सत्यवादी हरिश्चंद्र - 3 - राज्य का परित्याग ՏᎪᎠᎻᎪᏙᏆ ՏOΝᎪᎡᏦᎪᎡ ⸙ द्वारा प्रेरक कथा में हिंदी पीडीएफ

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सत्यवादी हरिश्चंद्र - 3 - राज्य का परित्याग

राज्य का परित्याग

समय बीतता गया और दान, धर्म, सत्य एवं न्याय के परिप्रेक्ष्य में राजा हरिश्चंद्र की कीर्ति दिनोदिन बढ़ती चली गई। अयोध्या में सर्वत्र सुख एवं शांति का साम्राज्य था। शासन व्यवस्था इतनी सुदृढ़ थी कि कहीं कोई पत्ता राज्य में खड़कता था तो राजा हरिश्चंद्र को तत्काल सूचना मिल जाती थी। राज्य का प्रत्येक नागरिक अपने श्रम और सामर्थ्य के अनुसार पूर्ण धार्मिक जीवन व्यतीत कर रहा था।

समय-चक्र अपनी निर्बाध गति से चल रहा था। अयोध्या की सुख, शांति और राजा हरिश्चंद्र के सत्यधर्म की चर्चा तीनों लोकों में फैलती जा रही थी। इससे सबसे अधिक मानसिक भय देवराज इंद्र को होता था, जो अपने मनोभाव से न तो किसी को बहा सकते थे और न अन्य कोई उपाय उनके पास था कि उन्हें शांति मिलती। कई बार उन्होंने विचार भी किया कि इस संबंध में महर्षि विश्वामित्र से वार्त्ता की जाए, परंतु वे भय से काँप जाते कि कहीं महर्षि उनके मंतव्य को भाँप गए तो अनर्थ हो जाएगा।

महर्षि विश्वामित्र के स्वभाव के बारे में सारा विश्व जानता था कि वे ऐसे योगी थे, जो क्रोधित हो जाएँ तो देवताओं के विरुद्ध भी खड़े हो जाते हैं। राजा त्रिशंकु के संबंध में भी यही हुआ था, जब महर्षि विश्वामित्र ने अपने तपोबल से उन्हें सदेह स्वर्ग भेजने का संकल्प लिया था। देवराज इंद्र महर्षि के ऐसे ही कठिन स्वभाव के कारण भयभीत थे। अंततः एक दिन उन्हें अपना इच्छित दृश्य देखने का सुख प्राप्त हो ही गया। देवराज ने अपनी दिव्य-दृष्टि से देखा कि महर्षि विश्वामित्र एक युवा साधु के रूप में सरयू के तट पर सूर्योपासना कर रहे थे। यह देख देवराज का मन प्रफुल्लित हो उठा। अब निश्चय ही महर्षि कुछ विशेष करने जा रहे थे। देवराज ने उनके क्रियाकलापों पर दृष्टि लगा दी।

सूर्योपासना के पश्चात् महर्षि विश्वामित्र ने अपना दंड और कमंडल उठाया तथा नगर की ओर चल पड़े। नगर में प्रवेश करने के बाद महर्षि को जो भी नागरिक मिला, सभी ने दंडवत् होकर उन्हें प्रणाम किया और उनका आशीर्वाद प्राप्त किया। स्वयं महर्षि भी अयोध्या के वातावरण में धर्म और सत्य के आचरण की सुगंध अनुभव कर रहे थे। स्थान-स्थान पर प्रभुनाम की दिव्य ध्वनि गूँज रही थी।

तेजस्वी साधु के रूप में महर्षि विश्वामित्र ने मन-ही-मन राजा हरिश्चंद्र की प्रशंसा की। अयोध्या के कण-कण में उन्हें उन महान् राजा की कुशलता, प्रवीणता और धार्मिकता का अनुभव हो रहा था।

वे दरबार के मुख्य द्वार पर पहुँचे तो वहाँ की शोभा उन्होंने स्वर्ग की शोभा के समान ही पाई। द्वारपालों ने उन्हें दंडवत् प्रणाम किया।

“चिरंजीवी भवः!” युवा साधु के रूप में महर्षि विश्वामित्र ने आशीर्वाद देते हुए कहा, “द्वारपाल! हम बहुत दूर से महाराज हरिश्चंद्र के दर्शनों की इच्छा से आए हैं। जाकर महाराज को सूचना दो कि हम उनके दर्शन की इच्छा से दरबार में उपस्थित होने की आज्ञा चाहते हैं।”

द्वारपाल ने शीश झुकाकर उन्हें प्रतीक्षा करने को कहा और स्वयं अंदर चला गया। कुछ क्षण पश्चात् ही राज्य के महामंत्री उन्हें लेने के लिए आ गए।

“प्रणाम मुनिवर! अवध में आपका स्वागत है। दरबार में महाराज आपके दर्शन पाने की प्रतीक्षा कर रहे हैं। आइए।” महामंत्री ने कहा।

ऋषिवर ने अपना पग उठाकर महल के भीतर रखा। यही वह पग था, जो तीव्र भूकंप की भाँति अवध की सुख-शांति को हिला देनेवाला था। इस पग ने सत्यवादी राजा हरिश्चंद्र के जीवन में अस्थिरता का ऐसा बवंडर ला दिया, जिसने राजा, रानी, राजकुँवर और समस्त प्रजा को कंपित कर दिया।

साधु जब दरबार में पहुँचे तो सभी दरबारियों ने उनके अभिवादन में अपना आसन छोड़ दिया। स्वयं राजा हरिश्चंद्र अपने सिंहासन से उठ खड़े हुए। अपने ललाट पर अपूर्व तेज लिये साधु ने रहस्यमयी मुसकराहट से राजा हरिश्चंद्र और सभी दरबारियों को देखा।

“मुनिवर को हमारा प्रणाम स्वीकार हो।” राजा हरिश्चंद्र ने हाथ जोड़कर कहा। “यशस्वी भवः राजा हरिश्चंद्र !”

“आइए मुनिवर! आसन ग्रहण कर हमें कृतार्थ कीजिए।”

“अवश्य राजन्! आज हम अपने सभी आवश्यक कार्य पूर्ण करके आ गए हैं और आपको इस उत्तरदायित्व से मुक्त कर रहे हैं। हमें प्रसन्नता है कि आपने हमारे आदेश के अनुसार राज्य का संचालन भली-भाँति किया है। अब हमारा यह राजमुकुट हमें सौंप दीजिए।” साधु ने कहा।

राजा हरिश्चंद्र यदि उस स्वप्न को विस्मृत न कर चुके होते तो निश्चय ही उनके मुखमंडल पर उलझन के ऐसे भाव न होते। उन साधु का विचित्र व्यवहार और रहस्यपूर्ण बातें उन्हें समझ में नहीं आईं तो इसका यही कारण था कि उनका वह स्वप्न समय की गति में पूर्ण विस्मृत हो गया था।

“मुनिवर !” राजा हरिश्चंद्र ने हाथ जोड़कर विनयपूर्वक कहा, “आपकी गूढ़ बात का अर्थ हम कदापि न समझ पाए। कृपा करके हमारी अज्ञानता दूर करें।”

‘‘प्रतीत होता है कि अपनी अटल कीर्ति की आभा और अखंड स्मृति के लिए पहचाने जानेवाले राजा हरिश्चंद्र की स्मृति धुँधला गई है, जो आप हमें नहीं पहचान रहे।” साधु ने तनिक शेष प्रकट किया, “अथवा इसका तात्पर्य यह है कि आप हमें पहचानकर भी न पहचानने का पाखंड कर रहे हैं।”

“क्षमा करें ऋषिवर!” हरिश्चंद्र बोले, “हमारी स्मृति में अवश्य कुछ त्रुटि हो सकती है, परंतु हम जानबूझकर ऐसी धृष्टता नहीं कर सकते।”

