Satyavadi Harishchandra - 2 books and stories free download online pdf in Hindi

सत्यवादी हरिश्चंद्र - 2 - स्वप्न-दान

..स्वप्न-दान..

‘‘सावधान! महातेजस्वी रघुकुल शिरोमणि दानवीर, शूरवीर, सत्यवादी राजा हरिश्चंद्र दरबार में पधार रहे हैं।’’

इसी के साथ तुमुलघोष हुआ और सभी दरबारीगण उठ खड़े हुए। फिर समवेत् स्वर में एक जयघोष हुआ, ‘‘सत्यवादी राजा हरिश्चंद्र की जय!’’

राजा हरिश्चंद्र के मुखमंडल पर सूर्य जैसा तेज था। उनकी गौरवर्ण बलिष्ठ देह से पराक्रम स्पष्ट झलक रहा था। प्रजा अपने प्रिय सम्राट् पर पुष्पों की वर्षा कर रही थी और उनकी जय-जयकार कर रही थी।

राजा हरिश्चंद्र अपने सिंहासन पर विराजमान हुए और जय-जयकार करती प्रजा को वात्सल्य से निहारा एवं हाथ उठाकर सबको इस सम्मान के लिए आभार प्रकट किया। चारों ओर से जयघोष की आवाज आ रही थी, जो महाराज के संकेत पर बंद हुई। महाराज ने दरबार में उपस्थित सभी विद्वज्जनों और प्रिय प्रजा को निहारकर एक भावपूर्ण मुसकान से सभी को प्रसन्न किया।

“ आदरणीय महामंत्रीजी!’’ राजा हरिश्चंद्र सौम्य वाणी में बोले, ‘‘अवध की कुशलता के समाचार बताइए। हमारे राज्य में किसी को कोई दुःख तो नहीं है?’’

‘‘महाराज!’’ महामंत्री ने आदरभाव से कहा, ‘‘अवध की प्रजा का पालन करनेवाले आप जैसे दयालु सम्राट् के होते दुःख तो अवध की सीमा में भी प्रवेश नहीं कर सकता। आपकी सत्य और धर्म में निष्ठा देखकर श्री और समृद्धि ने आपके राज्य के प्रत्येक नागरिक को सर्वसुख संपन्न कर दिया है।’’

“यह सब श्रीहरि की कृपा का फल है। उन्होंने हमें निमित्त बनाकर अपनी प्रजा की सेवा का उत्तरदायित्व सौंपा है और हम अपनी पूर्ण निष्ठा से इस कार्य को करते रहने का प्रयास करते हैं।’’

‘‘महाराज! अवध की प्रजा का सौभाग्य है, जो परम् पिता ने इतनी दयालुता दिखाई कि पुण्य-पावनी सलिला सरयू के तट पर बसे अवध ही नहीं, अपितु समस्त भूमंडल पर आपकी सत्यवादिता, धर्मपरायणता और न्यायशीलता की कीर्ति चहुँओर फैल रही है। प्रजा अपने सम्राट् को आदर्श मानकर अपने-अपने जीवन में सत्य और शुचिता का पालन कर रही है। नगरसेवक निश्चिंत होकर अपने कर्तव्यों का पालन कर रहे हैं और कहीं से किसी अप्रिय विवाद या घटना का समाचार नहीं मिलता। नगर के चारों वर्ग अपने-अपने कर्म व कर्तव्यों में लीन हैं। दिन-रात ब्राह्मण वर्ग धार्मिक कार्यों से प्रजा में धर्म का पालन करने की चेतना बनाए हुए हैं। वेदपाठ, यज्ञ, हवन और भागवत पाठ कर राज्य में धर्म और अध्यात्म की ज्योति जलाए हुए हैं। कृषक वर्ग श्रमशीलता से अपने कर्तव्य का पालन कर रहा है और राज्य में खाद्यान्न का प्रचुर भंडार रखता है। वणिक वर्ग पूरी ईमानदारी से आवश्यक वस्तुओं का क्रय-विक्रय कर रहा है तो दास वर्ग भी अपनी सेवा से नगर को स्वच्छ और सबको सुखी रखे हुए है।’’

