एहिवात - भाग 20 नंदलाल मणि त्रिपाठी द्वारा महिला विशेष में हिंदी पीडीएफ

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एहिवात - भाग 20

सौभाग्य को चिन्मय के प्रति भाव कि अनुभूति में प्यार का समन्वय हो चुका था जब भी चिन्मय को देखती उसके मन मे भविष्य के लिए अनेको भवनाओं के ज्वार उठने लगते उसे लगता कि चिन्मय ही उसके अंतिम सांस का जीवन साथी है जिसे भगवान ने स्वंय सुगा के बहाने मिलाया है लेकिन उसे मालूम था कि उसका लगन राखु से तय हो चुका है और चिन्मय का उसके जीवन मे आना सामाजिक तौर पर सम्भव है ।
 
नही फिर भी सौभाग्य को विश्वास था कि शायद कोई चमत्कार हो जाय और चिन्मय उसके जीवन का खेवनहार बन जाए राखु जिससे पिता जुझारू ने रिश्ता निश्चित किया था उसे सौभाग्य ने ना तो देखा था नही प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से जानती थी फिर भी उसे राखु को ही जीवन का खेवनहार स्वीकार करना उसकी सामाजिक वाध्यता थी जिसके कारण वह अक्सर अपने बाल मित्र शेरू शेर से मन कि व्यथा को व्यक्त करती ।
 
शेरू भी अपनी प्रिय सखी कि हर बात व्यथा पीड़ा को स्वंय मन कि गहराईयों से महसूस कर रहा हो ऐसा प्रतीत होता।
 
सौभाग्य शेरू से कहती सुन शेरू तू तो दुर्गा को अपनी पीठ पर बैठता है कभी कभी मुझे भी बैठा लेता है जब तेरा मन करता है मैं दुर्गा तो नही हो सकती तेरा प्रिय तो हूँ ही तू तो कुछ बोलता भी है तो दुनियां डर जाती है तू मेरी भावनाओं कि व्यथा क्यो नही समझ रहा है?
 
मैं राखु के साथ खुश नही रह सकती हमार मन चिन्मय में बस गइल बा बात काहे नाही समझ रहा शेरू अनबोलता शेरू ऐसे सर हिलाता जैसे वह चिन्मय और सौभाग्य के मिलन के लिए दीर्घकालिक योजना पर विचार कर रहा हो और सौभाग्य का पैर प्यार से चाटता जैसे आश्वासन दे रहा हो कि चिंता मत करो सौभाग्य मैं हूँ ।
 
सौभाग्य मन भावो से चिन्मय के प्रति इतना आकर्षित हो चुकी थी या यूं कहें कि चिन्मय को अपने अंतर्मन में उतार चुकी थी जिस गहराई से निकल पाना असंभव था लेकिन उसे कोल आदिवासी सामाजिक व्यवस्था एव कठोर अनुशासन एव प्रचलित कोल सामाजिक न्याय परम्परा का भान था जिसे सोच कर कांप उठती।
 
सौभाग्य माँ तीखा बाबू जुझारू से तो कुछ कहने का साहस जुटा नही पाती सिर्फ शेरू से ही अपनी व्यथा को व्यक्त करती ।
 
इधर सौभाग्य अपने भविष्य को चिन्मय के साथ देखती उधर चिन्मय को भी लड़के लड़की में अंतर और रिश्तो का एहसास होने लगा जब भी वह अकेले रहता उसकी नज़रों के सामने सौभाग्य के सानिध्य में बिताए पल प्रहर घूमने लगते उसकी आत्मा उसे आवाज देती चिन्मय सौभाग्य तुम्हारे लिए ही जन्मी है तुम्हारे लिए ही वह ईश्वर का वरदान बन कर आई है अतः निर्भय हो प्रत्येक बंधन को काटते हुए सौभाग्य को सौभाग्यवती बनाओ लेकिन कैसे ?
 