“यदि ऐसा है तो आप अपनी स्मृति को टटोलिए । स्मरण कीजिए कि आपने त्रिवाचा होकर अपना यह राज्य हमें दान में अर्पण कर दिया था और हम अपने आवश्यक कार्यों के कारण आपको यहाँ का कार्यवाहक राजा नियुक्त कर चले गए थे।”

“ऋषिवर! हम साधारण मानव हैं और स्मृति के विषय में मानव से त्रुटि हो जाना स्वाभाविक है। यदि आप हमें स्मरण करा दें तो आपकी अति कृपा होगी।”

“अवश्य राजन्!” साधु ने कहा, “इस संबंध में हम आपकी सहायता अवश्य करेंगे। आपकी स्मृति में दबकर धुँधला चुके उस सत्य को आपके समक्ष अवश्य लाएँगे, जिसे विस्मृत कर देने से आपकी कीर्ति भी धूमिल हो सकती है।”

यह कहकर साधु ने अपने नेत्रों को राजा हरिश्चंद्र के नेत्रों में डाला, जैसे कोई आकाशीय विद्युत् कड़ककर राजा के मनोमस्तिष्क से टकराई और राजा भूतकाल में तेजी से लौटने लगे। उनकी स्मृति का हर क्षण चलचित्र की भाँति पीछे की ओर लौट रहा था और... और अचानक वह दृश्य सामने आ गया, जब राजा हरिश्चंद्र ने वचनबद्ध होकर अपना राजपाट उस साधु को दान में दिया था। एकएक दृश्य, संवाद और शब्द उनके सामने स्पष्ट हो रहा था, परंतु... परंतु वह तो स्वप्न था। स्वार्थ का यथार्थ से यह कैसा विचित्र संबंध जुड़ रहा था । वही साधु, वही दरबार और वही वचनबद्धता! राजा हरिश्चंद्र के नेत्रों में विस्मय का सागर तैर उठा और वे अविश्वसनीय दृष्टि से उस वास्तविकता को देख रहे थे। तेजस्वी साधु के होंठों पर एक ऐसी रहस्यमयी मुसकान थी, जो किसी की भी समझ से परे थी।

“कहो हरिश्चंद्र! कुछ स्मरण हुआ कि नहीं। यदि नहीं तो हमें आज्ञा दीजिए कि हम यहाँ से प्रस्थान करें।” साधु ने कहा।

“ऋषिवर!” राजा हरिश्चंद्र साधु के चरणों में गिर पड़े, “अ...आप कौन हैं? आप अवश्य ही कोई महायोगी हैं। साधारण सांसारिक तो ऐसा कौतुक करने की सामर्थ्य नहीं रखता। हे महामुनि! आपको बारंबार प्रणाम और आपसे प्रार्थना है कि आप अपना परिचय दें।”

“हमारा परिचय केवल इतना है कि हम इस राज्य के वास्तविक राजा हैं और हमारा यह परिचय आप भली-भाँति जानते हैं। आपकी स्मृति ने आपको सब कुछ स्पष्ट बता दिया है कि वास्तविकता क्या है?”

“प्रभो! हमें स्मरण हो आया है कि एक रात स्वप्न में हमने वचनबद्ध होकर अपना सर्वस्व आपको दान में दे दिया था, परंतु... परंतु... ।”

“परंतु क्या? क्या अब आप अपने उस निर्णय पर पछता रहे हैं? क्या अब आप अपने उस वचन को नहीं मानते? क्या तीन बार वचन देकर आपने जो संकल्प लिया था, वह आपको हमारी उपस्थिति के पश्चात् भी भ्रम प्रतीत हो रहा है? यह किंतु-परंतु तो साधारण मानवों के शब्द हैं राजन्! एक अटल राजा, जिसकी दानशीलता, सत्यवादिता और वचन-पालन की कीर्ति तीनों लोकों में फैली हो, उसके मुख से यह असमंजस भरे शब्द आश्चर्यपूर्ण हैं।”

“ऋषिवर! मेरा यह तात्पर्य नहीं था । ”

“हमें आपके तात्पर्य का आभास है राजन्!” साधु ने तनिक रोष भरे शब्दों में कहा, ‘‘आप अपने वचन को समय और स्थिति की तुला में तौल रहे हैं और यह कहने का प्रयास कर रहे हैं कि स्वप्न और यथार्थ के वचन अलग-अलग होते हैं। यद्यपि रघुकुल में ऐसा कभी नहीं हुआ कि वचन की इस प्रकार भिन्नता हुई हो, परंतु संभवतः दानी एवं प्रतापी राजा हरिश्चंद्र ने इस भिन्नता को मान्यता दे दी हो। हम तो वैसे भी संन्यासी हैं राजन्! हमें राज्य और राजसिंहासन की इच्छा नहीं है। परंतु हम दान की महिमा को कलंकित नहीं करना चाहते। न तो दिए हुए दान से मुकरना और न मिले दान को स्वीकार करना – दोनों ही दान के महत्त्व को धूमिल करते हैं। यदि दान देनेवाला ही मुकर जाए तो दान पानेवाले की अस्वीकृति से उसे कोई दोष नहीं लगता। अतः हम प्रस्थान करते हैं।”

साधु ने एक पग उठाया ही था कि अचानक उनके कानों में कुछ शब्द गूँज उठे। “ठहरिए ऋषिवर!” राजा हरिश्चंद्र ने दृढ़ स्वर में कहा, "हम रघुकुल के वंशज अपने वचन में समय या स्थिति से भिन्नता नहीं करते। वचन हमारी जिह्वा से तब निकलते हैं, जब हम उन्हें पूर्ण करने की क्षमता रखते हैं। हम किसी भी स्थिति में वचनहार नहीं हो सकते। सूर्य और चंद्र अपने पथ से विचलित हो सकते हैं, परंतु हरिश्चंद्र अपने वचन और धर्म पर चट्टान की भाँति अडिग रहता है। हमें अपने वचन की भिन्नता स्वीकार नहीं। भले ही हमने आपको स्वप्न में वचन दिया, परंतु आप साक्षात् हमारे समक्ष उपस्थित हैं तो हम अपने वचन के अनुसार अपने धर्म का पालन करेंगे।”

राजा हरिश्चंद्र के स्वर में चट्टान जैसी दृढ़ता थी।

साधु के मुखमंडल पर रहस्यपूर्ण मुसकान और भी गहरी हो गई।

“हे ऋषिवर!” राजा हरिश्चंद्र पूर्ववत् दृढ़ स्वर में बोले, "स्वप्न का इस प्रकार साकार होना कोई साधारण घटना नहीं है और न ही इस घटना के पीछे खड़े आप कोई साधारण संन्यासी हैं। यह अकल्पनीय चमत्कार हुआ तो हम समझते हैं कि बहुत कुछ होना शेष है। ऐसे चमत्कार जिसके जीवन में होते हैं, उसे स्वीकार कर लेना चाहिए कि परमपिता परमात्मा उससे कुछ विशेष कहना चाह रहे हैं, जो समय के साथ स्पष्ट भी हो जाएगा। अतः पूजनीय मुनिवर ! हम आपको पूर्व में ही दान कर चुके इस सिंहासन को आपको अर्पण करते हैं। अब कृपा कर हमें उस कार्यवाहक के पद से मुक्त करें।'

इतना कहकर उन धर्मवीर, सत्यवादी और संकल्पमयी राजा हरिश्चंद्र ने अपना राजमुकुट उतारकर साधु के चरणों में रख दिया।

यह दृश्य देख सारा दरबार स्तब्ध रह गया। उनके परमप्रिय राजा अविश्वसनीय ढंग से पदच्युत हो गए और अब राजा नहीं रहे।

“धन्य हो हरिश्चंद्र! आपकी प्रशंसा में जितना भी कहा जाए, कम ही है। आप न केवल श्रेष्ठ राजा रहे, अपितु आपने सिद्ध कर दिया कि मानव जिस पथ पर चलकर महामानव बनता है, आप उससे पूर्णतया परिचित हैं। आप मानवीय मूल्यों का ऐसा भंडार हैं, जो देवों में भी दुर्लभ है। सत्य, धर्म, संकल्प आदि सभी गुणों से पूर्ण मैं आपको प्रणाम करता हूँ।”