“महामंत्रीजी! हमें प्रसन्नता है कि हमारी प्रजा के हर वर्ग में अपने कर्तव्य के प्रति जागरूकता है। यद्यपि वर्गीय-पद्धति से भेदभाव का आभास होता है, परंतु हमारी दृष्टि में सब समान हैं। आप राज्य में इस ओर भी दृष्टि रखें कि कहीं किसी को वर्ग के आधार पर पक्षपात का शिकार तो नहीं होना पड़ रहा। यदि ऐसा हुआ तो यह हमारे लिए लज्जा का विषय होगा।”

“महाराज! राज्य में कहीं किसी भेदभाव या पक्षपात का चिह्न तक नहीं है । आपकी दूरदर्शिता से सब सुविधाओं का समान वितरण समुचित ढंग से हो रहा है और धनी-निर्धन जैसा शब्द भी हमारे यहाँ नहीं है।”

“इस सबके लिए हम भगवान् श्रीहरि को ही श्रेय देना चाहेंगे, जो उन्होंने हमें ऐसी सभ्य, श्रमशील और स्नेहिल प्रजा का शासक बनाया।” राजा हरिश्चंद्र ने ईश्वर का धन्यवाद करते हुए कहा, “हमारी श्री प्रभु से सदैव यही प्रार्थना है कि हम अपने कर्तव्य का भली-भाँति निर्वाह करते रहें, ऐसी शक्ति और सद्बुद्धि हमें प्रदान करते रहें।”

“महाराज की जय हो!” तभी द्वारपाल ने दरबार में प्रवेश किया, “एक तेजस्वी साधु दरबार में आने की इच्छा से महाराज की आज्ञा पाने की प्रतीक्षा कर रहे हैं।”

‘‘महामंत्रीजी! आप स्वयं उन मुनीश्वर को आदर सहित दरबार में ले आएँ । ” राजा हरिश्चंद्र ने कहा।

“जो आज्ञा महाराज!” महामंत्री दरबार से बाहर की ओर मुख्य द्वार पर पहुँचे, जहाँ एक युवा तेजस्वी साधु एक हाथ में दंड और दूसरे हाथ में कमंडल लिये खड़े थे। महामंत्री ने उन्हें साष्टांग प्रणाम किया।

“आयुष्मान भवः !” साधु ने ओजस्वी स्वर में कहा, “हम यहाँ राजा हरिश्चंद्र की अपार कीर्ति सुनकर उनके दर्शन को आए हैं।”

“मुनिश्वर! महाराज स्वयं आपके दर्शन करना चाहते हैं। आइए ।”

वह तेजस्वी साधु महामंत्री के साथ दरबार की ओर चल पड़े। उनके प्रवेश के साथ ही राजा हरिश्चंद्र सहित सभी दरबारियों ने अपने-अपने आसन छोड़कर उन्हे प्रणाम किया।

“हे मुनिवर ! हमारा सौभाग्य कि आप इस दरबार में पधारे और हम सबको अपने दर्शन देकर कृतार्थ किया।” राजा हरिश्चंद्र ने कहा, “आइए, आसन ग्रहण कर इस दरबार की शोभा बढ़ाइए |”

साधु आगे बढ़कर राजसिंहासन पर बैठ गए तो राजा हरिश्चंद्र के संकेत पर वहाँ जल लाया गया और साधु के चरण पखारे गए। बड़े सेवाभाव से राजा ने अपना धर्म-पालन किया।

“अद्भुत!” साधु ने कहा, “हम समस्त भूमंडल पर भ्रमण कर चुके हैं और अनेक राजाओं के दरबार में हमें सम्मान भी मिला है, परंतु हे नृपश्रेष्ठ! तुम्हारा आतिथ्य सबसे विलग और विभोर कर देनेवाला है। सत्य ही तुम उस कीर्ति के अधिकारी हो, जो त्रैलोक्य में फैली हुई है।”

“मुनिश्वर! जिन चरणों ने समस्त भूमंडल का भ्रमण किया है, वे साधारण तो नहीं हो सकते। ऐसी चरणरज पाकर तो हम सांसारिक जीव मोक्ष पाते हैं। यह हमारा सौभाग्य है कि हम उन महान् चरणों को स्पर्श कर सके, जो भूमि के कणकण में व्याप्त प्रभुसत्ता से परिचित हैं।”

