संकीर्तन महिमा
भगवान् के नाम, रूप, लीला व गुणों का संकीर्तन किया जाता है। इन सभी प्रकार के संकीर्तनों में सबसे अधिक महिमा संतों व शास्त्रों ने हरि नाम संकीर्तन की गाई है। यहाँ तक कि जप से भी ज्यादा नाम संकीर्तन की महिमा गाई है। नाम का गायन ही कलियुग की सर्वश्रेष्ठ साधना है। इसलिए संकीर्तन करो-संकीर्तन करो।
श्रीमद्भागवत् जी ने मुक्त कण्ठ से संकीर्तन महिमा का गायन किया।
क्लेर्दोषनिधेराजन्नस्ति ह्योको महान्गुणः ।
कीर्तनादेव कृष्णस्य मुक्तसंगः परं ब्रजेत् ॥
परमहंस श्री शुकदेवजी राजा परिक्षित को कहते हैं– राजन् ! कलियुग दोषों का भण्डार है, तथापि इसमें यही एक महान् गुण है कि इस युग में भी श्रीकृष्ण कीर्तन मात्र से मनुष्य की सारी आसक्तियाँ छूट जाती हैं और वह परमपद को प्राप्त हो जाता है।
कृते यदध्यायतो विष्णुर्त्रेतायां यजतो मखैः ।
द्वापरे परिचर्यायां कलो तद्धरि कीर्तनात् ॥
सतयुग में भगवान् विष्णु का ध्यान करने वाले को, त्रेता में यज्ञों द्वारा यजन करने वाले को, तथा द्वापर में श्री हरि की परिचर्या में रहने वाले को जो फल मिलता है, वही फल कलियुग में श्री हरि नाम कीर्तन मात्र से प्राप्त हो जाता है।
सूरदास जी के शब्दों में:
जो सुख होत गोपालहि गाये।
सो नहीं होत किये जप तप ते, कोटिक तीर्थ नहाये ।।
कबीरदास जी के शब्दों में:
कथा कीर्तन कलि विषे भव सागर की नाव ।
कह कबीर भव तरण को नाहिन ओर उपाय ।।
स्वयं भगवान् का कथन है:
नाहं वसामि वैकुण्ठे योगिनां हृदये न च।
मद्भक्ताः यत्र गायन्ति तत्र तिष्ठामि नारद ।।
हे नारद! मैं वैकुण्ठ में नहीं बसता और न ही योगियों के हृदय में। मेरे भक्त जहाँ मेरा गायन कीर्तन करते हैं, मैं वहीं वास करता हूँ।
जहाँ हरि के नाम का होता है गुण गान।
वहीं अयोध्या, द्वारिका, वहीं बसें भगवान्।।
जहाँ भी भक्तगण एक साथ मिलकर या अकेले में ही कीर्तन करते हैं, वहाँ भगवान् का प्रकट सान्निध्य होता है। शास्त्र की वाणी कभी झूठी नहीं हो सकती। इसलिये जब भी संकीर्तन करो मन में ऐसा भाव होना चाहिये कि मैं अपने प्रभु के पास बैठकर उनको प्रसन्न करने के लिये ही संकीर्तन कर रहा हूँ। वो मेरे संकीर्तन को सुन करके बहुत प्रसन्न हो रहे हैं, कृपा की वर्षा कर रहे हैं। अपने समीप प्रभु को जानकर हृदय में प्रेम छलकने लगता है। धीरे-धीरे यही प्रेम सारे शरीर में संचारित होकर साधक को आत्मसात् कर लेता है, फिर साधक बैठ नहीं सकता। कभी लज्जा का परित्याग कर नाचने लगता है, कभी प्रभु के मानसिक दर्शन कर हँसने लगता है, कभी दीन होकर रोने लगता है, कभी-कभी तो वो बेसुध होकर गिर पड़ता है। इस प्रकार किया गया संकीर्तन साधक को बहुत जल्दी पवित्र बनाकर प्रभु के चरणों में समर्पित कर देता है।
