सभी धंसिका को लेकर चिन्तित थे किन्तु त्रिलोचना को धंसिका की अत्यधिक चिन्ता हो रही थी,वो जब रात्रि को विश्राम करने हेतु अपने बिछौने पर लेटी तो,वो समझ नहीं पा रही थी कि धंसिका का ममता भरा स्पर्श उसे इतना प्रिय क्यों लगा? क्या कारण है कि उसके मन में धंसिका के लिए प्रेम की भावना उत्पन्न हो गई है,उसके समक्ष धंसिका एक जटिल प्रहेलिका की भाँति खड़ी थी जिसे वो सुलझा नहीं पा रही थी और उसने अपने मन में उठ रहे अन्तर्द्वन्द्व को अपने भ्राता भूतेश्वर से साँझा करना चाहा,इसलिए वो अपने बिछौने से उठकर भूतेश्वर के पास पहुँची और उसने उससे अपने मन के भावों को प्रकट किया,
भूतेश्वर ने भी त्रिलोचना के मन के भावों को भलीभाँति समझने का प्रयास किया और इस निष्कर्ष पर पहुँचा और उससे बोला...
" हम दोनों को पुनः वैद्यराज धरणीधर के पास जाना होगा,जो बात उन्होंने अधूरी छोड़ दी थी,उसे पूरी जाने बिना हम धंसिका के विषय में कुछ नहीं कह सकते और मुझे ये कारण भी समझ में नहीं आ रहा कि तुम्हारे मन में उसके प्रति प्रेमभाव क्यों उत्पन्न हो गया है,अभी तो अत्यधिक रात्रि हो चुकी है,हमें धंसिका के विषय में पूरी बात जानने के लिए प्रातःकाल तक प्रतीक्षा करनी होगी"
"किन्तु भ्राता! भूतेश्वर! मुझे ये समझ में नहीं आ रहा है कि मेरे मन में एकाएक उनके लिए प्रेम का भाव क्यों उमड़ आया है,ऐसा प्रतीत होता है कि मैं उन्हें पहले से जानती हूँ,जब मैं उनके गले लगी तो ना चाहते हुए भी मेरी आँखें अश्रुपूरित हो गईं",
"इसका कारण तो मैं भी नहीं जानता",भूतेश्वर बोला...
"देखिए भ्राता! आप भी मेरे कारण चिन्ता में पड़ गए",त्रिलोचना बोली...
"ऐसी कोई बात नहीं है त्रिलोचना! मैं चिन्तित नहीं हूँ",भूतेश्वर बोला....
"तो ठीक है आप विश्राम कीजिए,मैं भैरवी और माता कुमुदिनी के पास विश्राम करने जा रही हूँ"
और ऐसा कहकर त्रिलोचना भूतेश्वर के पास से चली गई एवं त्रिलोचना के जाते ही भूतेश्वर मन ही मन कुछ सोचने लगा,वो मन में सोच रहा था कि जो बात वो त्रिलोचना से इतने वर्षों तक छुपाता चला आ रहा था,अन्त में वो बात त्रिलोचना के समक्ष आ ही गईं,मैं उसे कैसें सच बताऊँ,यदि मैं उसे सच बता देता हूँ तो कहीं वो मुझे अन्यथा ना ले ले,सच जानकर ना जाने उसे कितनी पीड़ा होगी और यदि सच जानने के पश्चात वो मुझसे घृणा करने लगी तो तब क्या होगा?,किन्तु कभी ना कभी तो उसे सच्चाई से अभिमुख तो होना ही था,भला मैं कब तक इस रहस्य को अपने हृदय में छुपाकर रख सकता हूँ,ये ही अच्छा हो कि उसे सच ज्ञात हो ही जाए,मैं भी इस भार से शीघ्रता से मुक्ति पा जाऊँगा और यही सोचते सोचते भूतेश्वर को कब निंद्रा ने घेर लिया उसे पता ही नहीं चला....
भोर हुई तो त्रिलोचना चिन्तित सी अपने बिछौने से उठी और वैद्यराज धरणीधर के आने की प्रतीक्षा करने लगी,क्योंकि वें इसी समय नदी पर स्नान करने जाते थे,इसके पश्चात वें पूजा अर्चना करके,स्वल्पाहार ग्रहण करके अपने औषधालय की ओर प्रस्थान करते थे....
कुछ समय पश्चात वैद्यराज धरणीधर स्नान करके नदी से वापस लौटे तो त्रिलोचना ने उनके समक्ष जाकर उन्हें प्रणाम करते हुए कहा....
"प्रणाम! वैद्यराज"!
"प्रणाम पुत्री! सदैव प्रसन्न रहो",वैद्यराज धरणीधर त्रिलोचना को आशीर्वाद देते हुए बोलें....
तब त्रिलोचना ने साहस करके वैद्यराज धरणीधर से कहा...
"वैद्यराज! कल आप माता धंसिका के विषय में कुछ बता रहे थे किन्त बात मध्य में ही अधूरी रह गई थी ,पूरी ही नहीं हो पाई थी,मैं उनके विषय में जानना चाहती हूँ कि उनकी ऐसी दशा किस प्रकार हुई"?