“अहा! जैसा सुना, वैसा ही पाया ।” साधु ने प्रशंसा भरे स्वर में कहा, "हे अवध नरेश! आपकी कीर्ति सुनकर हम स्वयं को यहाँ आने से न रोक सके।”

“यह तो मेरा परम् सौभाग्य है ऋषिवर कि बिना किसी प्रयास के मुझे आप जैसे तेजस्वी मनीषी के दर्शन प्राप्त हो गए।”

“अहा! आपका यह सिंहासन तो अति सुखदायी है राजन्!” साधु ने आत्मविभोर होते हुए कहा, “हम साधुजन इस प्रकार के स्वर्गिक सुख से संबंध तो नहीं रखते, परंतु आज इस परम् सुख ने हमें इसकी अनुभूति करा ही दी । सत्य ही सुना था कि रघुकुल तिलक राजा हरिश्चंद्र के दर्शन मात्र से भी ऐसे सुख की अनुभूति होती है। हम बहुत प्रसन्न हुए राजन्!”

“मुनिवर ! यह तो आपकी दयालुता है, जो बिना किसी आतिथ्य के ही आप मुझ पर इतने प्रसन्न हैं। अब कृपा करके मेरे योग्य कोई सेवा बताएँ ।”

‘‘सेवा, राजन्! हमें तो इस सिंहासन पर बैठकर ही सभी सुखों की अनुभूति हो गई है। इसके सुख ने ही हमारा हृदय तृप्त कर दिया है। अधिक सुख और सेवा तो साधुता के विपरीत है। अतः अब हमें सिंहासन छोड़ना ही उचित लगता है।”
साधु ने सिंहासन छोड़ दिया।

“मुनिश्रेष्ठ! आप सिंहासन पर विराजमान रहें और हमें अपनी सेवा का अवसर दें।” राजा हरिश्चंद्र ने विनती की।

“राजन्! राजसिंहासन पर विराजने का अधिकार केवल राजा को ही होता है।”

“प्रभो! सिंहासन पर विराजनेवाला राजा होता है और आप इस सिंहासन पर बैठे तो आप ही राजा हुए।”

“अर्थात्...।” साधु पुनः सिंहासन पर बैठकर आश्चर्य व्यक्त करते हुए बोले, “अर्थात् हम अवध के राजा हैं।”

“निस्संदेह मुनिवर!” राजा हरिश्चंद्र ने हाथ जोड़ते हुए कहा ।

‘‘राजन्! यदि यह आतिथ्य की औपचारिकता मात्र है तो फिर हमें कुछ नहीं कहना और यदि सिंहासन पर बैठनेवाला राजा होता है, ऐसा कोई नियम होता है तो हमें आपके व्यवहार में औपचारिकता क्यों दिख रही है।” साधु ने रहस्यपूर्ण स्वर में कहा।

“मैं... मैं कुछ समझा नहीं मुनिवर !”

“राजन्! यदि हम इस समय राजा हैं तो आप हमें बार-बार 'मुनिवर' कहकर क्यों संबोधित कर रहे हैं? क्या पद बदलते ही विशेषण नहीं बदल जाते।”

“मुझे क्षमा करें महाराज! मुझसे संबोधन में त्रुटि हुई।'

“हम प्रसन्न हुए कि आपने स्पष्ट कर दिया कि हमारा सिंहासन पर बैठकर राजा होना मात्र औपचारिकता नहीं थी। "

“महाराज! आप सिंहासन पर विराजमान हैं और आप ही राजा हैं। हम सब आपकी प्रजा हैं। आपका प्रत्येक आदेश हमारे लिए शिरोधार्य होगा।”

“इसका तात्पर्य तो यह हुआ कि यदि हम स्वेच्छा से सिंहासन न छोड़ें तो हम ही राजा हुए। आपके पास तो संभवतः बल प्रयोग के अतिरिक्त और कोई मार्ग नहीं होगा।”

‘‘महाराज!” हरिश्चंद्र ने विनयपूर्वक कहा, “आप यहाँ के राजा हैं और हम आपकी प्रजा। अवध की प्रजा में कभी अपने राजा के प्रति कैसा भी रोष नहीं रहता। बल-प्रयोग तो दूर की बात है, हम अथवा कोई कभी भी आपके सम्मान से विलग नहीं है।”

