प्रफुल्ल कथा - 10 Prafulla Kumar Tripathi द्वारा जीवनी में हिंदी पीडीएफ

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प्रफुल्ल कथा - 10


मैं उन दिनों में जब कि अपनी ही आत्मकथा "प्रफुल्ल कथा “ लिख रहा हूँ और इन पन्नों द्वारा आप तक पहुंचा रहा हूँ तो यह महसूस कर रहा हूँ कि आत्मकथा लेखक के लिए यह मुश्किल होता है कि वह उस संस्थान का जिक्र अपने संस्मरण में न लाए (या कम से कम लाए ) जहां उसने जीवन के 25-30 या उससे भी ज्यादे साल गुजारे हों |आकाशवाणी में काम करने वाले तमाम प्रतिभावान लोगों ने भी जब अपनी आत्मकथाएं लिखीं तो शायद उनके सामने भी यही सवाल खड़ा हुआ होगा |मैं ऐसी आत्मकथाओं में आकाशवाणी के प्रतिबिम्बन को बुरा नहीं बल्कि अच्छा ही मानता हूँ |इसी बहाने इस विशाल और किसी जमाने में बहुत चर्चित संगठन की अंदरूनी खामोशियों को जुबान मिलती रही है |
अपने छत्तीस साल से अधिक के सेवाकाल में मैंने भी तमाम प्रतिभावान बहु आयामी कलाकार स्वभाव वाले डाइरेक्टरों , अधिकारियों का साहचर्य पाया है |वह दौर ही कुछ और था और उस दौर के लोग भी | डाइरेक्टर को बहुत ज्यादा अधिकार हुआ करते थे | आकाशवाणी या दूरदर्शन में बाहरी लोगों का आजकल की तरह भेड़ियाधसान नहीं हुआ करता था |सच यह है कि प्रसार भारती बनने के बाद उस दौर में इन सरकारी नियंत्रण वाले प्रसारण माध्यमों में जो हालात बदलने का ख्वाब देखा जा रहा था वह चकनाचूर हो चला है |
आकाशवाणी को जो करीब से जानते हैं वे उसके सुनहले दौर को भी देखे होंगे |उसके कुछेक दबंग डाइरेक्टरों को भी जानते होंगे |ऐसे ही एक डाइरेक्टर थे डा. मधुकर गंगाधर जिन्होंने उन दिनों में “धर्मयुग” में छपी अपनी दो कहानियों “शेर छाप कुर्सी का रोजनामचा ”(नवंबर 1974) और “भेड़ के पीछे, भेड़ के आगे “ ( नवंबर 1989 ) लिख कर रातोंरात सुर्खियां बटोर ली थीं | आगे चलकर लिखी गई अपनी आत्मकथा “हवा पर उन्नतीस वर्ष “ में उन्होंने इन्हे भी शामिल किया है | ये दोनों कहानियाँ एक खुर्राट महानिदेशक शिंदे और दूसरा एक निदेशक प्रसाद पर लिखी गई थीं | वे अपनी आत्मकथा के बारे में स्वयं लिखते हैं –“ लेखक का भोगा हुआ सत्य जो आकाशवाणी की भीतरी प्रक्रिया एवं कार्यपद्धति की बखिया उधेड़ता है ,दिशा निर्देशकों के लिए साकछि एवं सलाहकार है |” जब यह पुस्तक छपी तो उन्होंने इसे प्रसार भारती के मुखिया को समर्पित करते हुए लिखा था –“पुस्तक समर्पण – प्रसार भारती के मुखिया को -कि अपनी पंचायत को जानलेवा बीमारियों से मुक्त कराएं |” वे निडर थे शरीर और लेखन दोनों से |मैंने उनके साथ ज्यादा तो नहीं किन्तु चार महीने इलाहाबाद में काम किया है | वे लिखते हैं-“.. सरकार में बैठे राजपुरुष और विभागीय अधिकारी इस पुस्तक के माध्यम से जान सकेंगे कि आकाशवाणी के भीतर कहाँ ,कितने और कैसे रक्तसत्रावी घाव हैं| वे चाहें तो घावों का उपचार करें| चाहें उन्हें लावारिस छोड़कर कैंसर में परिवर्तित होने दें |” उनका यह कथन लगभग सत्य साबित हुआ और आज ये दोनों संस्थान कैंसर- ग्रस्त होकर अपनी अंतिम सांसें लेते प्रतीत हो रहे हैं |
