वजूद - 30 - अंतिम भाग prashant sharma ashk द्वारा फिक्शन कहानी में हिंदी पीडीएफ

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वजूद - 30 - अंतिम भाग

भाग 30

शंकर के मृत शरीर के पास पहुंंचने के बाद अविनाश ने शंकर के सिर पर हाथ रखा, उसकी आंखों में आंसू आ चुके थे। उसका दिल भर चुका था। उसका दिल तो चाह रहा था वो फूट-फूटकर रोए पर वो ऐसा कर नहीं सकता था। उसने अपनी आंखों से पौछे और फिर उठकर खड़ा हो गया। अब उसने कहा-

क्या कोई इसे पहचानता है ? अविनाश खास तौर पर प्रधान गोविंदराम को देखते हुए कहा।

क्या हम पास से देख सकते हैं ? इस बार प्रधान ने अविनाश से प्रश्न किया।

जी बिल्कुल, आइए। अविनाश ने जवाब दिया।

प्रधान, सुखराम और गांव के कुछ लोग लाश के पास पहुंच गए थे। सभी लोगों ने बड़े गौर से लाश को देखा और फिर एक-दूसरे को देखते हुए लगभग सभी लोग एक साथ बोले-

अरे, ये तो शंकर है।

अविनाश ने फिर प्रश्न किया- क्या आपको यकीन है कि यह शंकर ही है ?

प्रधान ने कहा- साहब बचपन से देखा है इसे। हम पहचान करने में भूल नहीं कर सकते हैं।

एक बार फिर गौर से देख लीजिए प्रधान जी क्योंकि यह शव की शिनाख्त का मामला है। अविनाश ने फिर कहा।

साहब ये शंकर ही है। इस बार सुखराम ने अविनाश से कहा।

क्या आप लोग इसकी शिनाख्त कर रहे हैं कि यह शंकर ही है ? अविनाश ने एक बार फिर से सभी लोगों से प्रश्न किया।

सभी ने एक साथ कहा- हां, हां साहब यह शंकर ही है। अगर आप कहें तो हम लिखकर दे सकते हैं।

अविनाश ने एक बार शंभू से कहा- शंभू यह शंकर ही है ऐसा एक कागल पर लिखवाकर इन सभी लोगों के हस्ताक्षर करा लो। उस कागज में यह भी लिखना कि गांव के प्रधान के साथ गांव के करीब 20 लोगों ने इस शव की शिनाख्त शंकर के रूप में की है।

शंभू ने अविनाश ने जो कहा वो कागज पर लिखा और सभी से कागल पर हस्ताक्षर कराकर अविनाश को दे दिया।

अविनाश ने उस कागज को बड़े गौर से देखा और फिर कहा- क्या आपको पता है कि शंकर की मौत कैसे हुई है ?

नहीं साहब क्या हुआ इसे ? प्रधान ने सवाल किया।

इसकी हत्या हुई है। अविनाश ने कहा।

क्या इसकी हत्या हुई है, पर किसने की और क्यों की। शंकर तो बहुत ही सीधा लड़का था। इसका किसी से क्या बैर था जो इसकी हत्या कर दी। प्रधान ने चौंकते हुए कहा।

प्रधान की बात सुनने के बाद अविनाश के सब्र का बांध टूट गया था। उसने जोर से चिल्लाते हुए कहा- इसकी हत्या आप सभी गांव वालों ने मिलकर की है।

गांव वाले चौंक गए थे। अविनाश ने बात ही कुछ ऐसी कही थी कि गांव के हर व्यक्ति को चौंकना ही था। वे प्रश्न भरी नजरों से अविनाश को देख रहे थे।

अविनाश ने फिर कहा- जी, हां चौकिंए मत शंकर की हत्या आप सभी ने की। आपको याद है प्रधान जी बाढ़ राहत की राशि के लिए मैंने आपसे कहा था कि अगर गांव के कुछ लोग एक कागज पर लिखकर दे दे कि यह शंकर ही है तो इसे वो राशि मिल जाती पर उस दिन किसी भी गांव के व्यक्ति ने इसकी शिनाख्त नहीं की थी, जबकि यह जिंदा था। आज जब ये मर गया तो पूरे गांव ने इसे पहचान लिया। पहचाना साथ ही लिखकर भी दे दिया कि ये शंकर ही है। अगर आप लोगों ने उस दिन यह लिखकर दे दिया होता तो शायद आज शंकर ऐसे नहीं पड़ा होता। आज यह आप सभी लोगों का हिस्सा होता। आज शंकर जिंदा होता प्रधान जी, आज शंकर जिंदा होता। इतना कहने के साथ ही अविनाश रो पड़ा था। वो शंकर के मृत शरीर के पास बैठ गया था। अविनाश ने शंकर का सिर अपनी गोद में रख लिया था। वो उसके सिर पर हाथ फिरा रहा था।

अविनाश की बात को सुनने के बाद गांव का लगभग हर व्यक्ति सिर झुकाए खड़ा था। अविनाश की आंखों से अब भी आंसू बह रहे थे। करीब पांच मिनट बाद शंकर फिर खड़ा हुआ। उसने फिर बोलना शुरू किया

