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थ्री गर्लफ्रैंड - भाग 5

फेसबुक वाली लड़की


ये फेसबुक वाली लड़की, इसका किरदार मैं अपनी ज़िंदगी में अब तक समझ नहीं पाया किस तरह का था, पर जितना था, वो आज तक मिली हुई लड़कियों में सबसे बेहतर था। इसलिए शायद इससे भी मुझे एक तरह का प्यार……जिसे क्रश भी कह सकते हैं। 'हो गया था।

इससे मेरी बात शुरू हुई थी, बीएससी फर्स्ट ईयर के एग्जाम के बाद और रिजल्ट आने से पहले, यानि कि तकरीबन दो महीने लगातार; बात मेरी भले ही इससे दो महीने हुई हो, पर मैं जानता था, इसे तकरीबन पिछले तीन सालों से, ये मेरी सहपाठी रह चुकी थी।, ग्यारहवीं और बारहवीं क्लास में, इसका नाम मीनाक्षी था। जो हमारे स्कूल के हिंदी के टीचर जिनका नाम नरेश तिवारी करकर कुछ था, उनकी बेटी थी। और इसका ग्रहनगर इलाहाबाद का कोई क़स्बा था। इसलिए इसकी भाषा में एक ट्यूनिंग सी थी, जिसका मैं दीवाना था।

हालांकि देहाती स्कूली नियमों के हिसाब से हमने कभी आपस में बात तक नहीं की थी। हमने दो साल एक-दूसरे की तरफ केवल मुस्कराकर निकाल दिए थे। वो भी इस डर के साथ कहीं कोई देख न लें। पर अब ना हम स्कूल में थे, और ना ही देहात में, बल्कि अब हम कॉलेज में थे। और हमारी अभिव्यक्ति को शब्दों का रूप देने के लिए हमारे हाथ में फेसबुक थी। इसलिए हम बेफ़िक्र होकर बात कर सकते थे।

दरअसल जब एग्जाम खत्म हुए थे। तब मुझे ऐसा लगने लगा था, जैसे रुचि से प्यार करना मेरी सबसे बड़ी गलती थी। इसलिए मैं अपने लिए रुचि से भी अलग विकल्प रखना चाहता था, कि अगर उसने मेरे प्यार को बिल्कुल नकार दिया, 'तो मुझे ज्यादा दिन एकलावस्था का रूप धरकर ना घूमना पड़े। बस इसी बात के डर से मैं अपने पुराने प्यार या क्रश की तरफ लोट चला था।

मीनाक्षी से फेसबुक पर मेरी मुलाकात शक़ील नाम के एक दोस्त ने कराई थी। ये शक़ील भी हमारा सहपाठी ही था। इसने ही मुझे मीनाक्षी की आईडी का लिंक भेजा था।

मीनाक्षी को मैं, पहले से ही पसंद करता हूँ, शायद यहीं सोचकर शक़ील ने मुझे लिंक भेजा हो, कि मैं इससे बात आगे बढ़ा सकूँ। और मैंने भी शक़ील की बात का मान रखते हुए और अपनी महत्वाकांक्षाओं के हवन में एक ओर आकांक्षा की सामग्री डालते हुए उसे फ्रेंड रिक्वेस्ट भेज दी थी, पर मुझे क्या पता था कि ये थोड़ी सी अलग हैं।

ये बातें कम करती थी, और स्माइली ज्यादा भेजती थी। लेकिन जब मैंने इसकी पसंद के लिए बात कम करकर स्माइली भेजनी शुरू की, तो बोली तुम नाराज़ हो क्या, जो आजकल बात नहीं करते। मैंने फिर स्माइली भेजनी बन्द करके, दोबारा बात करनी शुरू कर दी।, तो बोली, ‘तुम तो आशिक़ की तरह व्यवहार करते हो, जैसा मैं कहती हूँ वैसा करते हो, ऐसा कुछ दिन और किया तो मैं तुम्हारे प्यार में गिर जाऊँगी। इसलिए प्लीज ऐसा मत किया करों।‘

मैंने कहा, “फिर क्या करूँ; कुछ खुद से करूँ तो तुम्हें पसंद नहीं आता और तुम्हारी मर्ज़ी से करूँ तो तुम मुझे आशिक़ बना देती हो।“

उसने कहा, ‘कुछ ऐसा जिससे, मैं तुमसे प्यार कर सकूँ।‘

मैंने कहा, “अभी तुमने कहा, तुम मेरे प्यार में गिर जाओगी तो मतलब तो एक ही हुआ ना।“

उसने कहा, ‘प्यार में गिरना और प्यार करने में फर्क़ होता हैं। तुम कुमार विश्वास को नहीं सुनते क्या’

