प्रफुल्ल कथा - 2 Prafulla Kumar Tripathi द्वारा जीवनी में हिंदी पीडीएफ

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प्रफुल्ल कथा - 2




मैं एक अदना लेखक , जब कभी कुछ लिखता हूँ तो मेरे मन में इस बात की धुकधुकी लगातार बनी ही रहती है कि मेरा लिखा पाठकों के मन को छू सकेगा या नहीं ? यदि छू जाता है तो उसका ‘फीडबैक’ मिल जाता है और यदि नकार दिया जाता है तो उसका ‘फीडबैक’ भी निश्चित ही मिलता है | इस ‘फीडबैक’ का मुझ पर ,मेरे लेखन पर भी असर पड़ता है और मैं पाठकों के मनोनुकूल अगला आलेख लिखने की फिर- फिर कोशिश में जुट जाता हूँ ..और आप तो जानते ही हैं कि “कोशिश करने वालों की हार नहीं होती है !” यानि जीत हो या नहीं हार तो कतई नहीं होती है |


मेरी सलाह में आप सभी को भी अपने जीवन के कर्तव्य पथ पर चलते हुए मंजिल की तलाश में रुकना,थकना या निराश नहीं होना चाहिए |बात अपने बीते दिनों की हो रही है |आपने मेरे बचपन की तस्वीर देखी |ढेर सारी बातें रह ही गईं |


जैसे मेरे घर में जब भी कोई जन्म लेता था तो मेरे पितामह पंडित भानु प्रताप राम त्रिपाठी एक दुधारी बकरी अवश्य मंगवाते थे जिसके दूध को जन्म लेने वाले बच्चे के लिए सुरक्षित रखा जाता था |उन दिनों में दरखोला में गाय बैल तो हुआ ही करते थे |उस बकरी और उसके बच्चे के साथ हमारी दोस्ती भी हुआ करती थी |वे चलते फिरते खिलौने थे |


बचपन में नंग - धङंग मेरी एक फोटो भी बकरी के साथ मेरी माँ ने खींच कर रखी थी |उन दिनों में बेबी मिल्क नहीं हुआ करता था |या तो माँ अपना दूध पिलाती थी या बकरी का या फिर गाय का उठौना दूध प्रयोग में आता था | सभी की तरह मेरा भी बचपन तो चला गया लेकिन उसकी यादें अभी भी पेंग मारा करती हैं और मैं यादों के झूले झूलने लगता हूँ |


जब मैं कक्षा तीन लायक हुआ तो अम्मा पिताजी गाँव से गोरखपुर शिफ्ट हो गए थे |अलहदादपुर मुहल्ला अपना ठिकाना बना था |अपना खपरैल का किराए का घर ..और अगल बगल अट्टालिकाएं |पितामह जमींदार थे ,चाहते तो शहर में घर खरीद सकते थे |लेकिन उन्हें यह बात पसंद नहीं आई थी कि हमलोग जमींदारी की शान- ओ-शौकत ,रौब- दाब और रियासत छोड़कर शहर में एक आम आदमी की तरह रहें | मेरे पिता और माता को बच्चों का भविष्य नज़र आ रहा था और दिक्कतें सह कर भी बच्चों को अच्छी शिक्षा दिलाना उनका उद्देश्य बन गया था | लेकिन गाँव से साल भर के लिए बैलगाड़ी पर राशन पानी लदकर आता रहता था | बोने के लिए खेत का पारिश्रमिक देकर चौबीसों घंटे के लिए एक सेवक और एक गाय भी उपलब्ध थे | कई साल तक पितामह ना चाहते हुए कुछ आर्थिक मदद भी करते रहे | असल में गाँव छोड़कर शहर आना ही उनके गुस्से का एकमात्र कारण नहीं था बल्कि प्रमुख कारण यह बन गया था कि शहर आकर मेरे पिताजी ने अपना शिखा सूत्र , जनेऊ उतार कर हिन्दू संस्कारों के विरुद्ध जाते हुए “ आनन्द मार्ग “नामक एक धार्मिक की वैज्ञानिक योग साधना पद्धति को अपना लिया था |इसमें कोई दो राय नहीं कि इस संगठन से पिताजी की आध्यात्मिक प्यास तो तृप्त हुई लेकिन व्यावहारिक जीवन में उनको बहुत ही उतार -चढ़ाव का सामना करना पडा |


1975 में आपातकाल के काले दिनों में अपनी आजीविका , जिला सरकारी वकालत से हाथ ही नहीं धोना पडा था बल्कि जेल भी जाना पडा था ..जो हम सभी के लिए सबसे बुरा दौर था |हम सभी टूट गए थे लेकिन पिताजी की अपने गुरुदेव और संगठन के प्रति निष्ठा ज्यों की त्यों अपने जीवन के अंत तक बनी रही |


