कौन सा नाम जपेंयह जीवात्मा अनादि काल से इस अनादि माया में उस अनादि परमात्मा के बिना चौरासी लाख योनियों में जन्म लेती हुई भटक रही है। इस माया में इस जीव को अनादि काल से लेकर अब तक स्थायी रूप से कोई ठिकाना नहीं मिला। आज तक इसको जो भी कुछ मिला स्थायी रूप से नहीं मिला। यह जीवात्मा स्वयं में अविनाशी तत्त्व है और इसको मिलने वाली प्रत्येक वस्तु विनाशी होती है। इसलिये इसको इस माया में कुछ भी प्राप्त हो, इसकी भटकन समाप्त नहीं होती। इस अविनाशी आत्मा को जब तक अविनाशी परमात्मा की प्राप्ति नहीं होती तब तक ये किसी भी ब्रह्माण्ड के किसी भी लोक में जाए और उन लोकों में कुछ भी प्राप्त हो जाए, एक न एक दिन वो सब छूटेगा ही क्योंकि माया जनित अनन्तानन्त ब्रह्माण्डों में कुछ भी स्थिर नहीं है। गीता जी में भगवान् श्रीकृष्ण कहते हैं—
आब्रह्मभुवनाल्लोका पुनरावर्तीनोऽर्जुन ।हे अर्जुन! ब्रह्मलोक तक सब लोकों के जीव पुनरावर्ती (दोबारा जन्म लेने वाले हैं।) सब काल के आधीन हैं।
जन्म-मरण की इस अनादि परम्परा से कैसे बचा जाए? इसका एक ही हल है, वह है अविनाशी लोक की प्राप्ति, जहाँ से पुनरावर्तन नहीं होता।
यं प्राप्य न निवर्तन्ते तद्धाम परम मम। (गीता 8-21)
भगवान् श्रीकृष्ण कहते हैं– “जिस धाम में जाकर जीव संसार माया में वापिस लोटकर नहीं आता, वह मेरा परम धाम है।”
अविनाशी, सनातन परम धाम की प्राप्ति कैसे होगी? इसके लिये भगवान् ने आगे कहा है—
पुरुषः स पराः पार्थ भक्त्या लभ्यस्त्वनन्यया (गीता 8-22) “वह सनातन परम पद तो केवल अनन्य भक्ति से ही प्राप्त होता है।”
अब प्रश्न उठता है कि वह भक्ति क्या है जिससे वह अविनाशी परम पद प्राप्त किया जा सकता है? भक्ति के अनेकों भेद शास्त्रों में कहे हैं, उनमें दो मुख्य भेद हैं। पहली भक्ति है 'बहिरंगा भक्ति' जो शरीर, कर्मेन्द्रियों व ज्ञानेन्द्रियों द्वारा संपादित होती है जैसे सेवा, पूजा, पाठ, जप, कीर्तन, सत्संग कथा श्रवण आदि। दूसरी भक्ति है 'अन्तरंगा भक्ति' जो अन्तःकरण द्वारा संपादित होती है। जैसे मानसिक जप, मानसिक पूजा, भगवत् रूप-लीला का चिंतन तथा अष्टयाम लीलासेवा का चिंतन आदि।
बहिरंगा अन्तरंगा भक्ति के भी आगे बहुत से भेद-प्रभेद हैं जिसका विस्तारभय से यहाँ वर्णन नहीं किया जा रहा है। हमारे संत महापुरुषों द्वारा इस संदर्भ में बहुत से ग्रन्थ लिखे गये हैं जो कि सभी दृष्टव्य हैं।
भक्त अपनी भावना व अधिकारानुसार अनेक प्रकार से भक्ति कर सकते हैं। प्रभु प्राप्ति के अनेक मार्ग हैं।
नख से शिख तक रोयें जेते, विधिना के मार्ग हैं तेते । वैष्णव ग्रन्थों में भक्ति के चौंसठ प्रकार बताए गये हैं, उनमें मुख्य हे 'नाम जप' भक्ति की इस साधना में सभी का पूर्णाधिकार है। चौंसठ प्रकार की भक्ति में से यदि केवल 'नाम जप साधना' ही दृढ़ता से ग्रहण कर ली जाए तो यह जीव, जो अनादि काल से माया के जन्ममरण रूपी थपेड़े खाते हुए नाना प्रकार की योनियों में नाना प्रकार के दुःख भोगते हुए भटक रहा है, मुक्त होकर उस अविनाशी परम पद को प्राप्त करके कृतार्थ हो जाए।
जकारो जन्म विच्छेदः, पकार: पाप नाशकः।
तस्माज्जपः इति प्रोक्तो, जप: पाप विनाशकः॥ अर्थात् 'ज' से जन्म का विच्छेद, 'प' से पापों का नाश जन्म व पापों का नाश करने वाला होने से यह 'जप' कहलाता है।
जो जन्म मरण व पाप का नाश करे, उसी को जप कहते हैं।
प्रभु के अनन्त नाम हैं और प्रत्येक नाम में अनन्त शक्ति है। हम किसी भी नाम का आश्रय ले सकते यद्यपि किसी भी नाम में छोटे-बड़े की भावना करना अपराध है फिर भी साधक की रुचि जिस नाम में हो उसके लिये वही बड़ा है। सभी संत महापुरुषों ने अपने भाव के अनुसार अलग-अलग नामों की अलग-अलग प्रकार से महिमा गाई है। इसलिये संतों की वाणियों में पर्याप्त अन्तर पाया जाता है। कोई राम नाम की महिमा गाता है तो कोई कृष्ण नाम की, कोई शिव नाम की तो कोई दर्गा नाम की। जिस संत ने जिस नाम को जप कर भगवान् को पाया उस संत ने उसी नाम की महिमा जीवन भर गाई है। यह तो उनके कृतज्ञ हृदय के उद्गार होते हैं। किसी भी संत की वाणी सुनकर या पढ़कर हम यह अर्थ कदापि न लगायें कि जिस नाम की महिमा हम पढ़ सुन रहे हैं, वही नाम सबसे बड़ा है, बाकी नाम छोटे हैं।
यद्यपि नाम जप साधना अपने आप में स्वतन्त्र है। हम रुचि अनुसार किसी भी नाम को किसी भी प्रकार किसी भी स्थिति में, किसी भी समय, कहीं भी जप सकते हैं मंगल ही होगा। फिर भी अगर नाम को किसी संत के मुख से सुनकर उनकी आज्ञा से जपें तो विशेष लाभ होता है क्योंकि संत कृपा का आश्रय होने से साधना में सहयोग मिलता रहता है।
[ हरे कृष्ण ]🙏