मैंने उसकी बात का बिना कोई जवाब दिए, तुरंत शक़ील को फ़ोन लगाया, और उससे पूछा, “ये दिमागी रूप से मनोविकृत(दिमागी रूप से बीमार होना) अभी हुई हैं। या पहले से थी। बस मैंने ही कभी ध्यान नहीं दिया।“

शक़ील ने कहा “ये मास्टरों के बच्चे मनोविकृत ही होते हैं।“और फोन काट दिया।

शक़ील की बात सुनकर मैं पूरे इलाके के मास्टरों के बच्चें देखने गया, पर ज्यादातर मास्टरों के बच्चे छोटे थे। और जिनके बड़े थे, वो सब हॉस्टिलों में समय बिता रहे थे। मुझे लगा, लगता हैं। शक़ील ही मनोविकृत हो गया हैं, जो ऐसी बात कर रहा हैं। क्योंकि मनोविकृत तो वो होते हैं। जो गुस्सा करते हैं। जिन्हें कुछ समझ नहीं आता और मीनाक्षी तो प्यार करना जानती हैं। वो मनोविकृत कैसे हो सकती हैं।

मैंने फालतू का सब कुछ भूलकर थोड़े दिनों के लिए जिसमें रुचि भी थी। केवल मीनाक्षी से प्यार करने की कोशिश की, और सच कहूँ तो बड़ा सिद्दत वाला प्यार जो कालिदास के नाटक मेघदूत में हैं वो हो गया था। पर वक़्त ना जाया करते हुए।, जिस दिन मैंने उसे प्रपोज़ करने की ठानी, लगा जैसे उसे पता चल गया हो, और उसने मुझे किसी अदृश्य शक्ति से रोकने की कोशिश की हो; उस दिन उसने पहली बार बिना स्माइली के बात की थी। उसकी बातों से लग रहा था। वो उदास हैं। जैसे कोई चीज़ उससे दूर जा रही हो, कोई सपना टूटकर बिखर गया हो, और वो इन सबके कारण पैदा हुई टीस का हिस्सा मुझे ना बनाना चाहती हो, इसलिए वो उस दिन अपने मेसेजों में केवल अपने ज़हन में उठने वाली बेबसी लिखे जा रही थी। मैं इंतज़ार करता रहा। कब वो रुके, पर उस दिन जैसे कोई आवारगी उस पर हावी हो गई थी। उसने बहुत कुछ लिखा था। उस दिन, पर मेरे लिए जिसका सबसे ज्यादा मतलब था। वो ये बात थी।

“तुम मुझे पसंद करते हो, ये मैं स्कूल टाइम से जानती थी। तुम मुझे प्यार करने लगे हो, ये मैं अब जान गयी हूँ। पर तुम उस प्यार को मेरे सामने ज़ाहिर करो। ये फिलहाल मैं अभी नहीं चाहती। मैं हमेशा से एक कैद में रही हूँ। खुद के सपनों की, खुद की महत्वकांक्षाओ की, ये सब मुझ पर किसी और ने नहीं थोपा था। बस खुद को औरों से अलग दिखाने के लिए, खुद के चारों तरफ बनाया हुआ मेरा ही घेरा था। अगर मैं तुमसे इस घेरे के साथ ही प्यार करती हूँ। तो मुझे लगता हैं। कर नहीं पाऊँगी। और अगर मजबूरन प्रेम की लीलाओं के रोमांटिसम से प्रभावित होकर कर भी लूँ। तो इसका नतीजा ये होगा, कि मैं खुद को तो खत्म कर ही दूंगी। और साथ में तुम्हारी ज़िन्दगी का भी काफ़ी हिस्सा बर्बाद कर दूंगी। इसलिए हम दोनों के लिए अच्छा यही हैं। कि हम थोड़ा समय लें। और एक-दूसरे से दूर हो जाए।

मैं अब तुम्हारे बर्थडे के दिन तुमसे इसी जगह मिलूँगी। और कोशिश यहीं होंगी तब तक मैं वो घेरा तोड़ दूँ। गुड बायं मेरे आशिक़”

उसकी इस बात को पढ़कर मैं खुद से गुस्सा हो गया था कि मैं जिससे प्यार करने चला था। उसके बारे में कुछ भी नहीं जानता था। अफसोस हो रहा था, खुद की आकांक्षाओं पर; कि मैं इनमें इतना अंधा हो चुका हूँ। दूसरे की भावनाओं को बिल्कुल समझना छोड़ दिया हैं। इसके बाद कई बार उससे बात करने की कोशिश की थी। फेसबुक पर ही, क्योंकि नंबर मैं इसका भी नहीं ले पाया था। पर वो सब कुछ बीच में छोड़कर दूर जा चुकी थी। और रह गया था। तो बस एक इंतज़ार दोबारा मिलने का

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