हॉरर मैराथन - 23 Vaidehi Vaishnav द्वारा डरावनी कहानी में हिंदी पीडीएफ

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हॉरर मैराथन - 23

भाग 23

राघव की बात पूरी होने के बाद साहिल ने कहा- राघव तेरी कहानी सुनने के बाद मुझे भी एक कहानी याद आ रही है। अब मैं कहानी सुनाता हूं।

हां तेरी पहले वाली कहानी भी अच्छी थी, सुना अब तू ही सुना। मानसी ने कहा।

अब साहिल ने अपनी कहानी शुरू की।

हरिसिंह एक होनहार छात्र हैं, जो एक छोटे से गांव कृष्णपुरा का निवासी हैं। उसने हाल ही में उच्चतर माध्यमिक परीक्षा प्रथम श्रेणी में उत्तीर्ण की हैं। हरिसिंह का लक्ष्य लोक प्रशासनिक सेवा परीक्षा को उत्तीर्ण करना हैं ताकि वह अपने माता-पिता के सपने साकार कर सके। छोटी उम्र में ही बड़े सपनों को देखने वाले हरिसिंह ने कई कार्यो को अपने कंधों पर ले लिया था। उसे एक बड़ा सा घर बनाना था, छोटी बहन का ब्याह अच्छे घर में करना था। इन सपनों को साकार करने के लिए उसने कड़ी मेहनत करने की ठानी।

सुबह का समय था। हरिसिंह के पिता भोलाराम नीम के पेड़ के नीचे खड़े दातुन कर रहे थे। हरिसिंह उनके पास जाकर धीमे से बोला-

हरिसिंह- पिताजी प्रणाम ! विद्यालय की परीक्षा तो मैंने अच्छे अंकों से उत्तीर्ण कर ली है, अब आगे की पढ़ाई के लिए मुझे शहर जाना होगा।

भोलाराम- बिटवा, हम भी यहीं चाहते हैं कि तुम पढ़-लिख कर बड़े आदमी बनो, पर हमारे पास इतना रुपया नहीं हैं कि हम तुम्हें शहर भेज सकें।

हरिसिंह- पिताजी आप रुपये की चिंता न करें। पूरे जिले में हम प्रथम स्थान पर आए हैं तो सरकार हमें जो राशि देंगी, उससे हम शहर चले जायेंगे और फिर वहां छोटी-मोटी नौकरी करके अपना गुजारा कर लेंगे। आप बस अपना आशीर्वाद और जाने की अनुमति दे दीजिए।

बेटे की बात सुनकर भोलाराम की आँखें डबडबा गई। आँसू पोछते हुए मुस्कुराकर हरिसिंह के कंधे पर हाथ रखकर बोले- ठीक हैं बेटा। कुछ रुपये जो सीता की शादी के लिए जमा किये थे वह आज तुम्हारे काम आएंगे। अपनी माँ से ले लेना।

हरिसिंह- नहीं पिताजी उनकी आवश्यकता ही नहीं पड़ेगी।

अपने पिता से अनुमति मिल जाने के बाद हरिसिंह शहर जाने की तैयारी करने लगा। छोटी बहन सीता दौड़-दौड़कर अपने भैया की जरूरत के सामान लाती और करीने से बैग में रख देती। माँ ने हरिसिंह की पसन्द का आम का अचार भी रख दिया। शहर जाने का विचार करके ही हरिसिंह का उत्साह और भी बढ़ गया। सारी रात करवट लेते ही बीती। आज की सुबह हरिसिंह को बहुत सुखद लगी। हवा के झोंके, पक्षियों का कलरव सब कुछ खुशनुमा सा लग रहा था। हरिसिंह स्नान आदि से निवृत होकर सीधा रसोईघर में गया। सीता पूरी बेल रही थी और माँ पूरीयो को तल रहीं थी।

सीता ने भैया के लिए भोजन परोसा। भोजन करते समय हरिसिंह की आँख भर आईं। वह अपने परिवार के बिना कभी नहीं रहा। यह पहला ही अवसर था जब वह अकेला शहर जा रहा था। अपने आंसुओ को छुपाकर वह गर्दन नीचे किये हुए चुपचाप भोजन कर रहा था। रसोईघर में उपस्थित माँ और सीता का भी यहीं हाल था। तीनो अपने आंसुओं के सैलाब को रोके हुए शान्ति से अपना-अपना काम कर रहें थे।

वह समय भी आ गया जब हरिसिंह ने माँ, पिताजी और सीता से विदा ली। माँ ने दही खिलाकर हरिसिंह को ढेरों आशीर्वाद देकर विदा किया। सीता हरिसिंह की गाड़ी के पीछे-पीछे हाथ हिलाकर टाटा करतीं हुई कहती जाती- भैया अधिकारी बनकर ही आना।

शाम करीब 5 बजे हरिसिंह शहर पहुंच गया। वहाँ उसने ठहरने के लिए किराए के कमरे के बारे में बस स्टेशन के बाहर लगी दुकान के मालिक से पूछा- भाईसाहब यहाँ कोई सस्ता कमरा मिलेगा क्या ?