यहाँ पर यह बात बता देनी बहुत आवश्यक है कि आजकल ढोंग और पाखण्ड बहुत होने लगा है। लोग दिखावे के लिये रोना, नाचना, नाचते नाचते गिर पड़ना व अपने में भगवद् आवेश, अष्ट सात्विक भावों का झूठा प्रदर्शन करना तथा लोगों को झूठे आर्शीवाद देना, भोले भाले अनजान लोगों को झूठ-मूठ में ही दु:ख दूर करने के लिये कुछ बताना या ताबीज आदि देना। इस प्रकार साधक, साधना के पथ से धीरेधीरे इतनी दूर चला जाता है कि उसका वापिस अपने असली मार्ग पर आना ही कठिन हो जाता है। दुनिया की झूठी वाह वाह व तुच्छ धन के पीछे अमुल्य मानव जन्म खो बैठता है। इसलिये साधक को किसी संत महापुरूष के आधीन रहकर ही साधना करनी चाहिये और समय-समय पर अपने मन की अच्छी बुरी स्थितियों के बारे में निसंकोच बता देना चाहिए।
ढोंग और पाखण्ड जब आया। खो दिया सब जो था पाया।।
इसलिए सावधान होकर अपनी साधना में लगे रहना चाहिए। सावधानी का नाम ही साधना है। सावधानी हटी, दुर्घटना घटी। नाम संकीर्तन से जाति-पाति का कोई भेद नहीं। साधक, किसी भी वर्ण आश्रम से सम्बन्ध रखने वाला क्यों न हो, संकीर्तन सभी को करना है ।
ब्राह्मणः क्षत्रिया वैश्याः स्त्रियः शूद्रान्तयजादयः।
तत्रा तथा नकुर्वन्ति विष्णो ना मानु कीर्तनम् सर्वपापविनिमुक्तारतेऽपि सन्ति सनातनम् ॥
ब्राह्मण,क्षत्रिय, वैश्य, स्त्री, शुद्र, अन्त्यज आदि जहाँ-तहाँ भी विष्णु भगवान् के नाम का अनुकीर्तन करते रहते हैं, वे भी समस्त पापों से मुक्त होकर सनातन परमात्मा को प्राप्त होते हैं। नाम संकीर्तन में देश, काल तथा शौचअशौच का भी नियम नहीं है। कहीं भी, किसी भी समय व किसी भी अवस्था में संकीर्तन कर सकते हैं।
न देशकाल नियमों, न शौचा शौचनिर्णयः।
परम् संकीर्तनादेव राम रामेति मुच्यते ॥
कीर्तन में देश, काल का कोई नियम नहीं है। शौच-अशौच आदि का निर्णय करने की भी आवश्यकता नहीं है। केवल राम-राम इस प्रकार कीर्तन करने मात्र से जीव मुक्त हो जाता है।
अपवित्रः पवित्रो वा सर्वावस्थां गतोऽपि वा ।
यः स्मरेत्पुण्डरीकाक्षं स बाह्याभ्यन्तरः शुचिः ।।
अपवित्र हो या पवित्र, सभी अवस्थाओं में जो कमलनयन भगवान् का स्मरण करता है, वह बाहर भीतर से पवित्र हो जाता है।
न देश नियमस्तस्मिन न कालनियमस्तथा ।
नोच्छिष्टेऽपि निषेधोऽस्ति श्रीहरेनार्मस्तिलुब्धका ।।
हे व्याध! श्री हरि के नाम कीर्तन में न तो किसी देश विशेष का नियम है और न ही किसी विशेष काल का। झूठे अथवा अपवित्र होने पर भी नाम उच्चारण के लिये कोई निषेध नहीं है।
गच्छंस्तिष्ठन्स्वपन्वापि पिबन्भुन्जन्जपंस्तथा।
कृष्ण कृष्णेति संकीर्तय मुच्यते पापक चुकात् ।।
चलते-फिरते, खड़े रहते, सोते, खाते-पीते, जप करते हुए भी कृष्ण-कृष्ण ऐसा कीर्तन करके मनुष्य पापों के चंगुल से छूट जाता है।
