(2)
पिछले दस बारह दिनों से प्रतिदिन आसिफ नीलम हाउस पहुँच जाता था। दिन वहीं व्यतीत करता और सन्ध्या होते ही सिपाहियों का पहरा लगा कर भाग आता । सिपाही या तो कम्पाउन्ड में टहलते रहते या नूरा के कमरे के सामने बरामदे में पड़े रहते और सवेरे जब आसिफ आया तो 'सब ठीक है श्रीमान जी' की रिपोर्ट दे देते । कभी उन्होंने इमारत के अन्दर जाने का साहस नहीं किया था ।
इसी प्रकार जब प्रन्द्रह दिनों तक यही रिपोर्ट मिलती रही कि 'सब ठीक है श्री मान जी' तो मासिक का साहस बढ़ने लगा । विभाग के दो एक नवजवान आफिसरों ने एक दिन मजाक के तौर पर पूछा ।
"चाचा ! तुम्हें कुछ नजर नहीं आया?"
"जानते नहीं—मेरे रोब से भूत भी भागते हैं-" आसिफ ने गर्दन अकड़ा कर कहा "तुम लोग अभी लौंडे हो। भूत सूत कुछ नहीं है । अकारण का आतंक फैलाना यार लोगों का मनोरञ्जंन हो गया है ।"
"मगर फरामुज जी और उसके घर वालों की लाशें ?"
“संयोग—केवल संयोग—आसिफ ने कहा " कुछ महामारी ऐसी भी होती हैं जो अत्यन्त सीमित होती हैं।"
"वया तुमने कभी नीलम हाउस में रात भी व्यतीत की है चाचा ?"
"क्यों नहीं — रोज ही इमारत के अन्दर सोता हूँ "
"वाह चाचा। अब हम लोगो का चरका दोगे - एक ने हंस कर कहा ।
"क्या मतलब कैसा चरका ?"
"परसो रात मैंने तुम्हें हाई सर्किल नाइट क्लब में देखा था। तुम मिस मुराबिया के साथ डान्स कर रहे थे।"
'बात सच थी— चोरी पकड़ी गई था इसलिये क्रोध आता निश्चित था। आसिफ के नथुने फूलने पचकने लगे। उसने आंखें निकाल कर कहा ।
"तुम लोग मेरी जासूसी करते हो— मैं खूब समझता हूँ।" "तुम लाख कहो चाचा मगर मैं नहीं मान सकता" अमर सिंह ने कहा जो अब तक मौन था "मेरा दावा है कि तुम एक रात भी नीलम हाउस में नहीं सोये ।"
"तुम्हारी ड्यूटी लगवा दूँ ?" आसिफ ने गुर्रा कर कहा ।
"मैं इतना बहादुर नहीं हूँ चाचा-" अमर सिंह ने कहा "और मैं ही क्या हमारे पूरे विभाग में एक आदमी को छोड़ कर कोई दूसरा इतना बहादुर नहीं है कि नीलम हाउस में एक ही रात व्यतीत कर सके ।"
"कौन है वह आदमी ?" आसिफ फिर गुर्राया ।
"क्या करोगे पूछ कर चावा—तुम्हें तकलीफ होगी।"
"मेरी तक्लीफ की चिन्ता न करो और बताओ कि वह सूरमा कौन है ?"
"कर्नल विनोद !" अमर सिंह ने कहा ।
"बकवास है –” आसिफ ने झल्ला कर कहा, फिर स्वाभाविक स्वर में बोला, "मैंसे सचमुच कई रातें नीलम हाउस में व्यतीत की।
"इसका कोई प्रमाण भी हैं चाचा ?" दूसरे ऑफिसर ने पूछा ।
"मैं तुम लोगों को जवाब दह नहीं हूँ समझे-" आसिफ ने गरज कर कहा “प्रमाण एस० पी० साहेब को दूगा ।"
"अगर तुम एक बात करो बाबा तो हमें तुम्हारी बातों पर विश्वास हो जायेगा।
"वह क्या ?" आसिफ भटके में पूछ बैठा । 'हम लोग सिपाहियों के साथ कम्पाउन्ड में टहलते रहेंगे और आप कोठी के अन्दर अकेले रहेंगे।"
"अकेले नहीं भाई" उन्होंने कहा "अमर सिंह को भी चाचा
के साथ रहना पड़ेगा ।"
"क्यों --अमर सिंह को क्यों रहना पड़ेगा ?" अमर सिंह ही ने पूछा !
