सम्पन्न होना, इस युग में अत्यन्त ही कठिन है। फिर, भगवन्नाम बड़ा ही सुगम साधन है। इसके सभी अधिकारी हैं, सभी इसको समझ सकते हैं। यह सबको सुलभ है, मूर्ख से मूर्ख मनुष्य भी नाम का जप-कीर्तन कर सकते हैं। इसमें न कोई खर्च है, न परिश्रम है। किसी प्रकार की बाधा भी अभी तक नहीं है। इतनी सुगमता होने के साथ ही सबसे बड़ी बात यह है कि इसमें कोई भी शर्त नहीं है। विवश होकर भी श्रीहरि के नाम का कीर्तन करने पर मनुष्य सम्पूर्ण पापों से वैसे ही छूट जाता है, यानी उसके सम्पूर्ण पाप उसी तरह भाग जाते हैं, जैसे सिंह से डरकर हरिन भाग जाते हैं। गोसाईजी महाराज ने रामचरितमानस में कहा है–
भायँ कुभायँ अनख आलसहूँ। नाम जपत मंगल दिसि दसहूँ।।

प्र० - यदि ऐसी बात है, किसी प्रकार से भी नाम लेने पर पापों का नाश होकर भगवत्प्राप्ति हो जाती है तो फिर श्रद्धा, प्रेम और निष्काम भाव आदि की शर्तें क्यों लगायी जाती हैं ?
उ० - श्रद्धा आदि की शर्ते शीघ्र प्राप्ति के लिये हैं। प्राप्ति तो नाम लेने वाले सभी को होगी परन्तु जो श्रद्धा, प्रेम तथा निष्काम भाव से नाम जपेगा उसको बहुत शीघ्र प्राप्ति होगी।

प्र० - अपनी समझ से तो लोग प्रेमपूर्वक ही भगवान् के नाम का जप करते हैं फिर भी भगवान् के दर्शन नहीं होते। इसमें क्या कारण है? यदि प्रेम की कमी ही इसका कारण माना जाय तो फिर उस कमी की पूर्ति कैसे होगी ?
उ० - प्रेम भाव से जप करते-करते ही उस प्रेम की प्राप्ति हो सकती है, जिसमें विहल होकर एक बार भी नामोचारण करने से भगवान् दर्शन दे सकते हैं।

प्र० - ऐसे सकाम प्रेमसे भगवान् प्रकट हो सकते हैं या निष्कामसे?
उ० - प्रेम का बाहुल्य हो तो सकाम से भी भगवान् प्रकट हो सकते हैं, परन्तु सकाम प्रेम भी द्रोपदी या गजेन्द्र का सा अनन्य होना चाहिये। जब सकाम से भगवान् प्रकट हो सकते हैं, तब निष्काम के लिये तो कहना ही क्या !

प्र ० - शास्त्र तो कहते हैं कि 'ऋते ज्ञानान्न मुक्ति:' ज्ञान के बिना मुक्ति नहीं होती। फिर नाम जप से मुक्ति का होना कैसे माना जाय ?
उ० - भगवान् को यथार्थ तत्व से जान लेना, यानी भगवान् जैसे हैं वैसे ही उनको जान लेना, ज्ञान है और भगवान् को यथार्थ तत्व से जना देने की शक्ति नाम में है। फिर मुक्ति होने में क्या संदेह रहा ?

प्र० - स्नानादि करके अच्छी तरह पवित्र होकर विधिपूर्वक नाम जप करना चाहिये या विधि-अविधि की कुछ भी परवाह न करके? इसी प्रकार नाम जप नियत संख्या में करना चाहिये या जितना मन हो उतना ही ?
उ० - भगवान् के नाम की महिमा है कि उसे कोई किसी प्रकार भी क्यों न ले, उसका फल होता ही है। खेत में चाहे जैसे भी बीज डाल दिये जायँ, वे उगते ही हैं। परन्तु विधिपूर्वक जप करने का विशेष महत्व है। यही बात संख्या के सम्बन्ध में जाननी चाहिये। विधिपूर्वक और संख्यायुक्त जप करने से यथार्थ आदर सत्कार होता है और सत्कार किया हुआ साधन विशेष फलदायक होता ही है। विधि और संख्या का नियम होने से ठीक समय पर उतना जप हो ही जाता है। जो विधि या संख्या का बन्धन नहीं मानते, वे भूल से जप छोड़ भी देते हैं।

प्र० - जब केवल नाम जप से ही भगवत्प्राप्ति हो सकती है, तब अर्थ सहित जप की क्या आवश्यकता है?
उ० - जप अर्थ सहित करने से बहुत शीघ्र लाभ होता है। जैसे किसी हौज में दो नाले से जल आ सकता है, परन्तु उनमें एक खुला है और दूसरा बन्द है। एक नाले से आने वाले जल से हौज दो घंटे में भरता है पर यदि दूसरा नाला खोल दिया जाये तो हौज दो घंटे के बदले एक घंटे में ही भर सकता है। इसी प्रकार अर्थसहित जप करने से शीघ्र लाभ होता है।