कहने का भाव यह है कि कोई भी मनुष्य किसी भी समय, किसी भी अवस्था में, कहीं भी हरि के नाम का जप संकीर्तन करने से संसार के बन्धन से मुक्त होकर परमधाम को प्राप्त कर सकता है। जिस नाम कीर्तन की ऐसी महिमा है, फिर भी जो मनुष्य जीभ पाकर भी हरि नाम जप संकीर्तन नहीं करते, वे निश्चय ही मन्द भागी हैं। अन्त समय में केवल पश्चाताप ही उनके हाथ लगेगा।
जिह्वा लब्ध्वापि यो विष्णुं कीर्तनीयं नकीर्तयेत् ।
लब्ध्वापि मोक्षनिः श्रेणी से नारोहति दुर्मातिः ।।
जो जिहा पाकर भी कीर्तनीय श्री हरि नाम का कीर्तन नहीं करते, वे दुर्मति मोक्ष की सीढ़ियों को पाकर भी उन पर चढ़ने से वंचित रह जाते हैं।
कुछ लोग नाम कीर्तन की महिमा को स्वीकार तो करते हैं, यहाँ तक कि संकीर्तन में भाग भी लेते हैं, लेकिन संकोच के कारण उच्च स्वर से संकीर्तन नहीं करते। कहते हैं कि हमें लाज आती है। झूठ बोलने में, कठोर बोलने में, पर निन्दा, पर चर्चा में, लड़ते समय, जोर जोर से गाली बकने में हमें लाज नहीं आती। परन्तु भगवन्नाम को जोर-जोर से उच्चारण करने में हमें लाज आती है। यह बड़ा ही दुर्भाग्य है। यदि कीर्तन करने से सभ्यता में बट्टा लगता है, तो ऐसी विषमयी शुष्क सभ्यता को दूर से ही नमस्कार करना चाहिए। धन्य वे ही हैं जो उच्च स्वर से संकीर्तन करते हैं, जोर - जोर से ताली बजाते हैं तथा लज्जा छोड़कर कभी नाचने लगते हैं, कभी अन्त:करण में प्रभु की झाँकी का अवलोकन कर प्रसन्न होते हैं तो कभी हँसते हैं, कभी प्रभु के विरह में रोते हैं। ऐसे मनुष्य सारे जगत को पावन करते हैं। भगवान् कहते हैं –
वाग गद्गदा द्रवते यस्यचितं भीरूदत्यक्ष्णं हसति क्वचिच्च ।
विलज्ज उद्गायति नृत्यते च मद्भक्ति युक्तो भुवनं पुनाति ।।
( श्रीमद्भागवत् 11/14/24 )
जिसकी वाणी गद्गद् हो जाती है, हृदय द्रवित हो जाता है। जो बारम्बार ऊँचे स्वर से नाम लेकर मुझे पुकारता है, कभी रोता है, कभी हँसता है और कभी लज्जा छोड़कर नाचने लगता है, कभी ऊँचे स्वर में मेरा गुणगान करता है, ऐसा भक्तिमान पुरुष स्वयं तो पवित्र होता ही है, अपने दर्शन व वचनों आदि से सारे विश्व को पवित्र कर देता है।
यही कारण है कि नाम युक्त व संकीर्तन पारायण संतों व भक्तों की वाणी का समाज पर इतना प्रभाव पड़ता है कि जो - जो इनकी वाणी सुनते हैं सभी नाम पारायण हो जाते हैं। पापी जीव भी पावन होने लग जाते हैं। यहाँ तक कि वो तरन - तारण बन जाते हैं।
संकीर्तन विक्रय – एक भारी दोष
