Kalvachi-Pretni Rahashy - 54 books and stories free download online pdf in Hindi

कलवाची--प्रेतनी रहस्य - (५४)

मदिरापान करते करते सारन्ध अचेत सा होने लगा तो कालवाची ने सोचा कि अब क्या करूँ,इसे ऐसी अवस्था में यहीं छोड़कर चली जाऊँ या इसकी हत्या कर दूँ,किन्तु इसकी हत्या करने का विचार तो मुझे किसी ने नहीं दिया तो मैं भला इसकी हत्या कैसें कर दूँ,यदि मैनें किसी से बिना परामर्श के इसकी हत्या कर दी तो कहीं कुछ अनुचित ना हो जाएं,इसलिए अभी मैं इसकी हत्या का विचार त्याग देती हूँ,सबके विचार पर ही मैं इसे कोई दण्ड दे सकती हूँ और यही सब सोचकर सारन्ध के अचेत हो जाने पर कर्बला बनी कालवाची अपने कक्ष में लौट आई......
प्रातःकाल जब उसकी भेंट अचलराज और वत्सला से हुई तो उसने रात्रि की घटना का सारा विवरण उन दोनों को दे दिया,तब अचलराज बोला....
"तुमने ठीक किया कालवाची! जो सारन्ध की हत्या नहीं की,जब तक हम सभी आपस में विचार विमर्श ना कर लें तो ऐसा करना अनुचित होगा,
"हाँ! कालवाची! तुमने सही निर्णय लिया",वत्सला बोली....
"तो अब आगें क्या करना है?",कर्बला बनी कालवाची ने पूछा....
"अब हमें महाराज कुशाग्रसेन को बंदीगृह से मुक्त कराना होगा,यदि वें मुक्त हो जाऐगें तो हमारा कार्य अत्यन्त सरल हो जाएगा",अचलराज बोला....
"किन्तु! अभी ये कार्य करना उचित नहीं है,जब सभी वैद्यराज धरणीधर के यहाँ से वापस लौट आऐगें एवं उन सभी के साथ परामर्श के पश्चात ही हम इस कार्य को परिणाम तक पहुँचा सकते हैं"कालवाची बोली...
"मैं भी कालवाची की बात से सहमत हूँ",वत्सला बोली...
"तो अभी हम केवल गिरिराज और सारन्ध को अपने अपने वश में करेगें",वैशाली बना अचलराज बोला....
और यूँ ही तीनों के मध्य वार्तालाप चलता रहा,वार्तालाप के पश्चात तीनों अपने अपने कक्ष की ओर चलीं गईं और इधर वैद्यराज धरणीधर के औषधालय में सभी ये प्रयास करने लगे कि कैसें भी करके उन सभी की धंसिका से बात हो जाए परन्तु धंसिका औषधालय में किसी से भी बात नहीं करती थी एवं ये बात उन सभी के लिए अद्भुत थी,किन्तु इस कार्य में त्रिलोचना को सफलता मिल गई,हुआ यूँ कि एक दिवस धंसिका अपनी पूजा अर्चना हेतु पुष्प इकट्ठे करने गई थी और तभी वहाँ एक विषैला सर्प आ पहुँचा, त्रिलोचना भी धंसिका के पीछे पीछे गईं थी कि कैसे भी करके उसकी बात धंसिका से हो जाएं और तभी त्रिलोचना ने धंसिका के पैरों के पास उस विषैले सर्प को देखा और चीख पड़ी....
"माता! उधर से हटिए,वहाँ विषैला सर्प है",
किन्तु त्रिलोचना के चिल्लाने पर भी धंसिका उस स्थान से नहीं हटी तो त्रिलोचना ने पुनः एक बार धंसिका से हट जाने को कहा,किन्तु इस बार भी धंसिका अपने स्थान से नहीं हटी और पौधों से ध्यानमग्न होकर पुष्प चुनती रही और जब धंसिका वहाँ से नहीं हटी तो विवश होकर त्रिलोचना धंसिका के समीप भागकर पहुँची और तीव्रता से उस सर्प को अपने हाथ में उठाकर दूर फेंक दिया,ऐसा करते हुए धंसिका ने उसे देखा तो भयभीत हो उठी परन्तु बोली कुछ नहीं,अब धंसिका के ऐसे व्यवहार से त्रिलोचना क्रोधित होकर बोली....
"आपको सुनाई नहीं देता,सर्प आपको डस लेता तो क्या होता?",