दुकानदार- कितने समय के लिए चाहिए ?

हरिसिंह- जी सालभर के लिए। हम यहाँ पढ़ने आए हैं।

दुकानदार- फिर तो मुश्किल हैं भाई ।

पास ही चाय की प्याली धो रहे श्यामू ने हरिसिंह से कहा- एक कमरा हैं तो सही, पर मुझे भी कमीशन देना होगा।

हरिसिंह (मुस्कुराकर) : ठीक हैं भैया ले लेना अपना कमीशन, पर पहले कमरा तो दिखाओ।

श्यामू हाथ धोकर, दोनों हाथों को अपनी नेकर से पोछते हुए खुश होकर बोला- चलो भैया... अभी कमरा दिखाये देते हैं...

दोनों बस स्टेशन के पीछे बनी बस्ती की ओर चल देते हैं। श्यामू गुनगुनाते हुए तेज कदमो से आगे चल रहा। हरिसिंह कंधे पर बैग लिए उसके पीछे चल रहा था। कुछ ही देर में श्यामू एक घर के सामने जाकर खड़ा हो गया। और जोर से आवाज देने लगा।

श्यामू- कमला काकी जरा बाहर तो आओ। एक किराएदार को लेकर आया हूँ।

एक 65 वर्षीय महिला बाहर निकलकर आई। उसने श्यामू को घूरा फिर हरिसिंह को ऊपर से नीचे तक देखते हुए कहा- छोकरा ने वास्ते कमरो नत्थी।

श्यामू- अरे काकी, अच्छा लड़का हैं। मेरे गाँव का है।

श्यामू के झूठ पर हरिसिंह ने उसे आँखे दिखाई तो श्यामू ने इशारे में हरी को चुपचाप खड़े रहने का कहा। श्यामू की गारंटी देने पर कमला काकी ने हरिसिंह को कमरा किराए पर दे दिया।

श्यामू को उसका कमीशन देकर हरिसिंह ने कमरे में प्रवेश किया। कमरा साफ-सुथरा था। पर वहाँ से नकारात्मक ऊर्जा का अनुभव हो रहा था। फिर भी कम कीमत में कमरा मिलने पर हरिसिंह खुश था। उसने अपने घर फोन करके सकुशल शहर पहुँचने की बात बताई। माँ ने भोजन बांधकर दिया था, जिसे खाते समय हरिसिंह की आँखों में माँ, पिताजी, सीता की छबि दिखने लगी। उसे बहुत अकेलापन महसूस हो रहा था। भोजन करने के बाद वह सो गया।

रात करीब 3 बजे कुत्तों के भोंकने की आवाज से हरिसिंह की नींद खुल गई। उसने बिस्तर के पास लगी खिड़की को खोलकर बाहर देखा। तो वह चौक गया। सभी कुत्ते उसी के कमरे की तरफ मुंह किये हुए लगातार भौंक रहे थे। हरिसिंह ने खिड़की बंद कर दी और मुंह पर चादर तान कर सोने का प्रयास किया। कुछ देर बाद उसे  महसूस हुआ कि उसकी चादर को कोई खींच रहा हैं। वह झटके से उठ बैठा। कमरे में चारों और नजर घुमाकर देखा तो कोई नहीं था। सर को खुजाते हुए वह सोचने लगा। शायद मैंने सपना देखा। वह फिर से सो गया और उसकी नींद लग गई। अगली सुबह जब वह उठा तो उसने देखा कि भोजन की थाली में बचा हुआ खाना नहीं था। उसने अनुमान लगाया कि शायद यहाँ चूहे हैं। अब तो मुझे अपनी किताबों को ध्यान से रखना पड़ेगा।

साहिल कहानी सुनाते हुए कुछ देर के लिए खामोश हो गया। साहिल यूं अचानक खामोश देख मीनू ने कहा- क्या हुआ आगे बता हरीसिंह के साथ क्या हुआ ?

तुम लोगों ने कोई आवाज सुनी क्या ? साहिल ने कहा।

मतलब तुझे भी... मानसी ने कहा।

हां, ऐसा लगा जैसे किसी ने मेरा नाम पुकारा है। साहिल ने कहा।

कुछ नहीं है यार तू अपनी आगे की कहानी सुना। अशोक ने कहा।

साहिल ने एक बार उठकर पूरे जंगल की ओर देखा और फिर नीचे बैठकर कहानी आगे सुनाने लगा।

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