संकीर्तन का विक्रय करने से भी कीर्तन का लाभ नहीं मिल पाता। ये बहुत बड़ा दोष है। यह संकीर्तनकारों में तब आता है जब उनके गायन के प्रशसंक बढ़ जाते हैं। लोग भी उनको भक्त की दृष्टि से नहीं बल्कि गायक की दृष्टि से देखने लग जाते हैं। भक्त जी भी बेचारे गायक बनकर रह जाते हैं और उनके संकीर्तन का लक्ष्य भगवान् न होकर केवल पैसा व लोकरंजन हो जाता है। शुरूआत में तो भावना पवित्र होती है परन्तु बाद में धीरे-धीरे भगवान् गौण हो जाते हैं और पैसा मुख्य हो जाता है। अन्त में तो संकीर्तन धन्धा बनकर रह जाता है। जैसे पैसों के लिए व्यक्ति ओर ओर धन्धे करता है, उन्हीं धन्धों में संकीर्तन भी एक पैसे कमाने का साधन हो जाता है।
साधन भक्ति के चौसठ अंगो में महापुरुषों ने नाम संकीर्तन को ही मुख्य माना है। संकीर्तन भगवान् व भगवत् प्रेम प्राप्ति का साधन है। इतनी ऊँची साधना को यदि कोई नाशवान पदार्थ की प्राप्ति में लगाता है तो यह कितने घाटे का सौदा है, साधक स्वयं समझ सकता है। चाहे रूखी-सूखी रोटी खा लो यदि रूखी-सूखी भी न मिले तो भीख माँगकर खा लो। यदि भीख भी नहीं मिलती तो भूखे ही मर जाओ पर अपने संकीर्तन को न बेचो। इसको निष्काम करो। पहली बात तो यह है कि भगवान् निष्काम भक्त का योगक्षेम स्वयं वहन करते हैं। भगवान् की वाणी है
पास में राखे नहीं, मांगन में संकुचाये।
तिनके पीछे मैं फिरूँ, भूखा सो न जाये ॥
अगर भूखा रहने की स्थिति भी आ जाये तो सच्चे भक्त उस स्थिति को भगवान् का प्रसाद मानकर या अपने पूर्वकृत कर्मों का फल मानकर हँसते हुए सह जाते हैं और अपनी साधना में आगे बढ़ते चले जाते हैं।
भक्तमाल जी को पढ़ें, उनमें कितने ऐसे भक्तों का चरित्र है। जिनको कई-कई दिन तक कुछ खाने को न मिला। उन भक्तों में सुदामा, राजा रन्तिदेव, सक्खू बाई आदि अनेकों भक्त हैं। लेकिन इन्होंने अपनी टेक नहीं छोड़ी। नरसी मेहता, तुकाराम, नामदेव, एकनाथ, ये सभी जीवन भर कीर्तन करते रहे। गरीबी की जिन्दगी जीते थे। अपने परिवार का पालन पोषण कठिनाई से करते थे। फिर भी इन्होंने कीर्तन को निष्काम ही किया, बेचा नहीं। मीरा बाई, चैतन्य महाप्रभू का संकीर्तन तो जगत प्रसिद्ध है। इन सभी भक्तों एवं संतों ने संकीर्तन से ही परमतत्त्व की प्राप्ति की और लोगों को मार्ग दिखाया।
आजकल ऐसा रिवाज सा हो गया है कि जहाँ संकीर्तन होता है वहाँ संकीर्तन में आने वाले कुछ न कुछ पैसा जरूर चढ़ाते हैं। अब उस पैसे का क्या किया जाए? संकीर्तनकारों को चाहिए कि उस पैसे को कहीं भी धार्मिक कार्यों में या किसी अभावग्रस्त की सेवा में लगा दे। पैसों पर दृष्टि न रखें। इस प्रकार निष्काम भाव से कीर्तन करने वालों पर प्रभु बहुत जल्दी प्रसन्न होकर अपने आप को ही दे डालते हैं। निष्काम संकीर्तन से ही हृदय द्रवित होता है। यही भाव भगवान् को आकर्षित करता है। भगवान् कहते हैं–
भाव का भूखा हूँ मैं, भाव ही एक सार है ।
भाव से मुझे भजे तो, भाव से बेड़ा पार है ।
इसलिए आइये! हम सभी संकीर्तन की इस महान साधना को सकामता के कलंक से बचाकर जीवन का आधार बनायें और अपने प्रभु को रिझायें।