"चाचा जी की लाश को कोठी से बाहर कौन लायेगा?" यह वाक्य इतने मन्द स्वर में कहा गया था कि आसिफ सुन नहीं सका था— मगर जब उसने तमाम लोगों को हंसते देखा तो वह समझ कर भड़क उठा कि अवश्य उसकी खिल्ली उड़ाई गई है इसलिये झल्ला कर बोला ।
"चलो - हिम्मत हो तो मेरे साथ चलो-" बात समाप्त करके वह उठा और पांव पटकता हुआ बाहर निकल गया । वास्तव में उसने यह सोचा था कि अगर यह सब इसी प्रकार पीछे पड़े रहे तो यह भी सम्भव है कि बात एस० पी० साहब तक पहुँच जाये और वह अचानक दौरे पर निकल पड़े और उसे नीलम हाउस में न पा कर हत्थे से उखड़ जायें इसलिये अच्छा यही है कि इन सभी की शर्त मान ली जाये । अमर सिंह तो साथ रहेगा ही—दो एक सिपाही भी अन्दर बुला लिये जायेंगे।
दूसरी ओर उन नवजवान ओफिसरों का प्लान यह था कि इसी बहाने वह नीलम हाउस के सम्बन्ध में प्रसिद्ध और रहस्य पूर्ण घटनाओं की असलियत जान सकेंगे। जहाँ तक जिज्ञासा का प्रश्न था तो केवल: यही नही बल्कि पूरा शहर इस जिज्ञासा का शिकार था। हर आदमी असलियत जानना चाहताथा मगर साथ ही साथ कोई खतरा मोल लेने के लिये तैयार नहीं था ।
सारांश यह कि आसिफ के बाहर निकलने पर नवजवान आफिसरों ने आपस में बातें की और प्रोग्राम बना लिया ।
'कर्नल साहब के बारे में कुछ मालूम हुआ ?"
"आज आ रहे हैं-"
"हमीद भी उनके साथ होगा ?"
"होना तो चाहिये -"
"यह कुछ नहीं मालूम हो सका कि कहाँ गये हैं?"
"नहीं-मगर जहां भी गये होंगे किसी महत्व पूर्ण कार्य के ही सम्बन्ध में गये होगे -!"
"कर्नल भी विचित्र आदमी हैं। उनके शब्द कोश में अवकाश और आराम जैसे शब्द हैं ही नहीं।"
"हो सकता है इस बार तफरीह करने के मूड में आ ही गये हों । आखिर कोई कब तक और कितना काम कर सकता है-"
"मेरी सुनो दोस्तो !" अमर सिंह ने गम्भीर स्वर में कहा "यह तो मैं नहीं जानता कि वह किस काम के लिये गये हैं मगर इतना अवश्य जानता हूँ कि यह लन्दन गये हैं। वहां से न्यूयार्क जायेंगे और वहीं से हिन्दुस्तान के लिये वापस हो जायेंगे । जाने से पहले वह डी० आई० जी० साहब के कमरे में गये थे और जब कमरे से निकले थे तो उनके चेहरे पर गहरी वित्ता की छाप थी । मुझ पर नजर पड़ते ही वह मेरी ओर बढ़े थे और निकट पहुँच कर मेरी पीठ थपथपाते हुये कहा या कि "अमर सिंह अपने कान भी खुले रखना और अपनी आंखें' भी।"
