वो माया है.... - 83 Ashish Kumar Trivedi द्वारा रोमांचक कहानियाँ में हिंदी पीडीएफ

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वो माया है.... - 83



(83)

सुनंदा ने चाय बनाई थी। केदारनाथ चाहते थे कि सब एकसाथ बैठकर पिएं। इसलिए किशोरी और उमा को भी बैठक में बुला लिया था। सब चाय पी रहे थे। लेकिन एकदम शांति थी। सबको यहाँ बुलाने का मकसद यह था कि केदारनाथ उन्हें समझाना चाहते थे कि इन हालातों में निराश होकर बैठने से काम नहीं चलेगा। उन लोगों को अपने दुख से बाहर आना पड़ेगा। उन्होंने बद्रीनाथ से कहा,
"भइया हम आप लोगों का दुख समझते हैं। जो कुछ हुआ उससे हम खुद बहुत दुखी हैं। पर अब जो है उसे स्वीकार करना पड़ेगा।‌ इसलिए हम चाहते हैं कि आप और भाभी इस दुख से निकलने की कोशिश कीजिए। आज हम जब आए तो पूरे घर में अंधेरा पड़ा था। जिज्जी अकेले में रो रही थीं। जो भी हो पर ज़िंदगी तो जीना है। इस तरह कैसे चल पाएगा ?"
केदारनाथ की बात सुनकर बद्रीनाथ ने किशोरी की तरफ देखा। वह बहुत दुखी लग रही थीं। बद्रीनाथ ने कहा,
"केदार सच कहा तुमने। जब तक मौत नहीं आती है तब तक जीना तो है ही। पर अब हमारे अंदर तो जीने की कोई इच्छा नहीं है। उमा की हालत तो तुम देख ही रहे हो। हाँ हमारी वजह से जिज्जी भी इस माहौल में परेशान हो रही हैं। इसलिए अच्छा हो कि अगर तुम जिज्जी को अपने साथ ले जाओ। वहाँ बच्चों के बीच मन लगा रहेगा।"
बद्रीनाथ की बात सुनकर किशोरी ने अपनी चाय का गिलास नीचे ज़मीन पर रख दिया। वह बद्रीनाथ की तरफ देख रही थीं। ऐसा लग रहा था कि जो कुछ उन्होंने कहा उससे वह आहत हुई थीं। किशोरी ने कहा,
"यह कैसी बात कह गए बद्री ? तुम्हारे बहनोई के खत्म होने के बाद हम इस घर में आए। तबसे आज तक यही हमारा घर है। इस घर के आंगन से ही हमारी अर्थी उठेगी।"
बद्रीनाथ अपनी बहन का दिल नहीं दुखाना चाहते थे। उन्होंने सफाई देते हुए कहा,
"जिज्जी हम तो बस आपके बारे में सोच रहे थे। हम लोगों के दुख में आप बेवजह क्यों परेशान हों।"
"बद्री क्या तुम लोगों का दुख हमसे अलग है ? क्या हम इस परिवार का हिस्सा नहीं हैं। तुम, उमा, विशाल, पुष्कर ही हमेशा हमारा परिवार रहे हो। आज तुम चाहते हो कि हम कहीं और चले जाएं क्योंकी इस घर पर दुख आया है। तुम इतना स्वार्थी समझते हो कि परिवार पर मुसीबत आने पर हम भाग जाएंगे।"
यह कहते हुए किशोरी रोने लगीं। उमा बहुत दिनों से बातचीत नहीं कर रही थीं। पर किशोरी की बात सुनकर उन्होंने कहा,
"जिज्जी आप तो इस परिवार की मुखिया हैं। हम लोग तो हमेशा आपकी छाया में जिए हैं।"
किशोरी ने कहा,
"उमा घर का मुखिया आगे बढ़कर घर पर आई मुसीबत झेलता है। छोड़कर भाग नहीं जाता है। जीने की इच्छा तो अब बची नहीं है। पर जब भी जाएंगे चार कंधों पर इसी घर से निकलेंगे।"