“अति सुंदर। वास्तव में आप एक आदर्श राजा हैं। अब हमें पूर्ण विश्वास हो गया है कि हम जिस प्रयोजन से यहाँ आए हैं, वह अवश्य ही सिद्ध होगा।” साधु ने सिंहासन छोड़कर कहा, “इस सिंहासन पर आप ही विराजिए राजा हरिश्चंद्र !” सिंहासन पर कैसे बैठ सकते हैं?"

“भगवन्! आपकी उपस्थिति में हम सिंहासन पर कैसे बैठ सकते है?”

“नृपश्रेष्ठ! इस समय हम याचक हैं और इस रिक्त सिंहासन से याचना करना तो व्यर्थ होगा।” साधु रहस्यमयी वाणी में बोले, “अतः आप सिंहासन पर विराजें और हमारी याचना सुनें।”

“जो आज्ञा भगवन्!” राजा हरिश्चंद्र सिंहासन पर बैठ गए।

“हे रघुकुल शिरोमणि!” साधु ओजपूर्ण स्वर में बोले, “हम वनों-जंगलों में भटकनेवाले साधु एक विशेष प्रयोजन से अवधपुरी पधारे हैं। हमें आशा है कि आप हमें निराश नहीं करेंगे। यह भी सत्य है कि हम एक महान् उद्देश्य के लिए यहाँ उपस्थित हैं, जिससे जगत्-कल्याण जैसा पवित्र कार्य जुड़ा हुआ है। अतः हे सत्यवादी राजा, हम आपसे अपने इस उद्देश्य में सहयोग के अभिलाषी हैं।”

“हे मुनिवर ! आप हमें आदेश करें।”

“आदेश नहीं, याचना कहो अवध नरेश! जगत् के कल्याण हेतु हमें जो वस्तु चाहिए, वह याचना से ही प्राप्त होकर फलीभूत होगी। वैसे भी साधु-धर्म में याचना का ही महत्त्व है ।”

राजा हरिश्चंद्र अभी तक उस तेजस्वी साधु के विचित्र व्यवहार को नहीं समझ सके थे, परंतु उन्हें कोई आश्चर्य नहीं हो रहा था। साधुओं का व्यवहार विचित्र ही पाया जाता था। इतना तो फिर भी लक्षित होता था कि वह साधु किसी विशेष प्रयोजन के लिए भूमिका बना रहा था।

“ऋषिवर! आप अपनी इच्छा प्रकट कर हमें सेवा का अवसर प्रदान करें।”

‘अवश्य राजन्! इससे पूर्व आप हमें अपनी पूर्ण संतुष्टि कर लेने का अवसर दीजिए, क्योंकि हम अपने प्रयोजन को निष्फल होता देखने की स्थिति में नहीं हैं।” साधु ने गंभीरता से कहा।

‘‘प्रभो! आप जैसे भी संतुष्ट हों, हमें स्वीकार है।”

“तो आप हमें तीन वचन दीजिए कि जगत्-कल्याण के इस पवित्र कार्य में हम जो भी आपसे माँगेंगे, वह आप हमें सहर्ष देंगे।”

“हम आपको वचन देते हैं कि आप जो भी माँगेंगे, हम आपको देंगे।”

‘‘राजन्! आप हमें वचन दे चुके हैं और समस्त भूमंडल पर आपकी कीर्ति ‘प्राण जाए पर वचन न जाए' के कारण ही फैली है। अतः अब हमें कोई शंका नहीं कि हम यहाँ से निराश होकर लौटेंगे।”

‘‘भगवन्! आप निश्चिंत रहें।” राजा हरिश्चंद्र बड़े धैर्य से बोले, “आपकी कृपा से हम वचन का महत्त्व भली-भाँति जानते हैं और रघुकुल की इस परंपरा को हम कदापि क्षीण नहीं होने देंगे, फिर भले ही इस वचन की पूर्ति में हमें अपने प्राण भी देने पड़ें तो हमें कोई संकोच नहीं होगा।”

सभी दरबारी मौन रहकर उस विचित्र व्यवहारवाले साधु की बातें सुन रहे थे, लेकिन किसी की समझ में कुछ भी नहीं आ रहा था।

“हे नृपश्रेष्ठ!” साधु ने कहा, “अब आप त्रिवाचा हो चुके हैं और हमें आशा है कि वचन-पालन की परंपरा में अग्रणी कुल के अग्रणी राजा वचनहार हो सकते हैं। अतः अब हम अपनी याचना प्रकट करते हैं।'

“निःसंकोच ऋषिवर!”