आप लोगों ने कभी भी शंकर कोअपना माना ही नहीं था। वो आपके लिए सिर्फ एक काम करने वाले मजदूर से ज्यादा कुछ नहीं था। प्रधान जी, सुखराम जी, आपने तो शंकर को बचपन से देखा था फिर भी आपका दिल उस दिन नहीं पसीजा कि आखिर अब शंकर क्या करेगा। अरे कुछ नहीं कर सकते थे तो क्या पूरा गांव एक इंसान का खर्च नहीं उठा सकता था। क्या शंकर पूरे गांव को इतना भारी लग रहा था कि उसे उसके गांव में, उसके अपने लोगों के बीच ना रहने की जगह मिली और ना ही दो वक्त की रोटी मिल सकी। कैसे उसके अपने थे आप लोग। आप लोग चाहते थे तो शंकर कि ये हालत कभी नहीं होती। पर आप लोगों ने ऐसा कभी चाहा ही नहीं। क्योंकि आपके काम करने वाले इंसान के लिए आप इतना क्यों सोचेंगे ? प्रधान जी देखिए यह वहीं शंकर है जिसे आप अपने घर काम के लिए बुलाते थे तो उसे खीर खिलाया करते थे। सुखराम जी यह वहीं शंकर है जो कभी भी आपके घर से रोटी और गुड खाए बगैर नहीं निकला था। गांव का शायद ही ऐसा कोई व्यक्ति हो जिससे शंकर ना जुड़ा हो और कभी ना कभी उसका कोई काम शंकर ने ना किया हो।

प्रधान जी पता है ये कैसे मरा ? अविनाश ने प्रधान से प्रश्न किया।

प्रधान ने बहुत धीमी आवाज में कहा- नहीं।

सुखराम जी मंदिर से गांव कितनी दूरी पर होगा ? इस बाद अविनाश ने सुखराम से प्रश्न किया।

सुखराम ने भी दबी सी आवाज में कहा- यही कोई 400 या 500 मीटर।

प्रधान जी शंकर की मौत भूख और प्यास से हुई है। उसके शरीर में इतनी भी ताकत नहीं बची थी सुखराम जी कि वो ये 400 या 500 मीटर की दूरी तय कर पाता। सोचिए एक बार कि वो पांच दिन कैसे भूख और प्यास से लड़ा होगा। उसका गांव उसके इतने पास था पर उसे यकीन हो गया था कि गांव तो उसका है पर उस गांव में उसका कोई नहीं है, इस कारण वो गांव छोड़कर जा चुका था। अपने आखिरी समय में भी वो अपने गांव के पास था। शायद इसलिए क्योंकि इस गांव में उसके भाई और भाभी की यादें थी। शायद वो ही याद उसे यहां लेकर आ गई थी। अगर आप लोगों ने थोड़ी सी कोशिश की होती तो शंकर को यह मौत नहीं मिलती। इसलिए मैं कह रहा था कि इसकी हत्या आप लोगों ने की है। अगर मेरे बस में होता तो आप सभी को जेल में डाल देता क्योंकि मेरी नजर में आप लोग इस काबिल नहीं है कि आप लोगों को समाज में रहने दिया जाए। आप लोगों में इंसानियत नहीं है, और जिसकी इंसानियत मर चुकी हो उसे समाज में रहने का हक नहीं है।

इतना कहने के बाद अविनाश ने शंकर के शव को उठाया और वहां से चल दिया। गांव के लोग अविनाश को और शंकर के शव को देख रहे थे। सभी के ना सिर्फ सिर झुके थे, बल्कि सभी की आंखें भी झुकी हुई थी। कानूनी कार्रवाई करने के बाद अविनाश ने ही शंकर के शव का अंतिम संस्कार किया। हालांकिअंतिम संस्कार में पूरा गांव शामिल था पर अब अविनाश ने किसी से कोई बात नहीं की थी, पर उसकी नजरें बोल रही थी और गांव के लोग उसकी नजरों को समझ भी रहे थे। कुछ देर बाद एक-एक कर गांव के सभी लोग वहां से जा चुके थे और अविनाश अब भी वहीं बैठा था। उसने आखिरी बार शंकर को प्रणाम किया और कहा कि तेरे जिंदा रहते हुए तेरा कोई वजूद नहीं था पर तेरे मर जाने के बाद तुझे पहचान मिल गई थी। मुझे माफ कर देना शंकर, मुझे माफ कर देना। एक बार फिर अविनाश की आंखों से अश्रुधारा बह निकली थी।

 

जाने कितने ही अपने वजूद की तलाश में भटक रहे हैं,

कभी गैंरों से तो कभी अपनों से रोज लड़ रहे हैं,

कोई शिकवा भी करता है कोई गिला भी रखता है,

अपने हिस्से में अपने हिसाब का वजूद रखता है,

और कुछ ऐसे भी...

वजूद ही उसकी जरूरत थी, वजूद ही उसकी तलाश थी,

वजूद की ही थी हसरत उसकी वजूद ही उसकी प्यास थी,

जिंदा था जब तक उसका अपना वजूद गिर गया था,

जब मर गया तो उसे उसका वजूद मिल गया।

जब तक जिया तब तक बेनाम रहा वो,

नाम शंकर था सबके काम करता रहा वो,

देता रहा सबको अपने वजूद की दुहाई,

उसकी हालत पर किसी को दया ना आई,

भूखा प्यासा एक दिन अंधेरी दुनिया में गुम हो गया,

लगा कुछ ऐसा जैसे भगवान से इंसान रूठ गया,

लगा कुछ ऐसा जैसे भगवान से इंसान रूठ गया,

लगा कुछ ऐसा जैसे भगवान से इंसान रूठ गया...

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