अपनी बात कहकर किशोरी उठकर चली गईं। एकबार फिर शांति छा गई। केदारनाथ सोच रहे थे कि उनकी कोशिश ही उल्टी पड़ गई। सुनंदा उनके दिल का हाल समझ रही थीं। उन्होंने कहा,
"भइया सोनम के पापा आप लोगों की फिक्र में घुले जा रहे हैं। बात चिंता की है भी। आप लोग इस हालत में हैं तो हम लोग खुश कैसे रह सकते हैं। हम सोचते हैं कि रोज़ यहाँ आ जाया करें। पर क्या करें ? सोनम इस साल बारहवीं में है। उसके लिए स्कूल और कोचिंग जाना ज़रूरी है।‌ वह घर संभाल नहीं सकती है।"
बद्रीनाथ ने कहा,
"इसलिए तो हम केदार को समझा रहे थे कि हमारी फिक्र छोड़कर अब अपने घर पर ध्यान दे। यहाँ जो स्थिति है उसका तो भगवान ही मालिक है। इस स्थिति के सुधरने की कोई उम्मीद भी नहीं है।"
"भइया आप फिर वही बात करने लगे। हमने कहा ना कि हम जो कर सकते हैं करेंगे।"
केदारनाथ की बात सुनकर बद्रीनाथ ने जवाब दिया,
"केदार हम समझते हैं कि तुमको हमारी चिंता है। लेकिन यह समस्या कोई एक दो दिन की नहीं है। हमें अगर कोई मदद चाहिए होगी तो तुमसे ही कहेंगे। पर अब तुम अपने घर पर ध्यान दो। हम तो कह रहे हैं कि अब तुम और सुनंदा घर चले जाओ। बच्चियां घर पर अकेली रहें ठीक नहीं है।"
उमा ने उनकी बात आगे बढ़ाई। वह बोलीं,
"हम भी यही कह रहे हैं। तुम लोग सोनम और मीनू पर ध्यान दो। हमारे भाग्य में जो होगा झेल लेंगे। तुम लोग जाओ। हम जाकर जिज्जी को देखते हैं।"
वह बैठक से निकल गईं। बद्रीनाथ ने एकबार फिर समझाया कि वह दोनों परेशान ना हों। जब भी उन्हें ज़रूरत होगी तो फोन करके बुला लेंगे।

दिशा शनिवार की छुट्टी लेकर मनीषा के पास गाज़ियाबाद आई थी। मीडिया के माध्यम से उसे जो कुछ पता चला था उसे सुनकर वह परेशान हो गई थी। इसलिए छुट्टी लेकर आ गई थी। उसे परेशान देखकर मनीषा ने उसे समझाने का प्रयास किया था कि अब बीती बातों को भुलाकर आगे देखे। लेकिन दिशा को यह बात अच्छी नहीं लगी थी। शांतनु उससे मिलने आए थे। वह मनीषा और शांतनु के साथ खाना खा रही थी। लेकिन खाने पर उसका ध्यान नहीं था। उसने अपने सामने रखी प्लेट को छुआ तक नहीं था। शांतनु उसकी तरफ ही देख रहे थे। उन्होंने दिशा से कहा,
"डिम्पी दाल कैसी लगी ?"
अपने खयालों में डूबी हुई दिशा ने कहा,
"बहुत अच्छी है काकू......"
शांतनु ने कहा,
"डिम्पी तुमने दाल परोसी ही नहीं है।"
दिशा ने अपनी प्लेट की तरफ देखा। सिर्फ सब्ज़ी और रोटी भी। दाल नहीं थी। मनीषा ने कहा,
"जबसे आई है इसी तरह खोई हुई है। मैंने इतना समझाया कि तुम उन सारी बातों से परेशान मत हो। पुष्कर के साथ रिश्ता जोड़ा था। अब वह है नहीं। बाकी उन लोगों के साथ क्या हो रहा है उससे तुम क्यों दुखी हो रही हो ?"