तब धंसिका ने अपनी सांकेतिक भाषा में त्रिलोचना को संकेत किया कि वो सुन और बोल नहीं सकती,तुम क्या कह रही हो ये मुझे समझ नहीं आ रहा,धंसिका के ऐसा करने पर त्रिलोचना की आँखों में अश्रु आ गए और वो धंसिका के गले से लग गई,त्रिलोचना जैसे ही धंसिका के गले से लगी तो धंसिका उसके सिर पर अपना हाथ फेरने लगी और सांकेतिक भाषा में पूछा....
"क्या हुआ ? तुम रो क्यों रही हो"
तब त्रिलोचना ने भी धंसिका से सांकेतिक भाषा में कहा कि.....
"यहाँ विषधर था,यदि वो आपको डस लेता तो क्या होता"?
त्रिलोचना की बात पर धंसिका मुस्कुराई और सांकेतिक भाषा में बोली....
"सर्प डस लेता तो स्वर्ग सिधार जाती,यहाँ मेरा कौन है जिसे मेरी मृत्यु पर दुख होगा",
तब त्रिलोचना धंसिका से सांकेतिक भाषा में बोली....
"ऐसा ना कहें माता! आज से आप मुझे अपनी पुत्री समझें",
ये जानकर धंसिका अति प्रसन्न हुई और उसने प्रसन्नतापूर्वक त्रिलोचना को अपने गले से लगा लिया, इसके पश्चात त्रिलोचना धंसिका के संग ही औषधालय पहुँची और वैद्यराज धरणीधर से बोली....
"आप इन्हें पुष्प चुनने अकेली मत भेजा करें,वो तो मैं समय पर वहाँ पहुँच गई नहीं तो विषैला सर्प इन्हें डस लेता",
"ओह...मैं इसे बहुत मना करता हूँ,परन्तु ये मेरी बात सुनती ही नहीं",वैद्यराज धरणीधर बोले....
"क्या ये सदैव से बोल और सुन नहीं सकतीं"?,त्रिलोचना ने वैद्यराज धरणीधर से पूछा....
"नहीं! पुत्री! ये सदैव से ऐसी नहीं थी,ये तो अत्यधिक मधुर गीत गाया करती थी,किन्तु इसके जीवन में कुछ ऐसा हुआ जिससे इसकी ऐसी दशा हो गई",वैद्यराज धरणीधर बोले...
"क्या हुआ था इनके साथ"?,त्रिलोचना ने पूछा....
"इसकी ये दशा इसके पति के कारण हुई है",वैद्यराज धरणीधर बोलें....
"ऐसा क्या किया इनके पति ने कि इनकी दशा ऐसी हो गई"?,त्रिलोचना ने पूछा.....
वैद्यराज धरणीधर इसका कारण बताने ही जा रहे थे कि तभी एक व्यक्ति उनके पास आकर बोला....
"वैद्यराज! एकाएक मेरी माता का स्वास्थ्य गिरता ही चला जा रहा है,तनिक उन्हें देख लीजिए की क्या कारण है"?
और अपना बात पूरी किए बिना ही वैद्यराज धरणीधर उस व्यक्ति की रोगिणी माता को देखने चले गए और त्रिलोचना धंसिका के ना बोलने और ना सुनने का कारण नहीं जान पाई एवं निराश हो उठी तो धंसिका ने अपनी सांकेतिक भाषा में त्रिलोचना के निराश होने का कारण पूछा तो त्रिलोचना ने भी ना के उत्तर में अपना सिर हिला दिया,तब धंसिका ने त्रिलोचना की दोनों हथेलियाँ अपने हाथों में लेकर कहा.....
"पुत्री! यूँ उदास नहीं होते,सदैव प्रसन्न रहा करो",
और धंसिका की इस बात पर त्रिलोचना मुस्कुराकर सांकेतिक भाषा में बोली....
"माता! मैं उदास नहीं हूँ,आप मेरी चिन्ता ना करें",
धंसिका ने त्रिलोचना के कपोल पर अपनी हथेली फिराई और सांकेतिक भाषा में बोली....
"तो अब मैं जाऊँ! मेरी पूजा अर्चना का समय हो गया है",
"हाँ! माता आप जा सकतीं हैं",त्रिलोचना ने उनसे सांकेतिक भाषा में कहा....
धंसिका औषधालय से अपनी पूजा अर्चना करने चली गई तो त्रिलोचना उन सभी के पास पहुँची और उसने सभी के समक्ष सारी घटना का विवरण दे दिया,अब त्रिलोचना की बात सुनकर सभी चिन्ता में डूब गए कि धंसिका के ना बोल और ना सुन सकने का भला क्या कारण हो सकता है,ऐसा क्या किया था गिरिराज ने धंसिका के साथ कि उसकी ऐसी दशा हो गई...

क्रमशः....
सरोज वर्मा.....

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