पिता शोभनाथ तिवारी और माँ स्वाति एव तिवारी साम्राज्य समाज स्वीकार करेगा आदिवासी सौभाग्य को ब्राह्मण बिरादरी में बगावत हो जाएगी पिता शोभराज के नाक कट जाएगी और ऐसा तूफान उठेगा जो कभी शांत नही होगा साथ ही साथ जाने क्या क्या अपशगुन होंगे चिन्मय सोच कर ही कांप जाता ।
 
भयाक्रांत भाव मे भी उसके मानस पटल पर सौभाग्य का मुस्कुराता चेहरे का अक्स उभर जाता जैसे वह हृदय के दर्पण में अपने चिर परिचित अंदाज़ में कह रही हो सौभाग्य चिन्मय कि जीवन रेखा है जो ना मिट सकती है ना मर सकती है ना डर सकती है तो तुम काहे भय डर से कांप रहे हो सोच के भंवर में जब भी चिन्मय को सौभाग्य का दीदार होता उसके मन में आशा विश्वास का संचार होता साहस का प्रफुटन होता औऱ सम्भावनाओ कल्पनाओं का साकार मार्ग दृष्टिगत होता जो उसे मानसिक सुकून देता।
 
कभी कभी चिन्मय साहस जुटाकर पिता शोभराज तक अपने मनोदशा एव भावों को पहुंचाने के लिए मॉ स्वाति को माध्यम बनाने की बात सोचता कुछ पग पल आगे भी बढ़ता लेकिन फिर पता नही कौन सा अनजाना भय चिन्मय के पग में बेड़ियां डाल देते ।
 
मन मसोस कर वह अपने लकी सुगा के पिंजरे को लेकर बैठ जाता औऱ घण्टो सौभाग्य कि बात करता जब भी चिन्मय सौभाग्य कि बात करता लकी सुगा यह कहने से बाज़ नही आता ऊ ससुरा जुझारू हमे हमरे माई बापू से दूर किए बेच दिए ऊ त कुछ हमरे पूर्व जन्म के पुण्य सही रहा कि तोहरे घर जईसन घरे आई गयेन माई स्वती के प्रेम एसन स्वाति के प्रेम बूंद जईसन वर्षन से पियासल के प्यास के विश्वास त बाबूजी शोभराज जी जवन देवता जब फुरत मीले लकिया कहां बा लकिया कुछ खाएस कि नाही अनबोलता पंक्षी के पिंजरा में बंद कर दिए ह वोके खुला आकाश में उड़े द और हमे पिंजरा समेत अपने सामने बैठा लियह और महाभारत रामायण धर्मशास्त्र पढ़त रहेले हमरे पिंजरा के दरवाजा खोल देलन जैसे हम उड़ी के भागी सकी लेकिन हम कबो नाही भागित जाने काहे चिन्मय भईया काहे की हम इतना बड़ा आकाश में कहां अपने माई बाबू के खोजब और पहचानब ऑंखफोरवा भई रहनी त ई ससुरा बहेलिया बनी जुझारुआ हमे जबरन उठाई लायस हमे तोहरे हाथे बेच दिहेस ई त हमार करम ह कि हमे तोहार घर मिला जहां हमरे पिछले जन्म के पाप कटत है और कुछ पुण्य करम पक्षी तन से होई जात है बाबू जी के कथा सुनके चिन्मय लकी कि बात सुनकर आश्चर्य से दांतों तले उंगली काटने लगाता उसने लकी से पूछा अबे लकिया बड़ा अक्लमंद होए गइल हवे इतना दिमाग कहां से तोरे पास आय गइल ?
लकी सुगा बोला चिन्मय भईया तोहे शायद नाही भान बा हम तोहार अमानत हई तू ही हमे घरे जुझारुआ ससुरा से किनके लाये रह तोहार प्रिय अमानत के माई बाबूजी अपने प्राण से बढ़ी के जियावत है ।
 