वैसे डा .गंगाधर स्वयं में भी कम विवादित नहीं थे | विवाद तो उनके जीवन से जुड़ा रहा | चाहे उनके पारिवारिक जीवन का मामला हो, उनकी पदोन्नति से जुड़ा,रिटायरमेंट के तत्काल बाद पूर्णिया से चुनाव लड़ने का हो या और तमाम मामले | लेकिन उनका खुल्लमखुल्ला बोलना या लिखना कम लोगों को आता है| इसीलिए उन्हें अगर “रेडियो का निराला” कहा जाए तो बुरा नहीं होगा |उनकी आत्मकथा के खंड हैं - हवा और जमीन के दरम्यान ,इक्कीस वर्ष लंबी सुरंग ,सेफ़्टीरेजर के ब्लेड से महाभारत लड़ने वालों के बीच और छबीली भटियारिन की सराय में , जो क्रमश उनके आकाशवाणी में व्यतीत 10,543 दिनों बाद, आकाशवाणी पटना,आकाशवाणी इलाहाबाद और फिर दिल्ली के सेवाकाल की अवधि का है | उनकी आत्मकथा आपको बांधे रखती है चाहे वह किसी “ खजुराहो कन्या को सीमा तोड उछाल” दिए जाने का प्रसंग हो ,’मुक्त’ और ‘रेणु ‘ में वर्चस्व का प्रकरण हो, आकाशवाणी में नारी देह के उपयोग का प्रकरण हो | वे लिखते हैं-“लेकिन जिस प्रकार कभी - कभी दो हाथियों –‘मुक्त’ और ‘रेणु’ में वर्चस्व की टकराहट होती रही उसी प्रकार कभी - कभी दो साडों की भिड़न्त भी आकाशवाणी का भाग- सुहाग रहा है |” और यह भी –“यह अलग शोध का विषय है कि आकाशवाणी में नारी देह का उपयोग कर वांछित फल पाने वाले कितने नर नारी हो चुके और कितने मौजूद हैं और इनके चलते आकाशवाणी की मर्यादा कितनी भंग हुई है तथा गुणवत्ता पर कितना असर पड़ा है |यह शोध कार्य मैं भविष्य की पीढ़ी के लिए छोड़ता हूँ |”वे लिखते हैं कि आकाशवाणी की 21 वर्ष की लंबी सेवा सुरंग के नौ प्रमुख मोड आए जहां एक एक रत्न जड़ा हुआ अनुभूत हुआ |इनसे परिचित होकर आप न केवल इतना समझ पाएंगे कि मधुकर गंगाधर नामक साहित्यकार को किन किन चकलों पर पापड़ बेलने पड़े.. !”(ध्यान दें “चकलों |”) उन दिनों आकाशवाणी में ट्रांसफर पोस्टिंग के लिए उनको यहाँ तक कहना पड़ गया कि “कोई स्टेशन डाइरेक्टर अपनी मनचाही पोस्टिंग तभी करा सकता है जब वह किसी राजनैतिक ‘तोप’ का अत्यंत प्रिय’ गोला’ हो या स्वयं सुंदरी अथवा सुरा सुंदरी आपूर्तक !”
लेकिन ऐसा नहीं है कि “हवा पर उनतीस वर्ष” में लेखक ने सिर्फ़ संगठन या सहकर्मियों की आलोचना ही की है उन्होंने तमाम उपयोगी टिप्स भी दिए हैं | जैसे उन्होंने आकाशवाणी को जीवित रहने के लिए ग्रामाधार के नए आयाम तलाश करने का परामर्श बहुत पहले ही दे दिया है क्योंकि उन्हीं दिनों में दृश्य मीडिया का पदार्पण होने लगा था |उन्होंने यह भी बाल देते हुए कहा था कि आकाशवाणी प्रसारण, मात्र ध्वनि प्रछःपण नहीं,वह जीने की विशेष पद्धति है जिसमें शब्द,अर्थ,प्रभाव और समय की सर्वथा नई अर्थवत्ता होती है -शील और शिष्टतायुक्त |संवाद को उन्होंने मनुष्य जाति के लिए आग से भी बड़ा आविष्कार माना है और आकाशवाणी को विश्व का सबसे व्यापक तथा सुलभ संवाद वाहक बताया है |
इसी क्रम में मैंने एक और आत्मकथा ” यमुना से यमुना तक“ पढ़ी है जिसे श्री गिरीश चतुर्वेदी ने लिखी है | इसको मैंने आकाशवाणी के केन्द्रीय कार्यक्रम प्रशिक्षण संस्थान की सम्पन्न लाइब्रेरी में सेवाकालीन प्रशिक्षण (3 से 7 अप्रैल 2000) के दौरान दिल्ली प्रवास में पढ़ी |चतुर्वेदी जी भी एक कुशल प्रसारक और दबंग व्यक्तित्व थे |वर्ष 1934 में मथुरा में उनका जन्म हुआ था | उनके नाना पंडित द्वारिका प्रसाद चतुर्वेदी थे |उनका यह मानना था कि लेखक और कलाकार का स्थान हर युग में सर्वोपरि रहा है और रहेगा | इस पुस्तक में उन्होंने अपने कुछ बेहतरीन प्रोडक्शन और महान कलाकारों और शखशियतों से लिए गए इंटरव्यू के भी दृष्टांत दिए हैं जो बहुत ही रोचक हैं | उनके प्रोडक्शन “होली खेल मना रे “ संगीत रूपक में उन्होंने प्रकृति पूजन के पावन पर्व होली की चर्चा करते हुए लिखा है कि “मन की वीणा से प्यार की धमार छेड़ो,मन और वाणी को प्यार के रंगों से रंग दो!जीवन का फागुन चार दिनों का ही तो है इसलिए खुलकर होली खेलो |”