"उनकी बातें वही जानें अब सन्ध्या का प्रोग्राम बन जाना चाहिये ।”
शीघ्र ही यह तो हो गया कि सब लोग चलेंगे । वासिफ के साथ पूरे -नीलम हाउस का अन्दर से निरीक्षण किया जायेगा — फिर सुरेश और वर्मा नूरा के क्वार्टर में चले जायेंगे। अमर सिंह आसिफ के साथ इमारत के अन्दर ही रह जायेंगे और शेष लोग कम्पाउन्ड का चक्कर लगाते रहेंगे ।
इसी प्रोग्राम के अन्तगर्त सन्ध्या होते ही नवजवान आफिसरों की यह टोली नीलम हाउस पहुँच गई, इन्स्पेक्टर आसिफ कम्पाड ही में मौजूद था और अच्छे मूड में नजर आ रहा था। इन लोगों को देखते ही बोला । "तो लोग आ ही गये तुम।
"भला चाचा की आज्ञा कैसे टाली जा सकती थी" सादिक ने हंस कर कहा ।
"ठीक कहते हो भतीजे- आसिफ ने कहा, फिर मुस्कुरा कर बोला " मगर एक बात अभी से सुन लो वह यह कि सर्वेन्ट क्वार्टर्स की ओर तुम में से कोई भी नहीं जायेगा।"
"यह प्रतिबन्ध क्यों चाचा -?" वर्मा ने पूछा ।
"इसलिये कि मि नूरा सुन्दर भी है और अभी उसकी बायु भी तीस साल पूरी नहीं हुई है-"
"तब तो एक क्या कई राते इस कम्पान्ड में व्यतीत की जा सकती हैं-" वर्मा ने धीरे से कहा, फिर जरा ऊँची आवाज में बोला "क्या मिस नूरा कोठी के अन्दर सोने के लिये तैयार हैं?"
"हाँ अब भी तैयार हैं और पहले भी तैयार थीं-" आसिफ ने कहा।
"तो फिर कोठी ही में क्यों नहीं सोतीं?"
"मैंने ही मना कर दिया था और अभी तक मैंने उससे कोई जिरह नहीं की है बस उस पर नजर रखे हुये हूँ ।"
"अगर तुम आज्ञा दो चाचा तो हम लोग उससे जिरह करें ?" वर्मा ने मुस्कुरा कर कहा ।
'नहीं-नहीं" आसिफ ने झटकेदार आवाज में कहा, "इसकी
आज्ञा नहीं दी जा सकती । तुम लोग सब चौपट करके रख दोंगे-"
सुरेश ने वर्मा की ओर देख कर आंख दबाई और सब लोग हंस पड़े । आसिफ ने उन्हें घूर कर देखा और उन लोगों ने इधर उधर सरक जाने ही में कुशल समझा ।
मित्र नूरा के कमरे में रोशनी थी मगर दरवाजा बाहर से बन्द था । दरवाजे के पास पास ही बरामदे में सिपाही इधर उधर बैठे हुये थे। अमर सिंह ने जैसे हो दरवाजे पर आवाज देनी चाही एक सिपाही ने कहा।
"प्रेम साहिब पूजा कर रही हैं हजुर- "
"पूजा ?" अमर सिंह ने सिपाही को पूरा फिर बोला, "प्रेयर ?"