हाँ , तो नाचीज़ की तीसरी क्लास की पढ़ाई गोरखपुर के सेंट एन्ड्रूज स्कूल से जो शुरू हुई तो हाई स्कूल तक वहीं होती रही | क्रिश्चयन स्कूल,प्रार्थना में उनका बाइबिल से पाठ और फ़िर प्रेयर आज भी याद है | कैम्पस में ही रहने वाली गोरी चिट्टी अधेड़ उम्र की एक क्लास टीचर मिसेज फिलिप्स इसलिए याद रहीं क्योंकि उनके पति मिस्टर फिलिप्स ने भी मुझे आगे चलकर पढ़ाया था |


उन दिनों उस स्कूल में इंटर नहीं था इसलिए मुझे आगे की पढ़ाई के लिए गोरखपुर के दयानन्द इंटर कालेज में दाखिला लेना पडा | एक राज़ की बात भी बताता चलूं , हाई स्कूल में ( बल्कि कक्षा नौ में ही )मुझे एक साल विश्राम करना पडा......झूठ बोलूंगा तो काला कौव्वा काटेगा इसलिए सच बयां करना पड़ रहा है कि मैं दो विषयों में फेल हो गया था – संस्कृत और गणित में | गणित तो कम्पलसरी था लेकिन संस्कृत मुझ पर मेरे पितामह द्वारा थोप दी गई थी | लेकिन अगले साल जैसे तैसे संस्कृत की जगह नागरिक शास्त्र लेकर मैं पार उतर सका |लेकिन पाठक मित्रों , गणित और उसमें भी जुड़े ट्रिगनामेट्री ने मुझे बहुत रुलाया | आजीवन ऋणी रहूँगा अपने घर आकर पढ़ाने वाले दूसरे विद्यालय के एक शिक्षक श्री एस.एन.शुक्ला का जिन्होंने गणित की राह आसान कर दी | जानते हैं सोशल मीडिया का कमाल ? इतने साल बाद अभी पिछले दिनों एक दिन फेसबुक पर उंगलियाँ घुमाते मुझे वही शिक्षक मिल गए ...उनसे सम्पर्क किया और उस पूरे दौर की कहानी उतरती चली गई | हालांकि उनकी शक्ल –ओ- सूरत अब लगभग 52 साल बाद बहुत बदल गई है लेकिन वह


शिष्य ही क्या जो अपने गुरु को ना पहचान सके ? वे हतप्रभ हो उठे |


हाँ , एक बात तो बताना भूल ही गया कि हमलोग अलहदादपुर की घनी बस्ती वाले खपरैल वाले मकान से रिफ्यूजियों की कालोनी पेडलेगंज के एलाटमेंट के पक्के मकान से होते हुए अब बेतियाहाता के अपने नवनिर्मित मकान में आ गए थे |पितामह की नेपाल में भी कुछ खेती बारी थी जहां उन दिनों माहौल ठीक नहीं था इसलिए उसे बेंच कर उन्होंने गोरखपुर में जमीन ले ली थी और हमलोगों को 1960 के आसपास गोरखपुर में सुविधाजनक रूप से रहने के लिए मकान भी बनवा दिया था |मैं उस समय सातवीं में रहा होगा |बेतियाहाता आकर मैं अपने हमउम्र में सोशल बहुत बन गया था | मैंने बच्चों की एक लाइब्रेरी भी बनाई थी जिसमें चंदे से पुस्तकें और पत्रिकाएँ खरीदी जाती थीं और सदस्यों को पढ़ने के लिए दी जाती थीं |पराग, नन्दन ,चंदामामा, इंद्रजाल कामिक्स और गीताप्रेस से बच्चों की किताबें प्रमुख होती थीं | मदन,विनोद,सुशील ,आनन्द वर्धन , प्रदीप ,शशांक ,गोपाल,ओमप्रकाश,देवब्रत, ...ढेर सारे बालसखा थे |उन दिनों खुले मैदान बहुत थे और कभी बैडमिन्टन तो कभी क्रिकेट खेल चलता रहता था |हाँ,एक उद्योगपति पी.डी. मस्करा साहब के हाते में उनके लड़के प्रकाश के साथ भी हम सबने बैडमिन्टन और टेबुल टेनिस खूब खेले थे |मजे की बात यह कि शटल कार्क और नाश्ता मुफ्त मिलता था |


जवानी या कहा जाय कैशोर्य अवस्था और जवानी की वय;संधि बड़ी खतरनाक होती है | आप बन सकते हैं , बिगड़ सकते हैं , बहक सकते हैं ! अब आप यह भी जानने के लिए उत्सुक होंगे कि नाचीज़ बना ,बिगड़ा या बहका था या नहीं ?नाचीज़ बना भी , बिगड़ा भी और बहका भी था लेकिन वे बातें अगले अंक में |


(क्रमशः )


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