“मलिका ए गजल” बेगम अख्तर को कौन नहीं जानता है ? वे रेडियो की दीवानी थीं और आकाशवाणी भी उनको भरपूर सम्मान देता था | जिन्होंने उनकी ज़िंदगी को करीब से जाना है यह भी जानते होंगे कि गायन उनके लिए आक्सीजन से भी जरूरी तत्व था और जब पारिवारिक दबाव के चलते उनके गाने पर रोक लग गई तो वे किसी मछली की तरह तड़प तड़प कर मरने लगी थीं |
एक तो संतान न होने का दुख और दूसरे मौसीक़ी से दूरी | उस नाजुक दौर में आकाशवाणी के एक अधिकारी ने उनके घर जा जाकर किसी तरह उनके शौहर को मनाया और उनको वापस आकाशवाणी लखनऊ के स्टूडियो लाया | यह जो बेगम साहिबा की दूसरी पारी की वापसी हुई वह उनके संगीत के लिए,किसी एक भारतीय कलाकार द्वारा गजल गायकी के लिए, उनके स्वर्णिम दौर के योगदान के लिए हमेशा याद किया जाएगा |
तो गिरीश जी भी उन चंद डाइरेक्टरों में शुमार हैं जिन्होंने बेगम साहिबा का सानिध्य और स्नेह पाया |बेगम अख्तर ही क्यों उन्होंने अंतर्राष्ट्रीय प्रख्यात माड गायिका बीकानेर की संगीत साधिका अल्लाह जिलाई बाई ,ठुमरी गायिका सिद्धेश्वरी देवी का भी साहचर्य पाया है |इन सभी से उन्होंने लंबे लंबे इंटरव्यू रेडियो के लिए लिए हैं | ज्ञातव्य है कि हिन्दी के मूर्धन्य पंडित श्रीनारायण चतुर्वेदी इनके मामा थे |इसलिए कला ,संगीत और साहित्य इन्हें विरासत में मिला था |
स्थानाभाव के कारण उनकी पुस्तक के कुछ अद्वितीय अंशों को चाहकर भी मैं उद्धधरित नहीं कर पा रहा हूँ |उन्होंने अपनी पुस्तक के उप शीर्षकों किस्से पहलवानों के ,बातें भय्या साहब के घर की,स्वर साधिका सिद्धेश्वरी देवी ,संगीत साधिका अल्लाह जिलाई बाई के अंतर्गत बहुत रोचक तथ्य दिए हैं |एक अन्य शीर्षक “ आकाशवाणी लखनऊ जो मेरे जीवन से जुड़ा है” के आलेख में उन्होंने एक रोचक वाकया लिखा है –“हमारे एक केंद्र निदेशक बड़े ही सख्त आदमी थे |एक दिन उन्होंने म्यूजिक के पेक्स को बुलाकर कहा कि कुछ कलाकर मेरा आदर नहीं करते |जब मैं दफ्तर आता हूँ तब ये खड़े नहीं होते|कलाकारों को बुलाकर डांटा गया |एक दिन लाइव प्रोग्राम हो रहा था | निदेशक जी एनाउंसर के बूथ में पहुँच गए|जैसे ही सारंगी,तबला व अन्य कलाकारों ने उन्हें देखा तो वे साज छोड़कर स्टूडियो में खड़े हो गए और सलाम करने लगे | कलाकार ने गाना बंद कर दिया| अब तो निदेशक जी बौखला गए | बोले-“ ये क्या कर रहे हैं?” मैं साथ में था, बोला-साहब ये आपको रिस्पेक्ट दे रहे हैं |” .. वे फौरन स्टूडियो से भागे और फिर कभी लाइव स्टूडियो में नहीं गए |”
उन दिनों में भी कुछ अलग ही मिजाज लिए आकाशवाणी के अधिकारी होते थे |चतुर्वेदी जी लिखते हैं-“मेरे एक उच्च अधिकारी ने मेरी गोपनीय पंजिका में लिखा था-“अपनी ड्रेस और एपीयरेन्स पर ध्यान दें |”.. 4 फरवरी 1985 को मैं लखनऊ का केंद्र निदेशक बना और जो सीखा इन वर्षों में अपने केंद्र को वापस किया | “साहिर” के शब्दों में - “ दुनियाँ ने तजुर्बा तो हवा दिस की शकल में ,जो कुछ मुझे दिया है लौट रहा हूँ मैं !”
