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थ्री गर्लफ्रैंड - भाग 6

बस वाली लड़की


मेरी कहानी के इस हिस्से में जो हैं। उसे लड़की कहना बेजा लगता हैं। और औरत कहना उसके हुस्न की तौहीन, उसकी उम्र पेतींस के करीब थी। पर चेहरे की सुंदरता उसे बीस का बनाती थी। इसलिए शायद अब तक कुंवारी थी। पर सबकुछ हमारे हाथ में नहीं होता, कई बार घटित होने वाली घटनाओं के साथ हमें खुद को ढालना होता हैं। तभी हम ज़िंदा रह सकते हैं। लेकिन अगर हम ऐसा नहीं करते हैं। तो हम देखते हैं, अपने उस हर पल को बर्बाद होते, जिसे वर्षों की मेहनत के बाद हमने बनाया होता हैं। वो अर्थ के इसी फ़लसफ़े में उलझी हुई एक ऐसी पहेली थी। जिसे समाज ने खुद से बहिष्कृत कर दिया था। खुद के लिए उसकी जरूरत ना महसूस करते हुए उस पर समाज के नियमों को तोड़ने का ठप्पा लगाकर। लेकिन वो लगातार कोशिशें किए जा रही थी। अपने परिवार के लिए, जिससे की वो इस समाज रूपी नदी की धारा से बाहर ना निकल सकें।

इस किस्से की शुरुआत तब हुई थी। जब रुचि ने मुझे दूसरी बार उससे प्यार करने के लिए अमन के सामने ज़लील किया था। कहते हैं। जब इंसान जलील होता हैं। तो वो या तो खुद को मार देता हैं। या जलील करने वाले व्यक्ति से बदला लेने की चाह पाल लेता हैं। पर मैंने इन दोनों ही धारणाओं को खुद पर हावी नहीं होने दिया ऐसा नहीं था कि जलीलता की ज़हालत ने मुझे गिरफ्त में लेने की कोशिश ना की हो, पर मैंने सोचा ये प्यार में मिलने वाली जलीलता मुझे विरासत में तो मिली नहीं, आखिरकार मेरे माँ-बाप ने लवमैरिज की थी,

तो जाहिर सी बात हैं। मुझमें कोई ऐसी कमी है, जो मुझे दिखाई ना देकर, बार-बार उन लड़कियों को दिखाई देती हैं। जिनसे मैं प्यार करने की चाह रखता हूँ। बस इसी कमी को दूर करने के लिए मैं निकल पड़ा था। एक ऐसा लड़का बनने के लिए, जो किसी भी लड़की को ख़ुद से प्यार करने के लिए उकसा सकें और इस काम की पहली सीढ़ी थी। सारी कोचिंग छोड़कर जिम ज्वाइन करना; जो किसी के भी द्वारा दूर से देखने पर, मुझे एक जबरदस्त लड़का साबित कर दें।

जिस बस से मैं जिम करके वापस आता था। उस बस में मिली थी ये मुझे, उसे देखने के बाद पहले दो दिन तक मैंने उस पर कोई ध्यान नहीं दिया। लेकिन तीसरे दिन उसने खुद मुझे अपने पास बैठने के लिए कहा था। ये पहला मौका था, ज़िंदगी का जब पहल दूसरी तरफ से हुई थी। पहले मुझे लगा उसने किसी दूसरे बन्दे से तो नहीं कहा;

लेकिन जब उसने कहा, “बेवकूफ नजर आ रहे हो बस में खड़े, गौर से अपने चारों तरफ देखो पुरी बस बैठी हैं। और एक तुम हो बराबर में सीट खाली हैं। तब भी खड़े हो, लड़कियों के पास बैठने से डरते हो क्या?” उसकी अंत वाली लाइन सुनकर पहले तो मुझे हँसी आई। फिर मैं अपने चारों तरफ बेमतलब देखते हुए, उसके पास बैठ गया।

मेरे बैठने के बाद उसने जिस तरह अपनी दायी जांघ मेरी बायीं जांघ से सटाई और इस निरपराध सी प्रीति को ढकने के लिए अपनी ओढ़नी का जिस तरह से उपयोग किया, उस वक़्त पहली बार लगा कि कोई मुझे भी अपने करीब रखना चाहता हैं। उस दिन उस आठ किलोमीटर के सफर में, मैं जब भी नजर बचाकर उसकी तरफ देखता, ऐसा लगता जैसे वो हँस रही हैं।, हालांकि उसने चेहरे पर काला कपड़ा बांधा हुआ था। पर उसकी आँखों के किनारे पर पड़ती सलवटें मुझे उसके आनन्द का आभास करा रही थी।

