छोटे लाल के मन में उसके मायके को लेकर चल रही बातें सुन कर सरोज दंग थी, उसने कहा, "मेरे घर वालों ने तुम्हारे लिए इस तरह कभी सोचा ही नहीं होगा कि तुम को मान सम्मान चाहिए। वह तो जैसे पहले तुम्हें अपने घर का बच्चा समझते थे वैसे ही आज भी ..."
"रहने दो, रहने दो, इसीलिए मुझे लगता है कि मुझे यह शादी करनी ही नहीं चाहिए थी।"
सरोज ने कहा, "छोटे मैं सोच भी नहीं सकती थी कि तुम्हारे मन में बेवजह की बातों ने डेरा जमा लिया है। तुम क्यों दामाद बन कर रहना चाहते हो? तुम बेटा क्यों नहीं बन सकते? एक बार भी यदि उन्हें तुम्हारी मानसिकता का पता चल जाएगा तो वह लोग बहुत दुःखी हो जाएंगे। तुम पहले की तरह ही रहो ना?"
सरोज के इतना समझाने पर भी छोटे लाल के दिमाग़ की बत्ती ना जली। अपने मन में ज़हर भर कर धीरे-धीरे भले राम के साथ भी उसका व्यवहार बदल रहा था। जिसे भले भी महसूस कर रहा था। भले राम सोच रहा था कि दोस्ती को रिश्तेदारी में बदला था कि और भी सम्बंधों में मिठास बढ़ेगी, ठहराव रहेगा लेकिन यहाँ तो उल्टा ही हो रहा है। छोटे लाल को दौलत की चाह तो कभी रही ही नहीं लेकिन इतने मधुर सम्बंधों के बीच यह कैसी दीवार खड़ी हो गई है? आख़िर क्या हो गया है छोटे को? यह सोच भले राम को अंदर ही अंदर सता रही थी।
उधर छोटे लाल की बहन छुटकी ना जाने कब से मन ही मन भले राम को प्यार करती थी, जिसका अंदाजा भले को अब तक नहीं हुआ था। छुटकी का प्यार दिन पर दिन बढ़ता ही जा रहा था। जब भी भले उसके घर आता, वह बार-बार उसके सामने आती। इस बात पर भले ने कभी ध्यान ही नहीं दिया था लेकिन आज जब भले छुटकी के घर आकर बैठा था तब हमेशा की तरह छुटकी बार-बार वहाँ आ रही थी। आज जब वह दरवाज़े पर खड़ी होकर एक टक भले राम को निहार रही थी तब भले की नज़र भी अचानक ही उसकी आँखों से जा टकराई। वह यह देखकर हैरान था कि छुटकी लगातार उसे देखे ही जा रही थी। भले राम ने अपनी नज़रें हटा लीं किंतु कुछ देर बाद उसने फिर देखा तो अब तक भी छुटकी एक टक उसे निहारे ही जा रही थी। तब इस बार भले राम की आँखें भी वहाँ आकर अटक गईं।
आज पहली बार भले राम को इस बात का एहसास हुआ कि छुटकी की आँखें तो उसके साथ प्यार का इज़हार कर रही हैं। भले राम को भी उन पलों में सुख का ऐसा एहसास हो रहा था जो इससे पहले कभी अनुभव नहीं हुआ था। उसकी नज़रें भी हटने को तैयार नहीं थीं। वह भी उन पलों को जी रहा था। अब यह सिलसिला चल निकला। रोज़ ही आते जाते, एक दूसरे को दोनों देखा करते लेकिन दोनों में से एक भी अपनी ज़ुबान नहीं खोलता। आँखों से आँखें ही बात करती रहतीं। छुटकी सोच रही थी ऐसा कब तक चलेगा। यह भले तो कुछ कहता ही नहीं है, लगता है उसे ख़ुद ही एक और क़दम आगे बढ़ाना पड़ेगा।
तभी एक दिन भले राम आँगन में अकेला बैठा था, वहाँ और कोई भी नहीं था। छुटकी तो ऐसे ही किसी मौके की तलाश में थी और वह आज उसे मिल ही गया। उसने भले के पास आकर कहा, "भले क्या तुम नहीं जानते कि मेरे दिल में क्या है? क्या मुझे ही हर बात की पहल करनी पड़ेगी? क्या जो मैं सुनना चाहती हूँ तुम पहले नहीं बोल सकते?"
"अरे-अरे छुटकी शांत हो जाओ। मैं सब जानता हूँ पर क्या घर के लोग तैयार होंगे?"
"यह मेरी मर्जी है भले और किसी को कोई आपत्ति नहीं होगी मैं जानती हूँ पर मैं चाहती हूँ कि घर पर मैं नहीं तुम बात करो कि हम एक दूसरे से ...," कहते हुए वह शरमा गई।
"एक दूसरे से क्या छुटकी? अपना वाक्य तो पूरा करो।"
"धत ...समझदार हो तो समझ जाओ।"
"तुम वाक्य पूरा करके बताओगी तभी तो मैं पूछूँगा।"
"धत ...," कहते हुए शरमा कर छुटकी वहाँ से अंदर चली गई।
रत्ना पांडे, वडोदरा (गुजरात)
स्वरचित और मौलिक
क्रमशः