'जो समझ लीजिये श्रीमान जी । उन्होंने कहा था कि दो घन्टे उन्हें डिस्टर्ब न किया जाये ।" अमर सिंह ने कुछ नहीं कहा और आगे बढ़कर दरवाजे से कान लगा दिये । बन्दर से बहुत ही मन्द मगर संगीत मय आवाज उभर रही थी। "ओ लाई आल ग्लोरी टू यू--वी सिन्ड ऐन्ड विल यू फारमिंग।
अमर सिंह दरवाजे के पास से हट आया। उसके साथी आसिफ साथ नीलम हाउस के अन्दर चले गये थे। वह भी लपकता हुआ अन्द पहुँच गया । आसिफ उन्हें इमारत का एक एक भाग दिखा रह था।
कोठी को अन्दर से देख कर यह सोचा भी नहीं जा सकता था। इसमें किसी प्रकार का उत्पात होता होगा या इसे भूत ग्रस्त इमारत समझा जा सकता है और यह लगता ही नहीं था कि यह कोठी वीरान है या इसमें कोई रहता ही नहीं। हर कमरे में ढंग से बिस्तर लगे हुये थे । बाल्मारियों में शीशे के अन्दर से झाँकती हुई कराकरी और कटल डाइनिग हाल का दृश्य प्रस्तुत कर रही थीं। न कहीं घुल न कहीं किसी प्रकार की गन्दगी और न कोई ऐसा लक्षण जिस से मन में भय की भावन उत्पन्न हो ।
"देखा तुम लोगों ने " आसिफ कह रहा था "लोगों ने आकार ही बात का बतंगड़ बना दिया है।"
"वह कमरा कौन सा है जहां सारी दुर्घटनायें हुई थीं ?" सादिक ने उत्सुक्ता के साथ पूछा।
"मैंने उसे बन्द करा दिया हैं वैसा देखना चाहते हो तो देख लो- आसिफ ने कहा और एक सिपाही से कुंजी लेकर उस कमरे का ताला खोल दिया।
कमरा काफी बढ़ा था। देखने में हाल मालूम हो रहा था, मगर अन्दर की सारी रोशनियों भी जल रही थीं। अमर चौक पड़ा था। को दृष्टि से आसिफ की और देखा, फिर बोली,
"यह कमरा बन्द था।"
"हाँ...हाँ तुम्हारे सामने ही तो मैंने ताला खोला है-"
"और इसकी कुंजी भी आप ही के पास थी क्यों?"
"हां भाई, आसिफ ने कहा
"तुम कहना क्या चाहते हो ?"
अमर सिंह ने कोई उत्तर देने के बजाय उसी से पूछा जिसने कुंजी लेकर ताला खोला था।
"तुमने यह कमरा खोला था?"
"जी नहीं यह तो कई दिन से बन्द है ।" सिपाही ने कहा । "क्यों चाचा !" अमर सिंह ने आसिफ की ओर मुड़ कर कहा 'फिर इस कमरे में बिजली कैसे जल रही है ?"
आसिफ की खोपड़ी एक दम से कला बाजी खा गई, फिर उसने भेद मिटाते हुये कहा ।
"मेरे विचार से कोई ऐसा सिस्टम होगा कि एक ही स्वीच आन करने से पूरी इमारत की बिजलियां जल उठती होंगी।"
"ऐसा कोई सिस्टम नहीं है चाचा। "अमर सिंह ने कहा और कमरे में दाखिल हो गया। उसके साथियों ने उसे भय प्रद दृष्टि से देखा था । खुद आसिक भी बोखला गया था। यह सब लोग दरवाजे के बाहर खड़े थे ।
अमर सिंह ने अन्दर पहुँचते ही स्वीच बोर्ड की ओर देखा और फिर उसने बारी बारी एक एक स्वीच आफ करना आरम्भ कर दिया था। अन्तिम स्वीच आफ करते ही कमरे में गहरा अन्धेरा छा गया, फिर उसने जोर से कहा,
"चाचा..." और बातें तो बाद में देखियेगा - फिलहाल इस पर विचार कीजिये कि जब यह कमरा बन्द रहता है तो फिर इसमें लगे हुये बल्ब क्यों जलते हैं? और यह तो आपने देख ही लिया है कि मैंने तमाम स्वीच आफ करके बल्ब बुझाये हैं—यह इस बात का प्रमाण हैं कि यहाँ ऐसा कोई सिस्टम नहीं है हि एक हो स्वीच आन करने से पूरी इमारत के बल्ब जल उठें और अब मैं फिर रोशनी करने जा रहा हूं-"
बात समाप्त करके अमर सिंह ने बारी बारी सारे स्वीच आन करके रोशनी कर दी और बाहर निकल जाया और आसिफ को प्रश्नात्मक दृष्टि से देखने लगा ।
“उस और मेरा ध्यान नहीं गया था-" आसिफ ने कहा। "कमरा खुला होता तब न ध्यान जाता..." सुरेश ने व्यंग भरे स्वर में कहा "पर विचार तो यह है चाचा कि आपने किसी भी दिन यह कमरा खुलवाया ही नहीं ।"