“हे राजन्! हम वन-वन भटकनेवाले साधु हैं और सांसारिक सुखों में हमारी तनिक भी लिप्तता नहीं थी, परंतु आज आपके सिंहासन पर बैठने से जो दिव्यानुभूति हुई, उसने हमें विचलित कर दिया। अतः हे राजन्! हमें अपने वचनों के बदले यह सिंहासन दान में देना स्वीकार करें।”

साधु के वचनों से सभासद स्तब्ध रह गए, जबकि राजा हरिश्चंद्र मंद-मंद मुसकरा रहे थे।

“ऋषिवर!” राजा ने पूछा, “यह कैसी विचित्र लीला कर रहे हैं आप। यह सिंहासन तो हमने स्वतः आपको अर्पित कर दिया था, फिर यह शब्दों ( वचन) का विचित्र जाल क्यों? क्या आपको हमारे प्रति कोई संदेह था? क्या हमारे कुल की परंपराओं से आप अनभिज्ञ थे? क्या आपको संदेह था कि हरिश्चंद्र दान के अवसर पर पीछे हट जाएगा?”

“राजन्! याचक किस प्रकार और क्या माँगे, इससे दानी को क्या लेना-देना ? अब प्रश्न उठता है कि दानी इस परिस्थिति का सामना कैसे करेगा?"

“मुनिवर ! निश्चय ही आप रघुवंशियों के इतिहास से पूर्ण परिचित नहीं हैं, अन्यथा अपना इतना समय भूमिका बनाने में न गँवाया होता। हम उस श्रेष्ठ राजा रघु के वंशज हैं, जिसकी कीर्ति-पताका तीनों लोकों में फैल रही है तो इसीलिए फैल रही है कि हमारी परंपरा में वचन को प्राण से भी प्रिय माना गया है। यह शंका तो किसी को होनी ही नहीं चाहिए कि हम अपने पूर्वजों के बताए पथ से तिल भर भी विचलित हो सकते हैं। यह सिंहासन तो तुच्छ है, वचन के लिए हम अपना मस्तक काटकर आपके श्रीचरणों में अर्पित कर सकते हैं।” राजा हरिश्चंद्र ने धैर्य और संकल्प के साथ अपना राजमुकुट उतारकर साधु के चरणों में अर्पित कर दिया।

क्षण भर में बदले इस घटनाक्रम ने दरबार को सन्न कर दिया ।

अधिकांश दरबारियों के नेत्रों से रोष झलक रहा था। उस साधु का वह कपटपूर्ण व्यवहार किसी को भी अच्छा नहीं लगा था, परंतु सब मौन और विवश थे। राज-मर्यादा का उल्लंघन करने का साहस किसी में नहीं था।

“धन्य हो, धन्य हो वीर शिरोमणि राजा हरिश्चंद्र !” साधु ने राजमुकुट अपने हाथों में उठाया, “तुम्हारी सत्यवादिता और वचन-पालन के समक्ष सूर्य का तेज भी मंद है, पवन की गति भी मंद है और पर्वतों की दृढ़ता भी गौण है। तुमने एक साधु को अपना सर्वस्व अर्पण कर इस संसार में युगों-युगों तक अपनी अमर कीर्ति फैला दी है। अब हम यहाँ के राजा हैं और इस राज्य में हमारा आदेश प्रत्येक नागरिक को मानना होगा। "

“अवश्य महाराज! अवध की प्रजा अपने राजा की हर आज्ञा का पालन करने में अपना सौभाग्य समझती है । "

“फिर तो आप भी हमारी प्रजा के नागरिक हुए।"