“ऋषिवर! आप अपना सिंहासन ग्रहण कीजिए और सेवक को अन्य आदेश करें।” राजा हरिश्चंद्र ने हाथ जोड़कर कहा।

“राजन्! आपकी सत्यनिष्ठा, धर्मनिष्ठा और संकल्प में निहित निष्ठा ने हमें अभिभूत कर दिया है। अतः हम चाहते हैं कि आप अपने इस निर्णय के संबंध में अपनी पत्नी और पुत्र से भी विचार-विमर्श कर लें। उनका आपके प्रत्येक निर्णय में अधिकार तो है ही।” साधु ने कहा।

“हे ऋषिवर! पत्नी और पुत्र का हमारे निर्णय में उतना ही अधिकार है, जितना हमारा, परंतु हम ऐसा निर्णय नहीं लेते, जिससे हमारी पत्नी और पुत्र को कोई आपत्ति हो। हमारे मुख से निकला यह निर्णय अटल है।”

‘‘हरिश्चंद्र! अभी कोई विशेष हानि नहीं हुई, क्योंकि धन-वैभव के जाने से कुछ नहीं होता। अतः आप चाहें तो अभी भी...।”

“ऋषिवर!” हरिश्चंद्र ने साधु की बात को बीच में ही काटते हुए कहा, “हम रघुकुलवंशी अपने वचन की आन पर अपने प्राण दे देते हैं और आप यह बात भली-भाँति जानते हैं। फिर भी आपका पुनः हमें हमारे पथ से विचलित करने का प्रयास निष्फल ही सिद्ध होगा।”

“हमारा यह मंतव्य कदापि नहीं है राजन्! हम तो अपनी साधुता के अनुसार आपको राजरानी और कुँवर से विचार-विमर्श का अवसर देना चाहते हैं।”

“ऋषिवर! क्षत्रिय कुल में परिवार के स्वामी के निर्णय से विलग निर्णय नहीं होते। हमने तो फिर भी वह निर्णय लिया है, जो हमारे कुल की आन, बान और शान के अनुसार है। यदि हमने कोई त्रुटिपूर्ण निर्णय भी लिया होता तो भी हमारे परिवार का मत हमसे अलग नहीं होता।”

“अर्थात् अब हम अपना राज्य सँभाल सकते हैं।”

“अवश्य ऋषिवर!”

साधु ने इतना सुनकर राजमुकुट को उठाकर अपने सिर पर रखा और बहुत गर्व से उस राजसिंहासन पर विराजमान हुए, जिस पर कुछ क्षण पूर्व तक रघुकुल वंश के महान् राजाओं की श्रृंखला बैठती आई थी।

“अब हम अयोध्या के राजा हैं।” साधु ने कहा, “यह राजसिंहासन और राज्य हमारा है। अब हमारा आदेश ही सर्वोपरि होगा। समस्त प्रजावासी हमारा आदेश मानने के लिए बाध्य होंगे। अब अयोध्या के राजा हरिश्चंद्र नहीं हैं और यहाँ की राजरानी अब तारामती नहीं हैं। राजकुमार रोहिताश्व भी यहाँ के राजकुमार नहीं रहे। यहाँ बैठे दरबारियों या अन्य किसी नागरिक को हमारा शासन स्वीकार न हो तो वह कह सकता है।”

सारे दरबारी और प्रजाजन अपने पूर्व सम्राट् की ओर अश्रुपूरित नेत्रों से देखने लगे, परंतु उस महान् सम्राट् के सान्निध्य में सभी धर्म और सत्य का महत्त्व जान चुके थे। अतः किसी ने कोई आपत्ति नहीं की।

‘‘अर्थात् किसी को हमारे राजा बनने पर कोई आपत्ति नहीं है।” साधु से राजा बने उस नए राजा के मुख पर रहस्यमयी मुसकान खेल गई। साधु ने मुसकराते हुए कहा, “अब हम अयोध्या के अधिपति हैं और हम पहला आदेश आपको ही देते हैं कि आप जितना शीघ्र हो सके, अपने परिवार सहित अयोध्या की सीमा से बाहर चले जाएँ। यह हमारे शासन के लिए उचित है।”

“महाराज!” हरिश्चंद्र का मुखमंडल एक विचित्र तेज से देदीप्यमान हो उठा था, “आपकी आज्ञा का अक्षरशः पालन होगा।”

“राज्य छोड़ने से पूर्व हमसे भेंट अवश्य करके जाना।”

“जो आज्ञा महाराज!” हरिश्चंद्र ने सिर झुकाकर कहा और अपने सभी प्रिय दरबारियों पर स्नेहिल दृष्टिपात करके दरबार से बाहर चले गए।

सिंहासनारूढ़ ऋषिराज के नेत्रों में विचित्र - सी चमक थी और वह एकटक उस धर्मध्वज सत्यवादी को देखे जा रहे थे, जिसने अपने वचन-पालन के लिए अपना सर्वस्व दान कर दिया था।

रानी तारामती अपने महल में दासियों से घिरी बैठी थीं और किसी बात पर खिलखिलाकर हँस रही थीं। रतिरूपा रानी तारामती जितनी सुंदर थीं, उतनी ही विदुषी भी थीं। उनके व्यवहार में राजरानी जैसी कठोरता नहीं थी, अपितु माता जैसा स्नेहिल भाव था और यही कारण था कि उनकी दासियाँ उनका अत्यधिक सम्मान भी करती थीं और निःसंकोच उनके साथ वार्तालाप भी करती थीं।

हरिश्चंद्र रनिवास के द्वार पर पहुँचे ही थे कि सभी दासियाँ मौन होकर अपने स्थान से उठ खड़ी हुईं और कक्ष से बाहर चली गईं। रानी तारामती ने विचारमग्न महाराज को ठिठके खड़े देखा तो शंकित हो उठीं।

यद्यपि हरिश्चंद्र के हृदय में एक अज्ञात सी व्याकुलता अवश्य थी, परंतु उनकी दृढ़ता के समक्ष उनका प्रभाव उनके मुख तक नहीं आ रहा था। तारामती को एकटक निहारते हरिश्चंद्र धीमे से मुसकराए।

‘‘महाराज!’’ रानी तारामती ने व्यग्रता से पूछा, “आप...आप इस समय यहाँ? आप...आप स्वस्थ तो हैं न? आपके ललाट पर दृष्टिगोचर होती रेखाएँ आपके भीतर घुमड़ते विचारों के मंथन का प्रतीक हैं, जो मुझे किसी अनहोनी की आशंका से भयभीत कर रही हैं। स्वामी! आप शीघ्र ही कुछ कहिए । ”

“प्रिये! अनहोनी और चमत्कार कभी युगों में एकाध बार होते हैं और उनका माध्यम ईश्वर की इच्छा से चुना जाता है।” हरिश्चंद्र ने धीरे से कहा, “परंतु कई बार ऐसे अविश्वसनीय चमत्कार होते हैं, जो बड़े-से-बड़े दृढ़निश्चयी को भी डगमगा देते हैं।”

“स्वामी! आज दरबार में वह हुआ, जो कुछ समय पूर्व स्वप्न में हुआ था।”

“कहीं...कहीं आप उन विचित्र साधु के स्वप्न की बात तो नहीं कर रहे, जो...।”

“हाँ...हाँ प्रिये! वही स्वप्न आज साकार हो गया। वह साधु स्वप्न में हमसे तीन वचन लेकर हमसे दान में राज्य ले गए थे और आज वास्तविकता में उन्होंने अपना दान ले लिया।”

“ऐसा कैसे हो सकता है स्वामी!” तारामती आश्चर्य प्रकट करते हुए बोलीं, “स्वप्न साकार कैसे हो सकता है? अवचेतन मन की कल्पना कैसे साक्षात् रूप धारण कर सकती है और... और फिर स्वप्न तो आपका था, उन साधु को कैसे पता चला कि आपने अपने स्वप्न में उसे दान दिया है। य...यह तो असंभव है स्वामी!”