आकाशवाणी की विविध भारती सेवा मुंबई के सेवानिवृत्त चैनल प्रमुख महेंद्र मोदी ने चार खंडों में आकाशवाणी की सेवाओं के अनुभव को पुस्तक का रूप दिया है|वे चार खंड हैं-स्वप्न चुभे शूल से,क्यूँ उलझे तुम मन ,सिमटती धूप लरजते साये और ले बाबुल घर आपनो |इनकी लेखन शैली भी इनके व्यक्तित्व की ही तरह बहुत ही दमदार है |इन्होंने जो लिखा है वह इनका अपना भोगा हुआ कटु किन्तु सत्य यथार्थ है |आकाशवाणी के बीकानेर, जोधपुर, उदयपुर, सूरतगढ़, इलाहाबाद,कोटा,नागौर और मुंबई केंद्रों पर रहकर इन्होंने अनेक अच्छे कार्यक्रम बनाए |आकाशवाणी के अपर महानिदेशक श्री विजय दीक्षित ने प्रस्तावना में ठीक ही लिखा है-“मैं एक मित्र की पाण्डुलिपि पढ़कर कोई एहसान नहीं कर रहा था बल्कि एक जोरदार सत्यकथा पढ़ रहा था |..एक आम श्रोता तो धुली -पुँछी आवाजे, सधे हुए कार्यक्रम और गुनगुनाता संगीत ही सुनता है |अंदर कितनी धूल होगी ,कहाँ -कहाँ कितने जाले लगे होंगे, किस महानुभाव के तार किस अफसर से जुड़े होंगे और क्यों .. उसे क्या मालूम !.. महेंद्र मोदी का यह लेखन बर्बादियों का जश्न है | आप न भी चाहें तब भी यह पुस्तक आपको हाथ पकड़ कर इस जश्न में शामिल होने के लिए खींच लाएगी |”
मोदी जी ने इलाहाबाद में व्यतीत दिनों को याद करते हुए लिखा है-“इलाहाबाद ने तो ज़िंदगी के कई जरूरी पाठ पढ़ाए,सबसे अहम पाठ जो इलाहाबाद ने पढ़ाया वो ये था कि वक्त और हालात भी अलग अलग इंसानों की ज़िंदगी को अलग अलग तरह से मुतास्सिर करते हैं |” मोदी जी ने आकाशवाणी और कनेडियन प्रोजेक्ट के रेडियो कार्यक्रमों के निर्माण में भी महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी जिससे उनका विदेशों में भी नाम हो गया |उन्होंने आकाशवाणी कोटा में नियुक्ति के दौरान रेडियो को पब्लिक सर्विस ब्राडकास्टर का असली जामा पहनाने के उद्देश्य से मिलजुल कर कोटा के पास के एक कूड़ेदान बने गाँव सोगरिया को साफ सुथरा गाँव बना दिया |हालांकि इसकी उनको भारी कीमत चुकानी पड़ी |वे स्वीकारते हैं कि “एक वक्त था जब आकाशवाणी ऐसे भ्रष्ट और घटिया अफसरों से बचा हुआ था |.. दूरदर्शन में भ्रष्टाचार फलने फूलने लगा और रेडियो वालों ने देखा कि इन अफसरों का कुछ नहीं बिगड़ रहा है तो उन्होंने भी दूरदर्शन के अफसरों के नक्शे कदम पर चलना शुरू कर दिया और धीरे धीरे भ्रष्टाचार रेडियो में भी पग पसारने लगा |” एक जगह मोदी जी को मजबूर होकर यहाँ तक लिखना पड़ गया –“वास्तव में कला की, संस्कृति की कोई पूछ नहीं रह गई है इस आकाशवाणी में |ऐसा लगता है कि कुछ क्लर्क मानसिकता के लोग इकट्ठे होकर इस खूबसूरत परंपराओं वाले विभाग को तबाह करने में जुट गए हैं |
”अपनी पुस्तक “स्वप्न चुभे शूल से” में उन्होंने प्रसार भारती एक्ट लागू होने के बाद की निराशाजनक परिस्थतियों पर भी ध्यान दिलाया है |उन्होंने एक तल्ख हकीकत से भी रूबरू कराया है कि पिछले दरवाजों से दाखिल हुए लोग उप महानिदेशक से महानिदेशक की सारी बड़ी बड़ी कुर्सियों पर काबिज होने लगे | पूरी दुनियाँ में शायद इस तरह की कोई मिसाल मिलेगी कि कोई इंसान किसी नौकरी पर लगे और बिना एक भी प्रमोशन पाए रिटायर हो जाए लेकिन आकाशवाणी में अब यही हो रहा था कि यू.पी.एस.सी. जैसी एजेंसी से आया हुआ अफसर 30-35 बरस की नौकरी के बाद भी उसी पोस्ट से रिटायर हो जाए |’’
इस पुस्तक का इकतीसवा अध्याय बहुत ही रोचक संस्मरणों के साथ उपस्थित हुआ है जब लेखक ने रेत के समंदर से काली पीली आंधी आने के वाकये को बयान किया है |