“हूँऽऽऽ।” साधु ने दरबार में दृष्टि दौड़ाई तो सभासदों के नेत्रों में अपने प्रति रोष को स्पष्ट देखा और मुसकराकर कहा, “हे हरिश्चंद्र! अभी हम अपने सिंहासन को सँभालने में असमर्थ हैं, क्योंकि अभी हमारे पास समय का अभाव है। हमें अभी कई अन्य कार्य करने हैं, इसीलिए हम तुम्हें ही यहाँ का कार्यवाहक राजा नियुक्त करते हैं। उचित समय आने पर हम तुम्हें पदभार से मुक्त कर देंगे।”

“जैसी आपकी आज्ञा महाराज!” हरिश्चंद्र ने सिर नवाकर कहा।

साधु ने हरिश्चंद्र के शीश पर राजमुकुट रख दिया।

“स्मरण रहे कि अब आप केवल अवध के कार्यवाहक शासक हैं और यहाँ के वास्तविक शासक हम हैं। हम कभी भी अपना कार्य समाप्त होने पर आपसे अपना अधिकार वापस ले लेंगे।” साधु ने चेतावनी देते हुए कहा।

राजा हरिश्चंद्र ने सिर नवाकर उस साधु को प्रणाम किया। साधु उनको आशीर्वाद देकर तेज कदमों से वहाँ से प्रस्थान कर गए। कई क्षणों तक दरबार में सन्नाटा छाया रहा।

इसी के साथ अपने महल में शयनकक्ष में सो रहे अवध नरेश राजा हरिश्चंद्र हड़बड़ाकर उठ बैठे और अपने चारों ओर देखने लगे। शयनकक्ष में बाहर से झाँक रही मद्धम रोशनी में बहुत देर तक कुछ भी दिखाई न दिया। एक विचित्र - सी स्थिति में कई क्षण बीत जाने पर उन्हें संज्ञान हुआ कि अभी उन्होंने एक विचित्र।स्वप्न देखा था। एक ऐसा स्वप्न, जिसमें एक साधु ने उन्हें शब्दजाल में फँसाकर वचनबद्ध कर दिया और स्वयं अवध के राजा बन बैठे। उन्होंने कक्ष में निकट के पलंग पर सोती हुई अपनी पत्नी तारामती को देखा, जिनकी बगल में उनका पुत्र रोहिताश्व सो रहा था।

राजा हरिश्चंद्र ने एक दीर्घ श्वास छोड़ी और स्वप्न की विचित्रता ध्यान में आते ही अकस्मात् उनकी हँसी छूट गई। उनकी इस हँसी ने रानी तारामती की निद्रा में व्यवधान डाला और वे चौंककर उठ बैठीं।

“म...महाराज!” रानी तारामती ने आश्चर्य और भय से मिश्रित स्वर में पूछा, “क... क... क्या हो गया महाराज? अ... आप अनायास ही इस समय...।”

“कुछ नहीं प्रिये! बस...बस ऐसे ही...।” राजा हरिश्चंद्र ने कहा और पुनः हँस पड़े।

रानी तारामती अपने पलंग से उतरकर उनके समीप आईं।

“स्वामी! क्या कारण है, जो आप इस प्रकार हँस रहे हैं? अभी तो रात्रि में कुछ समय शेष है। अतः यह तो आपकी निद्रा का समय है।' ""

“प्रिये! हम निद्रामग्न ही तो थे।" राजा हरिश्चंद्र ने अपनी हँसी को वश में करते हुए कहा, “घोर निद्रा में ही तो हमने एक ऐसा विचित्र स्वप्न देखा है, जिसे स्मरण करते ही हमें अनायास हँसी आ गई।”

‘‘नाथ! हँसी तो निद्राभंग होने के पश्चात् स्वप्न के स्मरण होने पर आई है। वास्तविकता तो यही है कि स्वप्न की गंभीरता ने आपकी निद्रा उड़ा दी।

“हाँ तारा!” हरिश्चंद्र ने अक्षरशः अपना स्वप्न तारामती को सुना दिया।

“बड़ा ही विचित्र स्वप्न था।” तारामती आश्चर्य से बोली, एक विचित्र व्यवहार का साधु आपकी कल्पना में साकार हो गया और आपसे सारा राजपाट दान में ले लिया तथा इसके उपरांत आपको कार्यवाहक के रूप में नियुक्त करके चले गए।