जिम से मेरे घर की दूरी चार किलोमीटर थी। लेकिन उस चार किलोमीटर और आगे जाना होता था। इसलिए उस दिन के बाद से, मैं उसके साथ आगे तक जाने लगा। शुरुआत के चार दिन तक तो वो मेरी इस, जिसे मेरी नज़रों में प्यार की मासूमियत और शिष्ट समाज की नज़रों में मूर्खता कहा जाएगा, 'पर हँसती थी। पर पाँचवे दिन उसने कहा, “तुम दिखने में लगते नहीं हो पर हो”

मैंने कहा, “क्या” और अपने दिमाग के घोड़े दौड़ाने शुरू कर दिए।

उसने बीच में ही मेरे घोड़ों की लगाम खींचते हुए कहा, “कैपिटल सी”

मैं चुप रहा, पर जैसे उसे मेरी चुप्पी सहन नहीं हुई।

माफ कर दो दोबारा नहीं कहूंगी

तुम्हारा नाम क्या है।

राबिया अंसारी

तुम मुसलमान हो

अब इसमें मेरी गलती तो कुछ नहीं

मुर्गा भी खाती होओगी

खाना बुरी बात हैं।

तुम चेहरा छिपाकर क्यों रखती हो

ताकि लड़कों के ऐक्सिडेंट कम हो सकें

तुम मुसलमान के साथ समाजसेवी भी हो

लगता हैं। मैं सही थी तुम कैपिटल सी हो

पहली बार हमारी इतनी सी बात हुई थी। पर जैसे किसी लेखक को उपन्यास लिखने के लिए कहानी मिल गई हो और बस अब उस केवल किरदार गड़ने हो, मेरा हाल भी ऐसे ही किसी लेखक की तरह था। जो आने वाले दिनों में बनने वाली कहानी के लिए बातों की श्रेणियाँ बना रहा था।

अगले दिन बस में कुछ ऐसा हुआ। जिसकी मुझे उम्मीद नहीं थी। स्टीफन किंग की लेखनी जैसा कुछ नहीं था। बल्कि कीट्स की कविताओं जैसा कुछ था। उसने जानबूझकर अपने चेहरे पर वो काला कपड़ा ढीला बाँधा था। ताकि बस के हिलने पर वो नीचे सरक जाए।

वो काला कपड़ा जो छोटे-छोटे महीन धागों से गूँथकर बना हुआ था। उसका धीरे-धीरे नीचे सरकना और मेरी आंखों में उसके चेहरे की तस्वीर का बनना, दोनों साथ-साथ हो रहा था। जब वो कपड़ा उसके चेहरे से लिपटने का भरपूर प्रयास करते हुए नीचे गिर गया। तो विधाता का बनाया हुआ सबसे खूबसूरत चेहरा मेरे सामने था। उसका वो चेहरा ऐसा था जैसे किसी दिल पर ही चेहरे की आकृति कुरेद दी गई हो और वो दिल केवल प्यार करने के लिए बना हो, उस दिन थोड़ी देर तक तो मुझे यकीन नहीं हो रहा था। कि दुनिया में ऐसी भी लड़की पाई जाती हैं। पर फिर उसने ही हम दोनों के बीच पैदा हुई खामोशी को तोड़ते हुए कहा, “पहले लड़की नहीं देखी क्या?

तुमसे खूबसूरत नहीं देखी

लगता है। तुम प्यार करने वाली नजर से देख रहे हो, इसलिए मैं खूबसूरत दिखाई दे रही हूं।

क्या प्यार करने के लिए खूबसूरती पहली शर्त हैं?

शायद नहीं या शायद हाँ

उसकी उस शायद ने उस दिन मेरे अंदर जाने कौन सी धुन छेड़ दी थी। जो बस उसका ही राग गाना चाहती थी। पर वो कहते हैं। ना, जो चीज़ जितनी खूबसूरत होती हैं। उसके पीछे उससे ज्यादा बदसूरती होती हैं। बस राबिया की ज़िंदगी भी कुछ ऐसी ही थी। उसकी सुंदरता परेशानियों के कारण चेहरे पर पड़ी शिकन को छुपाने के लिए तो काफी थी। लेकिन उसकी ज़िंदगी वो खुशनुमा नहीं बनाती थी।

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