‘‘प्रिये! जो घट-घट में वास करता है, उसके लिए क्या असंभव है?”

“इसका तात्पर्य क्या है स्वामी! आप यह कहना चाहते हैं कि इस असंभव को संभव करनेवाले भगवान् श्रीहरि हैं।”

‘‘प्रिये! और कौन ऐसे असंभव को संभव करने की सामर्थ्य रखता है। सिवा परमपिता परमात्मा के कौन ऐसा करता है कि कुछ दिन पूर्व स्वप्न में हमसे तीन वचन लेकर हमारा सर्वस्व दान में लेता और फिर साक्षात् आकर हमें स्मरण कराता कि हमने अपना राज्य उसे दान किया था। "

“अर्थात् वे साधुरूप में साक्षात् भगवान् ही हैं।”

“देवी! साधु के रूप में भगवान् ही होते हैं।”

“स्वामी! यदि ऐसा ही है तो निश्चय ही यह अंतिम घटना तो नहीं होगी। अतः हमें सब ईश्वर की इच्छा जानकर अपने धर्म का पालन करना चाहिए।”

“हाँ देवी! मैं अभी-अभी दरबार से अपने कार्यवाहक पद से मुक्त होकर आया” हरिश्चंद्र ने कहा, “अब तुम बताओ कि हमने जो निर्णय लिया है, उसमें तुम्हारी क्या राय है? स्मरण रहे कि हमने स्वप्न में दिए वचन का पालन करने हेतु यह निर्णय लिया।”

“स्वामी! आपके निर्णय पर पुनर्विचार करने की सामर्थ्य तो बड़े-बड़े विद्वानोंमनीषियों में नहीं, क्योंकि आपका निर्णय सदैव सत्य, धर्म और संकल्पनिष्ठा पर टिका होता है। यद्यपि आपने वचन स्वप्न में दिया, परंतु यदि वह वचन आपको स्मरण है तो उसका पालन करना आपका धर्म है, क्योंकि रघुवंशी कभी स्वप्न में भी वचनहार नहीं हो सकते।” तारामती दृढ़ता से बोलीं।

“सत्य कहा तुमने तारा! अपने कुल की मर्यादा को बनाए रखने के लिए ही हमने यह निर्णय लिया। यहाँ आने से पूर्व हमें ग्लानि का अनुभव हो रहा था कि हमने बिना तुमसे विचार किए ही ऐसा निर्णय ले लिया, परंतु अब हमें आपकी बातों से संबल मिला है। हमें बड़ा अपराधबोध-सा हो रहा था । ”

“स्वामी! मैं आपकी पत्नी हूँ और आपके प्रत्येक निर्णय को मेरा समर्थन है, क्योंकि मैं भली-भाँति जानती हूँ कि आपके किसी निर्णय में कोई त्रुटि नहीं हो सकती। आपने आज जो किया, उससे मुझे गर्व है कि मैं रघुवंशी सत्यवादी हरिश्चंद्र की पत्नी हूँ, जिन्होंने अपने कुल की मर्यादा पर आँच नहीं आने दी।”

“तारा! निश्चय ही तुम बहुत विदुषी हो ।” हरिश्चंद्र ने सजल नेत्रों से कहा, “तुम तो मेरी शक्ति हो प्रिये! तुमने क्षण भर में मेरे सब विचारों को तृप्त कर दिया, जो अकारण ही उद्वेलित कर रहे थे। हे प्राणेश्वरी! अब हमें तनिक भी भय नहीं है। कि जो परिवर्तन हुए या जो होनेवाले हैं, हमें विचलित कर पाएँगे। तुम्हारा साथ होगा तो हम हर कठिनाई का सामना हँसकर कर लेंगे।”

‘‘स्वामी! मैं सदैव आपके साथ हूँ और फिर आपके बिना मेरा अस्तित्व ही क्या है?”

‘‘प्रिये!’’ हरिश्चंद्र ने कहा, “अब हमें राजाज्ञा के अनुसार शीघ्र ही अवधपुरी की सीमा से बाहर जाना होगा।”

“अर्थात् हम अयोध्या के राजा-रानी तो नहीं रहे, परंतु नए महाराज को हमारा अयोध्या का नागरिक बने रहना भी स्वीकार नहीं है ।”

“एक नए शासक के अनुसार ऋषिराज ने उचित ही सोचा है देवी! हमारे यहाँ रहने से राज्य में उनकी अनिवार्यता में कठिनाई हो सकती है।”

“स्वामी! फिर तो हमें शीघ्र ही अयोध्या नगरी छोड़ देनी चाहिए।”

“हाँ प्रिये! तुम किसी को भेजकर पुत्र रोहित को बुलाओ, वह उद्यान में खेल रहा होगा।”

“किसी को भेजकर?” तारामती ने आश्चर्य व्यक्त करते हुए कहा, “स्वामी! क्या अब मैं अयोध्या की राजराजेश्वरी हूँ, जो किसी दास या दासी पर मेरा अधिकार मान्य होगा? हम ऐसा कैसे कर सकते हैं? मैं स्वयं जाती हूँ और रोहिताश्व को लेकर आती हूँ।”

“प्रिये! तुम अद्भुत विदुषी नारी हो । क्षण भर में अपने वर्तमान को स्वीकार कर लेने का कार्य हमसे नहीं हो पा रहा, वह तुमने कर दिखाया। हमें तुम पर गर्व है प्राणेश्वरी!”

तारामती ने अपने प्राणप्रिय की ओर दृष्टि डाली कि हरिश्चंद्र को तनिक आलंब मिल गया। तारामती हरिश्चंद्र को वहीं छोड़कर बाहर की ओर चल पड़ी। तारामती की सेविकाएँ अपनी राजरानी को महल से बाहर की ओर जाते देखकर चकित थीं। आज तक कभी ऐसा अवसर नहीं आया था कि राजराजेश्वरी तारामती अपनी दासियों के होते स्वयं किसी कार्य से महल के बाहर गई हों । सभी दासियों में सबसे पुरानी और राजा त्रिशंकु के समय से अयोध्या के रनिवास की प्रमुख दासी अंजरा भय और आश्चर्य से अपनी महारानी को राजमहल से बाहर जाते देखकर अपने हृदय के आवेगों को वश में नहीं रख सकी।

“सखियो!” अंजरा ने सभी सहदासियों को संबोधित करते हुए कहा, “यह तो अति आश्चर्य का विषय है कि हमारी प्रिय व पूज्य राजरानी आज पहली बार हम सबको अनदेखा कर बिना कोई आज्ञा दिए महल से बाहर की ओर चली गईं।”

आज असमय महाराज का महल में आना ही मुझे किसी शंका में डाल रहा था । अतः अब हमारा कर्तव्य है कि हम यह जानें कि हमारी प्रिय राजरानी अचानक इस प्रकार हमारे प्रति उदासीन कैसे हो गई हैं?"

“काकी!” एक दासी ने कहा, “आपने एक-एक बात हमारे हृदय की कही है, परंतु हम इतनी सक्षम नहीं हैं कि राजरानी से प्रश्न कर सकें। अतः अब आप ही हमारी इस भयग्रस्त स्थिति से हमें निकालें।”

“सखियो!” अंजरा गंभीरता से बोली, "मैं इस राजकुल की तीन पीढ़ियों की सेवा कर चुकी हूँ, परंतु कभी ऐसा समय नहीं आया। राजरानी से विनय और उनकी सेवा के अतिरिक्त हम दासियाँ प्रश्न नहीं कर सकतीं। आज भी हम महारानी से विनय ही करेंगे और उनकी व्यग्रता जानने का प्रयास करेंगे।”

सबने सिर हिलाकर सहमति दी। सभी दासियाँ वहीं कतार में खड़ी हो गईं और।महारानी के आने की प्रतीक्षा करने लगीं। कुछ समय पश्चात् महारानी महल की ओर आती हुई दिखाई दीं। उनके साथ कुँवर रोहिताश्व भी थे। सभी दासियाँ हाथ जोड़कर सिर झुकाए खड़ी हो गईं।

रानी तारामती उनके निकट आईं और ठिठककर खड़ी हो गईं।

“महारानीजी!” अंजरा ने हाथ जोड़कर सिर झुकाए हुए कहा, “अ... आप...।”

“काकी!” अंजरा की बात को बीच में ही काटते हुए तारामती ने कहा, “अब हम महारानी नहीं रहीं और राजा भी राजा नहीं रहे ।”

सभी दासियाँ यह सुन विस्मित हो उठीं।

“ऐसा कैसे हो सकता है महारानी?”अंजरा आश्चर्य से बोलीं, "यह आप क्या कह रही हैं?”