इसी प्रकार आकाशवाणी – दूरदर्शन में 1982-1985 में प्रोड्यूसर एमेरिटस रह चुके श्री गोपाल दास की ऐसी दो पुस्तकें हैं – “मोहें बिसरत नाहिं” और “जीवन की धूप-छाँव से “ जिनमें आकाशवाणी और दूरदर्शन के स्वर्णिम काल के वैभव और उसके अंदर पनपते दोषों का संदर्भ मिलता है |आमुख में विष्णु प्रभाकर ने लिखा है –“लेखक ने आज की विसंगतियों और विडंबनाओं को ऐसे उकेरा है कि वे मन प्राण को झकझोर देती हैं| स्थान - स्थान पर अनुभूति की भट्टी में तपी-पची सूक्तियाँ आपको पुलकित कर देंगी |”लगभग 91 पृष्ठों की इस पुस्तक में आधे पृष्ठ तो उनके जीवन के परिदृश्य लिए हैं लेकिन पृष्ठ 55 से जो शुरुआत उन्होंने अपने आकाशवाणी दूरदर्शन में व्यतीत अनुभवों के बारे में की है वह बहुत ही रोचक,ज्ञानवर्धक है| ”वे चेहरे” अध्याय में उन्होंने उस शाम के संजीदा लमहों का जिक्र किया है जब वे आकाशवाणी के अपने कार्यालय में थे और सूचना आई कि गांधी जी नहीं रहे और नेहरू जी और पटेल को आकाशवाणी स्टूडियो आना था | दो दिन बाद सरोजिनी नायडू आई थीं और मृत्यु क्या है इसके बारे में बहुत सीमित शब्दों में कहा था-“न कोई जन्म है न कोई मरण|खोज में आत्मा की उच्च से उच्च तर अवस्था प्राप्त करने के ये चरण मात्र हैं -महात्मा गांधी सदा सत्य के लिए जिए |एक हत्यारे ने उन्हें सत्य की उच्चतर वस्था तक पहुँच दिया हैजिसकी खोज में वह थे |”गोपाल दास अपने लिए लिखते हैं “उस घनीभूत पीड़ा के स्वर से मैं अपने अंतरतम तक सिहरा उठा |मेरे लिए वहाँ रहना असह्य हो गया |”मई 1953 में उन्होंने आकाशवाणी इलाहाबाद का कार्यकाल संभाला था | “एक झिक और उसके बाद “नामक अध्याय में महादेवी जी की झिक (कि आकाशवाणी नहीं आऊँगी)और गोपाल दास की जिद कि वे उनकी रिकार्डिंग करके ही रहेंगे का रोचक काकटेल संदर्भ है |अंतत:उन्होंने महादेवी जी से “अतीत के चलचित्र” कार्यक्रम के लिए आलेख भी लिखवा लिए और उनकी रिकार्डिंग भी कर ली |वे लिखते हैं-“वह झिक मुझ पंगु के लिए ‘गिरिवर गहन’ बन गई थी |फिर भी , ‘जासु कृपा ‘से अनहोनी हुई | लगभग यही हाल बाबू पुरुषोत्तम दास टंडन की पहली और एकमात्र रिकार्डिंग में हुआ और उनको इसके लिए सौ सौ पापड़ बेलने पड़े | ”जब टंडन जी ने ब्राडकास्ट किया’ नामक अध्याय में उसका विवरण है |”एक प्रसारण जो नहीं हुआ “में वर्ष 1969 में गांधी जन्म शताब्दी में राजेन्द्र प्रसाद व्याख्यान माला के लिए जय प्रकाश नारायण को रिकार्डिंग के लिए उन्होंने सहमत कराया लेकिन महानिदेशक की एक चूक के चलते वे नाराज हो गए और रिकार्डिंग नहीं हो सकी |वे लिखते हैं-“महानिदेशक अपने में खींच गए |उनका मुंह उतार गया| जय प्रकाश ताड़ गए किन्तु उन्होंने अपनी मुद्रा यथावत बनाए रखी |जैसे कहीं कोई महीन धागा टूट जाता है वैसा ही कुछ हो गया |टूटा तो टूटा !”
अपने संस्मरण के समापन पृष्ठों में गोपाल दास भी “ऊपर’ बैठे अधिकारियों के व्यवहार और रोक टोक की प्रवृति से अपनी खिन्नता की कलात्मक अभिव्यक्तियाँ कर ही दी हैं| लिखते हैं-“पात्र हैं चार कुर्सियाँ | एक छोटी,एक मध्य की, एक मध्येतर और एक बड़ी |दो पात्र और हैं |वे अदीठे रहते हैं |एक बूढ़ा इतिहासकार और एक तोप कुर्सी |”उन दिनों वे महानिदेशालय में महत्वपूर्ण काम देख रहे थे और मंत्रालय के एक संयुक्त सचिव स्तर के अधिकारी से उनकी भिड़ंत हो रही थी |लिखते हैं- “अब बड़ी कुर्सी का प्रस्ताव तोप कुर्सी के सामने था |तोप कुर्सी दगी |प्रस्ताव खेत रहा |बड़ी कुर्सी मैदान छोड़ गई |” अपने एक और उल्लेखनीय योगदान कि जिससे आकाशवाणी के एक महत्वपूर्ण प्रसारण में हिन्दी का मान सम्मान बना रहे ,उन्होंने ‘आन रह गई “ शीर्षक के अध्याय में 24 दिसंबर 1972 की उस घटना का हवाला दिया है जब राजाजी राजगोपालाचारी का देहांत हो गया था |लिखते हैं –“ हिन्दी की हेटी हो रही हो और मैं भावुक ना होऊ,चुप रहूँ यह कैसे हो सकता है ?”