दिशा ने कुछ नाराज़गी के साथ मनीषा की तरफ देखा। उसके बाद उसने शांतनु से कहा,
"काकू यह सही है कि मैंने पुष्कर से शादी की थी। लेकिन उन लोगों के साथ भी रिश्ता तो जुड़ा ही था। उन लोगों के साथ इतना कुछ हो रहा है तो कुछ तो बुरा लगेगा ही।"
मनीषा ने भी गुस्से से कहा,
"तो करना क्या चाहती हो ? उन लोगों का दुख बांटने उनके घर जाओगी। उन लोगों ने तुम्हारी कोई फिक्र की ? रिश्ता तो उन लोगों का भी है तुम्हारे साथ।"
"नहीं मम्मी मैं ऐसा कुछ नहीं करना चाहती हूँ। बस उनके लिए बुरा लग रहा है। रही बात उन लोगों ने मेरा हालचाल नहीं लिया तो उन पर भी वक्त ने सख्ती ही दिखाई है।"
शांतनु ने देखा कि माँ बेटी में इस विषय को लेकर कुछ अनबन है। उन्होंने बीच बचाव करते हुए कहा,
"मनीषा....डिम्पी ठीक कह रही है। सब जानने के बाद मुझे खुद बहुत बुरा लगा। यह तो कुछ समय उन लोगों के साथ बिता चुकी है। डिम्पी बस सिर्फ फिक्रमंद है। उनके घर जाने का उसका कोई इरादा नहीं है।"
यह सुनकर मनीषा ने कहा,
"शांतनु मैं जो कह रही हूँ इसके भले के लिए कह रही हूँ। मुझे बताओ उन लोगों की फिक्र करके कर क्या लेगी ? मैं तो चाहती हूँ कि यह अपनी ज़िंदगी में आगे बढ़े। पर यह समझने को तैयार नहीं है।"
मनीषा की बात दिशा को अच्छी नहीं लगी। उसने कहा,
"मम्मी आप यह कैसी बात कर रही हैं ? आप चाहती हैं कि अभी साल भी पूरा नहीं हुआ है और मैं पुष्कर को भुला दूँ। किसी और के साथ नई ज़िंदगी शुरू कर दूँ। मम्मी इतनी जल्दी मेरे लिए यह संभव नहीं है। मैंने पुष्कर से प्यार किया था। उसके साथ ज़िंदगी बिताने के लिए शादी की थी। मैं नहीं कह सकती हूँ कि कब मैं सब भूलकर आगे बढ़ने के लिए तैयार हो पाऊँगी।"
दिशा उठकर वहाँ से चली गई। मनीषा ने भी अपनी प्लेट खिसका दी। शांतनु ने उनकी तरफ देखकर कहा,
"डिम्पी क्या कह रही थी मनीषा ? तुमने उससे कुछ कहा है क्या ?"
मनीषा की आँखों में आंसू थे। उन्होंने कहा,
"माँ होने के नाते इसकी फिक्र रहती है। इसलिए समझाया था कि जो हुआ उससे आगे बढ़े। अपने लिए किसी को देखे। पूरी ज़िंदगी ऐसे ही तो नहीं कट सकती है।"
"उसकी ज़िंदगी ऐसे ही नहीं कटेगी। वह समझदार है। अपने लिए किसी को तलाश लेगी। लेकिन इतनी जल्दी उससे यह उम्मीद करना ठीक नहीं है।"
"मैं कह रही हूँ कि जब करना ही है तो फिर वक्त क्यों बर्बाद करना ?"
शांतनु समझ रहे थे कि मनीषा एक माँ होने के नाते कुछ अधिक ही फिक्रमंद हैं। उन्होंने अपना जीवन अकेले बिताया था। उसकी तकलीफ वह समझती हैं। पर वह यह भी जानते थे कि अपनी चिंता में वह दिशा की भावनाओं को सही तरह से नहीं समझ पा रही हैं। उन्होंने समझाते हुए कहा,
"मनीषा एक बात कहूँ नाराज़ मत होना।"
"तुम्हारी किसी बात का बुरा नहीं लगता मुझे। अच्छा नहीं लगा तो लड़ लूँगी। पर नाराज़ नहीं होऊँगी।"
"तुम एक कड़वाहट भरे रिश्ते से बाहर आई थी। फिर भी सबकुछ भूलकर मेरा हाथ नहीं थाम पाई। क्योंकी तुम मन से तैयार नहीं थी। फिर डिम्पी पर दबाव क्यों डाल रही हो। पुष्कर और उसका रिश्ता बहुत प्यारा था। उसके लिए उसकी यादों को भुला पाना आसान नहीं होगा। उसे वक्त दो। सब ठीक हो जाएगा। नहीं तो हम लोग हैं ना उसे समझाने के लिए।"
मनीषा उनकी बात पर विचार करने लगीं। शांतनु ने कहा,
"अब तुम खाना खाओ। मैं डिम्पी को लेकर आता हूँ।"
मनीषा ने प्लेट अपनी तरफ खिसका ली। शांतनु दिशा को मनाने चले गए।