माई स्वाति जौँन हमे अच्छा लगे ऊहे खाये के देलिन तरह तरह से बोले बतियावे के सिखावेली और बाबू जी धर्म पुराण वेद शास्त्र पढेल हम सुनी ले कबो कबो हमहू जजमान लेखा सवाल करी देई ले बाबू जी हमरे एक सवाल के जाने केतने तरह से हमे समझवतेन हमहू कबो कबो चुटकी लेबे खातिर बाबूजी के अकुताई देई ले बाबू जी जब गुस्साई के आग बबूला होई जालन तब हम उन्हें नाची गाई भजन सुनाई मनाई लेईत है।
बड़े ध्यान से हमार बात गांठी बांध ल चिन्मय भईया तू अपने बापू पंडित शोभराज तिवारी और माई स्वाति के कोनो तरह से दुःख ना पहुंचाय। ऊ दुनो प्राणि के भूलो से तोहरे कौनो कार से पीड़ा दुःख पहुँचल कि झुर्रे दुनो प्राणि दम तोड़ दिहे जब तोहरे अमानत लकी सुगा के अपने जान प्राण से ज्यादे चाहेल मानेंल त समझ ल तोहरे सांसे जियेले दोहरे अम्मा बापू पण्डिन शोभराज तिवारी और स्वाति कौनो बहुते जरूरी बात ऐसन होई जाए जौँन तोहरे अम्मा बापू के ना भावे पसंद ना आवे त उन्हें समझावे मनावे के कोशिश करे उन्हें बिना बताए उनकी मर्जी के खिलाफ कबो ना जाए नाही त भगवानों तोहार रक्षा ना करी पईह ।
 
चिन्मय अपने ही प्रिय लकी सुगा कि बाते सुनकर आश्चर्य से उसकी आंखें खुली कि खुली रह गयी
चिन्मय भावुक भावनाओं से अतिरेक लकी सुगा से बोला लकी तू हमार सच्चा मित्र ह हमार का तिवारी परिवार क आज हम तोहसे जीवन के सबसे बड़ा सिख लिहे हई और तोहे वचन देत हई कि हम अम्मा पिता जी के अपने कौनो करम से दुःख ना पहुंचे देईब लकी सुगा बोला वाह भईया चिन्मय एके दुनियां कहेले राजा बेटा ।लकी बोला हमहू जानत हई कि चिन्मय भईया तू जुझारुआ कि भेली जईसन बेटी पर चिंऊटा एस चिपके खातिर एहर वोहर मंडरात ह लेकिन ई जान ल बिना अम्मा पिता जी कि जानकारी में आगे जिन बढ़ चिन्मय को बार बार गुस्सा इस बात पर आ रहा था कि लकी बार बार अपने सम्बोधन में जुझारू को सम्मानजनक सम्बोधन नही दे रहा था।
 
चिन्मय गुस्से में तमतमाये हुये बोला लकी तू त ज्ञान के खजाना होई गइल हव इतनो नाही जानत ह कि सौभाग्य के माई बाबू के हम अपने अंम्मा पिता जी से कम नाही समझत और उतने सम्मान देईत है ते तबे से जुझारुआ कहत चला जाई रहा है अबे हम तोहे बिलारी के सामने फेंक देईत हई लकी बोला चिन्मय भईया तू हमे बिलारी के सामने फेंक द चाहे खुदे जबह करी द कौन फरक पड़त बा हम इहो सही लेब तोहरे घरे हमे इज़्ज़त प्यार दुलार सब मिलत बा लेकिन इहो सही ह कि पक्षी के दुनियां खुला आकाश वन जंगल ह ना कि पिंजरा जईसन जेल ई कार त जुझारुए कईलस हम ऑंखफोरव ना भई रहनी कि अपने माई के देखूं ना पाइले रहनी कि जुझारुआ हमे हमरे माई बाप से अलग कई दिएहस अलग करी के हमे सौदा बनाई के बेच दिएस इहे तोहरे साथ भइल रहत त तू का ऐसन राक्षस के पूजत ।
चिन्मय निरुत्तर लकी कि वेदना के स्वर को महसूस कर रहा था और सजल नेत्रों से बोला तू सच्चा है लकी मेरे दोस्त।