"पुत्री! अभी मेरे पास समय नहीं है,मुझे पूजास्थल जाना है,इसके पश्चात मैं स्वल्पाहार करके औषधालय जाऊँगा,तुम ऐसा करो,जब मैं दोपहर के समय भोजन करने हेतु अपनी कुटिया में जाऊँगा,तब तुम वहाँ आ जाना,तब मैं तुम्हें सारी बात बता दूँगा",
और ऐसा कहकर वैद्यराज धरणीधर वहाँ से चले गए और इधर त्रिलोचना की चिन्ता और अधिक बढ़ गई,उस मन में सोचा कि अब दोपहर तक का समय कैसें बीतेगा,किन्तु उसने तब भी स्वयं को धीरज बधाया और स्नानादि करने के पश्चात,उसने भैरवी को स्वल्पाहार खिलाया तथा उसे औषधियांँ खिलाईं,वो अपने भ्राता भूतेश्वर को भी खोज रही थी किन्तु वो उसे नहीं दिखा,कदाचित भूतेश्वर त्रिलोचना के समक्ष आना ही नहीं चाहता था इसलिए वो औषधालय से कहीं और चला गया था,उसने सोचा कि जब त्रिलोचना को सच ज्ञात हो जाएगा,तभी वो उसके पास आएगा,जब त्रिलोचना को अपने भ्राता भूतेश्वर कहीं नहीं दिखे तो वो इसके पश्चात कौत्रेय के पास आकर बैठ गई तब कौत्रेय ने उससे पूछा....
"क्या हुआ त्रिलोचना? तुम इतनी चिन्तित क्यों दिखाई दे रही हो"?
"नहीं! ऐसी कोई बात नहीं है",त्रिलोचना बोली....
"अब तुम मुझ से अपनी चिन्ता छुपाने का कोई भी प्रयास कर लो,किन्तु तुम्हारा निराश मुँख सारी कहानी कह रहा है",कौत्रेय बोला...
"हाँ! मैं चिन्तित तो हूँ,इसलिए तो तुम्हारे पास आई थी",त्रिलोचना बोली....
"तो कहो कि तुम्हारी चिन्ता का क्या कारण है त्रिलोचना"?,कौत्रेय ने पूछा....
"मैं तुमसे कैसें कहूँ?,यही तो नहीं समझ पा रही",त्रिलोचना बोली...
"तुम मुझसे प्रेम करती हो तो अपनी चिन्ता भी मुझसे निश्चिन्त होकर साँझा कर सकती हो त्रिलोचना! भविष्य में हम जीवनसाथी बनेगें तो ये प्रकृति हम दोनों को अपने भीतर विकसित कर लेनी चाहिए कि हम निश्चिन्त होकर अपनी अपनी चिन्ताएँ एक दूसरे से साँझा कर सकें",कौत्रेय बोला....
"मुझे तुमसे ऐसे ही उत्तर की आशा थी कौत्रेय!",त्रिलोचना बोली....
"तो शीघ्रता से अपने मन का भार हल्का कर लो और मुझसे अपनी चिन्ता कह डालो त्रिलोचना!",कौत्रेय बोला....
और कौत्रेय के भावन वाक्यों से प्रभावित होकर त्रिलोचना ने अपने मन के भार को मुक्त करते हुए कौत्रेय से सब कह दिया,तब कौत्रेय बोला....
"ओह...तो ऐसी बात है,चलो मैं भी तुम्हारे संग वैद्यराज के पास चलूँगा,मुझे तुमने अपने हृदय और जीवन में स्थान दिया है,इसलिए इतना तो मैं तुम्हारे लिए कर ही सकता हूँ",
कौत्रेय की इस बात पर त्रिलोचना तनिक लजाई और मुस्कुराते हुए बोली....
"धन्यवाद कौत्रेय! मेरे मन की बात समझने हेतु",
"धन्यवाद कैसा प्रिऐ! ये तो मेरा कर्तव्य है",कौत्रेय बोला....
एवं दोनों यूँ ही वार्तालाप करते रहे,किन्तु उस समय तक भूतेश्वर तब भी त्रिलोचना के पास ना लौटा था,इस मध्य त्रिलोचना ने दोपहर का भोजन पकाया और सभी को खिलाकर वो कौत्रेय के संग औषधालय में ये देखने पहुँची कि वैद्यराज दोपहर के भोजन हेतु अपनी कुटिया में पहुँचे या नहीं, तो दोनों ने देखा कि वैद्यराज कुटिया की ओर प्रस्थान कर चुके थे,इसलिए वें दोनों भी उनकी कुटिया में पहुँचे और उन्होंने देखा कि वैद्यराज अभी भोजन कर रहे हैं,इसलिए दोनों वहीं बैठकर उनके भोजन से उठने की प्रतीक्षा करने लगे,कुछ समय पश्चात वैद्यराज भोजन करके उठे और उन दोनों के पास आकर बोलें....
" चलो मैं तुम्हें आज धंसिका के विषय में सब बताता हूँ",
और ऐसा कहकर उन्होंने धंसिका के विषय में कहना प्रारम्भ किया....
क्रमशः....
सरोज वर्मा....