Main Galat tha - Part - 2 books and stories free download online pdf in Hindi

मैं ग़लत था - भाग - 2

अब चारों आँगन में बैठे भजिये और चाय की चुस्कियों के बीच दुकान खोलने के बारे में चर्चा कर रहे थे।

भले राम ने कहा, “बाबूजी हम शहर से अच्छी-अच्छी ऐसी चीजें लेकर आएंगे, जो हमारे गाँव वालों ने कभी भी उपयोग में नहीं लाई होंगी। नई-नई वस्तुओं के आकर्षण में लोग हमारी दुकान पर खिंचे चले आएंगे।”

छोटे ने कहा, “चाचा जी हम दोनों मिलकर बहुत ईमानदारी के साथ दुकान चलाएंगे। गाँव के लोगों के साथ कभी किसी भी तरह की बेईमानी या धोखाधड़ी नहीं करेंगे।”

केवल राम ने कहा, “तुम्हारी बातों में दम तो है, क्या बोलते हो मुन्ना लाल?”

“हाँ मुझे भी सब कुछ सही लग रहा है।”

“फिर देरी किस बात की बाबूजी हम सामान लाने का काम शुरू करें?” छोटे लाल ने पूछा।

मुन्ना ने कहा, “लेकिन पैसे …?”

तभी केवल राम ने कहा, “देख मुन्ना धंधे में हिसाब-किताब, लेन-देन में संकोच करने से रिश्ता बिगड़ कर ख़त्म हो जाता है इसलिए सब कुछ पारदर्शी होना चाहिए।”

“हाँ तुम ठीक कह रहे हो केवल।”

छोटे लाल और भले राम उनके मुँह से यह शब्द सुनकर चौंक गए और एक साथ ही उनके मुँह से निकला, “अरे आप दोनों यह कैसी बातें कर रहे हो बाबू जी और चाचा जी?” 

छोटे लाल ने कहा, “हमारे बीच कभी कोई भी धंधा या पैसा रिश्ता खराब नहीं कर सकता। हम यारों के यार हैं बस अभी एक बार आप लोग हमारी मदद कर दो। उसके बाद तो हम मेहनत करके सब संभाल लेंगे और भगवान चाहेगा तो आप दोनों को पैसा भी लौटा देंगे। मैं ठीक कह रहा हूँ ना भले?”

“हाँ बिल्कुल” 

छोटे लाल और भले राम की बातें सुनकर दोनों के बाबूजी अपने बच्चों की मदद करने के लिए ख़ुशी-ख़ुशी राज़ी हो गए। बस फिर अगले ही दिन भले और छोटे दुकान का सामान लेने गाँव से शहर की ओर निकल गए।

आज भले राम और छोटे लाल बहुत ख़ुश थे। आख़िर वे एक जिम्मेदारी से भरी अपने जीवन की नई पारी की शुरुआत करने जा रहे थे। 

देखते ही देखते हफ़्ते पंद्रह दिन में उनकी किराने की दुकान उद्घाटन के लिए तैयार हो गई। गाँव की छोटी-छोटी दुकानों के बीच मानो यह दुकान राजकुमारी की तरह लग रही थी। गाँव वाले बड़ी संख्या में दुकान देखने के लिए जुट रहे थे। बारी-बारी से वे दुकान में जाते। वहाँ का सामान देखकर गाँव के स्त्री-पुरुष लालायित हो रहे थे। एक दूसरे से उस दुकान की तारीफ़ कर रहे थे। बच्चे भी बहुत ख़ुश थे। उनके लिए भी दुकान में बहुत कुछ नया था। नई-नई चॉकलेट, बिस्किट, खिलौने वगैरह।

आज पहले ही दिन से लोगों ने जोर-शोर से खरीददारी भी शुरू कर दी। धीरे-धीरे उनकी किराने की दुकान अच्छी तरह चल निकली। बड़ी ही समझदारी और ईमानदारी से दोनों दोस्त अपनी दुकान चला रहे थे। पैसा आधा-आधा मतलब लागत भी आधी-आधी। फायदा भी बराबर और यदि घाटा हो तो वह भी आधा-आधा। साथ-साथ धंधा करने पर भी, उनकी दोस्ती पर कभी कोई आँच नहीं आई। इसी तरह जोश और ख़ुशी से दुकान चलती रही।

देखते-देखते पाँच साल गुजर गए।

एक दिन छोटे लाल ने भले राम से कहा, “भले अपनी दोस्ती को यदि हम रिश्तेदारी में बदल लें तो?”

“हाँ यार मैंने ऐसा तो कभी सोचा ही नहीं था। तू एकदम सही कह रहा है। हमारे परिवार यूँ तो साथ-साथ ही हैं लेकिन तब तो हम रिश्तेदार बन जाएंगे।”

 

रत्ना पांडे, वडोदरा (गुजरात)

स्वरचित और मौलिक

क्रमशः

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