यह सभी जानते हैं कि जमीन , संसाधन और महत्व के मामले में आजादी के बाद से रेलवे,सेना ,दूरसंचार और रेडियो को भरपूर महत्व मिलता रहा है |प्राकृतिक आपदाओं, एजुकेशन ,स्वास्थ्य और युद्ध जैसी परिस्थिति में रेडियो का कितना यहां रोल है |उसको स्वायत्तता इसीलिए दी गई जिससे वह अपनी इस भूमिका का सशक्त और बिना किसी दबाब के निर्वहन कर सके |कहने को प्रसार भारती तो बन गया लेकिन उसका अपना कोई सोर्स ऑफ इनकम न होने से उसे राज्य आश्रयी होना ही पड़ा है |आज भी इसीलिए ये दोनों जनसंचार के माध्यम क्रमश: मरणासन्न होते जा रहे हैं |जल्दी ही इनके प्राइवेटाइजेशन को कोई रोक नहीं सकता है |

एक लेखक मुस्तानसर हुसैन तरार का कहना है कि” ज़िन्दगी में एक बार मोहब्बत जरूर करनी चाहिए ताकि आपको पता चले कि क्यों नहीं करनी चाहिए !” पुरुष और नारी के बीच पनपने वाला प्यार क्या होता है , आखिर यह कैसे जन्म लेता है और यह कैसे परवान चढ़ता है, यह क्या- क्या गुल खिलाया करता है और, ..और उसका अंजाम क्या होता है ? कुछ ऐसे प्रेमी- प्रेमिका भी होते हैं जो अपनी जान तक दे देते हैं इसी प्यार को पाने के लिए | इसी क्रम में एक और बात विचारणीय है कि प्रेमी और प्रेमिका का आपस में शारीरिक सम्बन्ध स्थापित करना क्या प्यार का अनिवार्य तत्व है ?- – इश्क़ , मुहब्बत, प्रेम या प्यार की इन ढेर सारी रहस्यमय बातों को कोई बता नहीं सका है | लैला –मजनू , शीरी- फरिहाद बीते जमाने के प्रेमी होते जा रहे हैं | अब तो पूरा विश्व एक परिवार बनता जा रहा है |प्यार हर सरहदों को पार कर ले रहा है | प्यार अब पुरुष -पुरुष और नारी- नारी के बीच हो रहा है और उसको कानूनी मान्यता भी मिलती जा रही है |
अपनी चढ़ती उम्र में मैंने भी प्यार किया था | कुछ प्लेटोनिक (काल्पनिक) और कुछ हकीक़त वाला | वो एक प्रचलित उक्ति है ना- इश्क़ हकीकी और इश्क मज़ाज़ी ! प्रेमियों की ख़ुशी ,दर्द,पीड़ा और परमानन्द की सामान्य भावनाएं इश्क़-मज़ाज़ी होती है और इश्क़ हकीकी में प्रेमी इन्सान है और प्रेमिका भगवान है |मैंने अपने जीवन में दोनों तरह के इश्क़ किये हैं | 1972 में जब यूनिवर्सिटी में बी. ए. सेकेण्ड ईयर का छात्र था तो एक तारा पांडे नामक लड़की को दिल दे बैठा था | उसे लाइब्रेरी में एक दिन देखा और उनमें जाने क्या बात मुझे ऐसी लगी कि मैं मंत्रमुग्ध हो उठा था |आज सोचता हूँ तो हंसी भी आती है |याद नहीं आ रहा है कि मैने आखिर उसका नाम कैसे जाना ?किसी लड़की का आपको देखना ,देखते रहना या आपका किसी लड़की को देखना,उसका साहचर्य पाना प्यार की निशानी अवश्य हो सकती है लेकिन प्यार तो तभी होगा जब दोनों राजी हों |मेरे उस ‘चैप्टर’ का कुछ ही महीनों में ‘दि एंड’ भी हो गया था |लेकिन मेरे मन में प्यार के बीज तो पड़ ही गये थे और उनका अंकुरण हुआ वर्ष 1977 दिसम्बर में |अच्छा ? तो सुनना चाहेंगे क्या आप भी इसकी कहानी ?
कहानी की शुरुआत होती है आकाशवाणी गोरखपुर के ड्रामा स्टूडियो से |सच मानिए ,मेरे जीवन में प्यार उस एक पूनम की रात के समान आया था और मेरी प्रेमिका पूर्णिमा की चाँद के समान थी जिसे मैं ‘चुरा’ लेना चाहता था | वह मेरी असफल कोशिश थी क्योंकि पूनम के चाँद को भला कोई चुरा पाया है क्या ?