“ऐसा ही है।” तारामती ने बताया, “क्या तुम नहीं जानतीं कि राहु-केतु की कुटिल दृष्टि से सूर्य और चंद्र भी अभिशप्त होकर अपनी आभा से दूर हो जाते”

‘‘महारानीजी! कृपा करके हमें स्पष्ट करें कि बात क्या है, जिससे हमारे व्याकुल मन शांत हों।”

तारामती ने सारी बात बता दी। दासियाँ हतप्रभ रह गईं।

“हे सखियो! सत्य, धर्म और वचन की रक्षा करनेवाले इस कुल के राजा ने अपने कुल की कीर्ति को अक्षुण्ण रखा है, जिस पर हम सबको गर्व होना चाहिए। अतः अपने हृदय से विषाद मिटाकर आनंद सहित हमें विदा करो।”

“महारानीजी! आपके बिना इस अयोध्या की शोभा कैसी होगी?”

“काकी! अयोध्या की शोभा हमसे नहीं, अपितु यहाँ के जनमानस में सत्य, धर्म और कर्तव्य के भली-भाँति आचरण से होती है।”

“आपसे विलग होकर हम कैसे रह सकेंगी?”

“भावनाओं पर अंकुश रखो, क्योंकि ये भावनाएँ ही मानव के जीवन में विषम परिस्थितियों की जननी हैं। इन भावनाओं के कारण ही मानव को कई बार उचित व अनुचित की पहचान नहीं हो पाती और वह अपने आचरण से बदल जाता है। यदि तुम सब इस मोह भावना में बहकर व्यथित रहीं तो यह राजधर्म के विपरीत होगा। अतः सब प्रसन्नतापूर्वक अपने-अपने धर्मों का पालन करो और हमें भी अपने पथ पर अडिग रहने का साहस प्रदान करो। यही श्रेष्ठ होगा।”

सभी दासियों ने अपनी विदुषी महारानी की बात को हृदय में धारण किया। सत्य और धर्म के लिए तो अयोध्या का प्रत्येक बालक तक दृढ़ रहता था। तारामती दासियों को समझाकर महल की ओर चल पड़ीं।

“माताश्री!” रोहिताश्व ने आश्चर्य से कहा, “यह तो हम उद्यान में ही समझ गए थे कि किसी विशेष कारण से ही आप स्वयं हमें बुलाने आई हैं, परंतु समस्या इतनी अधिक गंभीर होगी, यह तो हमने सोचा ही नहीं था।”

‘‘पुत्र! क्षत्रिय के लिए कोई समस्या गंभीर नहीं होती।” तारामती समझाते हुए बोलीं, “ये तो जीवन की विविधताएँ होती हैं, जिनसे मानव को शिक्षा मिलती है।”

“परंतु हम यह नहीं समझ पा रहे कि जब पिताश्री ने दान स्वप्न में किया था तो उसका वास्तविकता से क्या संबंध?” रोहिताश्व ने प्रश्न किया।

तब तक वे दोनों वहाँ आ गए थे, जहाँ हरिश्चंद्र व्याकुलता से टहल रहे थे।

‘‘पिताश्री!’’ रोहिताश्व ने पुकारा तो हरिश्चंद्र ने अपनी भुजाएँ फैला दीं। रोहित दौड़कर अपने पिता की भुजाओं में समा गया। हरिश्चंद्र ने अपने सुकुमार को लाड़-दुलार किया और उसे गले से लगा लिया।

“पुत्र रोहित!” हरिश्चंद्र रुँधे गले से बोले, “हमें क्षमा करना कि हमने अपने संकल्प की वेदी पर तुम्हारे भविष्य की आहुति दे दी।”

“पिताश्री! आप... आप ऐसा क्यों कह रहे हैं?” रोहित ने दृढ़ता से कहा, “क्या मैं भी उसी रघुवंश का पुत्र नहीं। क्या हमारा कर्तव्य, धर्म और सत्य केवल राज्य और वैभव का आश्रय ही था, जो आप इतने उद्वेलित हो रहे हैं।”

हरिश्चंद्र के मुखमंडल पर एक दिव्य अनुभूति का भाव उत्पन्न हो गया। सुकुमार रोहित ने क्षण-भर में उन सब शंकाओं और वेदनाओं को दूर कर दिया, जो अभी तक उन्हें व्यग्र कर रही थीं। भले ही रोहित आयु में छोटा था, परंतु था तो उसी कुल का अंश, जहाँ संस्कार ऐसी पाठशाला होते हैं कि धर्म, सत्य और कर्तव्य का ज्ञान सहज हो जाता है।

“पुत्र! तुम वास्तव में कुशाग्र बुद्धि के हो। तुमने सत्य ही कहा कि हमारे कुल की परंपरा राज्य और वैभव की आश्रित नहीं है। हम अकारण ही उद्वेलित हो रहे थे। अब हमें तनिक भी शंका या भय नहीं।”

“पिताश्री! हम रघुवंशी वचन की रक्षा करने में कभी पीछे नहीं हटते और यह बात आपने ही हमें बताई है। अतः वर्तमान परिस्थिति पर व्यग्र या दुःखी होने की आवश्यकता नहीं है। अब आगे क्या करना है, इस पर विचार करें।”

“पुत्र! हमें राजाज्ञा है कि शीघ्र अयोध्या नगरी छोड़ दें।”

‘‘फिर तो पिताश्री, हमें राजाज्ञा का पालन करना चाहिए, परंतु मेरे हृदय में एक शंका है। अतः उसका समाधान अवश्य करें।”

“कैसी शंका पुत्र ?”

“यही कि अयोध्या का शासन एक साधु के हाथों में है! साधु तो यज्ञ, हवन, धर्म आदि के विषयों में ही ज्ञान रखते हैं, शासकीय ज्ञान उन्हें कहाँ होगा?"

‘‘पुत्र!” हरिश्चंद्र बोले, “यह हमारे सोचने का विषय नहीं है। हमने उन्हें अपना राज्य दान कर दिया है और इसे भली-भाँति चलाने का दायित्व उनका है। भगवान् ने अकारण ही तो यह परिवर्तन नहीं किया होगा। ऋषिवर अवश्य ही राज्य के संचालन में कुशल होंगे।”

“पिताश्री! आप मेरे कहने का तात्पर्य नहीं समझे। दान के भी तो कुछ नियम होते हैं। ग्राही और दाता दोनों को उन नियमों का पालन करना पड़ता है। अपात्र को दिया गया दान सुफल नहीं होता।”

“पुत्र रोहित! दाता को याचक की पात्रता - अपात्रता नहीं देखनी चाहिए। इससे दान का महत्त्व घटता है। दाता को अपना कार्य करते रहना चाहिए। सूर्य को ही देखो। वह अपना प्रकाश किसी की पात्रता देखकर नहीं देता और ऐसे ही श्री नारायण भी संसार का पालन करने में पात्रता को कोई महत्त्व नहीं देते। दाता को ग्राही से कोई अपेक्षा नहीं रखनी चाहिए, जिसमें ग्राही को बाध्यता का अनुभव हो।”

“आप सत्य कह रहे हैं पिताश्री ! इस विषय में मेरा ज्ञान सीमित था।”