“हाँ प्रिये!’’ हरिश्चंद्र ने मुसकराकर कहा, “हमें उन साधु की दान माँगने की भूमिका बनाने का ढंग बड़ा विचित्र लगा।”

“ऐसा तो नहीं है कि पिछले कुछ दिनों में ऐसे कोई साधु आपके दरबार आए हों और आपके अवचेतन पर उनकी प्रतिछाया रह गई हो, जिसने निद्रा की स्थिति में उसे कौतुकपूर्ण साधु के रूप में प्रस्तुत कर दिया?”

“नहीं प्रिये! समीप के बीते दिनों में तो ऐसे कोई साधु हमारे दरबार में नहीं आए और...और हमने स्वप्न में जिन साधु को देखा है, वे निश्चित ही अपरिचित हैं। हमने पूर्व में उन्हें कभी नहीं देखा और हमारी स्मरण शक्ति से तो तुम परिचित हो।”

“स्वप्न तो स्वप्न होते हैं स्वामी! अवचेतन की कल्पना शक्ति का यह लोक बड़ा विचित्र और कौतुकभरा होता है। व्यक्ति यथार्थ में जिस वस्तु से परिचित नहीं होता, वह स्वप्न में साकार रूप ले लेती है। यद्यपि स्वप्न का यथार्थ से को संबंध नहीं होता, परंतु यह भी सत्य है कि इन स्वप्नों में भूतकालीन यथार्थ का आधार तो होता ही है ।”

“और यदि कहीं हमारे स्वप्न में भविष्य का आधार हुआ तो...।” हरिश्चंद्र ने तनिक मुसकराकर कहा, "यह स्वप्न सत्य हो गया तो?”

“स्वामी! अब आप हमें भयभीत कर रहे हैं। इतना तो हम भी समझते हैं कि स्वप्न कभी भविष्यक यथार्थ में नहीं बदलते, क्योंकि अवचेतन मन में भविष्य से संबंधित कुछ भी नहीं होता। फिर भी हम आपकी यह बात गंभीरता से लें तो यह भी कह सकते हैं कि इसका परिणाम स्वप्न की भाँति तो नहीं होगा।”

“ऐसा क्यों प्रिये?”

“क्योंकि अब तो आपके चेतन में भी यह स्वप्न अपनी विचित्रता के कारण समाया हुआ है और इतने तो ज्ञानी आप भी हैं कि ऐसे किसी शब्दजाल में नहीं फँसनेवाले।” रानी ने हँसकर कहा।

“यह तो तुमने सत्य ही कहा प्रिये ! एक प्रकार से इस स्वप्न ने हमें एक नई शिक्षा दी है, परंतु हमारा मूल प्रश्न तो तुमने टाल ही दिया।”

‘“स्वामी!’’ तारामती गंभीरता से बोलीं, “यदि आप मेरे नारी-मन को टटोल रहे हैं तो मैं इतना ही कहूँगी कि मेरा सुख, वैभव और ऐश्वर्य सब आप ही हैं। आपके अतिरिक्त अन्य किसी भौतिक पदार्थ के प्रति मेरी आसक्ति शून्य है।”

“हम जानते हैं प्रिये !” हरिश्चंद्र ने प्रेम से रानी का हाथ अपने हाथ में लिया और अनुराग भरे स्वर में बोले, “हमने किन्हीं पूर्वजन्मों में अवश्य ही कोई तपस्या की है, जो हमें अर्धांगिनी के रूप में तुम जैसी विदुषी, सुशील और धर्मपरायण देवी मिली।”

“नाथ! यदि यही मैं कहूँ तो कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी।”

हरिश्चंद्र ने अपनी प्राणप्रिया को अपने अंकपाश में समेट लिया। वह विचित्र स्वप्न उस प्रेममयी समर्पण के बीच लुप्तता की ओर चल पड़ा। फिर कई दिवस, पक्ष और माह व्यतीत हो गए तथा उस विचित्र स्वप्न की सभी स्मृतियाँ राजा हरिश्चंद्र के मानसपटल से धूमिल हो गईं।

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