हाँ,याद आया | मोहन राकेश के लोकप्रिय नाटक “आधे अधूरे” के रेडियो रूपान्तरण की रिकार्डिंग हो रही थी | नायिका का रोल निभा रही लड़की भावमग्न होकर अपने डायलाग बोल रही थी |” मुझे उस असलियत की बात करने दीजिए जिसे मैं जानती हूँ | ..एक आदमी है , घर बसाता है | क्यों बसाता है ? एक जरूरत पूरी करने के लिए | कौन सी जरूरतें ? अपने अन्दर से किसी उसको..एक अधूरापन कह दीजिए उसे...उसको भर सकने की ! ”
मैं मंत्रमुग्ध होकर उस युवती को निहार रहा होता हूँ | रिकार्डिंग के बाद उससे औपचारिक परिचय होता है और पता चला कि यह वही युवती हैं जिनका जिक्र आकाशवाणी इलाहाबाद में मेरे सहयोगी निखिल जोशी ने किया था |निखिल जोशी, इलाहाबाद की मशहूर साहित्यिक शख्सियत इलाचंद्र जोशी के पुत्र |उस समय निखिल से इस युवती के विवाह की बात चलकर समाप्त हो गई थी | बस ! पहली दृष्टि में मैंने उसको दिल दे दिया | उसने भी अपनी मुस्कराहटें बिखेर दी |इसे क्या माना जाय ?यह मैं आप सभी पर छोड़ देता हूँ |लेकिन मेरा यह प्यार भी असफल रहा |प्यार की असफलता पर गुलज़ार के शब्द याद आ रहे हैं; “ मुझको भी तरकीब सिखा दो यार जुलाहे ,अक्सर तुझको देखा है जब ताना बुनते, जब कोई तागा टूट गया या ख़त्म हुआ, फिर से बाँध के और सिरा को जोड़ के उसमें, आगे बुनने लगते हो |तेरे इस ताने में लेकिन ,इक भी गाँठ गिरा मुन्दर की , देख नहीं सकता है कोई | मैनें तो इक बार बुना था एक ही रिश्ता,लेकिन उसकी सारी गिरहें साफ़ नज़र आती हैं| मेरे यार जुलाहे , मुझको भी तरकीब सिखा दो यार जुलाहे !”
आपके मन में यह प्रश्न उठना लाजिमी है कि अपने प्यार की कहानी की शुरुआत में ही मैं क्यों उसकी असफलता की बात करने लगा ? बस,एक दर्द की वज़ह से , एक टीस की वज़ह से जो उसकी असफलता से उपजी है और आज तक मुझे रह- रहकर कचोटती रहती है |उस युवती का नाम था जोशी धीरा और उसके लिए उन दिनों में मैं अधीर होता चला गया |उस दिन की स्टूडियो में हुई मुलाक़ात के बाद मैंने दोस्त निखिल को फोन पर खूब सुनाया |मैंने उससे कहा कि उसने धीरा नहीं एक हीरा खो दिया है |वह मुस्कुरा कर रह गया था क्योंकि अब |उसकी शादी हो चुकी थी |
उधर मेरे मन की बेतार तरंगें धीरा से जुड़ने लगी थीं |पता चला कि वह रेडियो की कैजुअल भी हैं और यहाँ की भाई बिरादरी वाद के चक्कर में उनकी बुकिंग बंद थी |उद्घोषकों के दो रिक्त पदों पर कैजुअल बुकिंग होती थी और उस समय कैजुअल पैनल में डा.सतीश ग्रोवर, मोहसिना खान ,सर्वेश दुबे,धीरा जोशी और बीना श्रीवास्तव आदि थीं | मैंने धीरा की ड्यूटी लगवानी शुरू की | उनके साथ अपनी ड्यूटी भी लगवाता था और उनसे निकटता बढाने के हर सम्भव उपाय किया करता रहा |निकट हो भी गया क्योंकि मैं भी गोरखपुर के एक प्रतिष्ठित परिवार से था और उसके परिजन मुझे मेरे परिवार को बखूबी जानते थे |एक दुपहरिया वह एक और उद्घोषिका मोहसिना खान मेरे घर भी आ गईं थीं |संयोगवश मैं नहीं था लेकिन मेरी भाभी बीना ने उनको अटेंड किया | उसने शायद मेरे घर ,घरवालों से अपनी निकटता की प्रत्याशा से यह विजिट की थी |