“पुत्र! हमें शीघ्र ही अयोध्या छोड़ने का आदेश मिला है। तारामती ने कहा । “हाँ-हाँ, क्यों नहीं?” रोहित तत्काल बोला, “हम अभी तैयार होते हैं। हमारी कुछ खेलने की वस्तुएँ...।”

‘‘पुत्र! हम यहाँ से कुछ भी नहीं ले जाएँगे।” हरिश्चंद्र ने कहा, “क्योंकि राज्य की किसी भी वस्तु पर हमारा कोई अधिकार नहीं है ।”

रोहित ने क्षण भर उस बात पर विचार किया।

‘‘पिताश्री! यह भी सत्य है, क्योंकि हम तो अपना सर्वस्व दान कर चुके हैं। फिर तो हमें यह राजसी वस्त्र भी धारण करने का अधिकार नहीं है। मात्राश्री ! हमें इन वस्त्रों से मुक्त करें।”

तारामती ने अपने पुत्र को हृदय से लगा लिया और रोहित के राजसी वस्त्र व आभूषण उतारकर साधारण वस्त्र पहना दिए। इसके पश्चात् तारामती और हरिश्चंद्र ने भी वस्त्राभूषणों का त्याग कर साधारण वस्त्र धारण किए।
“आओ पुत्र! हम दरबार में चलकर महाराज से आज्ञा लेते हैं । ” हरिश्चंद्र ने कहा।

“चलिए पिताश्री! हमारी भी नए महाराज के दर्शन की अभिलाषा है।” इस प्रकार वे तीनों दरबार की ओर चल पड़े।

जब हरिश्चंद्र दरबार में पहुँचे तो उनकी साधारण वेशभूषा देखकर दरबार में आह-सी गूँज उठी और कई दरबारियों की आँखों से तो अश्रु बहने लगे।

सिंहासन पर विराजमान ऋषिराज मुसकरा उठे । हरिश्चंद्र, तारामती और रोहिताश्व ने उन्हें आदर सहित प्रणाम किया।

“तुम्हारा कल्याण हो हरिश्चंद्र!” ऋषिराज ने आशीर्वाद की मुद्रा में कहा, “धन्य हो हरिश्चंद्र! तुम ही नहीं, अपितु तुम्हारा यह परिवार भी प्रशंसा का पात्र है। मात्र वचन के लिए इस सुख-वैभव को त्याग देनेवाले इस परिवार को मेरा प्रणाम! परंतु मुझे दयावश इतना अवश्य कहना है कि यह सुकुमार और अबला तारामती के लिए यह सब अत्यंत कठिन होगा। हम तुम्हें फिर से अवसर दे रहे हैं। अपना सिंहासन सँभालकर इन लोगों को दारुण दुखों से दूर रखने की कोई युक्ति सोच लो, जो अभाव के समय देखने-सहने पड़ते हैं।”

“महाराज!” हरिश्चंद्र दृढ़ता से बोले, “मैं आपसे निवेदन कर चुका हूँ कि आपका कोई भी प्रयास हमारे संकल्प को अस्थिर नहीं कर सकता। हम क्षत्रिय हैं। हमें ऋषि-मुनियों की दया नहीं, आशीर्वाद चाहिए।”

“हम इस समय ऋषि नहीं हैं, अपितु अयोध्या के राजा हैं।”

“पद से प्रभाव बदल सकता है महाराज! किंतु भाव नहीं बदला करते। आप ब्राह्मण को अपने आशीर्वाद से संसारी जनों को सुखी रखना ही आपका भाव है। आपकी दयालुता आपके आशीर्वाद में ही निहित होती है।”

“आप ज्ञान के अथाह सागर हैं हरिश्चंद्र! सर्वगुणसंपन्न हैं। हम चाहते हैं कि संकट के इस समय में हमें आपके प्रति इतनी कठोरता नहीं करनी चाहिए। हम महारानी तारामती...।”

“क्षमा करें महाराज!” महाराज बात को बीच में ही काटते हुए तारामती बोलीं, “हम महारानी नहीं हैं। अब हम अयोध्या की एक साधारण महिला मात्र हैं।"

“देवी! यह तो हम जानते हैं कि आप एक विदुषी, ज्ञानमयी और स्नेहमयी महिला हैं। अतः हम अपनी भूल स्वीकार करते हैं, जो हमने आपको महारानी कहा, परंतु हमारा तात्पर्य कुछ और है। हम अपने आदेश में संशोधन कर यह कहना चाहते हैं कि आप और आपका सुकुमार पुत्र चाहें तो अयोध्या में रह सकते हैं और पूर्व की भाँति यहाँ आपके सुख और सम्मान में कोई कमी नहीं होगी।”

“ऋषिराज!” तारामती के स्वर में क्षत्राणी का रोष उभर आया, “आप हमारा या हमारे कुल का उपहास कर रहे हैं। संशोधन और विकल्प की आड़ में आप यह कहना चाहते हैं कि हमारे स्वामी ने जो निर्णय लिया, हम उससे विलग हैं।”

“महाराज!” रोहित ने भी दृढ़ता से कहा, “हम क्षत्रिय कुल के सिंह हैं, जिनके शावक भी उतनी ही निर्भयता और क्षमता रखते हैं, जितनी उनके माता-पिता में होती है। आप हमें सुकुमार अवश्य समझ रहे हैं, परंतु हमारी दृढ़ता चट्टानों से कम कदापि नहीं है। आप अपने प्रस्ताव को भी अपनी त्रुटि समझें ।”

“अद्भुत! अद्भुत दृढ़निश्चयी परिवार है।” ऋषिराज ने उन्मुक्त कंठ से प्रशंसा करते हुए कहा, “हमें गर्व है कि हमें दानस्वरूप एक ऐसा राज्य मिला है, जिसका शैशवकाल भी दृढ़ता और संकल्प का धनी है। अब हमें आप पर दया नहीं आ रही, अपितु विश्वास बढ़ रहा है कि हमारी कठोरता और कैसा भी अभाव आपको तनिक भी कष्ट नहीं देगा।”

“महाराज! जीवन के कर्मक्षेत्र में सिद्धांतों का अपना ही महत्त्व है।” हरिश्चंद्र ने कहा, “जीवन की धारा के दो किनारे होते हैं— सुख और दुःख । प्राणी अपने कर्मों के अनुसार ही इस धारा में बहता है और कभी इस किनारे तो कभी उस किनारे जा लगता है। जो इन किनारों से निर्लिप्त रहकर अपने धैर्य, संयम, सत्य आदि के सिद्धांतों पर दृढ़ रहता है, उन्हें सुख-दुःख की समान अनुभूति होती है। अतः आप हमारे भविष्य के प्रति चिंतित न हों। आपका आशीर्वाद रहे कि हम अपने धर्म से विमुख न हों। अब हमें आज्ञा दीजिए।"

“आज्ञा! राजाज्ञा तो हो चुकी है हरिश्चंद्र!” ऋषिराज ने रहस्यमयी मुसकराहट से कहा, “तो फिर पुनः आज्ञा का क्या अर्थ रह जाता है?”

“सत्य कहा महाराज! आओ प्रिये !”

इस प्रकार हरिश्चंद्र अपनी पत्नी तारामती और पुत्र रोहिताश्व के साथ दरबार से प्रस्थान करने लगे। तभी उनके कानों में कुछ शब्द गूंजे।

“ठहरो हरिश्चंद्र !” उनके कानों से ऋषिराज का कठोर स्वर टकराया।

“आज्ञा करें महाराज!”

“आप संभवतः कुछ भूल रहे हैं या उससे जानबूझकर विमुख हो रहे हैं।”

“महाराज! आप प्रायः विमुखता की बात करके हमारे संकल्प और दृढ़ता पर आघात कर रहे हैं। मानवीय भूल तो हमसे हो सकती है, यह हमें स्वीकार है, परंतु जानबूझकर हम अपने धर्म से विमुख नहीं हो सकते।”

“हरिश्चंद्र! आप संभवतः भूल ही कर रहे हैं। ऐसा तो नहीं हो सकता कि आप दान की पूर्णता से परिचित न हों।”

“दान की पूर्णता!”