प्र ० - वेद, उपनिषद् और गीता में प्रणव ( ॐ ) की महिमा बहुत मिलती है। क्या भगवान् के अन्य नामों की भी ऐसी ही महिमा है?
उ० - भगवान् के सभी नाम परम कल्याणकारक हैं। राम, कृष्ण, हरि, नारायण, दामोदर, शिव, शंकर आदि नामों की तो बात ही क्या है, अन्यधर्मी लोगों के अल्लाह, खुदा आदि नामों की भी बड़ी महिमा है। भगवान् को कोई किसी भी नाम से पुकारे, वे सबकी भाषा समझते हैं। पुकारने वाले के ध्यान में यह बात होनी चाहिये कि मैं भगवान् को पुकार रहा हूँ। फिर नाम चाहे कोई भी हो। अप्, जल, पानी, नीर, वाटर आदि किसी भी नाम से पुकारे, उसे जल ही मिलता है। इसी प्रकार भगवान् के नामों को समझना चाहिये। इतना होने पर भी जप करने वाले साधक को जिस नाम में विशेष रूचि, प्रेम और विश्वास होता है, उसके लिये वही विशेष लाभप्रद होता है। राम और कृष्ण नाम में कोई अन्तर नहीं, परन्तु तुलसीदास जी को 'राम' नाम प्यारा है और सूरदास जी को 'कृष्ण' नाम । श्रद्धा और प्रेम के तारतम्य के अनुसार ही नाम का फल भी न्यूनाधिक हो जाता है। नाम की महिमा सभी शास्त्रों में गायी गई है। जिसको जिस नाम में प्रेम हो वह उसी नाम का जप कीर्तन कर सकता है। न जपने वाले की अपेक्षा तो वह भी बहुत श्रेष्ठ है जो दुःख नाश, भोगों की प्राप्ति और मान-बढ़ाई आदि के लिये नाम जप करता है। परन्तु नाम के बदले में जो उपर्युक्त लौकिक फल चाहता है, वह बड़ी गल्ती में है। वास्तव में वह ठगा ही जाता है। भगवान् के जिस एक नाम के सामने तीनों लोकों का सम्पूर्ण ऐश्वर्य भी कुछ नहीं, उस नाम को तुच्छ विषयों के बदले गँवा देना बुद्धिमानी नहीं है। तीनों लोकों का राज्य अनित्य है, भगवान् के नाम का फल नित्य है। नाम जप का फल तो भगवत्प्राप्ति ही है। कुछ प्रेमी महात्मा तो ऐसे होते हैं जो नाम जप केवल नाम-जप के लिये ही करते हैं। वे भगवत्प्राप्ति रूपी फल भी नहीं चाहते। अतएव भगवान् के किसी भी नाम का जप किया जाए, सभी नाम मंगलमय हैं, पर निष्काम तथा प्रेम भाव से जपने का विशेष महत्व होता है।
भगवान् के किसी भी नाम का जप किसी भी काल में, किसी भी निमित्त से, किसी के भी द्वारा, कैसे भी किया जाये, वह परम कल्याण करने वाला ही है। फिर जो श्रद्धा प्रेमपूर्वक, अर्थसहित, निष्काम भाव से और गुप्त रूप से नाम जप किया जाता है, वह तो उसी क्षण परम कल्याण रूप फल देने वाला होता है। भगवत्प्राप्ति तो किसी प्रकार भी नाम - जप करने से हो जाती है, परन्तु वह कालान्तर में होती है। हाँ, अन्त समय के लिये कोई शर्त नहीं है। भगवान् परम दयालु हैं, उन्होंने दया करके ही जीव को यह मोक्षोपयोगी मनुष्य शरीर दिया है और उन्हीं दयामय ने यह विधान भी कर दिया है कि अन्तकाल में किसी प्रकार भी जो मेरा नाम - स्मरण कर लेगा उसे मेरी गति प्राप्त हो जायेगी। किसी को फाँसी की आज्ञा होने पर जब साधारण राजनियम के अनुसार भी मृत्यु से पहले उस मनुष्य की इच्छा पूर्ण करने का सुभीता कर दिया जाता तब परम दयालु, परम सुहृद, सर्वसमर्थ प्रभु मनुष्य जीवन के अन्तकाल में जीव के साथ ऐसा दया का बर्ताव करें, यह उचित ही है।
ऐसे परम कारूणिक, परम प्रेमी, सर्वशक्तिमान्, सर्वव्यापी परमात्मा को बिसारकर एक क्षण के लिये भी दूसरी वस्तु का भजन या सेवन करना महान् मूर्खता के अतिरिक्त और कुछ भी नहीं है। भगवान् ने स्वयं चेतावनी देते हुए कहा है:
अनित्यमसुखं लोकमिमं प्राप्य भजस्व माम्।
‘तू सुखरहित और क्षणभंगुर इस मनुष्य शरीर को प्राप्त होकर निरन्तर मेरा ही भजन कर।’

अतएव हम सब लोगों को श्रद्धापूर्वक निष्काम प्रेमभाव से नित्य निरन्तर भगवान् के नाम का ही जप-कीर्तन और स्मरण करना चाहिये।

🌷🌷🌷🌷🌷[ हरे कृष्ण हरे राम ]🌷🌷🌷🌷🌷