ये सभी संकेत मेरे अनुकूल जा रहे थे इसलिए मैनें एक दिन अपने अभिभावकों को उनके घर जाने के लिए तैयार किया|हीरापुरी कालोनी में वे लोग एक शाम धीरा के घर उनके अभिभावकों से मिलने (प्रोफेसर हेमचंद जोशी) के लिए पहुंचे |खूब स्वागत सत्कार हुआ लेकिन ..हमारे और धीरा की शादी से सम्बन्धित कोई प्रस्ताव उनकी ओर से नहीं मिला | मेरा माथा ठनका और सच मानिए मुझे कुछ बुरा भी लगा |अगली मुलाक़ात में इस रहस्य का खुलासा खुद धीरा ने करके मुझे हतप्रभ कर डाला | गोरखपुर में उन दिनों गीता वाटिका और उसमें रहने वाले राधा बाबा कुछ धार्मिक लोगों की गूढ़ आस्था के केंद्र बने हुए थे | बताया जाता है कि वे हमेशा राधामय रहते थे और समय समय पर लम्बी मौन साधना में चले जाते थे |प्रोफ़ेसर जोशी सपत्नीक उनके अनन्य भक्त थे और उन्होंने बिटिया के लिए किसी वर की संस्तुति उनसे करवा ली थी |जिस बीच मेरा प्रसंग शुरू हुआ उसी बीच किसी दिन धीरा का इंगेजमेंट भी बाबा जी ने करा दिया था |पंजाबी ब्राम्हण परिवार का वह लड़का कैलिफोर्निया में साफ्टवेयर इंजीनियर था |जब मैंने उत्तेजित होकर इस बारे में पूछा तो धीरा ने हाथ की उंगली में पहनी इंगेजमेंट रिंग दिखा कर अभिभावकों की अवज्ञा करने में असमर्थता दिखाई |मैं समझ गया कि मैं प्यार के इस खेल में हारा हुआ खिलाड़ी था |अपनी अंतिम ड्यूटी में धीरा ने फिल्मी गीतों पर आधारित एक ख़ास प्रोग्राम पेश किया जिसमें कंटेंट हमारे और अपने इस सम्बन्ध को बनाया, इसकी असफलता को बनाया था | फिल्म “मुनीम जी “ के लता मंगेशकर के गाये इस गीत की याद अभी भी बनी हुई है ;” घायल हिरनिया मैं बन बन डोलूं ,किसका लगा बान , मुख से ना बोलूँ..”|
दिसम्बर 1977 के आखिरी हफ्ते में मेरी पूर्णिमा के चाँद धीरा को इंजीनियर पी.के.शर्मा ब्याह कर अमेरिका उड़ा ले गए और मैं कारवाँ के गुजरने के बाद उठने वाले गुबार का हिस्सा बन कर रह गया |
इन भावुक प्रसंगों को याद करते हुए मन में आज अजीब सी तरंगें उठ रही हैं |पुरानी याद के साए नए जज्बात भरने लगते हैं | अगर ऐसा होता तो क्या होता ?अगर वैसा होता तो क्या होता ?क्या धीरा और प्रफुल्ल का प्यार और फिर उनका वैवाहिक जीवन, जीवन की ऊबड़ खाबड़ घर गृहस्थी की कसौटी पर खरा उतर पाता ?क्या मेरे आगे के जीवन में आई मुश्किलों में उसका वैसा ही साथ मिल पाता जैसा मुझे मेरी व्याहता से मिला ? क्या धीरा का वैवाहिक जीवन सुखी रहा ? यदि हाँ तो उसने अपने जीवन का अंतिम दिन पुट्टपर्थी के आश्रम में बिताने का निर्णय क्यों ले लिया है ?..ऐसे ढेर सारे प्रश्न अब भी मन में उठते रहते हैं |
मेरे एक सहयोगी और मित्र संस्कृत और हिंदी के विद्वान ,आकाशवाणी में सहायक निदेशक पद से सेवानिवृत्त अधिकारी डा.करुणाशंकर दुबे ने मेरे रिटायरमेंट के समय मुझ पर लिखे एक ब्लॉग में ठीक ही लिखा है-“एक राज़ की बात यह भी बताना चाहूँगा कि त्रिपाठी जी उन दिनों कुंआरे थे और जब इलाहाद में पोस्टेड थे तो उनके एक वरिष्ठ सहयोगी (साहित्यकार श्री इलाचंद जोशी के पुत्र)श्री निखिल चन्द्र जोशी ने आकाशवाणी गोरखपुर में विश्वविद्यालय में एक रीडर की बेटी कैजुअल एनाउंसर (जिनसे उनकी शादी का प्रस्ताव भी चला था ) की बेहद तारीफ़ की थी |त्रिपाठी जी जब गोरखपुर ट्रांसफर पर आये तो उन्हीं सुन्दरी के सम्पर्क में आकर उनको सलाम ए इश्क कर बैठे |लेकिन अन्तत:परिस्थिति अनुकूल नहीं हो सकी और त्रिपाठी जी का वह इश्क कुबूल नहीं हो सका |”
इस प्रकरण ने मुझे कुछ दिनों तक परेशान किया , आज भी कभी कभी भावुक हो उठता हूँ |गुलज़ार के शब्दों में “ मैं टूटे हुए कांच की तरह चकनाचूर हो गया, किसी को लग ना जाए इसलिए सबसे दूर हो गया |”