“जो कि बिना दक्षिणा के नहीं होती। आपने हमें दान तो दे दिया, परंतु धर्म के अनुसार हम दान में मिली वस्तु का उपभोग तभी तो कर सकेंगे, जब दान देनेवाला उऋण हो जाएगा अर्थात् दक्षिणा दे देगा।”

हरिश्चंद्र स्तंभित रह गए। ऋषिराज ने अकाट्य सत्य कहा था।

“महाराज! मैं क्षमाप्रार्थी हूँ और आपका ऋणी हूँ, जो आपने मुझे यह स्मरण दिलाया, अन्यथा यह त्रुटि हो जाती।” हरिश्चंद्र हाथ जोड़कर बोले।

“अब स्मरण हो गया है तो यह कार्य भी पूर्ण कीजिए, जिससे हमें दान में मिले इस राज्य का सुख और शासन भोगने का अधिकार प्राप्त हो।”

“अवश्य महाराज! किंतु इसमें थोड़ा समय लगेगा।”

“समय? समय क्यों हरिश्चंद्र ?” ऋषिराज की भृकुटि तन गई ।

“महाराज!” हरिश्चंद्र ने विनयपूर्वक कहा, “आप भली-भाँति जानते हैं कि हमारे पास जो कुछ भी था, वह हम सब आपको अर्पण कर चुके हैं और अब हमारे पास ऐसा कुछ भी शेष नहीं है, जो हम दक्षिणास्वरूप दे सकें, परंतु इतना निश्चय समझिए कि हम दान की पूर्णता के नियम को अवश्य पूर्ण करेंगे। आपसे केवल इतना अनुरोध है कि आप हमें थोड़ा समय दें।”

साधु महाराज ने दृष्टि उठाकर दरबारियों को देखा।

सभी दरबारियों के मुख पर तीव्र वेदना के भाव उभर आए थे। आज भाग्य ने दुर्भाग्य बनकर कैसी क्रूरता की थी कि जिस राजा के श्री वैभव की तुलना कुबेर से की जाती थी, वह आज इतना निर्धन हो गया था कि दक्षिणा चुकाने में भी असमर्थ था। जो प्रतिदिन के दान से रंक हो गया था।

“हरिश्चंद्र !” साधु महाराज तनिक रुष्ट होकर बोले और सिंहासन से उतरकर बोले, “तुमने हमें विचित्र दुविधा में डाल दिया है। हम इस राज्य को दान में प्राप्त कर चुके हैं, परंतु विडंबना देखो कि इसके उपभोग का अधिकार अभी हमें नहीं है।”

‘‘मैं लज्जित हूँ मुनिवर! मैं शीघ्रातिशीघ्र आपकी दक्षिणा देकर उऋण होने का प्रयास करूंगा।” हरिश्चंद्र विवशता से आर्द्र स्वर में बोले।

‘“महाराज!” तभी महामंत्री ने विनयपूर्वक कहा, “हम सब आपके सेवक हैं और आपके शासन में हमने सुख और समृद्धि का जीवन व्यतीत किया है। आपसे हमारी विनती है कि हमें सेवा का अवसर प्रदान करें और अपनी दक्षिणा से उऋण होकर अपने धर्म का पालन करें।”

“हाँ-हाँ ।” साधु महाराज शीघ्रता से बोले, “उचित बात है कि हमें शीघ्रातिशीघ्र इस इंद्रासन के समान राजसिंहासन का परम् सुख प्राप्त हो जाएगा और आप भी अपने वचन और संकल्प से उऋण हो जाएँगे।”

‘‘महाराज!” हरिश्चंद्र दृढ़ता से बोले, “संभवतः आप मेरी परीक्षा ले रहे हैं, जो ऐसा अनर्थकारी सुझाव दे रहे हैं। आप भली-भाँति जानते हैं कि हमने अपना सर्वस्व आपको अर्पित कर दिया है। अयोध्या का तृण-तृण और कण-कण अब आपका है। फिर हम उस दान में से ही कैसे दक्षिणा दे सकते हैं। महामंत्रीजी अथवा अन्य जन सभी तो हमारे दान का हिस्सा हैं।"

“बात तो तुम्हारी उचित है हरिश्चंद्र!” साधु महाराज ने विचारपूर्वक कहा, “यह तो हमारी ही संपत्ति से प्राप्त हुई दक्षिणा होगी, जिससे दान की पूर्णता नहीं होती।”

“महाराज! इसी कारण तो हम आपसे थोड़ा सा समय चाहते हैं।”

“हरिश्चंद्र! विचित्र स्थिति उत्पन्न कर दी तुम्हारी इस निर्धनता ने। यह तो वही बात हुई कि जल में रहकर भी मीन प्यासी रही । हमने जिसे सुख की कल्पना में याचक बनना स्वीकार किया, वह हमारे सामने तो है, परंतु हम उसकी अनुभूति भी नहीं कर सकते।”

‘‘महाराज!’’ हरिश्चंद्र लज्जित होकर बोले, “हमें क्षमा कर दें, परंतु हम आपको वचन देते हैं कि अतिशीघ्र आपसे उऋण हो जाएँगे।”

“हरिश्चंद्र! हमें आपके वचन पर पूर्ण विश्वास है, परंतु हमारी शंका तो और ही है। आपके पास इस समय कुछ भी नहीं है और कोई अन्य स्रोत भी ऐसा नहीं है कि आप ऋण चुका दें तो फिर आप किस प्रकार हमें तीन भार स्वर्ण दे सकेंगे। ?”

“त...तीन...तीन भार स्वर्ण !” हरिश्चंद्र विस्मय और भय से आक्रांत हुए, “य... यह... यह आप क्या कह रहे हैं? तीन भार स्वर्ण हम कहाँ से दे सकते हैं। दक्षिणा तो दान की भाँति देनेवाले की श्रद्धा और क्षमता पर निर्भर होती है। यह आपकी निर्दयता का सूचक है या धन-लिप्सा का।”

“हरिश्चंद्र !” 'साधु क्रोध से भरभरा उठे, “यह निर्दयता अथवा धन-लिप्सा नहीं है, अपितु दान के अनुसार निर्धारित दक्षिणा है। जब दान में हमें इतना बड़ा साम्राज्य प्राप्त हुआ है तो क्या दक्षिणा में एक मुट्ठी तंदुल (चावल) लेकर हम इस दान की महानता के महत्त्व को धूमिल कर दें?”

“महाराज! शास्त्रों में ऐसा कोई विधान नहीं है कि दान लेनेवाला दान देनेवाले को दक्षिणा में इच्छित भार देने को बाध्य करे।”

“तुम हमें शास्त्रों के विधान सिखाने का प्रयास कर रहे हो हरिश्चंद्र!” साधु का तेजस्वी मुखमंडल और भी तमतमा उठा, “दान कैसे दिया जाता है अथवा कैसे लिया जाता है, यह तुम हमें बता रहे हो। क्या इसी ज्ञान के आश्रय से इतने बड़े दानी बने हुए थे। दान में तुमने हमें क्या दे दिया, जिस पर तुम इतना गर्व कर रहे हो। यह राज्य तुमने स्थापित तो नहीं किया था। यह तो तुम्हारे पूर्वजों की धरोहर है, जिसे परंपरा के अनुसार तुम्हें किसी को सौंप देना था। उन पूर्वजों की धरोहर को दान करके स्वयं को राजा बलि की भाँति दानवीरों की श्रेणी में गिन रहे हो ।” हरिश्चंद्र का सिर लज्जा से झुक गया।

“क्या इस पारंपरिक राजसिंहासन पर बैठकर राजकोष से स्वर्ण मुद्राओं का असीमित दान करके तुमने दानवीर की उपाधि पाई है! यह राज्य और इसका श्रीवैभव ही तुम्हारी श्रेष्ठता का रहस्य और आश्रय रहा है? स्व-अर्जन में अक्षम हो, फिर भी त्याग, दान और वचन-पालन की उपाधियाँ धारण कर बैठे हो । वाह सत्यवादी हरिश्चंद्र! विरासत की धरोहर में से दान और दक्षिणा देने का कार्य तो साधारण मानव भी कर सकता है, फिर तुम इसके श्रेष्ठ श्रेय के अधिकारी क्यों? अब हमें सब कुछ समझ में आ गया है कि तुमने अपने सुख-वैभव को प्राप्त करने की युक्ति सोच भी ली है। अतः हे दानवीर! तुम्हारा यह राज्य तुम्हें ही स्वीकार हो, हम तो किसी कंदरा में जाकर तपस्यारत हो जाएँगे । स्मरण रहे कि महान् राजाओं मांधाता, अंबरीष और त्रिशंकु की श्रेणी में स्वयं को गिनने की भूल न करना। रघुकुल की महान् परंपराओं के वाहक होने का यह दंभ त्याग देना हरिश्चंद्र! हम प्रस्थान करते हैं।”

साधु ने जैसे ही पग उठाया, हरिश्चंद्र ने उनके चरण पकड़ लिये।

“भगवन्! मुझे क्षमा कर दें।” हरिश्चंद्र सजल नेत्रों से बोले, “मैं अज्ञानी इस गूढ़ रहस्य को आज समझ पाया कि मैंने ऐसा कुछ दान नहीं किया, जिससे दानियों में मुझे श्रेष्ठ कहा जा सके। मैंने मात्र अपने सुख-वैभव का त्याग ही तो किया है, परंतु हे कृपालु ऋषिवर! मुझ अकिंचन के मस्तक पर इस कलंक को न थोपें कि मैं आपकी दक्षिणा चुकाने से विमुख हूँ। इस प्रकार का अपयश मेरे लिए मृत्यु के समान है। अतः हे दीनबंधु ! अपने इस सेवक पर कृपा कीजिए और मुझे थोड़ा समय दीजिए। मैं आपका तीन भार स्वर्ण अवश्य चुकाऊँगा।”

“हरिश्चंद्र! अपने कुल की परंपरा का निर्वाह कुल की संचित श्री के द्वारा तो साधारण मानव भी कर सकता है, परंतु अपने वचन-पालन, सत्य और धर्म की निष्ठा तो अभावों में ही ज्ञात होती है। राजा तो सदैव ही दानवीरों की श्रेणी में गिने जाते हैं, परंतु क्या उन्हें रतिदेव जैसा श्रेष्ठ दानवीर कहा जा सकता है, जो घोर दरिद्रता में भी अपने धर्म का पालन करते रहे। हे हरिश्चंद्र! कंचन से कीर्ति का मार्ग अत्यंत सुगम है। दुर्गम पथ तो मानव से महामानव बनने का है, जिस पर अनेक दुःखदायी शूलों के वन होते हैं। यदि ऐसा नहीं होता तो संसार में मृत्युलोक ही देवस्थली होता। यहाँ दोनों की आसक्ति केवल इसी कारण तो है कि यहाँ साधारण मानव भी अपने अटल संकल्प की शक्ति से जीवन के आदर्श स्थापित करने की क्षमता रखता है।”

‘‘महात्मन्! आज आपने मेरे नेत्रों से वह भ्रम दूर कर दिया, जो हमें सदैव ही भ्रमित करता रहा। आज मुझे ज्ञात हुआ है कि धर्म, सत्य और वचन की निष्ठा के प्रदर्शन और स्थापना का उचित समय अभाव होता है। मैं रघुकुल का वंशज हरिश्चंद्र! आपको वचन देता हूँ कि मैं रघुकुल का वंशज हरिश्चंद्र! आपको वचन देता हूँ कि मैं किसी भी स्थिति में अपने धर्म से न डिगूँगा और न कभी सत्य का आश्रय ही छोडूंगा।’’ हरिश्चंद्र ने दृढ़संकल्प करते हुए कहा।

“यही तुम्हारे और इस जगत् के लिए उचित रहेगा राजन्! अब तुम हमें यह बताओ कि तुम्हें हमसे उऋण होने के लिए कितना समय चाहिए। स्मरण रहे कि हम अब तभी इस सिंहासन पर बैठने के अधिकारी होंगे, जब आप दान-संहिता का भली-भाँति पालन कर देंगे।”

हरिश्चंद्र सोच में पड़ गए। उनके पास तो कुछ भी नहीं था और ऐसा कोई त्वरित आय-स्रोत भी नहीं था, जिससे तीन भार स्वर्ण प्राप्त करने में सुगमता होती । समय के बारे में कैसे निश्चित किया जा सकता है? यह प्रश्न भी दुर्गम स्थिति में पहुँच रहा था। बहुत विचार करने पर भी हरिश्चंद्र किसी समय-सीमा को निर्धारित करने में स्वयं को अक्षम पा रहे थे।

“हरिश्चंद्र! संभवतः किसी आय स्रोत के अभाव में तुम किसी निर्णय पर नहीं पहुँच पा रहे। अतः हम ही तुम्हें अपने धैर्य की सीमा से अवगत करा देते हैं।” साधु महाराज ने कहा, “यह एक प्रकार से दक्षिणा चुकाने की समय-सीमा ही होगी। हरिश्चंद्र! हम दान में प्राप्त हुए इस सुख-वैभव के उपभोग की प्रतीक्षा एक माह और कर सकते हैं, फिर हम यह समझेंगे कि यह हमारे भाग्य में नहीं है और हम किसी अज्ञात स्थान को चले जाएँगे। तत्पश्चात् तुम अथवा अन्य कोई इस राजसिंहासन पर बैठने के लिए स्वतंत्र होगा।”

‘‘एक माह!” हरिश्चंद्र भयाक्रांत होने को हुए, परंतु शीघ्र ही स्वयं को सँभालकर उन्होंने अपनी दृढ़ता को स्थिर किया, मुझे स्वीकार है महाराज! मैं एक माह की समय-सीमा में ही आपकी दक्षिणा चुका दूँगा।

“ठीक है।” साधु महाराज बोले, “हमने तुम्हें इतना समय दिया, क्योंकि अब हम इस सुख का उपभोग नहीं कर सकते तो हमारा यहाँ रुकना निरुद्देश्य होगा। अतः हम भी तुम्हारे साथ चलते हैं और तुमसे दक्षिणा लेकर लौट आएँगे। इससे हमें यह भी ज्ञात रहेगा कि तुम्हारी दक्षिणा किसी अनैतिक स्रोत से तो नहीं है।”

“जैसी आपकी इच्छा महाराज!”

“महामंत्रीजी! इस समय-सीमा के लिए हम तुम्हें कार्यवाहक शासक नियुक्त करते हैं। समय-सीमा समाप्त होने तक हम वापस आए, जो कि हरिश्चंद्र पर निर्भर है तो हम आपको इस उत्तरदायित्व से मुक्त कर देंगे और यदि नहीं लौटे तो जो चाहे, इस राज्य का शासन करे। हमें इसमें कोई आपत्ति नहीं होगी।”

हरिश्चंद्र इन शब्द-बाणों से आहत हुए जा रहे थे, परंतु उनकी विवशता थी कि दक्षिणा चुकाने तक उन्हें वह सब सहना ही था। समस्त राजदरबारी अपने प्रिय राजा की मनोदशा पर व्यथित थे।

साधु ने अपने कमंडल से जल लेकर उसे अभिमंत्रित किया और सिंहासन पर छिड़क दिया।

“महामंत्रीजी! यदि राज्य-संचालन में आपको कोई भी कठिनाई आए तो इस सिंहासन को शीश झुकाना और हम उपस्थित होकर उसका निदान करेंगे।”

“जो आज्ञा महाराज!” महामंत्रीजी ने शीश झुकाकर कहा।

इस प्रकार हरिश्चंद्र अपनी पत्नी व पुत्र को साथ ले राज्य से निष्कासित होकर चल पड़े। साधु महाराज आगे-आगे चल रहे थे।